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१. कायात्सग प्रकरण : २१
१३. खलीन-रजोहरण को आगे कर खड़े होना। १४. वायस-कौवे की भांति दृष्टि को इधर-उधर घुमाना। १५. कपित्थ-जू के भय से कपित्थ की भांति गोलाकार में जंघाओं
के बीच कपड़ा रखकर खड़े होना। १६. शीश प्रकंपन-यक्षाविष्ट व्यक्ति की भांति सिर को धुनते हुए
कायोत्सर्ग करना। १७. मूक-प्रवृत्ति के निवारण के लिए कायोत्सर्ग में 'हूं हूं' ऐसे शब्द
करना। १८. अंगुलि आलापकों को गिनने के लिए अंगुलियों को चालित
करना। १९. भू-भौंहों को नचाना। २०. वारुणी-कायोत्सर्ग में मदिरा की भांति बुदबुदाना। २१. प्रेक्षा-बंदर की भांति होठों को चालित करना।
साधक उपरोक्त दोषों का वर्जन करे। वह चौलपट्ट को नाभि के नीचे बांधे और दोनों हाथों को घटनों तक लंबा कर रखे। कायोत्सर्ग को नमस्कारमंत्र पूर्वक पारित कर स्तुति (नमोत्थुणं स्तोत्र) का उच्चारण करे।
७६. वासीचंदणकप्पो जो मरणे जीविए य समसण्णो।
देहे य अपडिबद्धो काउस्सग्गो हवइ तस्स॥
जो मुनि बी से काटने वाले या चंदन का लेप करने वाले पर समता रखता है, जीवन और मरण में समवृत्ति होता है तथा देह के प्रति अनासक्त होता है उसी के कायोत्सर्ग होता है।
७७. तिविहाणुवसग्गाणं दिव्वाणं माणुसाण तिरियाणं।
सम्ममहियासणाए काउस्सग्गो हवइ सुद्धो॥
देव, मनुष्य और तिर्यंच संबंधी उपसर्गों को जो समभाव से सहन करता है, उसके विशुद्ध कायोत्सर्ग होता है।
७८. इहलोगंमि सुभद्दा राया उदिओअ सिट्ठिभज्जा य।
सोदासखग्गथंभण सिद्धी सग्गो य परलोए॥
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