________________
२० : जन याग क सात ग्रथ
मुनि पंजों के बीच चार अंगुल का अन्तर रखकर, दाएं हाथ में मुखवस्त्रिका और बाएं हाथ में रजोहरण धारण कर, शरीर की प्रवृत्ति का विसर्जन और परिकर्म का त्याग कर कायोत्सर्ग करे।
७४. घोडग लयाइ खंभे कुड्डे माले य सवरि बहु नियले।
लंबुत्तर थण उद्धो संजय खलि (पोय) वायसकवितु॥ सीसुक्कंपिय सूई (मूअ) अंगुलिभमुहा य वारुणी पेहा। नाहीकरयलकुप्पर उस्सारिय पारियंमि थुई।
(युग्मम्) कायोत्सर्ग के ये इक्कीस दोष हैं१. घोटक-अश्व की भांति पैरों को विषम स्थिति में रखना। २. लता-हवा से प्रेरित लता की तरह प्रकंपित होना। ३. स्तंभ-खंभे का सहारा लेकर खड़ा होना। ४. कुड्य-भीत का सहारा लेकर खड़ा होना। ५. माल-ऊपर की छत से सिर को सटाकर खड़ा होना। ६. शबरी-नग्न भीलनी जिस प्रकार अपने गुह्य प्रदेश को हाथों
से ढंककर खड़ी होती है, वैसे अपने गुह्य प्रदेश को ढंककर
खड़ा होना। ७. बहू-कुलवधू की तरह सिर को नमाकर खड़ा रहना। ८. निगड़-पैरों को सटाकर या चौड़ा कर खड़ा होना। ९. लम्बोत्तर-चोलपट्ट को नाभि के ऊपर बांधकर नीचे उसे घुटनों
तक रखना। १०. स्तन-दंश-मशक से बचने के लिए अथवा अज्ञान से चोलपट्ट
को स्तनों तक बांधकर खड़ा होना। ११. उद्धि-एड़ियों को सटाकर, पंजों को फैलाकर खड़े होना। यह
बाह्य उद्धिका है। दोनों पैरों के अंगठों को सटाकर, एडियों
को फैलाकर खड़े होना, यह आभ्यन्तरिक उद्धिका है। १२. संयती-सूत के कपड़े या कंबल से शरीर को साध्वी की भांति
ढंककर खड़े होना।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org