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१३८ : जैन योग के सात ग्रंथ
७८. व्यापारः सर्वशास्त्राणां, दिक्प्रदर्शनमेव हि।
पारं तु प्रापयत्येकोऽनुभवो भववारिधेः॥
सभी शास्त्रों की प्रवृत्ति दिशा दिखाना मात्र है। केवल एक अनुभव ही संसार-समुद्र से पार लगा सकता है। ७९. अतीन्द्रियं परं ब्रह्म, विशुद्धानुभवं विना।
शास्त्रयुक्तिशतेनापि, न गम्यं यद् बुधा जगुः॥ ___ ज्ञानियों ने कहा है कि परम ब्रह्म-आत्मा अतीन्द्रिय है। वह विशुद्ध अनुभव के बिना शास्त्रों की सैकड़ों युक्तियों से भी नहीं जाना जा सकता। ८०. ज्ञायेरन् हेतुवादेन, पदार्था यद्यतीन्द्रियाः।
कालेनैतावता प्राज्ञैः, कृतः स्यात् तेषु निश्चयः॥
यदि हेतुवाद से अतीन्द्रिय पदार्थ जान लिए जाते तो पंडित लोग इतने समय में उनका निश्चय कर लेते।
८१. केषां न कल्पनादर्वी, शास्त्रक्षीरान्नगाहिनी।
विरलास्तद्रसास्वादविदोऽनुभवजिह्वया ॥ किनकी कल्पना-दर्वी शास्त्ररूपी क्षीरान्न में प्रवेश नहीं करती? लेकिन अनुभव की जिह्वा से उसका रसास्वादन करने वाले विरले ही होते हैं।
८२. पश्यतु ब्रह्म निर्द्धन्द्धं, निर्द्वन्द्वानुभवं बिना।
कथं लिपिमयी दृष्टिाङ्मयी वा मनोमयी॥ ब्रह्म-आत्मा निर्द्वन्द्व है। उसे निर्द्वन्द्व अनुभव के बिना नहीं जाना जा सकता। लिपिमयी, वाङ्मयी अथवा मनोमयी दृष्टि से उसे कैसे देखा जा सकता है?
८३. अधिगत्याऽखिलं शब्दब्रह्म शास्त्रदृशा मुनिः।
स्वसंवेद्यं परं ब्रह्मानुभवेनाधिगच्छति॥
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