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________________ २. ध्यानशतक : ४१ वहां वे जीव त्रिरत्न विनियोगमय-क्रियाकरणात्मक, ऐकान्तिक, निराबाध, स्वाभाविक, निरुपम और अक्षय सुख को प्राप्त होते हैं। ६२. किं बहुणा? सव्वं चिय जीवाइपयत्थवित्थरोवेयं । सव्वनयसमूहमयं झाएज्जा समयसब्भावं॥ ___ अधिक क्या कहा जाए ? ध्याता अर्हत् प्रवचन को ध्यान का विषय बनाए, जिसमें जीव आदि तत्त्वों का, सभी नयों (विचारपक्षों) द्वारा विस्तार से वर्णन किया गया है। ६३. सव्वप्पमायरहिया मुणओ खीणोवसंतमोहा य। झायारो नाणधणा धम्मज्झाणस्स निहिट्ठा। जो मुनि सभी प्रमादों से रहित हैं, जिनका मोह क्षीण या उपशांत हो चुका है, वे ज्ञानी मुनि धर्म्यध्यान के अधिकारी माने गए हैं। ६४. एएच्चिअ पुव्वाणं पुव्वधरा सुप्पसत्थसंघयणा। दोण्ह सजोगाजोगा सुक्काण पराण केवलिणो॥ धर्म्यध्यान के अभ्यास में परिपक्व जो पूर्वधर और सुप्रशस्त (वज्र-ऋषभनाराच) संहनन वाले मुनि होते हैं वे ही शुक्लध्यान के प्रथम दो प्रकारों-पृथक्त्ववितर्क सविचार तथा एकत्ववितर्क अविचार के ध्याता हो सकते हैं। उसका तीसरा प्रकार सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति सयोगी केवली के और चौथा प्रकार व्यवच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाती अयोगी केवली के होता है। ६५. झाणोवरमेऽवि मुणी णिच्चमणिच्चाइचिंतणपरमो। होइ सुभावियचित्तो धम्मज्झाणेण जो पुव्विं॥ जिस मुनि का अंतःकरण पहले ही धर्म्यध्यान से सुभावित है, वह ध्यान से उपरत होने पर भी सदा अनित्य आदि भावनाओं के चिंतन में संलग्न रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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