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२. ध्यानशतक : ४९
जैसे रोग के निदान की चिकित्सा विशोषण, विरेचन, औषधिदान आदि विधियों से की जाती है, वैसे ही कर्मरूपी रोग का शमन ध्यान, अनशन आदि योगों से किया जाता है।
१०१. जह चिरसंचियमिंधणमनलो पवणसहिओ दुयं दहइ।
तह कम्मेधणममियं खणेण झाणाणलो डहइ॥ जिस प्रकार पवन से प्रेरित अग्नि चिरसंचित ईंधन को शीघ्र ही जला देती है, उसी प्रकार ध्यानरूपी अग्नि क्षण-भर में अपरिमित कर्मईंधन को भस्म कर देती है।
१०२. जह वा घणसंघाया खणेण पवणाहया विलिज्जंति।
झाणपवणावहूया तह कम्मघणा विलिज्जति॥
जैसे पवन से आहत बादलों का समूह क्षण में ही विलीन हो जाता है, वैसे ही ध्यान-पवन से विक्षिप्त कर्मरूपी बादल विलीन हो जाते हैं।
१०३. न कसायसमुत्थेहि य बाहिज्जइ माणसेहिं दुक्खेहिं। ईसाविसायसोगाइएहिं
झाणोवगयचित्तो॥ ध्यान में संलग्न मन वाला व्यक्ति कषायों से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों से बाधित नहीं होता।
१०४. सीयाऽऽयवाइएहि य सारीरेहिं सुबहुप्पगारेहिं।
झाणसुनिच्चलचित्तो न बाहिज्जइ निज्जरापेही॥ ध्यान में अत्यंत निश्चलचित्त वाला निर्जरार्थी मुनि शीत, आतप आदि अनेक प्रकार के शारीरिक दुःखों से पीड़ित नहीं होता।
१०५. इय सव्वगुणाधाणं दिट्ठादिट्ठसुहसाहणं झाणं।
सुपसत्थं सद्धेयं नेयं जेयं च निच्चंपि॥ इस प्रकार ध्यान सभी गुणों का आधार है, दृष्ट और अदृष्ट सुखों का साधन है, सुप्रशस्त है, श्रद्धेय है, ज्ञेय है और नित्य ध्येय है।
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