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________________ १२६ : जैन योग के सात ग्रंथ यदि ग्रंथिभेद का ज्ञान है तो फिर नाना प्रकार के शास्त्रों के नियंत्रणों का क्या प्रयोजन ? यदि अंधकार को नष्ट करने वाली दृष्टि पास में है तो फिर दीपक की क्या आवश्यकता ? रसायनमनौषधम् । ज्ञानमाहुर्मनीषिणः ॥ मनीषी कहते हैं - ज्ञान समुद्र से उत्पन्न न होने पर भी पीयूष है, औषधि न होने पर भी रसायन है और पर - पदार्थ - सापेक्ष न होने पर भी ऐश्वर्य है। १६. १७. विकल्पविषयोत्तीर्णः, स्वभावालम्बनः सदा । ज्ञानस्य परिपाको यः, स शमः परिकीर्तितः ॥ विकल्प और विषयों से शून्य तथा निरन्तर स्वभाव का आलंबन लेने वाली आत्मा के ज्ञान का परिपाक ही शम-उपशम कहलाता है। आरुरुक्षुर्मुनिर्योगं, श्रयेद् बाह्यक्रियामपि । शुद्ध्यत्यन्तर्गतक्रियः ॥ योगारूढः शमादेव, योग में आरोहण करने का इच्छुक मुनि बाह्य क्रियाओं का भी आश्रय ले । आभ्यन्तर क्रियाओं से युक्त योगारूढ़ योगी उपशम से ही विशुद्ध हो जाता है। १८. पीयूषमसमुद्रोत्थं, अनन्यापेक्षनैश्वर्य, १९. सरित्सहस्रदुष्पूर तृप्तिमान्नेन्द्रियग्रामो २०. समुद्र का उदर सहस्र नदियों के जल से भी परिपूरित नहीं होता । वैसा ही है इन्द्रिय-समूह जो कभी तृप्त नहीं होता, इसलिए अंतरात्मा से तृप्त बनो । समुद्रोदरसोदरः । भव तृप्तोऽन्तरात्मना ॥ गुरुत्वं स्वस्य नोदेति, शिक्षासात्म्येन यावता । आत्मतत्त्वप्रकाशेन तावत् सेव्यो गुरुत्तमः ॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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