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१. कायोत्सर्ग प्रकरण : २३ ७९. काउस्सग्गे जह सुट्ठियस्स भज्जंति अंगमंगाइ।
इय भिंदति सुविहिया अट्टविहं कम्मसंघायं।
लंबे समय तक खड़े होकर कायोत्सर्ग करने वाले मुनि के अंगोपांग टूटते हैं, उसी प्रकार कायोत्सर्ग करने वाला मुनि अपने आठ प्रकार के कर्म-संघातों को तोड़ देता है।
८०. अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीवुत्ति एव कयबुद्धी।
दुक्ख परिकिलेसकरं छिंद ममत्तं सरीराओ॥ ८१. जावइया किर दुक्खा संसारे जे मए समणुभूया।
इत्तो दुव्विसहतरा नरएसु अणोवमा दुक्खा॥ ८२. तम्हा उ निम्ममेण मुणिणा उवलद्धसुत्तसारेणं। काउस्सग्गो उग्गो कम्मक्खयट्ठाय कायव्वो॥
(त्रिभिर्विशेषकम्) 'शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है'-इस प्रकार की बुद्धि का निर्माण कर तुम दुःख और क्लेशकारी शरीर के ममत्व का छेदन करो। संसार में मैंने जितने दुःखों का अनुभव किया है, उससे अति भयानक
और अनुपम दुःख नरक के होते हैं यह सोचकर निर्ममत्व का साधक तथा सूत्र के रहस्य को प्राप्त कर लेने वाला मुनि अपने कर्मों को क्षीण करने के लिए उग्र कायोत्सर्ग करे।
१. आवश्यक भाष्यगाथा २३७ :
जह करगओ निकिंतइ दारूं इंतो पुणोवि वच्चंतो
इअ कंतंति सुविहिया काउस्सग्गेण कम्माइं। -जिस प्रकार इधर-उधर आती-जाती करवत काठ को चीर डालती है, उसी प्रकार सुविहित मुनि कायोत्सर्ग के द्वारा कर्मों को काट डालते हैं।
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