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७. ज्ञानसार चयनिका : १४१
९५. यत्र ब्रह्म जिनार्चा च, कषायाणां तथा हतिः।
सानुबन्धा जिनाज्ञा च, तत् तपः शुद्धमिष्यते॥ _ जहां ब्रह्मचर्य, जिन-अर्चा, कषायों की क्षति और अनुबंध सहित जिनाज्ञा हो, वह शुद्ध तप माना जाता है। ९६. तदेव हि तपः कार्य, दुर्व्यानं यत्र नो भवेत्।
येन योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च॥ वही तप करणीय है जिसमें दुर्ध्यान न हो, मन-वचन और काया के योगों की हानि न हो तथा इन्द्रियों की क्षीणता न हो। ९७. धावन्तोऽपि नयाः सर्वे, स्युर्भावे कृतविश्रमाः।
चारित्रगुणलीनः स्यादिति सर्वनयाश्रितः।।
अपने अपने अभिप्राय के अनुसार गतिमान् सभी नय वस्तुस्वभाव में स्थिर हो जाते हैं। चारित्रगुण में लीन मुनि सभी नयों का आश्रय लेता है। ९८. लोके सर्वनयज्ञानां, ताटस्थ्यं वाप्यनुग्रहः। __ स्यात् पृथग्नयमूढानां, स्मयार्तिर्वाऽतिविग्रहः॥
जो सभी नयों का ज्ञाता है उसीमें मध्यस्थता तथा अनुग्रह की बुद्धि होती है। जो विभिन्न नयों में मूढ होते हैं, वे अभिमान की पीड़ा से पीड़ित अथवा अति विग्रह से व्यथित होते हैं। ९९. निश्चये व्यवहारे च, त्यक्त्वा ज्ञाने च कर्मणि।
एकपाक्षिकविश्लेषमारूढाः शुद्धभूमिकाम्॥ १००. अमूढलक्ष्याः सर्वत्र पक्षपातविवर्जिताः। जयन्ति परमानन्दमयाः सर्वनयाश्रयाः॥
(युग्मम्) निश्चयनय, व्यवहारनय, ज्ञाननय तथा कर्मनय-इनका एकपाक्षिक स्वीकार को छोड़कर तथा शुद्ध भूमिका में आरूढ़ होकर, अमूढलक्ष्यी तथा सर्वत्र पक्षपात रहित मुनि सर्वनयों का आश्रय लेकर परमानन्दमय होकर जयवन्त होते हैं।
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