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________________ संकेतिका इस ग्रंथ का अपर नाम है 'समाधितंत्र ।' इसमें १०५ श्लोक हैं। इसके रचियता हैं विक्रम की छठी शताब्दी के महान् विद्वान् आचार्य पूज्यपाद । आचार्य प्रभाचंद्र (वि. १२-१३ शताब्दी) ने इस पर टीका लिखी। यह ग्रंथ आत्मा के अवबोध से प्रारंभ होता है और समाधितंत्र ज्योतिर्मय सुख का मार्ग है', ऐसा अंतिम श्लोक में निर्देश है । 'अहमेव मयोपास्यः' (श्लोक ३१) की स्थापना कर आचार्य पूरे ग्रंथ में आत्मा की ही परिक्रमा करते हैं। आत्मा के तीन प्रकार - बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा का अवबोध ग्रंथ के पारायण से सहज स्पष्ट हो जाता है । शिष्य ने पूछा - दुःख का कारण क्या है ? दुःखमुक्ति का उपाय क्या है ? आचार्य ने कहा - 'देह में आत्मबुद्धि रखना' दुःख का मूल कारण है और 'आत्मा में आत्मबुद्धि रखना' दुःखमुक्ति का सशक्त उपाय है। अध्यात्म विद्या का यह विशिष्ट ग्रंथ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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