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३. योगशतक : ५९
तइयस्स पुण विचित्तो तहुत्तरसुजोगसाहगो णेओ । सामाइयाइविसओ णयणिउणं भावसारो त्ति ॥ तीसरी कक्षा के साधकों को सामायिक आदि विषय का आश्रय लेकर नाना प्रकार से उत्तरोत्तर योगभूमिकाओं की उपलब्धि कराने वाला उपदेश नयविधि से देना चाहिए। वह उपदेश भावना प्रधान हो, जिस भाव को कहना चाहे उससे ओतप्रोत हो ।
२९.
३०.
३१.
३२.
सद्धम्माणुवरोहा वित्ती दाणं च तेण जिणपूय - भोयणविही संझाणियमो य
३४.
माइत्थविसओ गिहीण उवएस मो मुणेयव्वो । जइणो उण उवएसो सामायारी जहा सव्वा ॥ (त्रिभिर्विशेषकम्)
सद्धर्म से अबाधित आजीविका करना (जैसे- अणुव्रतधारी उपासक को कर्मादान से वृत्ति का वर्जन करना), सद्धर्म से परिशुद्ध दान देना, जिन-पूजा - इष्टदेव की पूजा, स्तुति की विधि तथा भोजनविधि का यथावत् पालन करना, संध्या - नियम का पालन करना - गृहस्थ के ये गुण अंततः योग में परिणत होते हैं। चैत्यवंदन - अपने इष्टदेव या गुरु की प्रार्थना, स्तवना करना । यति विश्रमणा - मुनियों की उचित भक्ति, वैयावृत्य, धर्म विषयक श्रवण करना, ये सारी क्रियाएं गृहस्थ के लिए योग ही हैं। तो फिर जो भावना मार्ग है वह तो योग है ही ।
इस प्रकार की प्रवृत्तियों के विषय में जो उपदेश है, वह गृहस्थों के लिए है। मुनियों के लिए समस्त सामाचारी का उपदेश विहित है। गुरुकुलवासो गुरुतंतयाय उचियविणयस्स करणं च । वसहीपमज्जणाइसु जत्तो तहकालवेक्खा ए॥
३३.
चिइवंदण जइविस्सामणा य सवणं च धम्मविसयं ति । गिहिणो इमो वि जोगो किं पुण जो भावणामग्गो ? ॥
सुविसुद्धं । जोगंतो ॥
अणिगूहणा बलम्मी सव्वत्थ पवत्तणं पसंतीए । णियलाभचिंतणं सइ अणुग्गहो मे त्ति गुरुवयणे ॥
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