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________________ ४. समाधिशतक : ९७ १०१. स्वप्ने दृष्टे विनष्टेऽपि, न नाशोऽस्ति यथात्मनः। तथा जागरदृष्टेऽपि, विपर्यासाविशेषतः॥ जैसे स्वप्न में शरीर आदि के दीखने और उसके नष्ट हो जाने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता, वैसे ही जागृत अवस्था में भी शरीर आदि के दीखने और उसके नष्ट हो जाने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता। दोनों अवस्थाओं में विपर्यास (भ्रांति) की समानता है। १०२. अदुःखभावितं ज्ञानं, क्षीयते दुःखसन्निधौ। तस्माद्यथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनिः॥ सुख से भावित ज्ञान दुःख उत्पन्न होने पर नष्ट हो जाता है, इसलिए मुनि को यथाशक्ति अपने आपको दुःख से भावित करना चाहिए। १०३. प्रयत्नादात्मनो वायुरिच्छाद्वेषप्रवर्तितात्। वायोः शरीरयन्त्राणि, वर्तन्ते स्वेषु कर्मसु॥ राग-द्वेष से प्रवर्तित आत्म-संबंधी प्रयत्न से वायु चलती है। उससे शरीर के सारे यंत्र अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होते हैं। १०४. तान्यात्मनि समारोप्य, साक्षाण्यास्तेऽसुखं जडः। त्यक्त्वाऽऽरोपं पुनर्विद्वान्, प्राप्नोति परमं पदम्॥ बहिरात्मा इन्द्रियों सहित शरीर के यंत्रों का आत्मा में आरोपण कर दुःखी बना रहता है। अंतरात्मा अस आरोपण को छोड़कर परम पद (मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है। १०५. मुक्त्वा परत्र परबुद्धिमहंधियं च। संसारदुःखजननी जननाद्विमुक्तः। ज्योतिर्मयं सुखमुपैति परात्मनिष्ठस्तन्मार्गमेतदधिगम्य समाधितंत्रम्॥ परमात्मनिष्ठ साधक आत्मा से परमात्मा बनने का उपाय बतलाने वाले इस 'समाधितंत्र' ग्रंथ को जानकर, संसार में दुःख उत्पन्न करने वाली परबुद्धि तथा अहंबुद्धि को त्याग कर, जन्म-मरण से मुक्त होता हुआ अनन्त-ज्ञानात्मक सुख को प्राप्त करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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