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२८ : जन याग के सात ग्रंथ
अंतर्मुहूर्त के पश्चात् कोई चिंतन अथवा ध्यानान्तर ( भावना या अनुप्रेक्षा) प्रारंभ हो जाता है। अनेक वस्तुओं का आलंबन लेने पर ध्यान का प्रवाह लंबे समय तक भी हो सकता है।
५.
अट्टं रुद्दं धम्मं सुक्कं झाणाइ तत्थ अंताई । निव्वाणसाहणाइं
भवकारणमट्टरुद्दाई॥
ध्यान चार प्रकार का होता है - आर्त्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल । इनमें अंत के दो ध्यान- धर्म्य और शुक्ल निर्वाण के साधक हैं और आर्त्त तथा रौद्र- ये दो ध्यान भव- भ्रमण के कारक हैं।
६.
अण्णा
धणियं
च॥
द्वेष से मलिन होकर अमनोज्ञ शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों के वियोग के लिए अत्यंत चिंता करना तथा उनकी पुनः प्राप्ति न हो - इसका निरंतर अनुस्मरण करना आर्त्तध्यान का पहला प्रकार है ।
सद्दाइविसयवत्थूण विओगचिंतणमसंपओगाणुसरणं
दोसमइलस्स।
७. तह सूलसीसरोगाइवेयणाए विजोगपणिहाणं । तप्पडियाराउलमणस्स ॥
तदसंपओगचिंजा
शूल, शिरोरोग आदि की वेदना होने पर उसके प्रतिकार के लिए आकुल व्याकुल होकर उसके वियोग के लिए तथा उन रोगों की पुनः प्राप्ति न हो इसके लिए एकाग्र चिंतन करना आर्त्तध्यान का दूसरा प्रकार है।
८. इट्ठाणं विसयाईण वेयणाए य रागरत्तस्स | अवियोगऽज्झवसाणं तह संजोगाभिलासो य ॥
अहमं
राग से रक्त व्यक्ति का इष्ट विषयों तथा इष्ट अनुभूतियों के अवियोग का एकाग्र अध्यवसाय तथा उनके पुनः संयोग की अभिलाषा करना आर्त्तध्यान का तीसरा प्रकार है।
देविंदचक्कवट्टित्तणाई
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गुणरिद्धिपत्थणामईयं । नियाणचिंतणमण्णाणाणुगयमच्चतं ॥
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