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१२४ : जैन योग के सात ग्रंथ
जो आत्मा स्वभावजन्य सुख में मग्न है, जगत् के तत्त्व का अवलोकन करता है, उसमें आत्मातिरिक्त भावों का कर्तृत्व नहीं होता, केवल साक्षीभाव शेष रहता है।
तेजोलेश्याविवृद्धिर्या, . साधोः पर्यायवृद्धितः। भाषिता भगवत्यादौ, सेत्थंभूतस्य युज्यते॥ संयम-पर्याय की वृद्धि के साथ-साथ मुनि में तेजोलेश्या की भी वृद्धि होती है, यह भगवती आदि आगमों में उल्लिखित है। यह कथन ज्ञानमग्न जीवात्मा के लिए युक्त है।
७. शमशैत्यपुषो यस्य, विप्रुषोऽपि महाकथाः।
किं स्तुमः ज्ञानपीयूषे, तत्र सर्वांगमग्नता॥ उपशम रस की शीतलता को पुष्ट करने वाली ज्ञानामृत की एक बूंद के प्रभाव की भी अनेक कथाएं हैं, तो फिर ज्ञानामृत में सर्वांगमग्नता की स्तुति किन शब्दों में करें ? ८. यस्य दृष्टिः कृपावृष्टिर्गिरः शमसुधाकिरः।
तस्मै नमः शुभज्ञानध्यानमग्नाय योगिने॥ जिसकी दृष्टि कृपा बरसाती है, जिसकी वाणी उपशम-सुधा का विकिरण करती है, उस प्रशस्त ज्ञान-ध्यान मग्न योगी को मेरा नमस्कार हो।
अहं ममेति मंत्रोऽयं, मोहस्य जगदान्ध्यकृत्।
अयमेव हि नव्पूर्वः, प्रतिमन्त्रोऽपि मोहजित्॥ मोह का बीजमंत्र है-'मैं' और 'मेरा'। यह जगत् को अंधा बनाने वाला है। यही नव्पूर्वक होने से मोह का प्रतिरोधक मंत्र बन जाता है अर्थात् 'न मैं हूं' और 'न मेरा है'। यह मोह को जीतने का अमोघ मंत्र है। १०. शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं, शुद्धज्ञानं गुणो मम।
नान्योऽहं न ममाऽन्ये, चेत्यदो मोहास्त्रमुल्बणम्॥
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