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________________ ४ : जैन योग के सात ग्रंथ ५. मोहपयडीभयं अभिभवितुं जो कुणइ काउस्सगं तु। भयकारणे हु तिविहे नाभिभवो नेव पडिसेहो॥ आचार्य बोले-'भय मोहनीय कर्म की एक प्रकृति (अवस्था) है। उसका अभिभव करने के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है, बाह्य कारणों का पराभव करने के लिए नहीं। भय उत्पन्न होने के तीन बाह्य कारण हैं-देव, मनुष्य और तिर्यंच। उनका अभिभव करने के लिए कायोत्सर्ग नहीं किया जाता। भय को मिटाने के लिए कायोत्सर्ग करने का निषेध नहीं है।' आगारेऊण परं रणेव्व जइ सो करेज्ज उस्सग्गं। जुज्जए अभिभवो तो तदभावे अभिभवो कस्स॥ संग्राम में किसी को ललकार कर उसका अभिभव किया जाता है, वैसे ही दूसरे को ललकार कर कायोत्सर्ग किया जाए तो वह अभिभव हो सकता है। उसके अभाव में अभिभव किसका? ७. अट्ठविहं पि य कम्मं अरिभूयं तेण तज्जयट्ठाए। अब्भुट्ठिया उ तवसंजमं च कुव्वंति निग्गंथा॥ __ आठों प्रकार के कर्म आत्मा के लिए शत्रु के समान हैं। अतः उन पर विजय पाने के लिए निर्ग्रन्थ कटिबद्ध हैं और वे तप तथा संयम में रत हैं। ८. तस्स कसाया चतारि नायगा कम्मसत्तसेन्नस्स। काउसग्गमभंगं करेंति तो तज्जयट्ठाए॥ उस कर्मरूपी शत्रु-सेना के चार नायक हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ। वे कायोत्सर्ग में बाधा उपस्थित करते हैं अतः उनको जीतने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। संवच्छरमुक्कोसं अंतमुहुत्तं च अभिभवुस्सगे। चेट्टा उस्सग्गस्स उ कालपमाणं उवरि वुच्छं।। 'अभिभव कायोत्सर्ग' का उत्कृष्ट कालमान एक वर्ष का और जघन्य कालमान अंतर्मुहूर्त का होता है। 'चेष्टा कायोत्सर्ग' का कालमान हम आगे बतायेंगे। ९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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