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आचार्यश्रीमद्विजयदानसूरीश्वरजी-जैनग्रन्थमालाया द्विचत्वारिंशं रत्नम् (४२) श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिप्रणीतनियुक्तियुतभाष्यसङ्कलिता श्रीमन्माणिक्यशेखरसूरीश्वरविरचिता
श्रीमदावश्यकनियुक्तिदीपिका (तृतीयो विभागः)
->प्रकाशयित्री-सच्चारित्रचूडामणि सिद्धान्तमहोदधि आचार्यश्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरपट्टधर व्याख्यानवाचस्पति आचार्यश्रीमद्विजयरामचन्द्रसूरीश्वर शिष्यरत्न पंन्यास श्रीतिलकविजयगणिवरोपदेशेन लब्धद्रव्यसाहाय्येन
आचार्य श्रीमद्विजयदानसूरीश्वरजी जैनग्रन्थमाला-गोपीपुरा-सुरत
संशोधकः-सिद्धान्तमहोदधि आचार्यश्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरप्रशिष्यः पं. श्रीमानविजयः वीर संवत् २४७५ विक्रम संवत् २००५
काइष्टसन १९४९ इदं पुस्तकं भावनगरपुर्या महोदयमुद्रणालये गुलाबचन्द्र लल्लुभाई द्वारा मुद्रापयित्वा प्रकाशितम् ।
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आवश्यक
निर्युक्ति
दीपिका ।
॥ १ ॥
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वांचकोने सादर विज्ञप्ति
-> f.
श्रीद्वादशांगीना प्रणेता श्रीगणधर भगवंत रचित श्री आवश्यकसूत्रनी निर्युक्ति युगप्रधान श्रीमद् भद्रबाहुस्वामी महाराजे अने चूर्णि श्रीमद् जिनदासगणिमहत्तरे करेली छे. ते निर्युक्ति उपर विस्तृत टीका चौदशे चुम्मालीस प्रन्थना प्रणेता आचार्य श्रीमद् हरिभद्रसूरिजी महाराजे करेल छे. आ चूर्णि तथा टीकाना आधारे निर्युक्ति उपर श्रीअलगच्छना आचार्य श्रीमेरुतुङ्गसूरिजीना शिष्य आचार्य श्रीमाणिक्यशेखरसूरिजी महाराजे दीपिका रचेल छे. निर्युक्ति, चूर्णि तथा टीकामां कोई पण स्थळे पोताना गच्छनी मान्यतानो नामनिर्देश पण नहि होवा छतां सदरहु दीपिकामां पोताना गच्छनी मान्यताओनी जेवी के मुहपत्तिने बदले वखनो छेडो, पर्व दिवसे ज पौषध, पौषधमां आहारनो निषेध वगेरेनी पुष्टि करवाने कल्पित चर्चाओ उपस्थित करीने तेने सिद्ध करवा प्रयत्नो करेला छे. हरकोई प्रन्थकारने पोताना स्वतंत्र रचेल ग्रन्थमां पोतानी अगर पोताना गच्छनी जे जे मान्यताओ होय तेने शास्त्रीय प्रमाणोथी सिद्ध करवाने माटे स्वतंत्र चर्चाओ उभी करी तेने सिद्ध करवानी छूट होय छे, परंतु मौलिक प्रन्थो उपर टीका, चूर्णि वगेरेना आधारे ज्यारे लखवानुं होय त्यारे तेमां आवी विकृति करवी ते कोई पण रीतिए हितावह नथी. आ ग्रन्थ छपावती वखते तेमनी मान्यताओनुं खंडन टीप्पणीओ करवाथी थई शके तेम होवा छतां पण तेज ग्रन्थमां तेज प्रन्थकारनी मान्यतानुं खंडन कर उचित नहि लागवाथी सदरहु प्रन्थमां तेवुं कंई पण करवामां आवेल नथी, परंतु जेवो ग्रन्थ छे तेबोज छपाववामां आवेल
सादर विज्ञप्ति
॥ १ ॥
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अ%
-
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MIछे. माटे सुन्न वाचकोए एटलो ख्याल राखवो के ज्या ज्या सामायिक, पौषध, मुहपत्ति आदि स्थळोमा तपागच्छनी मान्यता का विरुद्ध देखाय ते अञ्चलगच्छनी मान्यता मुजब जणावेल छे अने समज न पडे त्यांना स्थळो माटे टीका, चूर्णि तथा प्रवचनपरीक्षादि ५ ग्रन्थो जोई लेवा. । जैन उपाश्रय, लींच
लि. संशोधक वि. सं. २००५, आसो शुद ५. )
मानविजय.
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प्रकाशकीय निवेदन.
जे श्रीआवश्यकनियुक्ति दीपिका पन्थनो १ लो तथा २ जो भाग सदरहु ग्रन्थमालाना ग्रन्थांक नं. १६ तथा नं. २९ तरीके बहार पाडवामां आवेला छे तेना त्रीजा भागर्नु मुद्रण केटलाक अनिवार्य संजोगोने लीघे बंध राखवामां आव्यु हतुं, परंतु अधूरूं रहेल कार्य कोई रीते पूर्ण करQ जोईए ते हेतुथी तथा बीजो भाग क्यारे बहार पडशे एम बन्ने भागना ग्राहको तरफथी वारंवार
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आवश्यक
निर्युक्तिदीपिका ।
॥ २ ॥
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पृच्छा थवाथी पूज्य महाराजश्रीने अमोए गई सालमां दीपिकानुं बाकीनुं काम पूरुं करी आपना विनंति करी अने अमारी ते विनंतिने स्वीकारीने पूज्य महाराजश्रीए चालु सालमां ते कार्यनी शरुआत करी पूर्ण करी आपवाथी अमो आ श्रीआवश्यक नियुक्ति दीपिकानो श्रीजो भाग सदरहु प्रन्थमालाना प्रथांक नं. ४२ तरीके वांचकजनोना करकमलमां रजु करवा भाग्यशाली थया छीए. आ त्रीजा भागने छपाववामां पूज्य पंन्यासजी महाराज श्रीतिलकविजयजी गणिवरना उपदेशथी वीरमगामना रहेवासी सुश्रावक हठीसंग तेजपाल द्वारा मळेल रु. ३५१ त्रणसो एकावन तथा पहेला तथा वीजा भागना बेचाणनी आवेल रकमनो उपयोग करवामां आवेल छे. तथा पू. पंन्यासजी महाराज श्रीमानविजयजी गणिवर तथा पू. पंन्यासजी महाराज श्रीकान्तिविजयजी गणिवरे प्रूफो वगेरे तपासी आपवामां पोताना अमूल्य समयनो भोग आप्यो छे. तथा जे साधर्मी बंधुए पूर्व पुण्यना योगे मळेला द्रव्यनो श्रुतज्ञाननी भक्ति करवा द्वारा आ ग्रन्थने छपाववामां सहाय करेली छे ते बघाओनो आ संस्था तरफथी अत्यंत आभार मानवामां आवे छे. अने आवी रीते तेओना तरफथी संस्थाने लाभ मळतो रहे एवी आशा राखवामां आवे छे.
सदरहु प्रन्थना कर्त्ता माटे प्रस्तावनामां यथायोग्य दर्शाववामां आवेल छे एटले अत्रे लखवामां आवेल नथी.
गोपीपुरा-सुरत
लि०
वि. सं. २००५ भादरवा सुद १५
श्रीविजयदानसूरीश्वरजी जैन ग्रन्थमाला व्यवस्थापक:- मास्तर हीरालाल रणछोड़भाई
प्रकाशकीय निवेदन
८॥ २ ॥
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प्रस्तावना tee
RECRUCIAL
वि. सं. १९९४ मा सञ्चारित्रचूडामणि सिद्धान्तमहोदधि आचार्य श्रीमद विजयप्रेममरीश्वरजी महाराजा पोताना बहोळा शिष्य-प्रशिष्य समुदाय साथे मुंबई लालबाग जैन उपाश्रयमां चातुर्मास बिराजमान हता. ते वखते पोतानी देखरेख नीचे छेदसूत्र श्रीनिशीथचूर्णिना संशोधन- कार्य पोताना साधुओ द्वारा चालतुं हतं. ते दरमियान कारणवशात् पायधुनी उपर आवेल श्रीशान्तिनाथजी महाराजना देरासरना मकानमां आवेल श्रीसागरगच्छ प्रवचन पूजक सभाना हस्तलिखित भंडारन लीस्ट जोता तेमां श्रीआवश्यक नियुक्ति दीपिकानुं नाम वांचता ते प्रति जोवा माटे मंगावी. ते जोतां एम लाग्युं के साधु अने साध्वीओने उभय टंक प्रतिक्रमणमा बोलवाना आवश्यक सूत्रोना अर्थज्ञान माटे पू. श्रीहरिभद्रसूरिमहाराजनी तेमज पू. श्रीमलयगिरिमहाराजनी विस्तृत अने कठिन टीकाओ वंचावता पूर्वे आ दीपिका जेवो सामान्य ग्रन्थ बंचाववामां आवे तो प्रथम सामान्य बोध जलदीथी थाय अने पछी विस्तृत टीकाओ पण सहेलाईथी बचावी शकाय अने समजावी शकाय. वळी आ प्रन्थ अद्यावधि अमुद्रित छे. आ हेतुथी आ दीपिका ग्रन्थ छपाववानी एओश्रीनी इच्छा थई अने ते कार्य मारा वडील गुरुबन्धु पू. मुनि श्रीतिलकविजयजी महाराज ( हाल पं. श्रीतिलकविजयजी गणिवर ) तथा मने सोंपवामां आव्यू. त्यार पछी आ अन्थनी बीजी प्रतिओ मेळववा माटे कोशिष करता फक्त एकज प्रति पूनाना श्रीभांडारकर इन्स्टीट्यूटमाथी मळी आवी. आ प्रमाणे मळेली कुल बे प्रतिओ उपरथी प्रेस कोपी तैयार कराववामां आवी अने ते प्रेस कोपी बन्ने प्रतिओ साथे मेळवीने शुद्ध करवा माटे बनतो प्रयास करवामां आव्यो.
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आवश्यक
निर्युक्ति
दीपिका ।
॥ ३ ॥
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आ ते प्रेस कोपी तैयार थया पछी छपाववा माटे द्रव्यनी जे सहाय जोईए ते पूज्य श्रीतिलकविजयजी महाराजे अवरनवर उपदेशद्वारा भाविक श्रावको पासेथी अपाववानुं स्वीकार्य अने आ ग्रन्थ छपाववा माटे प्रेस साथे गोठवण करवी प्रूफो शोधवा वगेरेनुं बाकीनुं तमाम कार्य में स्वीकार्य. आम आ प्रन्थ छपाववा माटे परमोपकारी पूज्यपाद आचार्यदेवनी प्रेरणाथी अने अमारा बन्ना सहयोगथी आ श्रीआवश्यक निर्युक्ति दीपिका नामनो ग्रन्थ ऋण विभागमां संपूर्ण बहार पाडी शकायो छे.
स्वर्गीय पू. आचार्यदेव सकलागमरहस्यवेदी श्रीमद् विजयदानसूरीश्वरजी महाराजश्रीना पोताना उपरना अनहद उपकारथी प्रेराइने मास्तर हीरालाल रणछोडभाईए एओश्रीना पुनित नामथी अंकित ग्रन्थमाला वि. सं. १९९४ मां शरु करी हती. अने केटलाक ग्रन्थो ते संस्था तरफथी बहार पण पडी चूक्या हता. बीजा पण अपूर्व ग्रन्थो आ संस्था द्वारा बहार पडे तो सारं एम मास्तर हीरालालनी इच्छा होवाथी तेमणे अमोने ते कार्य माटे विनंति करवाथी आ प्रन्थ पण सदरहु ग्रन्थमाला के जेनी साथै अमारा परमपूज्य परमगुरुदेव स्वर्गीय आचार्यदेवनुं नाम जोडवामां आवेल छे ते ग्रन्थमालाना १६-२९ अने ४२ मा ग्रन्थांक तरीके सदर ग्रंथना त्रण विभागो बहार पाडवामां आवेल छे.
सदर ग्रन्थमा कर्ता ग्रन्थनी प्रशस्तिमां जणाव्या मुजब अंचलगच्छमां थयेल श्रीमहेन्द्रप्रभसूरिजीना पट्टधर श्रीमेरुतुंगसूरिजीना पट्टधर श्रीमाणिक्यशेखरसूरि छे. तेमनुं आखुं जीवन तपास करवा छतां पण उपलब्ध थई शक्युं नथी. तेमज तेओ क्या था ? क्यों जम्म्या ? क्यारे दीक्षा लीघी ? ए बधी विशिष्ट हकीकतो पण मळी शकी नथी छतां, पण जे कई तेमना संबंधां प्राप्त थयुं छे ते नीचे मुजब आपवामां आवे छे
प्रस्तावना
॥ ३ ॥
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ROCAL-
ROCHOC
१ तेओश्रीनो सत्ताकाळ पंदरमी सदी होवानो संभव छे. श्रीजैन सत्य प्रकाश मासिकोमा पू. मु. श्रीन्यायविजयजी महाराज
तरफथी चालु सालमा श्रीजीरावला तीर्थना शिलालेखो संबंधी लखाणो आवे छे. तेमां ता. १५-८-४९ ना अंक ११ मां देरी नंबर ३१ नो जे शिलालेख आपवामां आवेलो छे, तेमां लखेल छे के 'संवत १४८३ वर्षे प्रथम वैशाख शुद १३ गुरौ श्रीअंचलगच्छे श्रीमेरुतुंगसूरीणां पट्टोधरेण श्रीजयकीर्तिसूरीश्वर सुगुरूपदेशेन...श्रीजिराउला पार्श्वनाथस्य चैत्ये देहरि (३) कारापिता.......... आ श्रीजयकीर्तिसूरिजी महाराज अंचलगच्छेश श्रीमेरुतुंगसूरिजीना शिष्य छे अने सदरहु अन्धना कर्ता श्रीमाणिक्यशेखरसूरि पण तेमना शिष्य छे. एटले बन्ने गुरुभाई होवानो संभव छे अने श्रीजयकीर्तिसूरिजीए सं. १४८३ मां देरीनी प्रतिष्ठा करावेल छे. ते उपरथी उपरनुं अमारुं अनुमान सिद्ध थाय छे के आ पन्थना कर्ता श्री- माणिक्यशेखरसूरिजी पण तेज सदीमा थया होवा जोईए. तदुपरांत आ अनुमानना अनुसंधानमां मने त्रीजा भागना संशोधन वखते पूज्य विद्वद्वर्य साहित्यप्रेमी मुनिराज श्रीपुण्यविजयजी महाराज तरफथी जे बे प्रतिओ मळेली छे तेमां एक वि.सं. १५५० तथा बीजी वि. सं. १५६४ मां लखायेली छे अने प्रथम मुंबई तथा पूनानी जे प्रतिओ मळेली तेमां तो लख्या संवत छे ज नहि. एटले तेमना सत्ता काळना अनुमाननी पहेलानी लखायेली कोई प्रति मळती ज नथी अने सत्ताकाळना अनुमान
पछीना ज पहेला सैकानी लखेल प्रतिओ मळेली छे. ए उपरथी पण अमाउं अनुमान साचु होवानो संभव छे. P२ ग्रन्थना अन्ते आपवामां आवेली ग्रन्थकारनी प्रशस्तिमां ग्रन्थकारे (१) श्रीआवश्यकनियुक्ति दीपिका (२) श्रीदशवकालिक
नियुक्ति दीपिका (३) श्रीपिण्डनियुक्ति दीपिका (४) श्रीओघनियुक्ति दीपिका (५) श्रीउत्तराध्ययन दीपिका अने (६) श्रीआचार
OLOG
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आवश्यक
निर्युक्ति
दीपिका ।
॥ ४ ॥
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दीपिका नवतश्व विचारणा एम छ प्रन्थो रचेल होवानुं जणावेल छे. ज्यारे श्रीजैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स तरफथी छपायेल श्रीजैनमन्थावलीमा (१) श्री आवश्यक नियुक्ति दीपिका ( २ ) श्रीपिण्डनिर्युक्ति दीपिका (३) श्रीदशवैकालिक नियुक्ति दीपिका अने (४) श्रीओधनिर्युक्ति दीपिका एम चार ज प्रन्थो सदरहु ग्रन्थकारे रचेला होवानुं जणाववामां आवेल छे. बाकीना बे उपलब्ध यता नथी. संभव छे के अद्यावधि अप्रसिद्धावस्थामा रहेल भंडारोमां ते वे प्रन्थो होय अगर विच्छेद पण पाम्या होय. आ सतिए प्रन्थकारना संबन्धमां जेटलुं साहित्य मळी शक्युं तेटलं उपर मुजब जणाववमां आव्युं छे.
उपर ज़णच्या मुजब सदरहु ग्रन्थना संशोधन कार्यमां प्रथम बे ज प्रतिओ प्राप्त थयेली अने ते उपरथी ज प्रेस कोपी तैयार करवामां आंवेली. बन्ने प्रतिओ जोईये तेवी शुद्ध न हती, बन्ने प्रतिओमां पण परस्पर पाठफेर आवता हता छतां पण बन्नेनो समन्वय करीने शक्यता प्रमाणे प्रेस कोपी शुद्ध करीने ग्रन्थ छपाववामां आव्यो छे. तोपण केटलेक ठेकाणे अर्थदृष्टिए त्रुटिओ रहेली छे, परंतु निरुपाये ते एमने एम ज राखीने वे भागो बहार पाडवामां आव्या. त्यार पछी त्रीजा भागनुं कार्य अनिवार्य संजोगोमां बाकी रही गयुं. तेटलामां लडाइ शरु थई, पेपर उपर कन्ट्रोल आव्यो, कागळ मळवानी मुश्कीलता थई, मोंघवारी पण वधी अने छपामना चार्ज पण घणा ज बघता गया. आवा कारणोना योगे समय पलटाय अने सोंघवारी थाय एटले बाकीनुं काम पुरुं करीए ए आशा छ सात वर्ष नीकळी गया. छेवटे गइ साल मास्तर हीरालालनो आ काम पूर्ण करी आपणा माटे आग्रह थवाथी आ कार्य पूर्ण करवा चालु सालमां शरु कर्यु. ते वखते मारा लघुगुरुबन्धु पंन्यास श्रीकान्तिविजयजी गणिवर मारफत साहित्यप्रेमी विद्वद्वर्य पूज्य श्री पुण्यविजयजी महाराज पासेथी पूज्य श्रीहंसविजयजी महाराजना शास्त्रसंग्रहमांथी वे प्रतिओ एक वि.सं. १५५० मां लखाएली
प्रस्तावना
॥ ४ ॥
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तथा बीजी वि. सं. १५६४मां लखाएली मळी आवी. तेनी साथे त्रीजा भागनी प्रेस कोपी मेळवीने बनती विशेष शुद्धि करीने PI आ त्रीजो भाग छपाववामां आव्यो छे. बे प्रतिओ पण अतिशुद्ध न हती छतां पण तेमाथी केटलुक अगत्यनुं सुधारवा लायक मळी
गयु. आ रीते त्रणे भागो शुद्ध छपाववा माटे बनता प्रयासो करवामां आव्या छे. छतां प्रतिओनी अशुद्धताने योगे, अर्थदृष्टिए पाठनी | त्रुटिना योगे तथा छद्मस्थताना योगे मारी समजफेरना कारणे जे भूल रही जवा पामी होय अथवा प्रेसदोषथी तथा प्रूफ सुधारवामां| पण अनुपयोगी जे कई भूल रही जवा पामी होय तेने विद्वान् वांचको सुधारी लेशे एवी आशा छे. ___ सदरहु ग्रन्थनी प्रतिओ पूरी पाडनार संस्थाओने तथा साहित्यप्रेमी पूज्य मुनिराज श्रीपुण्यविजयजी महाराजने तथा त्रीजा भागना प्रफो तपासवामां मने अपूर्व सहाय आपनार मारा लघुगुरुबन्धु पं. श्रीकान्तिविजयजी गणिवरने याद कर्या वगर रही | शकाय तेम नथी. एज शुभेच्छा. जैन उपाश्रय, लींच. )
लि. संशोधक | वि. सं. २००५ आसो सुद २ ।
मानविजय
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आवश्यकनियुक्ति
शुद्धिपत्रकम्
दीपिका।
पतिः अशुद्धः
पङ्किः
अशुद्धः
शुद्धः | पृष्ठम् माणिक्य |
CASHAKAKARAOKAR+KACI
रूपत्वात् १५५५
शुद्ध रूपत्वात् २४५
माणक्य १५५१ १५५१ १५५२ १५५३ १५५२ १५५४ १५५४
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२४६
२४६
२४२
२४४ २४४
२४५ ॥१॥ (प्र०) |
१५५७ १५५७ १५५८ १५५८ १५५९ १५५९ १५६०
१५५१ १५५१ १५५२ १५५२ १५५३
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पङ्क्तिः अशुद्धः
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अशुद्धः १५६१ १५६०-६१ १५६२
शुद्धः | पृष्ठम् १५५४ ६/१ १५५३-५४
१५५५
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भौं
भङ्गाः
भङ्गाः
१५५५ १५५६ १५५६
तञ्चेद
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तञ्चैद संकल्पज
१५६२ १५६३ १५६३ १५६४ १५६४ १५६५
*ASKARNERAKSHARA
छवि
नमुत्थुणं
१९/१
संकल्पजः
छवि नमुत्थु णं जनास्थावृद्धि.
करितो ईरिया० पोरिसिं
जनास्था वृद्धि० करितो इरिया०
२१/१
२१/२ ५ | २२/१
१५६७
७. पोरिर्सि
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पतिः अशुद्धः
आवश्यकनियुक्तिदीपिका।
| पृष्ठम्
२४/ १ २५/१
पतिः ६ ११
३७/१
शुद्धः | शुद्धि
च पत्रकम् । निःस्पृह.
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साहूमूले
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अशुद्धः
शुद्धः | पृष्ठम् निवृत्तं
निर्वृत्तं कर्हि
कहिं | ४०/१
साहू(हु )मूले सधरंगणओ सघरंगणओ | ४१/१ साहूणो साहू(हुणो अन्योन्नति वैम० अन्योन्नतिवेम० महत्ववान्
महत्त्ववान् ४१/२ तपो निर्जरैव. तपोनिर्जरैव ४३/१ स्यात्तथा स्यात्तथा (तथा)
निस्पृह चेद्गृही गुणे रसे
२७/१
२७/१
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हिंसा कलप्यं
२९/२ ३३/१
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श्रीविजयदानसूरीश्वरजी जैन ग्रन्थमाला-सुरत. । प्रन्यांक ग्रन्थर्नु नाम किंमत | ग्रन्यांक ग्रन्थन नाम
किंमत १ मौन एकादशी सं. पद्य
०-१-०-१२ जिनगुणगान अमीधारा गुजराती x २ श्रीयवराजर्षि कथा सं. पद्य
०-१- ३ १३ विविध प्रश्नोत्तर भा. २.
१-०-० x ३ उपधान विधि गुजराती
मेट ४१४ श्रीसुव्रतऋषि कथा प्राकृत ५ ४ श्रीश्रीपालचरित्र सं. पद्य , १५ श्रीलघुप्रवचनसारोद्धार मूल
भेट ४ ५ श्रीसामायिकसूत्र विधिसहित प्राकृत
१६ श्री आवश्यकनियुक्ति दीपिका भा. १
३-८-० ४ ६ श्रीनिशीथ चूर्णी भा. १
४१७ प्राचीन सज्झायकर्णिका गुजराती ०-२-० |-१८ स्वाध्यायदोहन संस्कृत
१-८-० ४८ , भा. ३
x१९ प्राचीन सज्झाय पद संग्रह भा. १ गुजराती __०-१२० ९ प्रतिक्रमणसूत्र पदवृत्ति संस्कृत
-६-
०४२० जिनेन्द्रस्तवकर्णिका , ४१० श्रीयोगशास्त्र- मूळ
मेट | २१ सिद्धाचल महातीर्थ स्तवनावली गुजराती ११ श्रीपिण्डविशुद्धि-मूळ सहित सं. टीका १-१२० | ४२२ सुरसुन्दरी रास
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आवश्यकनियुक्ति दीपिका।
किंमत
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ग्रन्थांक ग्रन्थy नाम
किंमत | अन्यांक ग्रन्थनुं नाम ५२३ श्रीनिशीथ चूी भा. ४
भेट | ३३ पर्युषणाष्टाहिका व्या० श्रीउदयसोमसू०
| ४३४ प्रकरणमाळा मूळ
३५ पंच प्रतिक्रमण-विधि सहित गुजराती | ४२६ युगादि देशना सं. पद्य
१-०-० ३६ जिनेन्द्र स्तवनादि काव्य सन्दोह ४२७ आराधना सार भाषान्तर सह
| ३७ तपविधि संग्रह | ४२८ प्रतिमापूजन
३८ प्रकरण दोहन ४२९ श्रीआवश्यकनियुक्ति दीपिका भा.२
३९ सत्त्वार्थ उषा ४३० प्रकरण स्तोत्रादि संग्रह
०.१०.० | १० सामायिक चैत्य-गुरुवन्दनादि ४३१ देववन्दनमाला
| ११ तीर्थकर गणधर आगम वर्णन ४३२ श्रीपिण्डविशुद्धि अनुवाद गुजराती
, १२ श्रीआवश्यकनियुक्ति दीपिका भा.३ प्राप्तिस्थानः-श्रीविजयदानसूरीश्वरजी जैन ग्रन्थमाला,
व्य मास्तर हीरालाल रणछोडभाई-गोपीपुरा-सुरत. ४ चोकडीब का ग्रन्थो खपो गयेल होवाथी मळी शके तेम नथी.
N m ० TITI ।। । ० ०७४
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॥ अईम् ॥
श्रीमन्माणेक्यशेखरसूरीश्वरविरचिता आवश्यकनियुक्तिदीपिका-तृतीयो विभागः
____ अथ षष्ठं प्रत्याख्यानाध्ययनम् ।। अथ प्रत्याख्यानाध्ययनं, पाश्चात्याध्ययने व्रणचिकित्सोक्ता, इह तु मृलोत्तरगुणानां धारणा प्रोच्यते, इत्यस्याधिकारः। अस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि सप्रपञ्चानि वाच्यानि यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे प्रत्याख्यानाध्ययनमिति, अस्य द्वारगाथा
पञ्चक्खाणं पञ्चक्खाओ, पञ्चक्खेयं च आणुपुबीए ।
परिसा कहणविही, या फलं च आईइ छब्भेया ॥ १५५० ॥ प्रत्याख्यायते निषिध्यते वस्त्वनेनेति प्रत्याख्यानं १, प्रत्याख्याता तस्य कारको गुरुः शिष्यश्च २, प्रत्याख्येयं प्रत्याख्यानगोचरं वस्तु ३, आनुपूर्व्या परिपाट्या वाच्यं इति शेषः । तथा पर्षद् वक्तव्या यथा ईदृशः पर्षदः कथ्यं ४, कथन. विधिश्च ५ वक्तव्यः । तथा फलं चास्य ऐहिकामुष्मिकफलं कथनीयं ६, आदावेते षड् भेदाः ॥१५५०।। प्रत्याख्यानमाहनामं ठवणादविए अइच्छपडिसेहमेव भावे य । एए खलु छन्भेया पञ्चक्खाणंमि नायबा ॥१५५१॥
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बावश्यक नियुक्तिदीपिका।
तृतीयो विमामः।
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नामप्रत्याख्यानं १ स्थापनाप्रत्याख्यान २ द्रव्यप्रत्याख्यानं ३ दातुमिच्छा दित्सा न दित्सा अदित्सा, सैव प्रत्याख्यानं (अदित्साप्रत्याख्यानं ४), प्रतिषेधप्रत्याख्यानं ५, भावप्रत्याख्यानं ६ ॥ १५५१ ॥नामस्थापनाप्रत्याख्याने सुगमे, द्रव्यप्रत्याख्यानमाहदवनिमित्तं दत्वे दवभूओ व(उ)तत्थ रायसुआ। अइच्छापञ्चक्खाणं बंभणसमणा अइच्छत्ति ॥१५५२॥
अमुगं दिजउ मज्झं, नत्थि ममं तं तु होइ पडिसेहो ।
सेसपयाण य गाहा, पञ्चक्खाणस्स भावमि ॥ १५५३ ॥ द्रव्यनिमित्तं प्रत्याख्यानं वस्त्रादिद्रव्यार्थमित्यर्थः, तथा द्रव्ये प्रत्याख्यानं यथा भूम्यादौ व्यवस्थितः करोति । तथा द्रव्यभूतोऽनुपयुक्तः सन् यः करोति, तुशब्दाद् द्रव्याणां द्रव्येण चेत्यादि ज्ञेयम् । तत्र राजसुताकथा यथा एकस्य राज्ञः सुता भर्तरि मृते पितुहमागता | धर्मार्थिनी पाखण्डिनां दानं दत्ते । अन्यदा कार्तिको धर्ममास इति मांसं प्रत्याख्याय तत्र मासे मांसं नाहरति पूर्णे च मासे पारणे नैकेषां नानाविधानि मांसानि स्वयं ददति, अन्यदा साधून न्यमन्त्रयत् । तैर्भक्तं लात्वा मांसं निषिद्धम् । सा प्राह किं वः कार्तिको न पूर्णः १ तैरूचे यावजीवं नः कार्तिकः । ततो मांसदोषोक्या सा बुद्धा दीक्षिता। एवं तस्याः प्राग् द्रव्यप्रत्याख्यानं पश्चाद्भावप्रत्याख्यानं जातम् । अदित्साप्रत्याख्यानं हे ब्राह्मण! हे श्रमण! अदित्सेति न मे दातुमिच्छा, न तु नास्ति यत् त्वयाऽयाचि । ततश्चादित्सैव वस्तुनः प्रतिषेधात्मिकेति कृत्वा प्रत्याख्यानम्
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॥ १५५२ || प्रतिषेधप्रत्याख्यानमाह अनुकं घृतादि मह्यं दीयताम् । इतरस्त्वाह नास्ति मम तदिति न तु दातुमनिच्छा । aaisi प्रतिषेध एव प्रत्याख्यानं प्रतिषेधप्रत्याख्यानम् । ५ । भावप्रत्याख्यानमाह ' सेस० ' शेषपदानां आगमनोआगमेत्यादीनां साक्षादिहानुक्तानां प्रत्याख्यानानां गाथाव्याख्याप्रतिष्ठा स्वयं कार्येति शेषः । इह भावमिति भावप्रत्याख्यानं इदं वक्ष्यमाणम् -
दुविहं सुअनसुअ सुर्य दुहा पुव्वमेव नोपुवं । पुवसु नवमपुव्वं नोपुव्वसुर्य इमं चैव ॥ १५५४ ॥
तद्भावप्रत्याख्यानं द्विविधं श्रुतप्रत्याख्यानं नोश्रुतप्रत्याख्यानं च । प्रत्याख्याननामकमेव तं श्रुतप्रत्याख्यानं, प्रत्याख्यानाख्यश्रुतादन्यद् नोश्रुतप्रत्याख्यानं, तत्र श्रुतप्रत्याख्यानं द्विधा पूर्वश्रुत प्रत्याख्यानं नोपूर्वश्रुत प्रत्याख्यानं च । तत्र पूर्वश्रुत प्रत्याख्यानं नवमं प्रत्याख्यानाख्यं पूर्वश्रुत प्रत्याख्यानं, पूर्वश्रुतादन्यत् इदमेव प्रत्याख्यानाध्ययनं आतुर प्रत्याख्यानादि च ॥ १५५४ ॥ नोश्रुतप्रत्याख्यानमाह
नोअपच्चक्खाणं मूलगुणे चैव उत्तरगुणे य । मूले सव्वं देतं इत्तरियं आवकहियं च ।। १५५५ ॥
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आवश्यक नियुक्तिदीपिका।
तृतीयो विभागः।
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॥
२
॥
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मूलगुणा वि य दुविहा समणाणं चेव सावयाणं च ।
ते पुण विभजमाणा पंचविहा इंति नायव्वा ॥ १५५६ ॥ नोश्रुतप्रत्याख्यानं मूलगुणा उत्तरगुणाश्च । मूलगुणाः प्राणातिपातविरत्यादयो विरतिरूपत्वात् प्रत्याख्यानम् । तथोचरगुणाः पिण्डविशोध्यादयोऽप्यशुद्धाहारादिविरतिरूपत्वात प्रत्याख्यान, उत्तरगुणविषयं वाऽनागतादिदशधाप्रत्याख्यानम् ॥ १५५५ ।। मूलगुणप्रत्याख्यानं द्विधा सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानं देशमूलगुणप्रत्याख्यानं च । सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानं पञ्चमहाव्रतानि । देशमूलगुणप्रत्याख्यानं पश्चाणुव्रतानि । एवं उत्तरगुणप्रत्याख्यानमपि द्विधा सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानं देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानं च । तत्र सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानं 'दशविधमणागयमइकतं' इत्याद्यने वक्ष्यते । देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानं सप्तविधं, त्रीणि गुणव्रतानि चत्वारि शिक्षाव्रतानि । पुनरुत्तर(गुण )प्रत्याख्यानं द्विधा इत्वरं, साधूनां किश्चिदभिग्रहादिः श्रावकाणां तु चत्वारि शिक्षाव्रतानि, द्वितीयं यावत्कथिकं तच्च नियन्त्रिताख्यं प्रत्याख्यानं यद् दुर्भिक्षादिष्वप्यमग्नं स्यात् । | श्रावकाणां त्रीणि गुणव्रतानि ॥ १५५६ ॥ सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानमाह
पाणिवहमुसावाए, अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव ।
समणाणं मूलगुणा, तिविहं तिविहेण नायव्वा ॥ १५५७ ॥ प्राणा इन्द्रियोच्ङ्कासाद्या दश, तेषां वधः, प्राणवधादिषु विषयभूतेषु श्रमणानां मूलगुणा आद्यगुणास्त्रिविधत्रिविधेन
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योगकरणत्रयाभ्यां नेतन्या ग्राह्याः । श्रमणः प्राणातिपातादिविरतत्रिविधत्रिविधेनेत्यर्थः ॥ १५५७ ॥ देशमलगुणप्रत्याख्यानं श्रावकाणां स्यादिति तद्धर्ममोषत आह
सावयधम्मस्स विहिं बुच्छामी धीरपुरिसपन्नत्तं ।
जं चरिऊण सुविहिया गिहिणो वि सुहाई पावंति ॥ १५५८ ॥ ___शृणोति यतिभ्यो धर्ममिति श्रावकः प्रपन्नसम्यक्त्वादिगुणः, धीरा अहद्गणधराः, यं धर्म चरित्वा सुविहिताः सुक्रिया | गृहिणोऽपि सुखानि (प्राप्नुवन्ति) ॥१५५८ ॥
साभिग्गहा य निरभिग्गहा य, ओहेण सावया दुविहा ।
ते पुण विभजमाणा, अट्टविहा इंति नायव्वा ॥ १५५९ ॥ तत्र सहाभिग्रहैलोत्तरगुणरूपेषु सर्वेष्वेकस्मिन् वा व्रतादौ नियमैवर्तन्त इति सामिग्रहाः, निरमिग्रहाः केवलसम्यग| दर्शनिनः कृष्णश्रेणिकादयः । ओघेन सामान्येन ते पुनर्द्विविधा अपि विमज्यमाना अष्टविधाः स्युः ॥ १५५९ ॥ यथा
दुविहतिविहेण पढमो दुविहं दुविहेण बीयओ होइ। दुविहं एगविहेणं एगविहं चेव तिविहेणं ॥ १५६० ॥
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बावश्यक नियुक्तिदीपिका
तृतीयो विभागः।
एगविहं दुविहेणं इक्विकविहेण छ?ओ होइ।
उत्तरगुण सत्तमओ अविरयओ चेव अट्ठमओ ॥ १५६१ ॥ कचनाभिग्रहं लाति, सह्येव लाति, द्विविधं त्रिविधेनेति प्रथमो भेदः १। कोऽर्थः ? द्विविधं इति योगविशेषणं त्रिविधेनेति | करणविशेषणम् । तत्र योगाः करणकारणानुमतिरूपा व्यापाराः, करणानि योगसाधकानि मनोवाकायरूपाणि, ततोऽयं अर्थः। प्राणा जीवास्तेषां अतिपातं विनाश, द्विविधं करणकारणरूपं, त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन प्रत्याख्यामि इति । एवं द्विविधं द्विविधेनेति, कोऽर्थः १ द्विविधं कृतकारितादिरूपं द्विविधेन मनोवाग्-मनाकाय-वाकायरूपेण प्रत्याख्यामि २। द्विविधं योग एकविधेन मनसा वाचा कायेन वा करणेनेति तृतीयः ३ । एकविधं योगं कृतं कारितं वा त्रिविधेन करणेनेति तुर्यः
। एकविधं योग द्विविधन करणेनेति पञ्चमः ५। एकविधं योग एकविधेन करणेनेति षष्ठः ६ श्रावकभेदः, श्राद्धस्यानुमतिनिषेधामावात्रिविधं योगमिति मङ्गो नोक्तः, यदा मनसा वाचा निषिद्धः तदा कायेन शून्यतया करोति, यदा तु वाचा कायेन निषिद्धः तदा मनसा हिंसकः, यदा मनोवाग्म्यां (मनाकायाम्यां) निषिद्धः तदा शून्यतया हिंसकवाग्भाषीत्यादिमडा जेया। अनुज्ञा तु विमिरप्यस्तीति सर्वत्र भाव्यम् । तथा कोऽपि उत्तरगुणानां मध्ये कमप्यभिग्रहं लाति, एष सप्तमो मङ्गः ७। कोऽपि नियमाग्रहणादविरतोऽष्टमो भेदः ८॥१५६०-६१ ॥
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पणय चउक्कं च तिगं दुगं च एगं च गिण्हइ वयाई।
अहवा वि उत्तरगुणे अहवा वि न गिण्हई किंचि ॥ १५६२ ॥ कोऽपि पञ्चाणुव्रतान्यादत्तेऽन्यः ४-३-२-१ इति पञ्चमेदाः, द्विविधं द्विविधेन प्रत्याख्यामीति प्रामुक्तः षडमर्गणितात्रिंशद्भेदाः स्युः। अथवा कोऽप्युत्तरगुणमध्ये नियम लाति ३१, कोऽपि कश्चन नियमं न लाति सम्यक्त्वेव(स्थ्येव) स्यात ३२, एवं ३२ श्राद्धमेदाः॥१५६२ ॥ स तु श्राद्धः सर्वोऽपि निश्चलसम्यक्त्व(क्वी) एव स्याद्यतो मलोत्तरगुणानामाधारः सम्यक्त्वं तत आह
निस्संकिय निकंखिय निबितिगिच्छा अमूढदिट्टी य ।
वीरवयणमि एए बत्तीसं सावया भणिया ॥ १५६३ ॥ वीरवचने श्रीवीरशासने निःशङ्किताः शङ्कारहिताः, निष्कासिताः कासारहिताः, निर्विचिकित्सा विचिकित्सारहिताः, शादयोऽग्रे वक्ष्यन्तेऽमृदृष्टिः (ष्टयः) विचारेषु न मृढा दृष्टिरान्तरा मतिरूपा येषां ते । एते द्वात्रिंशदपि श्रावकमेदाः सम्यग्दर्शनिनो मणिताः ॥ १५६३ ॥
सीयालं भंगसयं पच्चक्खाणंमि जस्स उवलद्धं । सो खलु पच्चक्खाणे कुसलो सेसा अकुप्सला उ ॥१५६४॥
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बावश्यक नियुक्तिदीपिका।
| तृतीयो |विमागः।
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यस्य पुंसः सप्तचत्वारिंशदधिकं भङ्गशतं विशोध्य प्रत्याख्याने उपलब्धं ज्ञातं स्यात् ॥ १५६४ ॥
सीयालं भंगसयं गिहिपञ्चक्खाणभेयपरिमाणं । तं च विहिणा इमेणं भावेयत्वं पयत्तेणं ॥१५६५ ॥ तिन्नि तिया तिन्नि दुया तिन्निलिका य इंति जोगेसुं। तिदुइक्कं तिदुइक्कं तिदुएगं चेव करणाई ॥ १५६६ ॥ पढमे लब्भइ एगो सेसेसु पएसु तिय तिय तियं ति ।
दो नव तिय दो नवगा तिगुणिय सीयाल भंगसयं ॥ १५६७ ॥ सप्तचत्वारिंशं भङ्गशतं गृहिणां एकैकव्रतरूपे प्रत्याख्याने भेदपरिमाणं, तच्चानेन वक्ष्यमाणेन विधिना भाव्यं, यथा | त्रयस्त्रिकास्त्रयो द्विकालय एकका योगेषु भवन्ति, त्रीणि द्वे एकं त्रीणि द्वे एकं त्रीणि द्वे एकं च करणानि । प्रथमं त्रिविधं | त्रिविधेनेति भने एको मेदो लभ्यते । शेषेषु भङ्गेषु त्रिकं त्रिकं चेति मेदा लम्यन्ते । तथा त्रीणि नव नव त्रीणि नव नव च एवं सर्वे लब्धमेदाः ४९ भवन्ति । ते च कालत्रयेण गुणितान्त्रिगुणिताः सप्तचत्वारिंशं भङ्गशतं स्यात् । स्थापना
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सामायिकाध्ययने एते ४९ मेदाः स्पष्टाः कृताः सन्ति । तत्र गृहिणो दीक्षार्थिनः एकादश प्रतिमां प्रपन्नस्य (स्व) विषय बाह्यारम्भाहारादीनामेव त्रिविधं त्रिविधेन नियमः स्यान्नान्येषाम् । एते च १४७ मेदाः पञ्चवतानां स्युः । ततः पञ्चगुणाः ७३५ भेदाः स्युः, यद्वा ३२ श्राद्धभेदा एवं 'पंचलब्धमेदाः ण्हमणुवयाणं, इक्कगदुगतिगचउक्कपणएहिं । पंचगदसदसपणइकगे य संजोग काया ॥१॥ पञ्चानां अणुव्रतानां एकयोगे पञ्चभङ्गाः, कोऽर्थः ? कोऽप्याद्यं एकमेवोच्चरति १, अन्यो द्वितीयं एकमेव २, एवं तृतीयादिष्वपीति ५ भेदाः । ततः द्वितयोगे १०, त्रित्रतयोगे १०, चतुर्व्रतयोगे पञ्च पञ्चतयोगे १ भेदः, यथा ( कोऽपि ) प्र०, कोऽपि द्वि०, एवं तृ० च० पं०, एवं पञ्चभङ्गाः । द्वियोगे यथा कोऽप्याद्यं व्रतं द्वितीयं व्रतं चादते १, कोप्याद्यतृतीये २, कोऽप्याद्यतुर्ये २, कोप्याद्यपश्चमे ४, एवं द्वितीयतृतीये ५, द्वितीयतुर्ये ६, द्वितीयपञ्चमे ७, तृतीयतुर्ये ८, तृतीयपश्चमे ९, कोऽपि चतुर्थपञ्चमे १० लाति । त्रिकयोगे यथा प्र० द्वि० तृतीयानि कोपिलात, परः प्र० द्वि० तुर्याणि २, एवं प्र० द्वि० पं० ३, प्र० तृ० च० ४, प्र० तृ० पं० ५, प्र० च० पं० ६, द्वि० तृ० च० ७, द्वि० ० पं० ८, द्वि० च० पं० ९, ० च० पं० १० । चतुर्योगाः प्र० द्वि० ० च १, प्र० द्वि० ० पं० २, प्र० द्वि० ० ० ३, प्र० तृ० च० पं० ४, द्वि० ० च० पं० ५ । पश्चयोगस्यैकः प्राणातिपातादीनि पश्चापि कोऽप्यादत्ते भङ्गः १, एवं मेदाः ३१, अथवा कोऽपि कश्चिन्नियमं प्रपद्यते, एवं ३२ श्राद्धभेदाः । अत्रैकयोगे पञ्चभेदाः दुविह
३ ३ ३ २ २ २ १ १ १ योगाः
१ ३ २ १ ३ २ १
करणानि
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आवश्यक
निर्युक्तिदीपिका ।
॥ ५ ॥
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तिविणं पढमो, इत्यादि ६ मङ्गैर्गुणिता जाताः सर्वेऽपि ३० भेदाः, द्विकयोगे तु धूलगं पाणाइवायं पञ्चवक्खामि धूलगं मुसावायं पच्चक्खामि दुविहं तिविहेणं १, तथा थूलगं पाणाइवायं पञ्चवक्खामि दुविहं तिविहेणं धूलगं मुसावायं पञ्चक्खामि दुविहंति (दु) विहेणं २, एवं आद्यं दुविहं तिविहेण द्वितीयं दुविहं एगविहं (हेणं) ३, तथाद्यं तथैव द्वितीयं तु एगविहं तिविहेणं ४, आद्यं तथैव द्वितीयं एगविह दुविहेणं ५, आद्यं तथैव द्वितीयं एगविहं एगविणं ६, एवं भङ्गाः ६ षट् एकेनाद्यव्रतस्थेन दुविहं तिविहेण पदेन लब्धाः, तत आद्यं व्रतं दुविहं दुविहेणं द्वितीयं दुविहं तिविहेणं १, पुनराद्यं दुविहं दुविहेणं द्वितीयं दुविहं दुबिहेणं २ आद्यं तथैव द्वितीयं दुविह एगविहेणं ३ इत्यादिभङ्गाः ६ आथव्रतस्थेन दुविहं दुविहेण पदेन लब्धाः एवं भङ्गाः १२, तत आद्यं दुविहं एगविणं द्वितीयं तु दुविह तिविहेणेत्यादि ६ भङ्गा दुविहं एगविहेण लब्धाः, एवं भङ्गाः १८, तत आद्यं एगविहं तिविहेणं द्वितीयं तु दुविहं दुविहेणं इत्यादिषङ्गभङ्गैः सर्वे २४ भङ्गाः । तत आद्यव्रते एगविहं दुविहेणं पदेन द्वितीयव्रतषभङ्गैः ३० भङ्गाः, तत आद्य एगविहं एगविहेणं द्वितीये तु षड्भङ्गपरावर्त्तिते ३६ मङ्गा जाताः, एवं आद्यद्वितीयत्रतरूपे प्रथमे द्विकयोगे ३६ श्राद्धभेदा जाताः । यतः कोऽपि आद्यभेदेन कोऽपि द्वितीय भेदेनोच्चरतीत्यादि । एवं शेषाणां द्विकयोगानां नवानां ३६ भङ्गाः स्युर्जाताः ३६० एते एव भेदात्रिकयोगे षड्गुणाः २१६० मेदाः स्युः, यतो ये द्विकयोगे भङ्गाः सन्ति त एव तृतीयेन षइभिर्भङ्गैः परावर्तितेन गुण्यन्ते । तत्र परावर्त्तवत्कार्यं पश्चिमानुपूयैव यथादौ अन्त्यत्रतं षड्भङ्गैर्गुण्यते । तावत्प्रथमद्वितीयत्रतयोरेकमेव दुविहं तिविहेणं पदं स्थाप्यते । ततो द्वितीये दुविहं दुबिहेणं कथ्यते । आद्ये च दुविहं तिविहेणं पदं अन्त्यव्रते च षड्भङ्गाः प्राग्वत् । ततो द्वितीयं द्विविधैकविधादिभङ्गाः क्रमेण क्रियन्ते । एवं ३६
तृतीयो
विभागः ।
॥ ५ ॥
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भङ्गैः कृतैराये दुविहं दुविहेणं स्थाप्यते, एवं यावत् प्रथमस्थाने एगविहं एगविहेण पदं स्थापित, एवं २१६ भङ्गा जाता: सर्वे दशगुणा २१६० मेदाः । गतस्त्रियोगः, चतुर्योगे यथाऽन्त्ये षड्गुणाः ततः पाश्चात्यपरावर्ते ३६ ततोऽपि पाश्चात्यपरावर्ते २१६ प्राग्वत् । तत आद्यस्य षभिर्भङ्गैर्गुणने १२९६ भेदा एकैकस्मिन् चतुर्योगे लब्धा ईदृशाः पञ्च चतुर्योगभेदाः सन्ति तेन पञ्चभिर्गुणने ६४८० सर्वमेदाः । गतश्चतुर्योगः, अथ पञ्चयोगः, तत्रान्त्ये षट् पाश्चात्ये ३६ ततः पाश्चात्ये २१६ ततः पाश्चात्ये १२९६ ततः पाश्चात्ये ७७७६ मेदाः । तत्र सर्वसङ्ख्या पश्चव्रतानां लिख्यते । एकयोगे ३० द्वियोगे ३६० त्रियोगे | २१६० चतुर्योगे ६४८० पञ्चयोगे ७७७६ । सर्वे त्रिंशदादिभङ्गा एकत्र मीलिताः १६८०६ तथा उत्तरगुणान् दिग्वतादीन कोऽपि लाति कोऽप्यविरत एव । एवं १६८०८ श्राद्धमेदाः । अत्र गाथाः
वयमिकगसंजोगाण हुंति पंचण्ह तीसई भंगा। दुगसंजोगाण दसह तिन्नि सट्ठा सया हुँति ॥१॥ संजोगाण दसह भंगसयं इक्कवीसई सट्टा । चउसंजोगाण पुणो चउसट्ठिसयाणिऽसीयाणि ॥२॥ सत्त्तरि सयाइं छसत्तराइं च पंच संजोए । उत्तरगुण अविरयमेलियाण जाणाहि सव्वग्गं ॥ ३ ॥
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HOSE%
आवश्यकनियुक्ति
सोलस चेव सहस्सा अट्ठसया चेव हुँति अट्टहिया। एसो उवासगाणं वयगहणविही समासेणं ॥४॥
तृतीयो विमागः।
दीपिका।
४८
5-155
३४२
कालत्रयेणेतैर्मङ्गैस्त्रिगुणितेनागतमाह-पन्नाससहस्साई, चत्वारि सयाई तह य चउवीसा । काल२४००
तियगुणियमेयं अणुब्बयाणं छभंगीए ॥१॥ एष संक्षेपव्रतग्रहणविधिः । तथात्र षड्भङ्गादयो विक१६८०६ ल्पाश्चत्वारः स्युस्तत्र षड्भङ्गयां आयव्रते षड्भङ्गाः, आद्यद्वितीययोस्तु प्रत्येकोच्चारे १२ संयुक्तोचारे ११७६४८ तु ३६ भङ्गा एवं ४८ भङ्गाः। आद्यद्वित्रियोगे प्रत्येकं ग्रहणे १८ द्विसंयोगे ३६ त्रिगुणाः क्रियन्ते १०८ ८२३५४२ जायन्ते यतः प्राणा० मृषा०, अद० मृ०, प्रा० अद०, एवं त्रियोगे २१६ मेदाः सर्वे ३४२ एवं द्वादश५७६४८०० व्रतैरपि ज्ञेयाः। इह सामायिकपौषधसंविभागेषु पड्भङ्गथादि तदतीचाराणां न करोमीत्यादिप्रकारो | ४०३५३६०६। ज्ञेयः, अन्यथा वा स्वधिया भाव्यं, सामायिके वा बहुसो सामाइयं कुजा मध्यस्थो भूयादिति युच्या
२८२१७५२४८ | पौषधे नियमरूपपौषधयुक्त्या वा चिन्त्यम् । सर्वसत्यवं इह आद्यव्रते ६ भङ्गास्ततो द्विकादियोगेषु M॥१९७७३२६७४२ | पाश्चात्यः पाश्चात्योऽङ्कः सप्तगुणः षड्युतश्च क्रियते । एषा स्थापना चैवम् ।
१३८४१२८७२० षड्भङ्गीप्ररूपणा ॥
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अथ नवभङ्गी यथा । मणेणं न करेमि १ वायाए न करेमि २ कारणं न करेमि ३ मणेणं न कारवेमि ४ वायाए न कार० ५ कायेणं न कार० ६ मणेणं नाणुजाणामि ७ वायाए नाणुजाणामि ८ कारणं नाणुजाणामि ९ एवं नवभङ्गाः | एकैकव्रते, ततो द्वादशवतेषु स्थापना यथाद्ये एको नवकः, व्रतद्वये ९९ द्वौ नवको, व्रतत्रये ९९९ त्रयो नवकाः यावद् द्वादशव्रतयोगे द्वादशनवकाः । एवं नवमङ्गी । अथ षड्भङ्गया भेदे २१ भेदाः , अत्रायमर्थः दुविहं तिविहेणभेदे १ एको भङ्गः। दुविहं दुविहेणभेदे त्रयो भङ्गाः, यथा न करेमि न कारवेमि मणेणं वायाए १, न क० न का० मणेणं कारणं २, नक. नका. वायाए कारण ३ तथा द्विविधं एकविधेनेत्यत्रापि ३ मङ्गाः। न करेमि न कारवेमि मणेणं १, न क० न का वायाए २, न क न का० काएणं ३ । तथा एगविहं तिविहेण भङ्गद्वयं यथा मणेणं वायाए कारणं न करेमि १, मणेणं है वायाए कारणं न कारवेमि एगविहं दुविहेणं मना६ यथा मणेणं वायाए न करेमि १, मणेणं कारणं न करेमि २, वायाए कारण न करेमि ३, मणेणं वायाए न कारवेमि ४, मणेणं कारणं न कारवेमि, ५ वायाए कारणं न कारवेमि ६ । एगविहं एगविहेणं भङ्गा ६ यथा मणेणं न करेमि १, वायाए न क० २, कारणं न क० ३, मणेणं न का० ४, वायाए न का०५, कारणं न कारवेमि ६, एवं एकविंशतिभङ्गाः । अत्रैकद्विकादिसंयोगसंख्यागाथा 'एगाईवयतुल्ला, उवरुवरि पक्खिवे चरमवजं । छ छक्कगगुणिया गुणकारा ते ठवह अग्गे' । एकद्व्यादयो व्रतमाना अङ्का ऊर्ध्व ऊवं स्थाप्यन्ते । तत्र ५व्रतस्थापना यथा । ततो. ऽन्त्यावर्ज पाश्चात्योऽकोऽग्रे मील्यते । एवं ऊर्बोकिनिवृत्या पूर्वपूर्वाकोऽग्रे योज्यः, इति एकठ्यादिसंयोगसङ्खथा स्यात् , सा च षड्भङ्गयां षड्गुणषड्गुणवृद्धाकस्य गुणकाररूपा ज्ञेया तद्गुणः षड्गुणाङ्कः क्रियते इत्यर्थः, एवं भङ्गकसङ्ख्या स्यात् । सा चाग्रे
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आवश्यक
निर्युक्तिदीपिका ।
॥ ७ ॥
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लेख्या यथा एकोद्विकेक्षिप्तो जातस्त्रिकः, स (च) त्रिके क्षिप्तो जाताः पडित्यादि यावदन्त्यं पञ्चकं मुक्त्वा पश्चाद्दश जाताः । अथ एकविंशतिभङ्गैः सर्वव्रतभेदा लिख्यन्ते । तत्राद्यवते २१ ततस्त एव द्वाविंशतिगुणा एकविंशतियुक्ताश्च सर्वव्रतसंख्या क्रमात् स्थापना । एकोनपञ्चाशद्भग्यां एकत्रते ४९, व्रतद्वये २४९९, व्रतत्रये १२४ ततो नवकत्रयं, व्रतचतुष्के ६२४ नवकचतुष्कं एवं ३१२४ नवकपञ्चकं, १५६२४ नवकषट्कं । एवं व्रतवृद्ध्या लिखिताङ्केभ्यो नवकवृद्धिर्ज्ञेया यावद् द्वादश (मे) द्वादश नवकाः । ७८१२४, ३९०६२४, १९५३१२४, ९७६५६२४, ४८८२८१२४, २४४१४०६२४ । ३३ । १ ३२ । ३ ३१ । २
२३ | ३
२३ । १
२२ । ३
२१ । ३
१३ ।२
१२।६
११ । ६
एवं २१
२१ ४८३
१०६४७
२३४२५५
५१५३६३१
११३३७९९०३ २४९४३५७८८७
५४८७५८७३५३५ १२०७२५९२१७७९१ २६५५१९२२७९१४२३ ५८४३१८३०१४११३२७ १२८५५००२३३१०४९२१५
४९ २४९९ १२४९९९
६२४९९९९
३१२४९९९९९
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७८१२४९९९९९९९ ३९०६२४९ १९५३१२४९९९९९९ ९७६५६२४९९९९९९९ | ४८८२८१२४९९९९९९९९ २४४१४०६२४९९९९९९९
२२ ।९
तिविद्धं तिविद्वेण तिविहं दुविहेणं तिविहं एगविहेणं दुविदं तिविद्देणं दुविहं दुविद्देणं दुविहं एगविणं २९ । ९ एगविहं तिविणं १३ । ३ एगविहं दुबिहेणं १२ । ९ एगविहं एगविणं ११ । ९ एवं ४९ भङ्गाः
श्रावक
व्रत
भङ्गाः ।
॥ ७ ॥
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तत्र यस्मात् श्रावकः धर्मस्य मूलं सम्यक्त्वं तत्वार्थश्रद्धानरूपं उपसम्पद्यतेऽतस्तद्विधिः
तत्थ समणोवासओ पुवामेव मिच्छत्ताओ पडिक्कमइ, सम्मत्तं उवसम्पजइ, नो से कप्पइ अजप्पभिई अन्नउत्थिए वा अन्नउत्थिअदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि अरिहंतचेइयाणि वा बंदित्तए वा नमंसित्तए वा पुठिच अणालत्तएणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा तेसिं असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पयाउं वा, नन्नत्थ रायाभिओगेणं गणाभिओगेण बलाभिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तीकंतारेणं, से य सम्मत्ते पसत्थसम्मत्तमोहणियकम्माणुवेयणोवसमखयसमुत्थे पसमसंवेगाइलिङ्गे सुहे आयपरिणामे पन्नत्ते, सम्मत्तस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियब्वा न समायरियव्वा, तंजहा-संका कंखा वितिगिच्छा परपासंडपसंसा परपासंडसंथवे (सूत्रम् )
तत्र श्रमणानां यतीनां उपासकः श्रावकः पूर्वमेवादावेव श्रावको भवन् मिथ्यात्वात्तत्त्वाश्रद्धानरूपात प्रतिक्रामति निवर्त्तते। सम्यक्त्वमुप सामीप्येन सम्पद्यते स्वीकुरुते । से तस्य नो कल्पते नो युज्यते । अद्यप्रभृति सम्यक्त्वप्रतिपत्तेरारम्यान्यतीर्थिकां. स्तापसादीन अन्यतीर्थिकदैवतानि रुद्रादीनि अन्यतीर्थिकपरिगृहीतानि वाहेच्चैत्यान्यहत्प्रतिमारूपाणि महाकालवीररुद्रादीनि बोटिकानि वा वन्दितुं स्तोतुं नमस्कत, वा समुच्चये, न कल्पते इति सम्बन्धः। तद्वन्दनादेर्मुक्त्यर्थिनामप्रयोजनात् मिथ्यादृशा स्थिरीकरणादेश्च । तथान्यतीर्थिकैः पूर्व अनालप्तेन सता तान् आलप्तुं सकृद्वादयितुं वार्ता कतुं संलप्तुं पुनःपुनर्वादयितुं, यतस्ते सारम्भाः स्युः, वादिताश्च गृहागमादिप्रसङ्गमारम्भं च कुयुः, शिशूनां च विकथादिप्रसङ्गस्नेहौ स्याताम् । तेषामशनादि
LECTROCESCOCCCESS-CCESCA-G
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ॐ9C%
सम्यक्त्वाधिकारः।
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आवश्यक
| दातुं सकृत् अनुप्रदातुं असकद्दातुं च नो मम कल्पते, किन्तु अन्यत्र राजाभियोगाद्याकारेभ्यः राजाभियोगादि विनेत्यर्थः। नियुक्ति
# राजाभियोगादौ ददद् धर्म नातिक्रमते । तत्र राजाभियोगो राजाग्रहः, गणो जनवृन्द, बलाभियोगो बलात्कारः, देवतादीपिका। भियोगो देवताग्रहः । गुरुनिग्रहो गुर्वादेशः। वृत्तिकान्तारं दुर्मिक्षम् । तत्र राजाभियोगे कार्तिकश्रेष्ठी दृष्टान्तः, स नैगमाष्टस
हस्रमुख्यो हस्तिनापुरे गृहीतसपरिवारजितशत्रुराजाग्रहाल्लिनिनो मास(क्षपण)पारणे स्वयं परिवेषकोऽभूत, लिङ्गी च तदाङ्गुलि चालितवान् कथं ते सम्यक्त्वमिति तेन निर्वेदेन नैगमाष्टसहस्रयुक् श्रीसुव्रताहत्पार्श्वे प्रव्रज्य चतुर्दशपूर्वी द्वादशसमपर्यायः सौधर्मे शक्रत्वं प्राप्तो लिङ्गी च तेनाभियोगेनैरावणोऽभृदिन्द्रं दृष्ट्वा नष्टो गृहीतः शक्र आरूढः द्वे शीर्षे कृते शक्रावपि द्वौ | जातौ । एवं यावन्ति शीर्षाणि करोति तावन्ति शक्रोऽपि रूपाणि । ततो नश्यन् वजाहतः स्वस्थोऽस्थात् । गणाभियोगेन & वरुणो स्थमुशले युद्धे प्रवृत्तः। एवं श्राद्धोऽपि गणाभियोगादन्यतीथिकानां ददाति । देवताभियोगे कोऽपि नवश्राद्धो जातः। पूर्वगोत्रजादिव्यन्तराण्यत्यजत्, सुर्या तवावः सुतश्चापहृताः श्राद्धं च वक्ति कि मां त्यजसि ? श्राद्धेनोक्तं अर्ह| प्रतिमान्ते तिष्ठ तत्रार्चयामि । ततः सुरी तत्र स्थिता गाः सुतं (च) आनयत् । ३ गुरुनिग्रहे बौद्धः श्रावकपुत्रीं छद्मना परि-1 णेतुं कपटश्राद्धो भूत्वा सम्यग् निविष्टे श्राद्धो जातः, छमालोच्य श्रेष्ठिनोद्वाहितः । पृथग् गृहं कृत्वा स्थितः। अन्यदा पितम्यां बौद्ध भिक्षुम्यो भक्तं विधायाग्रहेणाहानाय प्रेषितः । तैरभिमन्त्रितफलदानेन परावृत्तो गृहमेत्य प्रियामृचे भिक्षुभ्यो भक्तं दवः श्राविका नैच्छत् । तत्सेवका भोज्यं कत्तुं प्रवृत्ताः । श्राविकया गुरुम्य ऊचे । तैर्योगप्रतिभेदो दत्तः, स तयाऽम्मसा तस्य दत्तः । बौद्धव्यन्तरा नष्टाः । स भावुके जातेऽवक् किमेतद्भोज्यम् ? । ततः प्रियोक्त्या ज्ञात्वा तत्प्रासुकं
ACCORRECTOR
॥
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HOROSCORRENGEL
| साधुभ्यो ददौ । वृत्तिकान्तारे सौराष्ट्रिकः श्राद्धोऽवन्त्यां दुर्मिक्षे यान् शम्बलत्रुटौ बौद्धशम्बलं निर्वाहाय वदन् तैर्निर्वाह्यते | सोऽतिसारान्मृतस्तैरन्ते स्वरक्ताम्बरैर्देष्टयित्वा त्यक्तः । स नमस्कारेण मृत्वा वैमानिकदेवो जातः । स्वं भवं वीक्ष्यमाणो || रक्तवस्वाच्छादितदेहं दृष्ट्वा प्राग्भवे स्वं बौद्धं मन्यमानो बौद्ध भिक्षूणां भक्तिं चक्रे । भिक्षाकाले भूषितकरणाकाशस्थेन तेभ्यो भिक्षां दत्ते । तेन बौद्धोन्नतिर्जाता । श्राद्धैर्गुरूणामागतानां ज्ञापितम् । गुरुभिरूचे । देवस्य कर लात्वा भणत 'नमो अरिहं.18 ताणं बुझ गुज्झगा'। तैस्तथाकृतं देवः सम्बुद्धो नत्वा लोकमृचे । बौद्धेषु न धर्मः, जैनधर्मः सत्य इति स श्राद्धोऽभूत् । | अन्यतीर्थिकाणां तद्भक्तानां च दाने मिथ्यात्वस्थिरीकरण, भक्तदाने तु सम्यक्त्वलाञ्छनं आरम्भदोषश्च, दयागोचरत्वं प्राप्तानां तु दद्यादपि यतः 'सव्वेहिं पि जिणेहिं दिजह (दुजय) जियरागदोसमोहेहिं सत्ताणुकंपणट्ठा दाणं न कहिं व (कहिंचि) पडिसिद्धं । तथाऽर्हन्तोऽप्यनुकम्पया सांवत्सरदानं ददति । अत्र क्षेपकं पदं । ' से य सम्मत्ते पसत्थेत्यादि । तत्सम्यक्त्वं किमुच्यते इत्याह प्रशस्ता उज्ज्वलीकृता मिथ्यात्वपुद्गलास्ते सम्यक्त्वमोहनीयकणिव उच्यन्ते तद्वेदनसमुत्थं आधुनिककाले वर्तमानं क्षायोपशमिकसम्यक्त्वम् । तथा सम्यक्त्वाणूपशमसमुत्थं प्राग्वर्णितं औपशमिकं सम्यक्त्वम् । तथा सम्यक्त्वाणुक्षयसमुत्थं क्षायिकसम्यक्त्वम् । एते द्वे अधुना न स्तः। परं सम्यक्त्वं सर्व प्रशमसंवेगादिलिङ्गः प्रशमसंवेगादिलक्षणं शुभ आत्मपरिणामः प्रज्ञप्तोऽर्हता। एतावता शुभपरिणामस्तत्त्वत्रयश्रद्धानरूपः सम्यक्त्वं स्यादित्यर्थः। 'सम्मत्तस्स' श्रमणोपासकेन श्रावकेणेमे पञ्च, 'अतिचरति सम्यक्त्वं यात्येभिरित्यतिचाराः दोषा ज्ञातव्याः श्रद्धानज्ञानाम्यां न तु समाचरितव्याः। तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासे । शङ्का मतिदौर्बल्याजिनोक्तेषु संशयः शङ्का, सा द्विधा देशतः सर्वतश्च, तत्र देशतः किं जीवो
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बावश्यक नियुक्तिदीपिका।
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| देहमात्रो विश्वमात्रो वेत्यादिरूपा । सर्वतः किं जीवोऽस्त्यहनभृन्नवेत्यादि । तत्र सर्वार्हदाज्ञा प्रमाणमेव कार्या। 'पयमक्खरं
त्रीणि पि एकं जो य न रोएइ यो न रोचयति न श्रद्धत्ते सुत्तनिद्दिटुं । सेसं रोयन्तो रोचमानो वि हु मिच्छा(च्छ)द्दिडी मुणेयब्बो'।१।
शतानि इह संशयोऽपि मिथ्यात्वमेव ।। कासा परदर्शनेष्वभिलाषः । सा च द्विधा देशतः सर्वतश्च । देशतः सौगतं दर्शनं कासति ।
द्र त्रिपश्यधिसर्वतः सर्वदर्शनानि कासति । अथवैहिकामुष्मिकफलानि काङ्क्षति, तदपि न युक्तं समयनिषिद्धत्वात् , मुक्ति विनान्या
कानि कासा न कार्या २। विचिकित्सा पुण्यफलं प्रति सन्देहः । यद्वा विदो विद्वांसस्तेषां जुगुप्सा विजु(ज्जु)गुप्सा साधनां निन्दा18
पाखयथा 'अस्नाना एते' इत्यादि ३ । परपाखण्डानां परमतानां प्रशंसा स्तुतिः। तानि यथा 'असीइसय किरियाणं अकिरिय
ण्डिनः। वाईण होइ चुलसीई। अण्णाणी सत्तट्ठी वेणइयाणं तु बत्तीसं। १ । कालो १ सहाव २ नियई ३ पुवकयं ४ पुरिस कारणे पंच । समवाए सम्मत्तं एगंते होइ मिच्छत्तं'।२। अत्रैकान्तवादिनां मतं लिख्यते । कालवादी वक्ति कालेन विश्वमुत्पद्यते कालेन बर्द्धते, कालेन जरामेति, कालेन विनश्यति । अतः काल एव विश्वोत्पत्तिहेतुः।१। स्वभाववाद्याह- स्वभावेन सर्वविश्वोत्पत्तिः स्यात् । कः कण्टकान् तीक्ष्णान् करोति, को मोरं चित्रयति, कोऽब्जानि सुरभयति इत्यादिकं सर्व स्वभावेन निष्पद्यते । नरस्य नृस्वभावः, स्त्रियाः स्त्रीस्वभावः इत्यादि । २। नियतिवाद्याह-नियतिर्भवितव्यता कथ्यते । सा यत्करोति तद्भवति । यद्भावि वर्त्तते तदिन्द्रेणापि न रक्ष्यते । यद्भावि नास्ति तत्केनापि न भवति । यद्वस्तु यदा भाव्यस्ति तत्तदेव भविष्यति किं स्यात् बहूपक्रमैरपि । तथा प्रसूति भृत्वा कपर्दानि क्षिप्तानि एकानि समानि पेतः अन्यान्यधोमुखानि पेतुरित्यादौ नियतेरेव प्रमाणम् । इह नियतिर्नाम द्रव्यक्षेत्रभावैर्विशिष्टः कालभेदः३। कर्मवाद्याह
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यत्कर्म्म करोति तदेव स्यात् अन्यत्सर्वं वृथा ४ । पुरुषकारवाद्याह आत्मोपक्रमेणैव विश्वं निष्पद्यते । आत्मा विश्वं सृजति आत्मा पालयति आत्मा संहरति । यावदेते पञ्चवादिनः स्वीयं स्वीयं मतं स्थापयन्ति तावन्मिथ्यात्वं चेत्समवायेन पश्चापि कालादीन् मन्यन्ते तदा सम्यक्त्वं स्यात् । यो भार एकेन द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिरनुत्पाट्यः सन् पञ्चभिर्जनैरुत्पाटितः स्यात् स चेदेकेनोत्पाटितः कथ्यते तर्हि मिथ्या, पञ्चभिरुत्पाटितः कथ्यते तर्हि सम्यक् । तथा विश्वं पञ्चभिर्निष्पाद्यमानमस्ति । तत्रैकं स्थाप्यते तन्मिथ्यात्वम् । समवायो यथा केनापि जीवेन स्थानाद्युपक्रमं कृत्वा वृक्ष आरोपितः, जीवयोगात् कालेन वर्द्धितः, स्वभावेन मधुरादिरसो जातः कर्म्मतश्चिरस्थायी भूतः, भवितव्यतया यथासङ्ख्यं पत्रफलशाखा दिवा (मा) नजनि । इत्थं सर्वस्मिन् जीवाजीवरूपे विश्वे पश्चापि वचांसि ज्ञेयानि । तथात्र नवतन्च्वेऽशीतिशतक्रियावादिन इति नाम्ना पाखण्डिनो भवन्ति, भणन्ति च जीवोऽस्ति क्रियां च करोति । तत्रैके आहुः अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालतः १ | एके आहु अस्ति जीवः स्वतोऽनित्यः कालतः २ । एके आहुः अस्ति जीवः परतो नित्यः कालतः ३ । एके आहुः अस्ति जीवः परतोऽनित्यः कालतः ४ । स्वत इति आत्मस्वरूपेण । परत इति घटादिपदार्थापेक्षया हस्वत्वदीर्घत्ववदिति । एवं जीवपदं चतुर्द्धा कालवाद्याह । इत्थमेव स्वभाव २ नियतीश्वरात्मवादिनः पश्चापि चतुर्द्धा चतुर्द्धा वदन्ति । एवं विंशतिर्जीववादिनो जाताः । एवं अजीव पुण्यपापाश्रव संवरनिर्जराबन्धमोक्षेषु प्रत्येकं प्रत्येकं विंशतिर्वादिनो भवन्ति । एवं सर्वेऽशीतिशतक्रियावादिनो भवन्ति । तत्रेश्वरो नैयायिकैर्मन्यते । मीमांसकैः सर्वत्रक एवात्मा मन्यते । तथाऽक्रियावादिनः 'सर्वं क्षणे क्षणे विनश्यति अतः कारणात् कोऽपि क्रियां न करोति ' ईदृशं वदन्ति । ते चतुरशीतिभेदाः स्युः । तत्रैके इत्थमाहुः नास्ति आत्मा स्वतः
।
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आवश्यक नियुक्तिदीपिका।
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त्रीणि शतानि त्रिषष्ट्यधिकानि पाखण्डिनः।
॥१०॥
कालतः १ । एके आहुः नास्त्यात्मा परतः कालतः २। इत्थं जीवमाश्रित्य कालवादिभेदद्वयेन भवति । इत्थं स्वभाव २ यदृच्छा ३ नियति ४ ईश्वर ५ आत्मवादिनो मेदद्वयेन भवन्ति । एवं जीवमाश्रित्य वादिनां द्वादशभेदाः स्युः। तत्र यहच्छा सा कथ्यते यत्किञ्चिदकस्माजायते, सा नियतेरेव भेदः। उपक्रमे क्रियमाणे न टलति सा नियतिः स्यात् । अथवा यदृच्छा सा कथ्यते या न नियतित्वेनोत्पतिः यथेदृशं नास्ति यगोधूमा गोधूमेभ्य एवोत्पद्यन्ते किन्तु वंशादिकेभ्योऽप्युत्पधन्ते इत्यादि । इत्थं पुण्यपापे वर्जयित्वा अजीवादिषट्तत्वानां द्वादश द्वादश भेदैर्वादिनः स्युः एवं सर्वे चतुरशीतिभेदाः अक्रियावादिनाम् । ये आत्मानं न मन्यन्ते ते पुण्यपापे तत्त्वमध्ये पृथक् न गणयन्ति । तथा सप्तषष्टिरज्ञानिनः, ते जीवादिनवतत्त्वानां सोत्पत्तीनां भेदैः स्युः। यथैके आहुः जीवोऽस्ति इत्थं कोऽपि वेत्ति कोऽपि न वेत्तीत्यर्थः, किं कार्य तेन ज्ञातेन १। के आहुः नास्ति जीव इति को वेत्ति किं कार्य तेन बातेन २। के आहुः जीवोऽस्ति नास्ति च देशकालविशेषेण पुनरित्थं को जानातीत्यादि । के आहुः जीवोऽवक्तव्यः, इत्थं को वेत्ति किं कार्य तेन ज्ञातेन ४। के आहुः जीव: सदवक्तव्यः, इत्थं को वेत्ति किं वा तेन ज्ञातेन ५। के आहः जीवोऽसदवक्तव्यः, इत्थं को वेति किं वा तेन ज्ञातेन ६ । के आहुः जीवः सदसदवक्तव्यः, इत्थं को वेति किं वा तेन ज्ञातेन ७ । इत्थं सप्त वादिनो जीवे जाताः । इत्थं के आहुः अजीवोऽस्ति को वेत्ति किंवा तेन बातेन इत्यादि सप्त वादिभेदाः । इत्थं शेषेषु तत्त्वेषु ज्ञेयाः, एवं सर्वे त्रिषष्टिर्भेदाः । तथा के आहुः उत्पत्तिरस्ति को वेति किं वा तया ज्ञातया १। के आहुः नास्ति भावोत्पत्तिः को०२। के आहुः अस्ति नास्ति भावोत्पत्तिः को०३ । केप्याहुः उत्पत्तिरवाच्या को०४, इत्थं ज्ञानं मन्यन्ते । एवं चतुर्मिरुत्पत्तिमेदवादिभिः
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सह सप्तषष्टिरज्ञानवादिनो मेदाः स्युः । अत्रोत्पत्तिवादिनश्चतुर्भिरेव भेदैः स्युः, सदवक्तव्यादिमेदत्रिकं न स्यात् । तथा द्वात्रिंशद्विनयवादिनो वैनयिकाः स्युः । तत्रैके आहुः देवानां मनसा विनयः क्रियते १ केप्याहुः वाचा क्रियते २ केऽपि कायेन ३ केsपि दानेन क्रियते ४, देवविषये चत्वारो विनयवादिभेदाः । इत्थं राज २ यति ३ ज्ञाति ४ वृद्ध ५ अनास्तिक ६ पितृ ७ मातृ ८ विषये मनोविनयादिकचतुर्भेदे विनयवादिनो भवन्ति, एतानष्टौ चतुर्गुणान् कृत्वा द्वात्रिंशद्वैनयिक मेदाः स्युः । एवं १८०-८४ ६७-३२ । एवं सर्वे एकान्त ( एकत्र ) स्थापने त्रिशतानि त्रिषष्टिश्च पाखण्डिनः । यतः यत्क्रियावादिनः आहुः अस्त्येव जीवः तन्मिथ्या, यद्येकान्तेन जीवः सन्नेवास्ति तर्हि यथा जीवो जीवत्वेऽस्ति तथा जीवोऽजीवत्वे स्यात् पुनरित्थं न स्यात् । अतो जीवादिकं सदसद्वाच्यं स्वरूपेऽस्ति पररूपे नास्तीत्यर्थः । यदेकान्तेन नित्यमनित्यं च स्थाप्यते तन्मिथ्यात्वम् । यदि जीव एकान्तेन नित्य एव स्यात् तर्हि कथमुत्पद्यते विनश्यति च । यद्यनित्य एव स्यात् तर्हि को बध्यते को मुच्यते १ तपःक्रियास्मृत्यादिव्यवहारोच्छेदथ । परं जीवो द्रव्यत्वेन नित्यः देवनरादिपर्याय परावर्त्तेन । नित्यश्च स्यात् । इत्थमजीवादिकमपि ज्ञेयम् । यञ्जीवोऽस्ति पुनः कालतो नित्यः स्वभावतो नित्य इत्याद्येकान्तस्थापनेन पाखण्डिनो भवन्ति । परं जीवाजीवादिकं स्वभावादेव नित्यानित्यमस्ति । तत्र कालभवितव्यतादिसहकारिहेतवो ज्ञेयाः । तथा जीवो नित्यानित्यः सभ्वान्यथानुपपत्तेः व्योमवत् । तथा वस्तु समुदायेनैव स्यात् सहकारिसापेक्षत्वात् पटवत् । तथाऽक्रियावादिनो जीवादिकं सदपि नास्तीति वदन्ति ततः पाखण्डिनः । अज्ञानिनो ज्ञानममन्वानाः १ अधमः इति हारि० वृत्तौ पृ. ८१७/२
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आवश्यक
निर्युक्ति
दीपिका
॥ ११ ॥
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'पाखण्डिनः । तथास्त्यनन्तज्ञानं तारतम्यवश्वात् परिमाणवत् यथा तद्व्योम्नि स्थितं तच्चैदं जिनैः (प्रोक्तं ) । वैनयिकाः पात्रापात्र विचारणानिरपेक्षत्वेन विनयं मन्यमानाः पाखण्डिनः । तथा विनयः पात्रे कार्यः सत्फलत्वात् दृष्टिवत् । तत्र सम्यक्त्ववतैकान्तो न स्थाप्यः किन्तु सर्व्वं द्रव्यतो नित्यं पर्यायतोऽनित्यं च पुनः स्वरूपेणास्ति पररूपेण नास्ति । इत्थं नित्यानित्यं अस्ति नास्तिरूपं मान्यम् । ज्ञानवादी केवलं ज्ञानमेव स्थापयति, दर्शनवादी तु दर्शनं, चारित्रवादी चारित्रमेव । परमेकेन ज्ञानादिना मुक्तिर्न स्यात् । ज्ञानदर्शनचारित्रेषु मिलितेषु मुक्तिः स्यादिति ज्ञेयम् ४ । परपाखण्डिनां संस्तवः परिचयो गृहा मैत्रवास भोजनादिरूपः ५ । तंत्र शङ्कायां दृष्टान्तः । द्वौ सुतौ लेखशालायाः शीताशनायायातः, मात्रा पेयायां माषाः क्षिप्ताः । एको मक्षिकाधिया पिवति, तस्य वल्गुलीव्याधिरुत्पन्नो मृतश्च । अन्यो मन्माता मक्षिका न दत्ते इति ( पिबति ) जीवितः । काङ्क्षायां राजामात्यश्वाश्वहृतौ वने क्षिप्तौ । क्षुधा फलान्यत्तः । वलमानो राजा दध्यौ । लड्डुकादि बह्वद्मि । तत एतेन सूपकारोऽभाणि, यलोके ख्यातं तद्भव्यं राध्यम्, ततो राद्धे सर्व इदं भव्यमिदं भव्यमिति बहु बुभुजे शूलेन मृतः । मन्त्री यद् भुञ्जानो भोगभाग् जातः २ । श्राद्धो नन्दीश्वरद्वीपगमनं दिव्यगन्धो देवसंघर्षेण जातः । मित्रप्रश्नं विद्यादानं, तया विद्यया कृष्णचतुर्दश्यां श्मशाने चतुःपादशिक्यकेनाधः खदिराङ्गारेषु अष्टशतं वारान् जपित्वा पादपादछेदने नभ उत्पातः । श्राद्धेन मित्राय दत्ता । स साधनाय शिक्यारूढः संशयानचौरेण लोप्त्रयुतेन राजनरमारणभयाद्वादित इत्यादि लो दवा, विद्यात्ता चौरः शिक्यारूढः साहसाजापादनु छेदे उत्पतितः । साधकेन सेत्स्यति नवेति विचिकित्सया दत्ता । चौरेण श्राद्धेनास्य दत्तेति ततः शुद्धेति निश्चलचित्तेनात्ता । ततश्चौरेण राजनृभ्यः साधकोऽश्मपातान्मोचितः तस्यापि विद्या
सम्यक्त्वा
तिचाराः ।
॥ ११ ॥
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सिद्धा द्वावपि श्राद्धौ जातौ ३ । यद्वा विदां साधूनां जुगुप्सा विजुगुप्सा विदुगुंछा, साधवोऽस्नानात प्रस्वेदजलक्लिन्ना मलिनत्वाद् दुर्गन्धाः स्युः। तत्र एकः श्राद्धः प्रत्यन्ते वसति । तत्पुत्रीविवाहे साधूनागतान् पित्रुक्त्या प्रतिलम्भयन्ती मलगन्धं ज्ञात्वाऽर्हता भव्यो धर्म उक्तः, परं शुद्धजलेन स्नाने को दोषः ? इति दध्यौ । तच्चानालोच्य मृत्वा राजगृहे वेश्यासुता जाता दुर्गन्धत्वात् त्यक्ता श्रेणिकेन दृष्टेत्यादि पृच्छा । सा तदैव तत्कर्म वेदित्वा गन्धहीना आभीर्या वर्द्धिता यावत् १२ वर्षाणि श्रेणिकपत्नी जाता । पृथ्यारोहेण श्रेणिकेनोपालक्षि ततो दीक्षिता । अन्ये आहुः वणिक्कुले आयाता परं गर्भस्थायां अरतिहेतत्वात्पातनानि कृतानि । ततो जाता त्यक्ता । अष्टवर्षाणि राज्ञीत्वं । परपाखण्डप्रशंसायां चन्द्रगुप्तेन भिक्षवृत्ती हृतायां भिक्षवस्तस्य धर्म जगदुः, राजाऽतुष्यत् चाणिक्यं पश्यन् तदप्रशंसातो न दत्ते । भार्याप्रेरितश्चाणाक्यः सुभाषितमिति जगौ। राज्ञा साऽन्या च वृत्तिर्ददे । द्वितीयेऽति चाणिक्येन राजोक्तः किं त्वया दत्तं? सोऽवक युष्मत्प्रशंसातः । सोऽवक (न)मयेत्युक्तं । अहो सर्वारम्भिणो रञ्जनाय कुर्युरिति । ततो राजाऽस्थात् ततो न शंस्याः। संस्तवे प्रागुक्तः सौराष्ट्र श्राद्ध एव ५। एभिरतीचारै रहितः सम्यक्त्वोऽणुव्रताधर्हः स्यात्तदाह ॥
थूलगपाणाइवायं समणोवासओ पञ्चक्खाइ, से पाणाइवाए दुविहे पन्नत्ते, तंजहा संकप्पओ अ आरंभओ अ, तत्थ समणोवासओ संकप्पओ जावज्जीवाए पञ्चक्खाइ, नो आरंभओ, थूलगपाणाइवाय. वेरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियव्वा, तंजहा-बंधे वहे छविच्छेए अइभारे भत्तपाणवुच्छेए १ । (सूत्रम् )॥
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आवश्यक नियुक्तिदीपिका।
प्रथमव्रतस्वरूपमतिचाराश्च ।
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॥१२॥
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स्थलः सर्वलोकसिद्धो द्वीन्द्रियादिः, तस्य प्राणा इन्द्रियाद्याः, तत्र पञ्चेन्द्रियाणि ५ उच्छासनिःश्वासः ६ मनोबलं ७ वाग्बलं ८ कायवलं ९ आयुः १० प्राणास्तेषां मध्ये एकेन्द्रियेषु स्पर्शेन्द्रियोच्छ्वासायुःकायबलाख्याश्चत्वारः प्राणाः, द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु क्रमात् षट्सप्ताष्टप्राणाः रसनेन्द्रियायेकैकेन्द्रियाधिक्यस्य वाग्बलस्य चाधिक्यात् । असंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु मनोबल- हीनत्वानव, संजिषु समनस्त्वाद्दश प्राणाः, प्राणानां अतिपातो विनाशस्तं श्रावकः प्रत्याख्याति त्यजति । प्राणातिपातो द्विविधः संकल्पज आरम्भजश्च । संकल्प्य मनसा ज्ञात्वा हिंसा संकल्पज । आरम्भ हलखननादौ जाता हिंसाऽऽरम्भजः। तत्रैकेन्द्रियाणां संकल्प्यैवारम्भः स्यात्तेनैकेन्द्रियारम्भं न प्रत्याख्याति । त्रसहिंसा तु संकल्पतो निरारम्भो यावजीवं प्रत्याख्याति । परं सापराधसापेक्षान् मुक्त्वा । एवं सपादविशोपकोऽनर्थदण्डत्यागिगृहिणः स्यात । अस्यातीचारा:-बन्धो रज्वादिना, वधो दण्डादिना, तत्र गाढं बन्धवधौ अतिचाराय, छविर्देहस्तस्य छेदः पाटनं अङ्कनकर्णकल्पनादिः, अतिभारः अतिभारारोपः, भक्तपानव्यवच्छेदः स्पष्टः ५ । एतान् समाचरन् प्रथमव्रतं अतिचरति लोकनिन्धश्च स्यात् । तत्र श्राद्धस्य ते पशवो घटन्ते ये बन्धं विना अल्पेन वा तिष्ठन्ति । कारणे दययाश्वबालादीनां बन्धवधादिषु रोगिलखनादौ च स्वल्पो दोषः । एषां दोषाणां त्यागेन भोगान्तरायादि जयति । तथा हिंसायां दोषदृष्टान्तः कोकणस्य, यथा तेन प्रियामृतौ नवपत्न्या लाभायेषुणा सुतो हतः। हिंसानिवृत्तौ गुणाः साप्तपदिकः सामायिकाध्ययने व्याख्यातः। 'सत्तवईए कुंकणगदारए' इत्यादौ । तथाऽवन्त्यां श्रावकसुतो मालवकर्हतः सूपकता क्रीतो जीवान् जहि । सोऽहन(न)न् सूपकृत्कुहितः। तारं रुदन नृपपृष्टौ यथास्थमृचे। राज्ञोऽपि किं न हंसीत्युक्तेऽप्यनन् स इभधर्षणामयं दर्शितस्तथाप्यनन् स्वाङ्गरक्षो विहितः कालेन स्थविरान्ते
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॥१२॥
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NAGAROCHROCE%%
दीक्षितः । पाटलिपुत्रे जितशत्रुराज्ञः क्षेममन्त्री स नृपमान्यो दयी धर्मी राज्ञो हित इत्यन्यराभिस्तदुदयासहैः क्षेमजनैर्ववाद्यैः परावाभिमरैर्जात राजा क्षेमोपरि कोपितः। क्षेमो निगृहीतोऽवगहं सर्वसत्त्वानां क्षेमकरः किं पुना राज्ञः ? तथापि राज्ञा वध्य आज्ञप्तः । तत्र राज्ञोऽशोकवनिकायामगाधा सोत्पलपना पुष्करणी परं मकरग्राहै?रवगाहा स्यात् । कोऽपि तत्पनान्युच्छेत्तुं नालम् । यो वध्यः स्यात् स पद्मानयने प्रेयते । क्षेमस्तत्र नीतो 'नमुत्थुणं अरिहंताण' भणित्वा यद्य| हं निमन्तुस्तदा सुरी सान्निध्यं करोत्विति साकारं भक्तं प्रत्याख्यात् सुरीसान्निध्यान्मकरपृष्टिस्थो बहुपद्मान्यानीयोत्तीर्णः ।
राज्ञा हृष्टेन क्षमयित्वोपगूढः । वैरिणो निगृह्योक्तः कं वरं ददे ? गाढाग्रहोऽपि तेन दीक्षावरोऽयाचि आत्ता च । एवमिहलोकगुणाः परत्र सुदेवनृदीर्घायुस्त्वादि ज्ञेयम् ।
थूलगमुसावायं समणोवासओ पञ्चक्खाइ, से य मुसावाए पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-कन्नालीए गवालीए भोमालिए नासावहारे कूडसक्खिजे । थूलगमुसावायवेरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियव्वा, तंजहा-सहस्सम्भक्खाणे रहस्सब्भक्खाणे सदारमंतभेए मोसुवएसे कूडलेहकरणे २॥(सूत्रम्) ___ मृषावादो द्विधा, स्थूलः सूक्ष्मश्च । तत्र स्थूलः स्वान्ययोर्महाक्लेशहेतुः, सोऽर्थादनाद्वा न वाच्यः । स्थूलश्चासौ मृषावादश्चेति समासः, तत्र स्थूलः कन्यालीकादिः, कन्याग्रहणाददोषलघुप्रौढकुमारवराणामपि कूटं कथनं कन्यालीकं १, तत्र
१ 'मकरपृष्टिस्थः पद्मानि लात्वोत्तीर्णः, राज्ञा त्रिः क्षामितः विपक्षनिग्रहं कृत्वोक्तः किं ते वरं ददे ? स निरुध्यमानोऽपि प्राब्राजीत्' इति पाठोऽन्यप्रतौ।
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बावश्यक नियुक्तिदीपिका।
द्वितीयव्रतस्वरूपमतिचाराश्च ।
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कन्या कदापि द्वेषात् कूपादौ पतेत् । गोरुपलक्षणात् पशूनां सदुग्धत्वादिमृषावदनं गवालीकं २ । भूम्यलीकं स्वां भुवं परां वक्तीत्यादि, ऊपरी भव्यां वक्तीत्यादि, बहुधान्यामल्पधान्यामित्यादि ३ । न्यासो द्रव्यस्थापना तदपलापो न्यासालीकं ४ । कूटसाक्षिः स्पष्टा ५। एतैरन्तरायाणां बन्धः स्यात् । सूक्ष्म अलीकं कूटक्रयादेरितरत् । सहसाऽभ्याख्यानं त्वं चौर इत्यादि १। रहस्याभ्याख्यानं कस्याप्या (कांश्चिदा) लोचयतो वक्तीदं अयुक्तं विमृशन्तः सन्तीत्यादिकथनं २ । स्वदारेत्युपलक्षणास्वकलत्रमित्रायुक्तस्य मन्त्रस्येति रहस्यस्य भेदोऽन्येभ्यः कथनं ३ । मृषोपदेशः कूटवा दिकृतिः कूटोपदेशश्च ४ । कूटलेखः कूटलेखस्य लिखनं कूटलेखलिखनम् । न्यासापहारे पुरोधा दृष्टान्तो नमस्कारे । मृषोपदेशे परिवाट नरमचे किं क्लिश्यसेऽहं ते निषण्णस्य धनमर्जयामि यथा याहि व्याकुलं वणिज मार्गयोच्छिन्नं जनदानग्रहणाकुलत्वे कालान्तरे पुनः पुनः मार्गयेः। मां साक्षिण कुर्याः। स तथायाचत तेनादत्ते गाढमवक् मम द्रव्यं न दत्से ? इयन्मानं च । एवं वारत्रयं याचितोऽददत्करण नीतस्तेन परित्राजा साक्षिणा जितोऽधनायादात् । मृषाऽभाषणे गुणः । कोकणः श्राद्धोऽत्र उक्तः । अश्वं नश्यन्तं हन्धि ? तेन हतो मृतश्च । अश्वेशा करणं नीतः पृष्टः कस्ते साक्षी ? अश्वेशाऽस्य सुतो मे साक्षीति पुत्रः पृष्टोऽवक् सत्यमेतत्तुष्टं करणं तमपूजयत् । लोकोऽशंसत पितापि मुक्तः । अभ्याख्यानादौ स्वान्यमृत्याद्या दोषाः स्युः हास्यादिनाप्यनृतं न वाच्यम् । मृषातो मुखविगन्धत्वादिदोषः ५।
थूलगअदत्तादाण समणोवासओ पञ्चक्खाइ, से अदिन्नादाणे दुविहे पन्नते, तंजहा-सचित्तादत्तादाणे अचित्तादत्तादाणे अ। थूलादत्तादाणवेरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच अहयारा जाणियब्वा,
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| तंजहा-तेनाहडे नक्करपओगे विरुद्धरजाइक्कमणे कूडतुलकूडमाणे तप्पडिरूवगववहारे ३ ॥ ( सूत्रम् ) ____ अदत्तस्यादानं ग्रहणं द्विधा स्थूलं सूक्ष्मं च । तत्र स्थूलं चौर्य गृहारण्यमार्गक्षेत्रादिषु न कार्यम् । सूक्ष्म वणिग्वृत्त्यादानम् । स्थूलसूक्ष्म अपि द्विधा सचित्तविषये अचित्तविषये च । तत्र सचित्तं सजीवं वस्तु, अचित्तं निर्जीवं, अन्यवस्तुनो धनिकानुक्क्यादानेऽदत्तादानमेव । स्तेनाश्चौरास्तैराहृतं आनीतं स्तेनाहृतम् । चौरैर्विक्रयायानीतं ज्ञात्वा लातोऽतिचारः। श्राद्धेन हि चौरस्थानेषु न वस्तव्यं न प्रविश्यं हिंसोपकारि न देयम् १। तस्करप्रयोगः, स्तेनानां शम्बलादिसाहाय्यं २। विरुद्धस्य नृपस्य राज्यं विरुद्धराज्यं तत्रातिक्रमोऽपगमनं लोभात् वैरिराज्ये विक्रयार्थ गतिरित्यर्थः ३ । कूटतुलाकूटमानकरणं तत्रोनं ददतोऽधिकं च लातो दोषः ४ । तत्प्रतिरूपकमिति अन्यं भव्यं वस्तु दर्शयित्वाऽन्यमर्पयतीति तत्प्रतिरूपकव्यवहारः ५ । तत्र घृतादौ । तैलादियोगः ब्रीद्यादिषु लञ्जीक्षेप इत्यादि च तत्प्रतिरूपकं उच्यते । अत्र दोषा राजदण्डाद्याः। युतिनः श्राद्धयुताः स्थविरीप्रकरणे जनैः सह गताः। जने गते तैर्गृहं मुष्टं वृद्धा मायया तेषां क्रमयोः प्रत्येकं वारणाय पतन्ती मोरपिच्छेन तत्पादानचियत् । प्रात पायोक्तं राज्ञा कथं ते ज्ञेया इत्युक्ते पादाङ्कितास्तयोक्ताः । पुरागमे अऊन ते उपलक्षिताः सर्वे धृताः एकः श्राद्धोऽवग् न हराम्यन्यस्वं नाङ्कितश्च । स्तेनैरथोचे एषोऽमन्तुः मुक्तः। अन्ये शिक्षिताः। एवं श्राद्धेन छूतगोष्ठ्यामपि न प्रवेश्यं चेत्प्रविशति तदापि हिंस्रादि न दत्ते न स्तेनमन्त्रे तिष्ठति परभवे धनहीनछिन्नाङ्गादिदोषाः ॥३॥
परदारगमणं समणोवासओ पच्चक्खाति सदारसंतोसं वा पडिवजह से य परदारगमणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-ओरालियपरदारगमणे वेउव्वियपरदारगमणे सदारसंतोसस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा
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आवश्यक
निर्युि
दीपिका ।
॥ १४ ॥
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जाणियव्वा, तंजहा - इत्तरियपरिग्गहियागमणे अपरिगहियागमणे अणंगकीडा परवीवाहकरणे कामभोगतिब्बाभिलासे ४ || (सूत्रम् )
परदाराऽपरकलत्रं तत्र गमनं आसेवनार्थम् । ततः श्राद्धः प्रत्याख्याति स्वदारेषु सन्तोषं वा प्रपद्यतेऽयं भावः परदारगमननिषेधको यासु परदारशब्दः प्रवर्त्तते तासां नियमं कुर्यात् । स्वदारसंतुष्टस्तु एकानेकस्वदारान् मुक्त्वा सर्वासां निषेधकः । तत्र औदारिकपरदारागमनम् नृतिर्यक्त्रीगमनं । वैक्रियपरदारागमनं देवाङ्गनागमनम् । इत्वरपरिगृहीता कालशब्दलोपादिस्वरकालपरिगृहीता भाटी (टि) प्रदानेन कियन्तमपि कालं दिनमासादिकं स्ववशीकृता तस्यां गमनम् १ । अपरिगृहीता वेश्याऽन्यसत्कागृहीतभाटिः कुलस्त्रीर्वाऽनाथा तस्यां गमनम् २ । अनङ्गानि मैथुनाङ्गं विनाऽन्यानि कुचकक्षोरुमुखादीनि तेषु क्रीडनमनङ्गक्रीडाऽथवाऽनङ्गक्रीडा कृतरतस्यापि स्वलिङ्गेन तुल्यैर्दारुलेप्यमृत्तिका चर्मादिघटितगुयैः फलेन वा योषिदुपस्था सेवा ३ । स्वापत्यानां विनाऽन्यापत्यानां परेषां विवाहकरणं कन्या फलेच्छया स्नेहेन वा, यतः केऽपि श्राद्धाः स्वापत्यानामपि विवाहं न योजयन्ति । कन्या पत्या मिलतु पण्डो गवा मिलत्वित्यादि भाषापि न कल्प्या ४ | कामाः शब्दरूपगन्धा भोगाः रसस्पर्शास्तेषु तीव्राभिलाषोऽत्यन्ताध्यवसायस्तस्माच्चेदं करोति । समाप्तरतोऽपि योषिन्मुखोपस्थकर्ण कक्षान्तरेष्वतृप्ततया लिङ्गं क्षिप्त्वा मृत इवास्ते महतीं वेलां दन्तनखादिभिर्वा मदनमुत्तेजयति वाजीकरणं वोपयुङ्क्ते । योषिल्लिङ्गं वा मृद्नाति । इहाद्यौ अतिचारौ स्वदारसन्तुष्टस्य स्यातां न तु परदारत्यागिनः । शेषा द्वयोरपि । तुर्याशुव्रतपालिनो मातृगमनादयोऽपि दोषाः स्युः । यथा गिरिनगरस्त्रियश्चौरहृताः पारसदेशे विक्रीता वेश्या जाताः, तासां पुत्रा लघवोऽभूवन् वृद्धा मित्रीभूतास्तत्र व्यव
चतुर्थव्रतस्वरूपमति
चाराश्व ।
॥ १४ ॥
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सायं गताः। तत्र देशे स्त्रीत्विा माटी(टिं) दत्त्वा स्थिताः, द्वाभ्यामकृत्यं कृतम् । एकः श्राद्धत्वान चक्रे । पृष्टवान् स्त्रीदेशं यावद् ज्ञाता माता । द्वाम्यां मृतिर्दध्यौ । पारिणामिकीबुद्ध्या त्रयः साधुपार्श्वे प्राव्रजन् । तथा कापि भर्ता सगर्भपन्यां गतः सुता जाता । अन्यपुरे दत्ता संवलमान आयान् सुतापुरे वर्षास्थितः सुतया सह संगतः, वर्षातिक्रमे स्वपुरं गतः। सुतामानायितवान् , सुता तं दृष्ट्वा लजिता निवृत्य मृताऽन्यः प्राबाजीत । पुनरविरत्या दोषः । एका वेश्या प्रसूता युग्मम् । ततो मा स्तोका भाटिं लभे इति द्वे अपत्ये सुतसुतारूपे पुरः पूर्वपश्चिमद्वारयोस्तत्याज । तदा तत्र वणिग्भ्यां मिथो मित्राभ्यां ते द्वे गृहीते, तत्प्रतिचारकदास्यौ गते स्थानं, ततस्ते प्रौढे जाते मिथो विवाहिते । तावता पुत्रो वेश्यायां लग्नः प्रियां नेहते । परं सा माता तेन न ज्ञाता तस्याः पुत्रोऽभूत वधूस्तु वैराग्यात प्रवज्योत्पन्नावधिभिक्षा भ्रमन्ती गता गणिकागृहम् । तत्स्व. रूपज्ञापनाय वेश्यापुत्रं गृहीत्वा परावर्तयत् जगाद च भ्राता पुत्रो देवरो मम त्वम् । यस्त्वत्पिता स भर्ता पिता भ्राता, या ते माता सा मे माता श्वश्रूः सपत्नीति । ततः स भर्ता सम्बुद्धो दीक्षितः । यद्वा कोऽपि सोमिलो वणिग, तत्रान्यवणिग्गृहं प्रतिवेश्म । तत्र सोमिलस्तस्य सौधे काष्ठेनारुह्य तत्स्नुषया सह वसति । एवं काले याति अन्यदा प्रातिवेश्मिकेन जज्ञे । कुड्यं घृष्टम् । नूनं काष्ठेन कोऽप्यारोहति ततश्चटन् धृष्टा वर्चःकूपे क्षिप्तो मलं भक्षयति मृत्रं पिबति । मेघवृष्टे जलभृताद कृपाजलमार्गेण क्षालेन स्वं गृहं गतः विगन्धो वैद्यैः पूर्वरूपः कृतः ततः पुनः पुनः तामेवेच्छत् । एवं त्रीन् वारान् , तुर्यवारायां सङ्कलबद्धो वर्च:कृपे क्षिप्तो मृतः। तथाऽन्येऽपि दोषाः । यथा क्वापि पत्यौ वाणिज्ये गते प्रियाऽन्येन लना, पतिः कतिवरायान प्रियास्वरूपज्ञप्त्यै भिक्षुकवेषेण गृहं गतस्तावत् सा भव्यभक्ष्याणि कृत्वोपपति
CANCECRECORROTECK
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आवश्यक नियुक्तिदीपिका।
पश्चमव्रतस्वरूपमतिचाराश्च।
ROCRACROCOCCACCHECE
यान्ती तं भिक्षकं भव्याहारैलाभयित्वा तेन भारं (वाहयित्वा ) बने जारान्तिकेऽनयत् । स तत प्रियास्वरूपं ज्ञात्वाऽज्ञापयन महा गृहमायातो विनयात्पत्न्या सत्कृतो रात्रौ वनगमनवृत्तान्तमपृच्छत् । सा भिक्षुकत्वेऽसाविति निश्चित्य लजिता मृता सोऽदीक्षिष्ट । तथा माता लोला सुतः कुगोष्ठीमिलितः। सुतप्रिया पतिमृचे माता भ्रमन्त्यस्ति । सोऽश्रद्दधानो मात्रा गोठ्या सह निशि देवकुले तमसि रेमे । मातृपुत्र योर्वस्त्रविपर्यासे प्रिययोक्तम् । कस्याः स्त्रिय आच्छादनवस्त्रं त्वयात्तम् ? ततो मातात्वा नष्टो दीक्षितः। भवान्तरे दोषाः क्लैन्यकुरूपवियोगाद्याः, गुणा इह यथा आनन्दपुरे द्विजो मूलेश्वर उपवासांश्चक्रे । अहं भक्तं ददे पात्राय देवेन वारद्वयं उक्तम् । कच्छे आभीराभीयौं श्राद्धे तद्दानेऽक्षयं फलम् । स तत्र गत्वा ताभ्यां भक्तं दक्षिणां च दत्त्वाऽप्राक्षीत् । किं युवयोस्तपः? येन सुराय॑ता, ताभ्यामूचे एकान्तरं ब्रह्मवतमात्तम् । विवाहे द्वयोरन्योन्याहब्रह्मणो (व्रतं) जातम् । ब्रह्मण्येव वार्द्धक्यं जातम् । कुमारत्वे द्विजः सुबुद्धोऽर्हद्धर्म ललौ प्रेत्य स्वर्गसुनृत्वादि ॥ ४ ॥
अपरिमियपरिग्गहं समणोवासओ इच्छापरिमाणं उवसम्पज्जइ, से परिग्गहे दुविहे पन्नत्ते, तंजहासचित्तपरिग्गहे अचित्तपरिग्गहे य, इच्छापरिमाणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियव्वा, तंजहा-खित्तवत्थुपमाणाइक्कमे हिरन्नसुवन्नपमाणाइक्कमे धणधन्नपमाणाइक्कमे दुपयचउप्पयपमा. णाइक्कमे कुवियपमाणाइक्कमे ५॥ (सूत्रम् )
अपरिमितोऽपरिमाणः स चासौ परिग्रहोऽपरिमितपरिग्रहः तं श्राद्धः प्रत्याख्याति । इच्छापरिमाणं सचित्तादिगोचरेच्छापरिमाणम् । क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमः। तत्र सस्योत्पत्तिभूः क्षेत्रं क्षीयतेऽत्र बीजमिति व्युत्पत्तेः। तच्च सेतु केतुभेदाद् द्विधा,
ROCHECCCCCCCCCCCCC
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तत्र सेतुक्षेत्रमरघट्टादिसेक्यं, केतुक्षेत्रं त्वाकाशपतितोदकनिष्पाद्यम् । उच्यतेऽवेति वास्तु गृहम् । तत्रिधा खातं उत्सृतं खातोत्सृतं च। तत्र खातं भूमिगृहादि । उत्सृतं प्रासादादि । खातोत्सृतं भूमिगृहोर्चे प्रासादः। एषां क्षेत्रवास्तूनां प्रमाणातिक्रमः प्रत्या| ख्यानकालगृहीतप्रमाणोल्लङ्घनम् १। हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रमः तत्र हिरण्यं रजतमघटितं घटितं च द्रम्मादि, एवं सुवर्णमपि ।
तयोः प्रमाणातिक्रमः भार्यादीनामायत्तताकरणेन २। धनधान्ययोलम्ययोः स्थाप्यकरणेन समर्पयोर्वा सत्यङ्कारदानेन । वर्षाव| धिपूतों अग्रेतनं मृढकेषु वा व्यापृतेषु ग्रहीष्ये इति चिन्तया सुवर्णग्रहणाद्यपि ज्ञेयम् । धनं गणिमं पूगादि १ धरिमं मञ्जिष्ठादि
२ मेयं घृतादि ३ परिच्छेद्यं च मण्यादि ४ । धान्यं स्पष्टं ३ । द्विपदा दास्याद्या मोराद्याश्च चतुष्पदाः ४ । कुप्यमासनशयनभोजनपरिवेषणस्नानाद्युपभोगहेतुवस्तुजातं वस्त्राणि च तत्प्रमाणातिक्रमः। यथा प्रागन्यद्रम्मैः कुप्यं चिन्तितं स्याचतो धनवृद्धौ द्रम्मपरावर्त कुर्यात् स्थालादीनां वाऽन्यनामतां कुर्यात् ५ । एतान्यणुव्रतानि ॥ ५॥
अणुव्रतानां पालनाय गुणकारीणि गुणव्रतान्युच्यन्ते, यथा
दिसिवए तिविहे पन्नत्ते उड्ढदिसिवए अहोदिसिवए तिरियदिसिवए, दिसिवयस्स समणोवासएणं इमे पञ्च अइयारा जाणियव्वा, तंजहा-उडदिसिपमाणाइक्कमे अहोदिसिपमाणाइक्कमे तिरियदिसिपमाणाइक्कमे खित्तवुड्डी सइअंतरद्धा ६॥ (सूत्रम् )
व्रतं नियम उच्यते, ऊर्ध्वदिग्वतं एतावती दिगृवं पर्वताद्यारोहणादवगाहनीया न परत इत्येवम्भूतम् १ । अधोदिग्वतं एतावती दिगधः वाप्याद्यवतरणादवगाह्मेति २। तिर्यगदिगवतं इयती दिग् पूर्वेणावगाया इयती दक्षिणेनेत्यादि न परत इति
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सप्तमव्रतस्वरूपमतिचाराश्च।
बावश्यक ३ । अस्मिन् व्रते आत्ते तिर्यगदिगबहिस्थजन्तूनां हिंसा न स्यादिति गुणः । एषां नियमानां प्रमाणातिक्रमो नियमितभुव नियुक्ति- ऊर्च चलने । तत्र ऊर्ध्व स्वमानगिर्यारूढो द्रुफलानि पक्ष्यात्तभूषादि स्वतः पतितं लाति न तु यत्नं कुर्यात् । क्षेत्रवृद्धिरिदीपिका। त्येकतो योजनशतं नियमित परतो दशयोजनानीति । तत्र कार्योत्पत्तौ विस्तीर्णदिशो योजनानि संकीर्णदिशि क्षिप्त्वाऽगात्
ततः समं क्षेत्रं करोति ४ । स्मृतेरन्तर्धान भ्रंशः स्मृत्यन्तर्धानम् । यथा के मया नियमा आत्ताः सन्तीति स्मृतेरकृतिः । स्मृ. ॥१६॥
तिमूलं च नियमानुष्ठानं ततः स्मृतिभङ्गे नियमभङ्ग इत्यतिचारः५। यद्वा सति लामेऽन्तर्धानं स्वगोपनेन परेण देशान्तरगमनम् । बहुलोमे दोषः लोभनन्दिवत् । गुणे एकाकिनी स्त्री भर्तरि गते क्षुधिता रत्नानि विक्रीणती श्राद्धेन बहुमूल्यानि
दृष्ट्वा अनात्तेषु परेण यथेच्छमात्तेषु पत्यावैते रत्नमूल्याङ्चे स नृपायोचे कुटमूल्यकृदयमिति स राज्ञा हतः श्राद्धोऽपूजि । 8| द्वितीयं गुणवतमाह
उवभोगपरिभोगवए दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-भोअणओ कम्मओ अ। भोअणओ समणोवासएणं | इमे पञ्च अइयारा जाणियव्वा, तंजहा-सचित्ताहारे सचित्तपडिबद्धाहारे अप्पउलिओसहिभक्खणया दुप्पउलिओसहिभक्खणया तुच्छोसहिभक्खणया । कम्मओ णं समणोवासएणं इमाइं पन्नरस कम्मादाणाई जाणियव्वाई, तंजहा-इंगालकम्मे वणकम्मे साडीकम्मे भाडीकम्मे फोडीकम्मे दंतवाणिज्जे लक्खवाणिजे रसवाणिज्जे विसवाणिजे, केसवाणिज्जे जंतपीलणकम्मे निलंछणकम्मे दवग्गिदावणया सरदहत. लायसोसणया असईपोसणया ७॥ (सूत्रम्)
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ICCCIALIS
CICIEO
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उपशब्दः सकृदर्थेऽन्तर्भोगे च, तत उपभोग आहारादेः। परिशब्द आवृत्तौ पुनः पुनरर्थे बहिर्मोगे वा ततः परिभोगो वस्त्रादेः, द्वयोर्विषयं उपभोगपरिभोगव्रतम् । तत्र भोजनत उत्सर्गेण श्राद्धोऽपि निरवद्यप्रासुकमोजी अशक्तौ सचित्तवर्जको वा स्यात्, अपवादतोऽनन्तकायबहुवीजपृथ्वीकायतुच्छौषधितुच्छफलविवर्जकः स्यात् । अशनेऽनन्तकायं आर्दकमांसादि, पाने रसकं मद्यादि, खादिमे उदुम्बरादिफलादि, स्वादिमे मध्वादित्यजनम् । उपपरिभोगे 'उल्लणविहि दंतणविहि अभंगणवि. फलवि० तिल्लवि० उज्वलणवि० मजणवि. वत्थविलेवणभृसणपुष्प(प्फ)धूवभोयणपिञ्जखजगसूअनेहमाहुरसागाजेमणपाणिय. मुहवासइत्यादिनियमाश्चिन्त्याः । ' उल्लणं' क्लिन्नाङ्गरूक्षणवस्त्रं गन्धकाषायादि ‘उज्वलणं' पीठिकादि, सूपो दालिः, जेमनं | वटकादि, तत्रानाभोगादिना सचित्तादिभोगेऽतिचारः। अथ कर्मतः कर्म व्यापारस्तदाश्रित्य, असावधव्यापारेण मुख्यतो भाव्यं अशक्ती महासावद्यत्यागः कार्यः।
तत्र भोजनतो भोजनमाश्रित्य सह चित्तेन जीवेन वर्तते इति सचित्तः स चासावाहारश्च सचित्ताहारः नियमाधिकस- | चिचादानं १। सचित्तेन प्रतिबद्ध आहारो यथा वृक्षप्रतिबद्धो गुन्दादि पक्कफलानि वा २। अपक्कौषधयश्च नखदलिककणिकाया अपरिणतास्तासां भक्षणताऽचित्तधिया ३। दुष्पकौषधयोऽर्द्धपक्कफलिकापृथुकशाकादिरूपाः ४ । तुच्छौषधयो मुद्गफल्याचा असारास्तासां भक्षणेनाहारस, क्वापि राजाश्ववाहनिकां गतो नरं फलिका अदन्तं गच्छन् आयांश्च दृष्ट्वा अहोऽस्येयत्कालं खादने कियन्मध्ये सारमभूदिति परीक्षायै जनस्तचन्दमदास्यदुग्धफेनमेवाद्राक्षीत्ततो येषां फलिकाकोमलपृथुकादीनां भक्षणे घना विराधनाल्पा च तुष्टिः तत्तुच्छफलम् । तथा 'पुष्फफलेहिं रसेहि य बहुतसपाणेहिं अजयहाणेहिं ।
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आवश्यकनियुक्तिदीपिका ।
सप्तमव्रतस्वरूपमतिचाराश्च।
१७॥
SECRECAUSA
मजेहिं य मंसेहि य विरमेजा अचहियकामो ॥ १॥ जत्थथि सत्तपीला उवभोगो थोवओ य तहियं तु । कुजा नाइपसंग सेसेसु वि सत्तिओ निउणं' ॥२॥ शेषेष्वपि श्राद्धाचीर्णेष्वप्यारम्भेष्वतिप्रसङ्गं न कुर्यात् ।
अथ कर्मतः, कर्मादानानीति अन्यारम्मेभ्यो बहुबानावरणादिकर्मबन्धहेतुत्वादादानानि कर्मादानानि । अङ्गारकर्म अग्निज्वालनोत्थव्यापारो लाभार्थम् १ । वनकर्म वनस्पतिकायवृक्षदारुवंशकटादितणादिफलपुष्पपत्रच्छेदविक्रयकणदलनाद्यारम्भो लाभार्थमिति सर्वत्र ज्ञेयं २। शकटेन जीवन शकटाङ्गविक्रयः शकटकर्म उपलक्षणाद्यानपात्राङ्गादिविक्रयश्च शकटकर्म ३ । माटकार्थ शकटाश्चगवादिदानं भाटकेन वस्तुवहनं शकटादिना भाटककर्म ४ । हलखेटनभूस्फोटनाश्मघट्टनादिना वृत्तिः स्फोटकर्म ५। आकरे दन्तकेशमुक्तानखादिजल्पनं तद्ग्रहणं दन्तवाणिज्यं ६ । लाक्षामनःशिलादिवाणिज्यं कृम्यादिधाताय ७। म्रक्षणादितापनं मधुमद्यादिविक्रयो रसवाणिज्यं ८। विषशस्त्रहलहरितालादिजन्तुघातकवस्तुविक्रयो विषवाणिज्यं १। द्विपदचतुष्पदविक्रयः केशवाणिज्यं केशशब्देन पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः १० । अरघट्टकादिकरणं यन्त्रपीडनकर्म ११ । पशूनां शोभाद्यर्थ दाहवेधादिकृतिनिर्लाञ्छनम् १२ । धान्याद्यर्थ दवदापनं १३ । सरोइदतटाकानां धान्याद्यर्थ वैरिसैन्यदुःखार्थ शोषणं सारणिवाहनं सरोइदतटाकशोषणता १४ । असती घोटकादिका तासां पोषणं घोटकाद्यर्थ एवं | दास्यादिपोषः तथा गृहरक्षायै श्वादिपोषः क्रीडाद्यर्थ शुकादिपोषः एतदप्यसतीपोषशब्देन ज्ञेयं १५। एवं पञ्चदशानां कथनादन्येषामप्येवंजातीयानां बहुसावध कर्मणां त्यागः कार्यः ।। ७॥ ___ अणत्थदंडे चउविहे पन्नत्ते, तंजहा-अवज्झाणायरिए पमत्तायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोवएसे,
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अणत्थदंड वेरमणस्स समणोवासएणं इमे पश्च अइयारा जाणियव्वा, तंजहा- कंदप्पे कुक्कुए मोहरिए संजुत्ता हिगरणे उपभोगपरिभोगाइरेगे ८ ॥ (सूत्रम् )
अर्थः कार्यं गृहिणः क्षेत्रवास्तुधनधान्यदेहादिविषयम् । तस्मै आरम्भो भूतोपमर्दोऽर्थदण्डः । अनर्थोऽकार्यो (4) भूतानि दण्डयते हिनस्तीत्यनर्थदण्डः । यथा मत्तस्तरुं प्रहरति तत्स्थजन्तून् हन्ति इत्यादि । तत्र अपध्यानं दुर्ध्यानं वैरिघातऋद्धिप्रार्थनादि तस्याचरितं आचरणं १ । प्रमादो मद्यादिस्तेन तस्य वाचरितं २ । हिंसा हेतुशस्त्राग्रिविषादिदानं हिंसाप्रदानं ३ । पातयति दुर्गताविति पापकर्म तस्योपदेशो यथा कृष्यादि कुर्वित्यादि, अलं पासायखंभाणं इत्यादि च ४ । कन्दर्पो विषयरागात् प्रहासमिश्रं मोहोद्दीपकं नर्म, यतः श्राद्धोऽदृट्टहासं न कुर्यात् ईषद् हसेत् कार्ये सति १ | कौत्कुच्यमनेकधा मुखाक्षिपदप्रभृतिचेष्टापूर्विका हासादिजनिका भण्डक्रिया २ । मौखर्यं धायं प्रायमसत्यमसम्बद्धप्रलापित्वम् ३ । संयुक्ताधिकरणं मूशलोदूखलादिसंयोजनम् । संयुक्तं च तदधिकरणं चेति समासः ततः संयुक्तानि शकटादीनि न धार्याणि ४ । उपभोगपरिभोगयोग्यद्रव्याणामाधिक्यकरणम् । यतः श्राद्धः स्नानताम्बूलाईवस्तूनि तावन्ति न लायाद्यावन्त्यन्योऽप्यादाय सादि विराधयति । पुष्पादीन् त्रसांच त्यजेत् ५ । निषिद्धानर्थदण्डस्यैतेऽतिचाराः ॥ ८ ॥ उक्तं तृतीयं गुणव्रतम् ।
अथ चत्वारि शिक्षाव्रतानि । शिक्षा नाम पुनः पुनरभ्यासः, यतः सामायिकदेशा व काशिकादीनि पुनः पुनः क्रियन्ते । सामाइअं नाम सावज्जजोगपरिवज्जणं निरवज्जजोगपडिसेवणं च । सिक्खा दुविहा गाहा उववायटिई गई कसाया य । बंधंता वेयंता पडिवज्जाइक्कमे पंच ॥ १ ॥ सामाइअंमि उ कए समणो इव सावओ
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आवश्यक नियुक्ति- दीपिका।
॥१८॥
SCRECI
| हवइ जम्हा । एएण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥ २॥ सव्वं ति भाणिऊणं विरई खलु जस्स नवमव्रतसब्बिया नत्थि । सो सव्वविरइवाई चुक्कइ देसं च सव्वं च ॥ ३॥ सामाइयस्स समणोवासएणं पञ्च | स्वरूपमति
अइयारा जाणियव्वा, तंजहा-मणदुप्पणिहाणे वइदुप्पणिहाणे कायदुप्पणिहाणे सामाइयस्स सइअकर- | चाराश्च। | णया सामाइयस्स अणवट्ठियस्स करणया ९॥ (सूत्रम् )
सावद्यः सपापः योगो व्यापारः तस्य परिवर्जनं सावधयोगपरिवर्जनं कालावधिनेति, निरवद्ययोगानां निरवद्यव्यापाराणां परिसवनं आसेवनं च । समो रागद्वेषवियुक्तो जन्तुस्तस्य आयो लामः प्रतिक्षणं वर्द्धमानानां ज्ञानदर्शनचरणानां समायः। समाय एव कार्यमस्येति सामायिकं । तं सावएण कहं काय ? इह सावगो दुविहो इड्डिपत्तो अणड्डिपत्तो य, ऋद्धिप्राप्तः अनृद्धि(प्राप्त)श्वेत्यर्थः। जो सो अणडिपत्तो सो चेइयघरे साहुसमीवे घरे पोसहसालाए वा जत्थ वा वीसमइ अच्छइ निवावारों सव्वत्थ करेइ सवं चउसु ठाणेसु नियमा कायवं । अत्र सर्वशब्देन सर्व षडावश्यकं इति वृद्धा व्याख्यान्ति । चेइयघरे साहुम्ले पोसहसालाए घरे आवस्सयं करेंतो ति । यदि धरणादिमीः स्यात्तदा साधुसकाशे न करोति । ताहे घरे चेव सामाइयं काऊण उवाहणाओ मोत्तूण सचित्तदवविरहिओ बच्चइ । तत्रानुक्तोऽपि श्रीभगवत्यायुक्तः श्राद्धस्य साधुपार्श्वे गमे पञ्चविधाभिगमो ज्ञेयः। | पंच समिओ तिगुत्तो। ईरियाए उवउत्तो जहा साहू भासाए सावजं परिहरन्तो एसणाए कट्ठ लेटुं वा पडिलेहेत्तु पमजिउ, एवं आयाणे निक्खेवणे खेले सिंघाणे न विगिंचति विगंचंतो वा पडिलेहिय पमन्जिय थंडिले, जत्थ चिट्ठइ तत्थ गुत्तिनिरोह करेइ । एयाए विहीए गन्ता तिविहेण नमिऊण साहुणो पच्छा साहुसक्खियं सामाइयं करेइ । अत्र श्राद्धस्य शालागमसाधु
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RROCER
वन्दनादौ मुद्रा चिन्त्या । करेमि भंते ! सामाइयं सावजं जोग पञ्चक्खामि दुविहं तिविहेणं जाव साहू पन्जुवासामि तिल काऊणं । अत्र दुविहं तिविहेणं ति पदविपर्यासं पुरःसंक्षेपनधिया सावजंजोगंशब्दविशेषणज्ञापनाय घटते तत्त्वेवं पाठः। जइ चेइआई अस्थि तो पढमं वन्दइ, अत्र प्रथमशब्दाचेत्याभावे पश्चाच्चैत्यानि वन्दते इति वृद्धाः । साहूणं सगासाओ रयहरणं निसजं वा मग्गइ, अह घरे तो से उग्गहियं स्यहरणं अस्थि तस्स असइ पोत्तस्स अंतेण । अत्र रजोहरणमार्गणं अथ च रजोहरणाभावे पोतस्य वस्त्रस्यान्तेनेति यदुक्तं तत्किमर्थ ? भूप्रमार्जनार्थ वा धर्मध्यानकरणार्थ वाऽन्यहेतवे वा तच्चिन्त्यम् । तथा रजोहरणशब्दोऽत्र मोरपिच्छरजोहरणार्थों घटतेऽन्यधर्मध्वजदारुदण्डादि चिन्त्यमानं न सङ्गतिमङ्गति । पच्छा 8 ईरियावहियं पडिक्कमइ पच्छा आलोएचा वन्दइ । आगमनं आलोच्य द्वादशावर्तवन्दनं दत्ते इति वृद्धाः। आयरियादी जहारायणियाए यथाज्येष्ठमित्यर्थः। पुणो वि गुरुं वंदित्ता पडिलेहिता निविट्ठो पुच्छइ पढइ बा, एवं चेइएसु वि । अत्र 12 चैत्येष्वपीत्यतिदेशः सम्यक् चिन्त्यः, असइ साहुचेइआणं पोसहसालाए सगिहेब सामाइयं आवस्सयं वा करेइ । अत्र वाशब्दवार्थे । यद्वा अशक्तः केवलसामाइकदण्डकं उक्त्वा तिष्ठतीति वृद्धाः। तत्थ भणइ जावनियमं समाणेमि परमयं पाठो न श्रूयते । जो इड्डिपत्तो सो एंतो सबिड्डिए एइ तो जणस्स अत्था होइ, अनेन वाक्येनैवं ज्ञायते यथा जनास्था वृद्धिस्तथा न दोपः । आढिया य साहुणो सप्पुरिसपरिग्गहेणं । साधवः सत्पुरुषपरिग्रहेण सत्पुरुषाणां वन्दनाद्याग्रहेण आहताश्च जनमान्याः स्युस्तेन श्राद्धैगुरूणां अभिग्रहादिभावद्रव्यस्तवः क्रियते तद्युक्तं इति वृद्धाः। जइ सो कयसामाइओ एइ ताहे आसहत्थिमाइणा जणेण य अधिगरणं पवत्तइ । ताहे न करे । सामायिकं गृहे कृत्वा नायातीत्यर्थः । कयसामाइएण पाएहिं
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आवश्यकनियुक्ति दीपिका।
आगंतव्वं । तेण न करेइ । कृतसामायिकस्योपानत्याग एव लोकाद्विशिष्ट उक्तः न तु प्रावरणमोचनादि । अत्र सामायिक| सामायिकनिषेधोऽपि दोषाय न गणितः व्यवहारादिनयप्रामाण्यात । आगओ साहसमीवे करे। जह सोसावगो तोना ग्रहणकोइ उद्वेइ । अह अहाभद्दउ त्ति पूया कया होइ त्ति । अथ भद्रक एवास्ति राजा तेन पूजा कृता वीक्ष्यते । ताहे पुवरइयं
विधिः। आसणं करेइ । गुरूणां पूर्वरचितं आसनं क्रियते । आयरिया उद्विया य अच्छंति । उत्थितास्तिष्ठन्ति । स सामाइयं काऊण पडिकतो वंदित्ता पुच्छह । अत्र वन्दित्वा कृतिकर्मणेति घटते । सो य किर सामाइयं करितो मउडं न अवणेइ मुकुटं नापनयति न मुश्चेत् । कुण्डलाइनाममुदं पुप्फतंबोलपावारगमाइ बोसिरइ । अत्र प्राचारकादीनिशब्देन अप्रतिलेख्यवस्त्रपश्च- 10 कमध्यस्थं पल्हवि(वी)कोयव(वि)पावार इति प्रावारनामकं झीलाच्छाटडाप्रभृति त्यजति यथा साणीपाचारपिहियं । अत्र प्रावारशब्दार्थः न तु प्रावार इत्युत्तरासङ्गः, यतः सिद्धान्ते प्रावारशब्देनोत्तरासङ्गः क्वापि न व्याख्यातः । अन्ने भणन्ति मउडं पि अवणेइ । एसा विही सामाइयस्स । अत्र सामायिकशब्देन सर्वावश्यकनिगमनं ज्ञेयम् इति वृद्धाः, नो चेदमुना विधिना सामायिकं कोऽपि कुर्वन्नन्यगच्छेषु नोपलभ्यते । सवं चउसु ठाणेसु नियमा कायवं ति । यदा पूर्वोक्तस्थानपञ्चकमध्याच्चैत्यादिषु चतुर्ष स्थानेषु सामायिकं करोति तदा नियमादावश्यकं सर्वमपि षड्विधमपि करोमीति । ननु सर्वमिति विशेषणं तस्य चावश्यकं विशेष्यत्वेन कथं लभ्यते ? उच्यते केवलस्य श्रावकसामायिकस्य सर्वमिति विशेषणस्यासम्भवात । उत्तरत्र चानन्तरमेव आवस्सयं करितो चि इत्यादिनावश्यक विधेर्वक्ष्यमाणत्वादावश्यकमिति विशेष्यं संगच्छत एव । आवासयं करितो
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त्ति आवश्यकशब्देन केवलमेव सामायिकमिति न वाच्यं, यतो निरुपपदेनावश्यकशब्देनाध्ययनषट्कमेवोच्यते, तथाहि 'आवस्सयं अवस्सकरणिजं धुवनिग्गहो विसोही य । अज्झयणछक्कवग्गो नाओ आराहणामग्गो' ।। अनुयोगद्वारे । 'आवासं काऊणं'। आचा० नियुः । यदा प्रथमादिविशेषणमावश्यकस्य तदैकैकं लभ्यतेऽन्यथा तु षट्कमेवेति। तथा 'आवासयं करितो ती'त्यत्र इतिशब्दः प्रस्तावनार्थः यथा ' कहं वयामो त्ति तत्थ उव्वया' । ओघ० नि । ' मित्ति मिउमद्दवत्ते' गाथाद्वये स्थानषट्के इतिशब्दाः प्रस्तावनार्थाः। 'आव०' अत एव चउसु ठाणेसु नियमा कायवं इत्यादिपदानां श्रीमदभयदेवमरिभिरप्येवं पदयोजना कृता तद्यथा चतुर्ष स्थानेषु पुनर्नियमात्करोति चैत्यगृहे साधुसमीपे पौषधशालायां स्वगृहे वावश्यकं कुर्वाणस्तत्र यदि साधुसमीपे करोति तत्रायं विधिरिति प्रथमपञ्चाशकवृ० । तथावश्यकं कुर्वाणस्तत्र यदि साधुसमीपे करोति तत्रायं विधिरित्येतेन वाक्येनास्य उत्तरग्रन्थेन सह सम्बन्धं कुर्वतोऽस्यायमाशयो लक्ष्यते । पुनः कश्चिदाह नन्वस्मिन् दण्डके सामायिकस्य प्रस्तुतत्वात् पर्यन्ते च 'एसा विही सामाइयस्स' इति भणनाच्च कथमन्तरा षडावश्यकमापतितमिति चेदुच्यते 'सवं चउसु ठाणेसु नियमा कायवमित्यादिवाक्यात् यदि च सामायिकमेवात्र केवलं निर्वाण(घ) स्यात्तदा 'जत्थ वा वीसमइ अच्छइ वा निवावारो करेई' इत्येतत्पदानन्तरं 'तत्थ जइ साहुसगासे करेइ तत्थ का विही' इत्येवं पठितं स्यात् , न पुनः 'सत्वं चउसु ठाणेसु इत्यादिकं आवस्सयं करितो त्ये' तत्पर्यन्तं मध्यवाक्यमिति । अपरं च सामायिकस्य प्रस्तावना 'तं सावएण कह कायवमि'त्यनेनैव पदेन कृता, तत् किं पुनरपि तस्यैव प्रस्तावनाय 'आवस्सयं करितो त्ति' पठ्यते । तस्मादेते(तेन) पडावश्यकमेव प्रस्ताव्यत इत्यवबुध्यते । किश्च यद्यत्र सामायिकस्यैव विधिः स्यान्न पुनः पडावश्यकस्य ततः 'ताहे घरे चेव सामाइयं
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आवश्यक
निर्युक्ति
दीपिका ।
॥ २० ॥
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काऊ' एतावतापि पूर्वकालगणनेन सामायिकानुष्ठानस्य समर्थितत्वात्, तदुत्तरग्रन्थोक्तस्तु विधिः किमर्थ इति ? अथ गुरुभक्तिप्रतिपादनार्थ इति चेत् तदपि न, यतोऽयमेवानुष्ठानविधिश्चैत्ये पौषधशालायां गृहे वातिदेक्ष्यत इति । तथा यच्च पर्यन्ते 'एसा बिही सामाइयस्य ' इत्युक्तं तदपि न षड्विधावश्यकस्य बाधकं यतो यथा कायोत्सर्गनिर्युक्तौ कायोत्सर्ग प्रस्तूयान्तरा च प्रसङ्गागतं साधूनामावश्यकविधिमभिधाय पुनः कायोत्सर्गस्य निर्वाहः कृतस्तथाऽत्रापि सामायिकवते व्याख्यायमाने प्रस्तावात् सामायिकादिकं श्रावकस्य षडावश्यकमभिधाय पुनः सामायिकस्य निगमनं कृतमिति सम्भावयामः । तथा ' ताहे घरे चैव सामाइयं काऊणं ति' साधूपाश्रये गच्छतो मा कालातिक्रमः सामायिकस्य भवत्विति हेतोर्गृह एव एकमेव सामाकिसूत्रमुच्चार्य शेषानुष्ठानं तत्रैव करिष्यामीति विचिन्त्य साधूपाश्रये व्रजतीति सम्बन्धः । अथ सर्वमप्यनुष्ठानं गृहे कृत्वा किं न गच्छतीति[ चेत् ] उच्यतेऽत्र साधुमूलानुष्ठानस्य प्रस्तुतत्वात् । गृहानुष्ठानमार्ग (मग्रे) चतुर्थस्थाने वक्ष्यति । अतोऽत्र सामाकिसूत्रमात्रोच्चारणमेवावबुध्यते इति । ' करेमि भंते सामाइयमित्यादि
ननु आचरणां विना कुतः श्रावकसामायिकसूत्रं लभ्यते । उच्यते यतिश्रावकयोः सामायिकसूत्रमेव केवलं सर्वमिति, जावजीवा इति, तिविहं तिविहेणं ति, करंतं पीत्यादि विशेषाचत्वारः, ते च चूर्णिकृता 'करेमि भंते ! सामाइयं, सावज्जं जोगं पच्चक्खामि, दुविहं तिविहेणं जाव साहू पज्जुवासामी' त्येवं भणता त्रयः साक्षादेव दर्शिताश्चतुर्थोऽपि 'दुविहं तिविहेणं ' ति भणनाल्लब्ध एव । ततश्चैतद्विशेषचतुष्टयविशेषितं यतिसामायिकसूत्रमेव श्रावकोऽपि भणतीति । अयं चार्थ:-' सावञ्जजोग परिवजणडा सामाइयं केवलियं पसत्थं ' इत्यस्या निर्युक्तिगाथाया व्याख्याने भाष्यमहोदधिना वृत्ति
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सामायिक
ग्रहणविधिः ।
॥ २० ॥
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कृद्भ्यां च इत्थमेव व्याख्यातं, तथाहि 'गिहिणो वि सङ्घवजं दुविहं तिविहेण छिन्नकालं तं । कायवमाह स को दोसो ? भन्नए णुमई' | १ | भाष्यं । गृहस्थेनापि सता तत्सामायिकं छिन्नकालं द्विघटिकाकालमानोपेतं सर्वव सर्वशब्दोच्चारणरहित द्विविधं त्रिविधेन कर्त्तव्यमेवेति वृत्तिः ।
जइ चेइआई अत्थि तो पढमं वन्दइ । अत्र प्रथममिति मणनात् सामायिके कृते पश्चादपि चैत्यवन्दना कार्येति । अन्यथा जड़ चेइआइ अत्थि तो वन्दइ इत्युक्तमेव स्यात् । तथा चैतत्सामायिकं सर्वकालमपि स्यात् । मुहूर्त्ताधिकं च न स्यात्तदा कथं सामायिकं कृत्वा साधुपार्श्व याति । स्तोककालात् कृत्वा पारयित्वा च किं न याति तेनैवं ज्ञायते प्रातः सामेकैकमेव बहुकालं यावत्सामायिकं स्यात्ततश्च गुरुसाक्ष्युच्चरति । चेत्परम्परागतः श्राद्धावश्यकविधिरेवमभविष्यत्तदा ज्ञायते | सिद्धान्तोकोऽयमिति । स्यहरणं निसिअं वा मग्गह, भूप्रमार्जनाय मयूरपिच्छादिमयं दंडासनाख्यं रजोहरणं निषद्यां वा याचते इति । अस्य युक्तिस्तु प्राक् मुखवस्त्रिकाधिकारे सर्व्वा समर्थितास्ति । तथा पच्छा आलोइत्ता बन्दर चि, आगमनं आलोच्य द्वादशावर्त्तवन्दनं ददाति । वन्दतेशब्देन आगमे द्वादशावर्त्तवन्दनमुच्यते इति प्राग् दर्शितमस्ति ।
'सामाइ आवस्यं वा करेड़ चि' इह तावत् 'सवं चउसु ठाणेसु नियमा कायवमित्यादिना' आवश्यकविधानस्थानसंग्रहं कृत्वा ततस्तस्यैव तेषु चतुर्ष्वपि स्थानेषु विधीयमानस्य 'आवस्सयं करिंतो ची' त्यादिना 'एसा विही सामाइयस्स' एतत्पर्यन्तेन ग्रन्थेन समग्रोऽपि विधिरुक्तः । तत्रापि जड़ साधुसमासे करेह इत्यादिना पुच्छ पढइ इत्यन्तेन साधुमूले | विधीयमानस्यामूलचूलं विधिरुक्तः, ततस्तस्यैव साध्यभावे चैत्यगृहे विधीयमानस्य एवं चेइएस वि' इत्यन्तेन पूर्वप्रदर्शित
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आवश्यकनियुक्तिदीपिका।
॥२१॥
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| एव साधुमूलविहितविधिर्निरवशेषोऽप्यतिदिष्टः। ततोऽपि तस्यैव साधुचैत्ययोरभावे पौषधशालायां वा स्वगृहे वा विधीय- सामायिकमानस्य असइ साहुचेइआणमित्यादिना जावनियम समाणेमि इत्येतदन्तेन पुनरपि स एव साधुमूले विहितविधिरति- ग्रहण दिष्टः। केवलमत्र विशेषत्रयं, तच्चेदं पूर्व हि गृहे केवलमेव सामायिकमङ्गीकृत्य ततः साधुमूलचैत्ययोः समागत्य विधिः। तत्साक्षिक सामायिकोच्चारणपूर्वकं सामायिकादिकं सर्वमप्यावश्यकं कृतवान् । इह तु सामायिकमप्यावश्यकमपि एकत्रैव करोति, इह वाशब्दद्वयस्यापि समुच्चयार्थत्वात् १ । तथा पूर्व सामायिकं कृत्वा साधुमूले गतोऽत्र गमनं नास्ति २ । तथा पूर्व जावसाहु त्ति भणितवान् अत्र तु जावनियममिति ३ । अत एवाह ग्रन्थकारः 'सामाइयं आवस्मयं वा करेइ १' नवरि तत्थ गमणं नत्थि २ । भणइ जावनियम समाणेमि ३। तथात्र वाशब्दानां समुच्चयार्थत्वमागमे स्थाने स्थाने प्रसिद्धमेव, तथाहि 'सुहुमं वा बायरं वा, तसं वा थावरं वा' इत्यादि व्रतपटकेऽपि वाशब्दाः। विकल्पार्थव्याख्या पुनर्नावबुध्यते यतोऽयमिति देशे व्याख्यायमानोऽस्ति स च पूर्वप्रदर्शितस्यैव विधिः । पूर्व वात्र सामायिकावश्यकयोः समुदितयोरेव विधिर्मणितो न पुनरेकैकस्य पृथक् पृथगिति । ततो विकल्पार्थेन वाशब्देन को द्वितीयो विधिः प्रदर्शितः ? इति । 'पच्छा सो इड्विपत्तो सामाइयं काऊण पडिकतो त्ति वंदित्तेत्यादि' अत्र कश्चिदाह पडिकंतो त्ति वंदित्तु सवसिद्धेत्यादि प्रतिक्रमणं कृतवानिति तदयुक्तं यतो यदेव प्रतिक्रमणं सर्वमिहेवानेनैव चूर्णिकृताऽनृद्धिप्राप्तमाश्रित्योक्तमृद्धिप्राप्तस्यापि तदेव युज्यत इति । तच्च पूर्वोक्तमिदं 'पच्छा इरियावहियाए पडिक्कमइ पच्छा आलोइत्ता वन्दह इत्यादि, तत इहापि 'पडिकंत' इति ईर्यापथं प्रतिक्रान्तबानिति व्याख्या युक्तिमता। न च वाच्यं स्वमनीषिकया
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विकल्पितमेतदिति । यतः श्रीअभयदेवसूरिणाप्ययमेव 'पडिकंत' इतिशब्द इत्थमेव व्याख्यातस्तथाहि एवं सामायिक | कृत्वा ईर्यापथं प्रतिक्रान्तो बन्दित्वा पृच्छति पठति वा । प्रथमपश्चाशके । तथा पुष्प(फ)तम्बोलपावारगमाइ बोसिरइ त्ति,
अत्र पावारगश देन दुष्प्रत्युपेक्ष्यो वस्त्र विशेषो ज्ञेयो न पुनः सामान्येन प्रावरणमित्यपि प्राग मुखवस्विकाधिकारे निर्णीतमस्ति । 'खरडो तह बोरठी( वोरुट्ठी) सलोमपडओ तहा हवइ जीणं । सदसं वत्थं पल्हविमाईणमिमे उ पजाया' ।।१।। इति प्रवचनसारोद्धारे । यद्यत्र दण्डके प्रत्याख्यानं साक्षात्रोक्तं तथापि विधिवादचरितानुवादाभ्यां श्रावकस्यापि प्रत्याख्यानाधिकारित्वात् , 'आवस्सयं करितो त्ति' इत्यादिना च षड्विधावश्यकस्य प्रस्तुतत्वात् प्रत्याख्यानमपि विधेयमेव । तथा चावश्यकस्य चूर्णी संकेयं नाम केतमिति गृहस्याख्या गृहवासिनां प्रत्याख्यनमित्युक्तं भवति । तथा सावओ पोरिर्सि पच्चक्खाइत्ता खित्तं गओ इत्यादि । तथा एलकाक्षोत्पत्तौ साविगा एगस्स मिच्छादिद्वियस्स दिना । वेयालियं आवस्सयं करेइ पच्चक्खाइ य । आव०चूणौँ । तस्मादत्रानुक्तमपि प्रत्याख्यानं ज्ञेयं । प्रत्याख्यानान्ते च देसावगासियं उवभोगपरिभोगं पच्चक्खामीति व्रतद्वयमुच्चार्यम् । देशावकाशिके च पूर्वगृहीतसर्वव्रतप्रमाणानि स्मृत्वा संक्षेप्याणि । उक्तं चावश्यकचूर्णो देसावगासिगाधिकारे | एवं सबबएसु जे पमाणा ठविया ते पुणो दिवसे उस्सारेइ । एवं 'एगमुहुत्तं दिवसं राई पंचाहमेव पक्खं वा । वयमिह धारेउ दढं जावइयं उस्सहे कालं' ।। इत्यादि । व्रतप्रमाणस्मरणे च व्रतानां शोधनार्थ श्रीउपासकदशासूत्रावश्यकादिनियुक्त्यादियुक्त्या सम्यक्त्वमूलद्वादशव्रतसंलेखनातीचाराः पञ्चाशीतिरालोचनीयाः, आनन्दादिभ्यः श्रीवीरेणैषामतीचाराणामेवोक्तत्वात । तत एवं पड्विधावश्यकं कृत्वा 'पाणिवहमुसावाए अदिन्नमेहुणपरिग्गहे चेव । सयमेगं तु अणूणं उस्मासाणं भविजाहि ॥१॥
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आवश्यकनियुक्ति दीपिका।
III
सामायिक
ग्रहणविधिः।
॥२२॥
इति आवश्यकनियुक्तिवचनात् कुस्वप्नकायोत्सर्गः साधुक्त श्राद्धस्यापि युज्यते यथा ईर्यापथकायोत्सर्गः साधुश्राद्धयोस्तुल्य एवेति । तथा 'सो उस्सग्गो दुविहो चिट्ठाए अभिभवे य नायबो । भिक्खायरियाए पढमो उवसग्गभिजुजणे बीओ' ॥१॥ इत्यादि गाथा । ततः सामायिके कृते द्वितीयोऽभिभवकायोत्सर्गोऽपि युक्तः, यथा चन्द्रावतंसकराजादिभिः कृत इति ।। किश्चैष आवश्यकविधिः स्वल्पोऽपि पूर्वश्रुतधराभिहितत्वात्तत्प्रमाणमेव । यदि च समधिकमपि विधि सूत्रभाष्यचूर्णिचिरन्तनवृत्त्यादिभिः श्राद्धमाश्रित्य कोऽपि दर्शयति तदा सोऽपि प्रमाणं नात्र कोऽप्यभिनिवेशोऽस्ति यतः 'से नूणं भंते ! तमेव सचं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं, हंता गोयमा! तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं' भगवत्यां, स्थानकेष्वपि 'आगमं आयरंतेण अप्पणो हियकंखिणा । तित्थनाहो गुरू धम्मो सवे ते बहुमन्निया' ॥१॥ अतः सिद्धान्तोक्तविधिः श्रद्धेयः । पञ्चमे क्षेत्रखलादौ सामायिकस्थाने कदाचित्सम्पूर्णमपि षडावश्यकं कदाचिदसम्पूर्णमपि कदाचित्केवलमपि सामायिकं भवति । तथाहि यदि चिरं स्थास्यति निर्व्यापारश्च भूमिरपि निषद्या रुयादिसंघट्टोद्योतिकादिवर्जिता मिथ्यादृष्ट्यादिसागारिकाभावश्च तदा सर्वमावश्यक कुर्यात् , कारणे तु सामायिकरहितमप्यावश्यकं, विशेषकारणे तु केवलं सामायिकं कृत्वा नमस्कारादि परावर्त्तते । सामायिकवेलाया अभावे त्वभिग्रहविशेषरूपं ग्रन्थ्यादि यावत् सावधप्रत्याख्यानं कुर्यात् । यतोऽत्रैवाग्रे चूर्णी 'अंगुट्ठमुट्ठिगंठी त्ति' व्याख्याने 'ताब न जेमेमि जाव न मुढि मुयामीत्यादि न केवलं भत्ते अन्नेसु वि अभिग्गहविसेसेसु । ततोऽभिग्रहविशेषाः सर्वार्थविषया भवन्ति । तथा 'वंदित्तु सबसिद्धे' इत्यादि प्रतिक्रमणनामरूढं सूत्रं नियुक्ती नोक्तं, तथा श्राद्धानां पाक्षिकप्रतिक्रमणसूत्रे च भिन्न क्षामणानि च । ततोऽयमावश्यकचयुक्तः संक्षिप्तोऽप्यावश्यकविधिश्चिरन्तनश्राद्धानां ज्ञेयः। ननु
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॥२२ ॥
G
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श्राद्धसाध्वोरैर्यापथिक्यां कथं समोच्छ्वासाः । उच्यते समितगुप्तयोयोरप्येवंशुद्धेर्देशसर्वविरत्योः प्रपत्त्या सम्यक्त्वबलात् सावध महाभीतः, असमितयोस्तु द्वयोरप्यन्यछेदपर्दैनवापि संयमस्थानभेदानां श्राद्धगुणानां च तारतम्येन वृद्धिहान्योरसङ्ख्यत्वात् , तत आवश्यक साम्यमेव इति श्रावकयोग्यषडावश्यकविचारः।
ननु कृतसामायिकः श्राद्धो गुणैः साधुरेव । स कस्मादित्वरं सामायिक सर्वसावद्ययोग प्रत्याख्यामीति नोच्चरति ? सर्व सावधविरतेरगारिणोऽसम्भवात् आरम्भेष्वनुमतेरव्यवच्छिन्नत्वात् कनकादिषु चात्मनहानिवृत्तेः साधुश्रावकयोश्च प्रपश्चेन मेदाभिधानात् तथा चाह
सिक्खा दुविधा गाहा उववातठिती गती कसाया य । बंधता वेदेन्ता पडिवजाइक्कमे पंच ॥१॥
शिक्षाकृतः साधुश्रावकयोमहान् भेदः। शिक्षा द्विधाऽऽसेवनाशिक्षा ग्रहणशिक्षा च । शिक्षाऽभ्यासस्तत्रासेवनाशिक्षामाश्रित्य सम्पूर्णामेव चक्रवालसामाचारी सदा साधुः पालयति । श्रावकस्तु आचाराडोक्ता सामायिकेऽपि पूर्णां न पालयत्यज्ञानादसम्भवाच । ग्रहणशिक्षा त्वाश्रित्य साधुर्जघन्येन सूत्रतोऽर्थतश्चाष्टौ प्रवचनमातरुत्कृष्ट तस्तु बिन्दुसारपर्यन्तं गृह्णाति । श्रावकः सूत्रतोऽथेतश्च जघन्येनाष्टप्रवचनमातृरुत्कृष्टतः षड्जीवनिका भणति व्याख्यानयति च । अर्थतस्तु पिण्डैषणां आचाराङ्गोक्तां शृणोति तथा गाथासूत्रप्रामाण्याच्च, यत उक्तं 'सामाइयंमि उकए०'अत्र सामायिके श्रावका श्रमण इव स्यादित्युक्तं न तु श्रमण एवेति यथाऽब्धिवत्तडागः। शेषं प्राग्व्याख्यातमेव । तथोपपातस्यापि भेदः श्राद्धस्योत्कृष्टोपपातोऽच्युते, साधोस्तु सर्वार्थसिद्धौ जघन्येन द्वयोरपि सौधर्मोपपातः । स्थितेरपि भवान्तरे भेदः श्राद्धस्य जघन्या स्थितिः पल्यमुत्कृष्टा द्वाविंशति सागराणि ।
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आवश्यक
निर्युक्तिदीपिका ।
॥ २३ ॥
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साधोर्जघन्या स्थितिः पल्यपृथक्त्वं उत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्सागराणि । गतेर्भेदः साधुः सुरगतौ मोक्षेऽपि श्राद्धचतसृष्वेव । कषायाद्भेदः साधुः कषायोदयमाश्रित्य संज्वलन चतुस्त्रिद्व्येककषायोऽपि स्यादकषायो वा श्रावकोऽप्यविरतो द्वादशकपायी देशविरतस्त्वष्टकपायी । बन्धाद्भेदः साधुर्मूलप्रकृत्यपेक्षयाऽष्टविधबन्धकः सप्तविधबन्धकः षड्विधबन्धक एकविधबन्धको वा श्राद्धस्त्वष्टविधबन्धको वा सप्तविधबन्धको वा । वेदनाभेदः साधुरष्टानां सप्तानां चतसृणां प्रकृतीनां वेदकः । श्राद्धस्त्वष्टानामेव । प्रतिपत्तिभेदः साधुः पञ्चमहाव्रतानि समकं प्रपद्यते श्रावकस्तु एकमणुव्रतं द्वे इत्यादि । अथवा साधुः सकृत्सामायिकं प्रपद्य सर्वकालं धारयति श्रावकस्तु पुनः पुनः प्रपद्यते । अतिक्रमाद्भेदः साधोरेकव्रतातिक्रमे पञ्चवतातिक्रमः श्राद्धस्य त्वेकस्यैव । तथा 'सङ्घ'ति सर्वं सावद्यं इति भणित्वा यस्य विरतिः सर्वा नास्ति अनुमतेर्नित्यप्रवृत्तत्वात् स सर्वविरतिवादी देशविरतिं सर्वविरतिं च भ्रश्यति । 'मण ० ' मनोदुष्प्रणिधानं मनसा गृहव्यापारादिसावद्यध्यानं १ । वाग्दुष्प्रणिधानं सावद्यासभ्यवादिताऽसमि - तेन च वक्तृत्वम् २ | कायदुष्प्रणिधानं अनिरीक्ष्याप्रमृज्य करांद्रयादिन्यासः स्थानादेर्वा करणम् ३ । सामायिकस्य सम्बन्धिनी या स्मृतिरुपयोगस्तस्या अकरणम् । यथा प्रमादान्नैव स्मरत्यस्यां वेलायां मया सामायिकं कर्त्तव्यं कृतं न कृतमिति वा, यतः 'न सरह पमायजुत्तो जो सामइयं कया उ कायवं । कयमकयं वा तस्स उ कथं पि विफलं तयं नेयं । १।४ । सामायिकस्यानवस्थितस्य करणं । अनवस्थितमल्पकालं करणानन्तरमेव त्यजति, यथा 'काऊण तक्खणं चिय पारेह करेह वा जहिच्छाए । अवट्ठियसामाइयं अणायाराओ असुद्धं तु' । १ । करोति वा यदृच्छयाऽव्यवस्थितत्वेन ५ ।
foreseeatree दिसापरिमाणस्स पइदिणं परिमाणकरणं देसावगासियं, देसावगासियस्स सम
साधुश्रावकयोः
शिक्षादि
कृतभेदः
सामायिक
व्रताति
चाराश्व ।
॥ २३ ॥
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णोवासएणं इमे पश्च अइयारा जाणियव्वा, तंजहा-आणवणप्पओगे पेसवणप्पओगे सद्दाणुवाए रूवाणुवाए बहिया पुग्गलपक्खेवे १० ॥ (सूत्रम्)
दिग्वतमध्यगृहीतस्य यावजीवसम्बन्धिदिपरिमाणस्यैव प्रतिदिनमित्येतत् प्रहरमुहूर्ताद्युपलक्षणं प्रमाणकरणं दिनादिगमनयोग्य देशस्थापनं प्रतिदिनप्रमाणकरणं देशावकाशिकम् । देशो दिग्वतप्रमाणस्य विभाग उपलक्षणात्प्राणातिपातादिवतानामपि यावजीवसम्बन्धिपरिमाणनियमानां दिनादिविषये देशतः सर्वतो वा आरम्भत्यागेन संक्षेपणं देशस्तस्यावकाशो गत्यादि. चेष्टाबन्धो देशावकाशस्तेन निवृत्तं देशावकाशिकं, यतः 'एगमुहुत्तं दिवसं राई पंचाहमेव पक्खं वा । वयमिह धारेउ दढं जावइयं उच्छहे कालं' ॥१॥ देशावकाशिकवतं दृढं धारयेत् यावन्तं कालं उत्सहेत शक्नुयात् । आनयनप्रयोगः नियमितभूवाद्यवस्तुनः परेण नरेण सन्देशादिना वा आनयनाय प्रयोजनं व्यापारणम् । एवं दिननियमे सावधानतया स्थेयं । स्वयमगच्छता परेणापि नानेयम् । बलाद्विनियोज्यः प्रेष्यस्तस्य प्रयोगोऽन्येन नियमितभूवहिःकार्यकारणं नियमितभवो बहिः कार्यकारणाय क्षुत्कासशब्दानुपातैः परस्य ज्ञापनं शब्दानुपातः ३ । एवं स्वरूपदर्शनं परेषां रूपानुपातः ४ । नियमितभुवां बहिः कर्करादिपुद्गलप्रक्षेपः ५। इह देशावकाशिकं प्राणिहिंसारक्षाये गृह्यते, अन्यप्रेषणे च प्राणिहिंसा कारितैव । ततः कृतकारितयोन कोऽपि फलभेदः । किन्तु स्वयं गतौ ईर्याशुद्धिः स्यादन्यगतौ त्वदक्षत्वादयतनैवेति भावः । तथा नियमितभुवो बहिः शब्दादयोऽपि विषयतया नानेयाः ते आसन्ने आयान्ति तदा भव्यं अहं वा आसन्नो यामीत्यादि न चिन्त्यम् ।
पोसहोववासे चउविहे पन्नत्ते, तंजहा-आहारपोसहे, सरीरसक्कारपोसहे, बंभचेरपोसहे, अव्वावार
NAHARASHASIRAHAS
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आवश्यक
निर्युक्ति
दीपिका ।
॥ २४ ॥
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पोसहे, पोसहोववासस्स समणोवासएणं इमे पश्च अइयारा जाणिथव्वा, तंजहा - अप्पडिलेहियदुपडिहि सिजा संथारए अपमज्जियसिज्जासंधारए अप्पडिले हिय दुप्पडिलेहियउच्चारपासवणभूमीओ अप्पमज्जि दुप्पमज्जियउच्चार पासवण भूमीओ पोसहोववासस्स सम्मं अणणुपालणया ११ || (सूत्रम् )
_ पोष या पर्वसु वर्त्तते । पर्वाणि चाष्टम्यादितिथयः । पूरणात्पर्व, धम्मपचय हेतुत्वादित्यर्थः । अत्र योषधशब्दो व्या पर्वस्विति चिन्त्यं, ये पोषधा अविरतैर्भरतादिभिर्दिनत्रयमिह लोकार्थं कृताः ते पोषघव्रतमध्ये न घटते आशंसारूपत्वेन निष्फलत्वात् । नामग्रहण एव यदि ग्राह्यस्तदा सामायिकशब्दोऽपि सम्यक्त्व सामायिके वर्त्तमानत्वात् 'बहुसो सामाइयं' इति कथं ? यावज्जीवं सामायिकं इति किं न ? पोषधशब्दव नियमभोजनतपोमुख्यार्थेषु सिद्धान्तशैल्या दृश्यते । परं व्रताधिकारे सर्वपोषध एव युक्त्या दृश्यतेऽतीचाराश्च तस्य । स च पर्वसु रूढो भवति । तथा पर्वाण्यष्टम्यादय इति पञ्चम्यादयो द्वितीयाद्या वा किं नोक्ताः १ । पोषधे उपवसनं पोषधोपवासः । नियमविशेषाख्यानं चेदं । पोषधोपवासश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा - आहारपोषध आहारनिमित्तं धर्मपूरणं पर्वेति भावः । एवं शरीरसत्कारविषयं धर्मपूरणं शरीरसत्कारपोषधः । तथा ब्रह्म कुशलानुष्ठानं चर्यं समाचरणीयं ब्रह्म च तच्चर्यं चेति समासः । एवं अव्यापारपोषधो हि सावद्यव्यापारत्यागः । तत्राहारपोषधो द्विधा देशतः सर्वतश्च । देशे विकृत्यादिसंक्षेपाचाम्लैकाशनद्विर्भक्तादिरूपः, सर्वतः अहोरात्रं चतुराहारत्यागः १ । तथा शरीरसत्कारपोषधः स्नानोद्वर्त्तनविलेपनपुष्पगन्धताम्बूल वनाभरणादीनां मध्यादमुकं शरीरसत्कारं न करिष्यामीति देशतः, सर्व स्नानादि न कुर्वे इति सर्वतः २ । एवं ब्रह्मचर्य
पोषधोपवास
व्रत
स्वरूपमतिचाराश्च ।
॥ २४ ॥
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दिवा रात्रौ वा प्रमाणेन वा कुर्वे इति देशतः । अहोरात्रं ब्रह्म पालयामीति सर्वतः ३ । अनुकं सावद्यव्यापारं न करिष्यामीति देशतः, सर्व न कुर्वे इति सर्वतोऽव्यापारपोपधः ४ । अत्र देशतः पोषधशब्दो देशावका शिकवाची घटते नत्वतीचारप्रतिबद्धपोषधव्रतवाची, यतः चूर्णौ ' तं सत्तिओ करिशा तवो य जो वण्णिओ समणधम्मे । देसावगासिएण व जुत्तो सामाइएणं वा' ॥ १ ॥ तपश्च एवार्थे द्वादशधा श्रमणधर्मे यद्वर्णितं तच्छक्तितः कुर्यात् देशावकाशिकेन युक्तो देशपोषधवान् तपः कुर्यात्, सामायिकेन वा युक्तः सर्वपोषधवान् तपः कुर्यात् । परं देशावका शिकवान् श्राद्धः सदा स्यात् तेन देशपोषधोऽस्त्येव परं स पोषधशब्दो रूढिं न लभते यथाऽविरतानां सामायिकं उक्तं चेत्थं 'सर्व्वसु काल पत्थो (त्थे णिमए तवो जोगो । अट्ठमिपन्नरसीसु च, नियमेण हविज पोसहिओ ' ॥ १ ॥ सर्वेषु कालपर्वसु प्रतिपदादिषु जिनमते तपो योगः प्रशस्तः, परमष्टमीपश्चदश्योर्नियमात्पोषधिको भवेत् । अत्र सर्वपोषध एव घटतेऽन्यथा विशेषाभिधानं कथम् ? तपसि देशपोषधस्यायातत्वादेव तथा यो देशपोषधं करोति स सामायिकं करोति न वा करोति । यः सर्वोषधं करोति स नियमात्करोति । अत्र सामायिकं करोति न वा करोतीतिशब्देन पोषधसम्बद्धं सामायिकं न घटते किन्त्वावश्यककाले करोति न वा । अथ पोषधविधि:-' तं कर्हि ? चेहयघरे साहूमूले घरे वा पोसहसालाए वा उम्मुकमणिसुबन्नो पढन्तो पुत्थयं वाएइ, धम्मज्झाणं झाएइ, जहा एए साहुगुणा अहं असमत्यो मन्दभग्गो धारिउं' इत्यादि । एवं पोषधो यो वर्णितः स सर्वपोषध एव घटते । तत एव वृत्तिकदाह- इदमपि शिक्षापदवतं निरतिचारं पाल्यम् । 'पोसहो' पोषधोपवासस्य पोपधावस्थानस्य पञ्चातीचाराः । अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षितशय्या संस्तारौ शय्या फलकाद्यास्तीर्यते शयनाय पोषधिना इति,
५
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आवश्यकनियुक्तिदीपिका।
OCTOCOCOCK
॥२५॥
संस्तारः दर्भकम्बलीवस्त्रादिः, प्रत्युपेक्षणं चक्षुषा निरीक्षणं, प्रमार्जनमासेवनकाले वस्त्रोपान्तादिना, न प्रत्युपेक्षितौ दुष्टप्रमत्ततया एकादशप्रत्युपेक्षितौ वा १, न प्रमार्जितौ दुष्टप्रमार्जितौ वा शय्यासंस्तारौ २, न प्रत्युपेक्षिता दुष्टप्रत्युपेक्षिता वा, न प्रमार्जिता दुष्टः व्रतस्वरूपप्रमार्जिता वा उच्चारप्रश्रवणभूमयः, उच्चारो विट् प्रश्रवणं मूत्रं तयोर्भूमयः, उच्चारादिशब्दोपलक्षणानिष्ठयूतस्वेदमलादित्याग- मतिचाभूमिः, अप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षितोच्चारप्रश्रवणभूमयः [अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जितोच्चारप्रश्रवणभूमयः ३-४] । एत्थ पुण सामा
राश्च । यारी कडपोसहो नो अपडिलेहियसेजं दुरूहइ आरोहति, संथारंग वा दुरूहइ, पोसहसालं वा सेवइ, दम्भवत्थे वा भूमीए संथरेइ, काइयभूमीओ आगओ पुणरवि पडिलेहइ, अन्नहाइयारो, एवं पीठगाइसु । तथा पोषधोपवासस्य सम्यक् प्रवचनोक्तविधिना || निष्प्रकम्पेन चेतसाऽननुपालनं अनासेवनम् ५। इत्थं भावना-'कयपोसहो अथिरचित्तो आहारे ताव सवं देसंवा पत्थेइ । विइयदिवसे पारणगस्स अप्पणो अट्ठाए आढत्तिं करेइ कारावेइ वा, इमं इमं वत्ति करेह । तथा सरीरसक्कारे सरीरं उबट्टेइ । दाढियाओ केसा वा रोमाई वा सिंगाराभिप्पाएणं ठावेइ, दाहे वा सरीरं सिंचइ । एवं सवाणि सरीरभूसाकारणाणि[ण] परिहरइ । बंभचेरे इहलोइए परलोइए वा भोगे पत्थेइ संवाहेइ वा । अहवा सद्दरूवरसफरिसगन्धे वा अभिलसइ कइया बंभचेरपोसहो पुरिहि इति । अव्वावारे सावजाणि वावारेइ कयमकयं वा चिन्तेइ । एवं पंचाइयारसुद्धो अणुपालियहोति । इह युक्त्या सर्वपोषध एवेयं युक्तियुक्ता न देशे, पोषधनामापि सर्वस्यैवोच्यते न तु देशस्य यतो वृत्तिकृता 'कयपोसहो अथिरचित्तो' इत्याधुक्तं नतूक्तं 'कयसबपोसहो अथिरचित्तो' इति । तस्मात्पोषधः सर्वपोषध एव । ततो यत्केऽपि सूरयो निशीथभाष्यगाथार्थात्पोषधे आहारं ग्राहयन्ति तन ज्ञायते, यतः तत्रेयं गाथा 'जे भिक्खू असणाई दिजा गिहि अहब अन्नतित्थीणं । सो आणाअणवत्थं ॥२५॥
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STORA
मिच्छत्तविराहणं पावे ॥१॥ जुत्तमदाणमसीले कडसामाइउ होइ समण इव । तस्समजुत्तमदाणं चोदग सुण कारणं तत्थ ॥२॥ कामी सधरंगणओ थूलपइण्णा से होइ दट्ठवा । छेदणभेदणकरणे उद्दिढकडं पि सो भुंजे ॥ ३॥ पंच विसया कामेइ त्ति कामी, सह गृहेण सगृहः, अङ्गना स्त्री सह अङ्गनया साङ्गनः । थूलपइण्णा देसविरत इति । वृक्षादिछेदने पृथिव्यादिभेदने च प्रवृत्तः सामायिकमावादन्यत्र जं च उद्दिढकडं तं कडसामाइओ वि भुंजइ । एवं सो सबविरओ न भवति । एएण कारणेण तस्स न कप्पइ दाउं' । नि० भा० चू० उ० १५ । अत्र यत्सामायिके उद्दिष्टकृतभोग उक्तः स वनपट्टकाद्युद्दिश्यति वृद्धाः। अथाशनादीनिशब्दस्पष्टत्वेऽशनादिभोग एव घटते, उच्यते यद्यशनादिभोगस्तदा कथश्चित्सामायिके स भविष्यति परं पोषधव्रते कथं घटते ? आहारादिनिषेधादेव । सामायिके चाहारग्रहणं गच्छाचरणया प्रायो न दृश्यतेऽतोऽत्र बहुश्रुताः प्रमाणम् । परं भुजेशन्देन भोजनार्थः सामायिके कया रीत्या सङ्गतस्तचिन्त्यं, कायचिन्तादौ उद्दिष्टकृत इव भोगो घटतेऽपि ॥११॥
अतिहिसंविभागो नाम नायागयाणं कप्पणिजाणं अन्नपाणाईणं दवाणं देसकालसद्धासकारकमजुअं पराए अत्तीए आयाणुग्गहवुद्धीए संजयाणं दाणं, अतिहिसंविभागस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियब्वा तंजहा-सञ्चित्तनिक्खेवणया सच्चित्तपिहणया कालइक्कमे परववएसे मच्छरिया य १२॥ (सूत्र)
भोजनार्थ भोजनकालागतोऽतिथिरुच्यते । तत्रात्मार्थं निष्पादिताहारस्य गृहिवतिनः साधुरेव मुख्योऽतिथिस्तस्य संविभागो दानं अतिथिसंविभागः। संविभागशब्दात्पश्चात्कादिदोषपरिहारो ज्ञेयः। नामशब्दोऽलङ्कारार्थः। न्यायागतानां न्यायो द्विजक्षत्रियवैश्यादीनां स्ववृत्त्यनुष्ठानं तेनागतानां प्राप्तानां अस्त्यैन्येन व्यवहारशुद्ध्यागतानामित्यर्थः । कल्पनीयानामुदमादि
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R-
आवश्यकनियुक्तिदीपिका ।
द्वादशव्रतस्वरूपमतिचाराश्च ।
॥ २६ ॥
CHECE
दोषोज्झितानामित्यर्थः । अन्नपानादीनामादितो वस्त्रपात्रौषधभेषजादिग्रहः अनेन हिरण्यादिव्यवच्छेदः । देशकालश्रद्धासत्कारक्रमयुक्तम् । तत्र शाल्यादिनिष्पत्तिभाग देशः, सुभिक्षादिः कालः, शुद्धचित्तपरिणामः श्रद्धा । अभ्युत्थानासनदानवन्दनानुव्रजनादिः सत्कारः, पाकस्य पेयादिपरिपाट्या प्रदानं क्रमः। यद्वोत्कृष्टानुत्कृष्टवस्तूनां परिपाटिः क्रमः । एभिर्देशादिभिर्युक्तम् । अनेन विपरीतक्रमव्यवच्छेदमाह । परया भक्त्या परया तत्त्वबुझ्या, तथात्मानुग्रहबुद्ध्या न तु यत्यनुग्रहबुद्ध्या यतयश्चात्मन्यनुग्रहपराः स्युः। संयतेभ्यो मृलोत्तरगुणसंपन्नेभ्यो दानम् । एत्थ सामायारी-सावएण पोसह पारंतेण नियमा साहूण दाउं पारेयव्वं । अन्नया पुण अनियमो, दाउं वा पारेइ पारिए वा देह, तम्हा पुव्वं साहूणं दायव्वं । कहं ? जाहे देसकालो यदा प्रस्तावः ताहे अप्पणा सरीरस्स विभूसं काउं। परं विभूषा किमर्थमुक्ता? उच्यते, अलङ्कतो धर्ममाचरेदिति व्यवहाररक्षायै, साहुपडिस्सयं गतुं निमंतेइ भिक्खं गेण्हह त्ति । साधूणं का पडिवत्ती? साधूनां का प्रतिपत्तियुक्तिः ? ताहे अन्नो पडलं अन्नो मुहणंतगं अन्नो भाणं पडिलेहेइ मा अंतराइयदोसो ठवियगदोसो य, अन्तरायदोषः स्थापनादोषश्च मा भवत इति साधवः पात्रकप्रतिलेखनां विभिन्नाः कुर्युः । सो जइ पढमाए पोरिसीए निमंतेइ अस्थि नमोक्कारइतगा तो घेप्पइ, अह नत्थि न घेप्पइ, तं वहियव्वयं होइ । जइ घणं | लगिजा ताहे घेप्पइ संचे(चि)क्खावे(वि)जइ । जो वा उग्घाडपोरिसीए पारेह पारणइत्तो अन्नो तस्स दिजइ । पच्छा तेण सावगेण समगं गम्मइ । संघाडगो बच्चइ एगो न वट्टा पेसेउं साहुणो पुरओ सावगो मग्गओ घरं नेऊण आसणेण उवनिमंतिञ्जन्ति । जइ निविट्ठा तो लट्ठयं । अहवा न निविस्सन्ति तहावि विणओ पउत्तो, ताहे भत्तं पाणं सयं चेव देइ । अहवा
१ णमोकारसहिताइतो' इति आव० हारि० वृत्ती, 'नमोकारसित्ता' इति आव० चूर्णौ ।
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॥२६॥
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भाणं धरेह भञ्जा देइ । अहवा ठियओ अच्छइ जाव दिन, साहू वि सावसेसं दव्वं गेण्हन्ति पच्छाकम्मपरिहरणट्ठा, दाऊण वंदिउँ विसजेइ अणुगच्छइ । पच्छा सयं भुंजइ । जं च किर साहूणो न दिन्नं तं सावगेण न भोत्तव्वं । जइ पुण साहू नत्थि ताहे देसकालवेलाए दिसालोओ कायव्यो । विसुद्धमावेणं चिंतेयत्वं । जइ साहवो होता नित्थारिओ मि होतो त्ति इत्यादि । अस्यातीचाराः । अन्नादेरदानबुद्ध्या सचित्तेषु निक्षेपणं मायया । तथा एवं सचित्तेन पिधानं स्थगनं सचित्तपिधानं २। एवं कालातिक्रमः । उचितो यो यतिभिक्षाकालस्तमतिक्रम्यानागतं वा निमन्व्य भु२३ । एवं साधोः पोषधोपवासपारणकाले भिक्षागतस्य प्रकटमन्नादि पश्यतः श्राद्धो वक्ति परकीयमिदमन्नं नास्माकीयं तेन न ददे इति परस्य व्यपदेशः छलं परव्यपदेशः परं व्यपदिशति यद्वा अन्यस्य जीवतो मृतस्य वा पुण्यं भवत्विति ४ । एवं मात्सर्य इति याचितः कुप्यति । सदपि न दत्ते तथा अन्योन्नति वैमनस्य मात्सर्य स्यात्तेन यदि द्रमकेण याचितेन दत्तं किमहं ततोऽपि न्यूनः ? इति मात्सर्याहत्ते । सकषायचित्तस्य वा दाने मात्सर्यम् ५। समाप्तं चतुर्थ शिक्षापदव्रतम् ॥१२॥ श्राद्धधर्म निगमयन्नाह
इत्थं पुण समणोवासगधम्मे पंचाणुव्वयाई तिन्नि गुणव्वयाइं आवकहियाई, चत्तारि सिक्खावयाई इत्तरियाई, एयस्स पुणो समणोवासगधम्मस्स मूलवत्थु सम्मत्तं, तंजहा-तं निसग्गेण वा अभिगमेण वा पंचअईयारविसुद्धं अणुव्वयगुणव्वयाई च अभिग्गहा अन्ने वि पडिमादओ विसेसकरणजोगा, अपच्छिमा मारणंतिया संलेहणाझसणाराहणया, इमीए समणोवासएणं इमे पञ्च अइयारा जाणियव्वाइहलोगासंसप्पओगे परलोगासंसप्पओगे जीवियासंसप्पओगे मरणासंसप्पओगे कामभोगासंसप्प
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बावश्यकनियुक्तिदीपिका।
॥२७॥
CONCE
ओगे १३ ।। (सूत्रम्)
श्राद्धधर्मपंचाणुव्रतानि त्रीणि गुणव्रतानि यावत्कथिकानि सकृद् गृहीत्वा यावजीवं पाल्यानि । शिक्षापदव्रतानीत्वराणि, शिक्षाs- निगमनम् । भ्यासस्तस्याः पदानि स्थानानि तान्येव व्रतानि । तत्र प्रतिदिवसानुष्ठेये सामायिकदेशावकाशिके पुनः पुनरुच्चार्ये । अत्र | सामायिकमपि देशावकाशिकवत्कालद्वयमेव कार्य इति वृद्धाः । पोषधोपवासातिथिसंविभागौ तु प्रतिनियतदिवसानुष्ठेयौ न प्रतिदिवसाचरणीयौ । अत्र प्रतिनियतशब्देन पर्वदिने इति वृद्धाम्नायः। यत्सुबाहुनाऽष्टमेन पोषधादि कृतं तत्र द्वादशं पौषधव्रतं किं न घटते ? तस्य पर्वदिनानुष्ठानत्वात् श्रीविजयादिनां पोषधदृष्टान्तेन यद्वा त्रयोदश्यामुपवासं कृत्वाऽन्ते चतुर्दशीपञ्चदश्योः पोषधद्वयमिति, यद्वा नियमविशेषे वाऽष्टमतपसि पोषधशब्दः । अत्र यद्वचनविरुद्धं स्यात्तच्छुतज्ञानं क्षमयामि । 'एयस्स०' एतस्य द्वादशविधस्य धर्मस्य मूलवस्तु मूलभूतं सम्यक्त्वं प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्यस्वरूपम् । तन्निर्सेगण वाs-IX धिगमेन वा स्यात्तत्र निसर्गः स्वभावोऽधिगमो गुरोः शास्त्राद्वा यथार्थवस्तुज्ञानम् । यद्यपि मुख्यतः सम्यक्त्वं क्षयोपशमाजायते तथापि निसर्गाधिगमौ सहकारिणौ भवत एव । इदं च शङ्कादिपश्चातीचाररहितं पाल्यमिति शेषः। तथाणुव्रतानि गुणवतानि निरतिचाराणि पाल्यानि । अभिग्रहा लोचकृतघृतदानाद्याः (शु)द्धा भङ्गायतिचाररहिताः पाल्याः, अन्ये च प्रतिमाद्या विशेषण करणयोगाः पुण्यव्यापारा आदिशब्दादनित्यत्वाद्या भावनाः पाल्याः । तथाऽपश्चिममारणान्तिकी संलेखनाजोषणाराधनातिचाररहिता सम्यक पाल्या । तत्र पश्चिमैवापश्चिमा मरणमेवान्तो मरणान्तस्तत्र भवा मारणान्तिकी । संलिख्यन्ते कशीक्रिया | न्तेऽनया देहकषायादीनि [इति ] संलेखना तपोविशेषरूपा तस्या जोषणं सेवनं तस्याराधनाऽखण्डपालनं चः समुच्चये । एत्थ ४ ॥२७॥
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SAGARORAGARICRORE
सामायारी-आसेवियगिहिधम्मेण किल सावगेण पच्छा निक्खमियत्वं । एवं सावगधम्मो उज्जमिओ होइ । न सक्कइ ताहे भत्तपचक्खाणकाले संथारसमणेण होयवं। अत्रेदं विचार्यते । यदि संस्तारदीक्षाप्यवश्यं श्राद्धैाह्या इत्यस्ति आनन्दादिभिश्च सामग्र्यो नात्ता, ततः केवलचरितानुवादमात्रेणैव न स्थेयं किन्तूक्तबलादपि विधेयम् । तेन ग्रन्थि बवा सामायिकवद्यत्पालयन्ति सावधनियमं तत्र दोषो न घटते । 'इमीए' इत्यादि, इह मरणकाले इहलोकाशंसाप्रयोगः इहलोको मनुष्यलोकस्तस्मिन्नाशंसाऽभिलाषस्तस्याः प्रयोगो यथा इह भवे महत्ववान् स्यामिति १ । एवं परलोको देवलोकः २। जीविताशंसा मरणसमयेऽपि पुस्तकवाचनादिपूजाबहुपरिवारलोकश्लाघ्यत्वदर्शनादनशनिनोऽपि जीवितेच्छाकरणम् ३ । मरणाशंसाप्रयोगोऽनशने न पूज्यत्वे अनिष्टस्पर्शादिना शीघ्र म्रियेऽहमिति चिन्तनम् ४ । कामभोगाशंसा जन्मान्तरे चक्री स्यामित्यादि ५। व्याख्यातं दिग्वतादिदेशोत्तरगुणप्रत्याख्यानम् । सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानमाह
पच्चक्खाणं उत्तरगुणेसु खमणाइयं अणेगविहं ।
तेण य इहयं पगयं तं पि य इणमो दसविहं तु ॥ १५५७ ॥ प्रत्याख्यानं उत्तरगुणेषु उत्तरगुणविषयं प्रकरणात्साधूनामिदं क्षपणादि उपवासादि, तेनैवात्र सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानप्रक्रमे प्रकृतमुपयोगः, तदपि चेदं दशविधं मूलभेदापेक्षया ॥ १५५७ ।।
अणागयमइक्वंतं कोडियसहि निअंटिअं चेवं ।
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आवश्यक
निर्युक्ति
दीपिका ।
॥ २८ ॥
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सागारमणागारं परिमाणकडं निरवसेसं ॥ १५५८ ॥
अनागतं पर्युषणादौ गुरुवैयावृत्च्यादेस्तपोऽन्तरायभावादर्वाक् तत्तपःकरणं अनागतम् १ । एवमतिक्रान्ते पर्वणि तपोsतिक्रान्तम् २ | कोट्यौ अन्तौ मिलितौ समानौ यत्र तत्कोटीसहितं आद्यन्तयोश्चतुर्थादितुल्यप्रत्याख्यानमित्यर्थः ३ । नितरां यन्त्रितं नियन्त्रितं यथा अमुकदिने कारणेऽकारणे वा एतत्तपः कार्यमेव ४ । सहाकारैः साकारम् ५। अविद्यमानाकारं अनाकारम् ६ । दत्यादिपरिमाणात् परिमाणकृतम् ७ । सर्वाहारत्यागरूपं निरवशेषम् ८ ।। १५५८ ॥ संकेयं चैव अद्धा पञ्चक्खाणं तु दसविहं ।
सयमेवणुपालणियं दाणुवएसे जह समाही ॥ १५५९ ॥
hi चिह्न अङ्गुष्ठादि सह तेन वर्तते इति सङ्केतम् ९ । ' अद्धा 'त्ति पौरुष्यादिकालमानम् १० । प्रत्याख्यानं दशविधं इदं स्वयमेवानुपालनीयं न तु प्राणातिपातादिप्रत्याख्यानवदन्यकारापणेऽनुमतौ वा निषेधः । दाने कृतोपवासस्यान्येषा - माहारदाने उपदेशे अन्यदानोपदेशे च यथासमाधि स्वेच्छया करोतीत्यर्थः ।। १५५९ ।। दशविधप्रत्याख्यानं व्याख्याति होही पज्जोसवणा मम य तथा अन्तराइयं हुज्जा । गुरुवेयावच्चेणं तवस्सि गेलन्नयाए वा ॥ १५६० ॥
दशविधप्रत्या
ख्यानव्या
|ख्यानम् ।
।। २८ ।।
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भविष्यति पर्युषणा उपलक्षणाच्चतुर्मासकादावपीदं ज्ञेयम् । तत्र पर्युषणायां विकृष्टतपः कार्यम्, तत्र यदि सर्वविकृष्टं कर्त्तुं न शक्नोति तदापि जघन्यविकृष्टं अष्टमं करोति, एवं चतुर्मासे षष्ठं पाक्षिके उपवासः । तथाऽन्येष्वपि स्नात्ररथयात्रादिष्वपि यथाशक्तया तपः कार्यम् । तदा पर्वे मम गुरुवैयावृत्येन तपस्विपारणेन स्वस्य ग्लानतया च अन्येन वा ग्रामगमनकार्यादिना चोपवासस्यान्तरायं भवति ।। १५६० ।।
सो
'तवोकम्मं पडिवज्जे तं अणागए काले ।
एयं पञ्चक्खाणं अणागयं होइ नायव्वं ॥ १५६१ ॥
स इदानीं अनागते काले तत्पर्युषणासम्बन्धि तपःकर्म्म प्रतिपद्यते तदनागते काले एतत्प्रत्याख्यानमनागतं ज्ञातव्यम् ॥। १५६१ ॥ अतिक्रान्तव्याख्यामाह
दाइ
पज्जोसवणाइ तवं जो खलु न करेइ कारणजाए । गुरुवेयावच्चेणं तवस्सिगेलन्नयाए वा ॥ १५६२ ॥
पर्युषणायां यस्तपो न करोति कारणजाते सति तदेवाह गुर्वादिवैयावृत्येन तपस्विग्लानतयाऽन्तरायं च ।। १५६२ ।। सो दाइ तवोकम्मं पडिवज्जइ तं अइच्छिए काले ।
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कोटी
बावश्यकनियुक्तिदीपिका।
॥२९॥
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एवं पञ्चक्खाणं अइकंतं होइ नायव्वं ॥ १५६३॥ 'अइच्छिए' अतिक्रान्ते काले ॥१५६३ ।। तत्रानागतप्रत्याख्याने विधिः-पर्युषणायां गुरूणां गोचरवैयावृत्यं कार्य तदा
सहित
प्रत्याख्यातेऽसहत्वादुपवासासहा अन्या वा काप्याज्ञप्तिः स्यात् , अामान्तराद्वा किश्चिदानेयं स्यात, देहवैयावृत्तिर्वा । उपवासी त गुरुवयावृत्याद्यसहः । ततः क्षमः उपवासवैयावृत्त्ये कुर्यादन्यो वोपवासासहः कुर्यात, यद्वान्यो विहर्ता नास्ति अस्ति वा
18 नम्। परमलामोऽज्ञो वा विधौ, ततः स एव पूर्वमुपवासं कृत्वा पर्युषणायां भुङ्क्ते, यद्वा तपस्वी क्षपकस्तस्य पर्युषणायां पारणं समेतं गोचराक्षमश्च । असहं तपस्विनं ज्ञात्वा पर्युषणायां पारापितः ततस्तपस्वी चेत् क्षमो मनागपि तदा आसनगृहेषु हिण्डते आसन्ने वा न गृहाणि योग्यं वा न लभ्यते ततः स एवेत्यादि प्राग्वत् । तथा ग्लानतां स्वस्य वेत्ति यथा तदिनेऽहं असहः स्यां, वैद्याद्वा वेत्ति, वैद्येनोक्तं अमुकदिनेऽगदं कुर्याः, यद्वा गण्डादिपीडाऽसहत्वं स्वस्य तदा वेत्ति, ततः प्राग्वत । तथा कुलगणसंघाचार्यगच्छहेतून् वा पर्युषणायां वेत्ति । तेनानागतं प्रत्याख्याति । तदा च भुङ्क्ते, पर्युषणातपो निर्जरैव तस्य एवमनागतप्रत्याख्यानमप्येभिः कारण यम् । कोटीसहितमाह
पट्टवणओ अ दिवसो पञ्चक्खाणस्स निट्ठवणओ अ।
जहियं समिति दुन्नि वि तं भन्नइ कोडिसहियं तु ॥ १५६४ ॥ प्रस्थापकश्च तपःप्रारम्भकश्च दिवसः प्रत्याख्यानस्य निष्ठापकश्च समाप्तिदिवसश्च यत्र प्रत्याख्याने समेतः तुल्यप्रत्या- * ॥ २९॥
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ख्यानत्वेन मिलतः द्वावपि पर्यन्तौ तद्भण्यते कोटीसहितम् । यथा प्रातरावश्यके भक्तार्थः कृतः ततो द्वितीयेऽह्नयपि तं कुर्यादेवं द्वितीयोपवासस्य प्रस्थापनाऽऽद्यस्य तु निष्ठापनेति द्वौ कोणौ मिलितौ, एवं आयम्बिलनिच्चियएगासण एगट्ठाणाण वि । अष्टमादिषु उभयतः कोटिः यतो द्वितीयप्रत्याख्यानाहोरात्रान्त एवोपवासो मिलितः । आद्योपवासाहोरात्रान्त एव च द्वितीयं प्रत्याख्यानं मिलितमिति । यद्वोपवासान्ते आचामाम्लं पुनरुपवासाचामाम्ले इति, एवं एकासनादिष्वपि संयोगः । निर्विकृत्यादिष्वपि प्रत्याख्यानेष्वपि सदृशेषु विसदृशेषु च संयोगः कार्यः || १५६४ ॥ नियन्त्रितमाह
मासे मासे अवो अमुगो अमुगे दिणंमि एवइओ । हट्टेण गिलाणेण व कायवो जाव ऊसासो ॥ १५६५ मासे मासेऽमुकममुकं चतुर्थादितपः, एतावन्मात्रं संख्यया, अमुकदिवसे हृष्टेन नीरोगेण ग्लानेन वा कार्यम् यावदुच्छ्वासो यावदायुः ।। १५६५ ॥
एयं पञ्चक्खाणं नियंटियं धीरपुरिसपन्नत्तं ।
जंगितऽणगारा अणिस्सि (भ) अप्पा अपडिबद्धा || १५६६ ॥
नियन्त्रितं यद् गृह्णन्ति अनगारा अनिश्रितात्मानोऽनिदाना वृद्धा अप्रतिबद्धा देहक्षेत्रादिषु ।। १५६६ ।। चउदस पुवीजिणकप्पिएसु पढममि चैव संघयणे । एयं विच्छिन्नं खलु थेरा वि तया करेसी य। १५६७
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आवश्यक नियुक्तिदीपिका।
॥३०॥
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चतुर्दशपूर्विजिनकल्पिकेषु प्रथमे एव वजननषभनाराचसंहनने एतद् व्युच्छिन्नम् । स्थविरा अपिशब्दादन्येऽपि तदा | साकार| ऽकार्युः ॥ १५६७ ।। साकारमाह
प्रत्याख्यामयहरगागारेहिं अन्नत्थ वि कारणमि जायंमि । जो भत्तपरिच्चायं करेइ सागारकडमेयं ॥१५६८॥ नव्याख्या___ अयं महानयं महाननयोरतिशयेन महान् महत्तरा आकाराः प्रकारास्तैर्महत्तराकारैः प्रभूतदशाकारख्यापनार्थ बहु
नम् । वचनम् । अतो महत्तराकारहेतुभूतैरन्यस्मिंश्चानाभोगादौ कारणे जाते सति भुजिक्रियां करिष्ये अहमित्येवं यो भक्तपरित्यागं करोति, साकारकृतमेतत् । यथा साधुनाऽभक्तार्थः प्रत्याख्यातः । गुरुभिरूचेऽमके ग्रामे गम्यं स ऊचे ममोपवासः । ततश्चेक्षमस्तदा याति अशक्तौ अन्यो याति । नास्त्यन्यस्तत्कार्याक्षमो वास्ति ततो गुरुस्तं प्रेषयति तस्य भुञ्जानस्यानभिलाषस्योपवासनिर्जरा स्यात् गुरुनियोगेन, एवं पारिष्ठापनिकाकारोऽपि युक्त्या ज्ञेयः । एवं ग्लानकुलसंघकार्येष्वपि ॥१५६८॥ | अनाकारमाह
निजायकारणंमी मयहरगा नो करंति आगारं ।
कतारवित्तिदुभिक्खयाइ एयं निरागारं ॥ १५६९ ॥ निश्चयेन यातमपगतं कारणं एकवारेणैव दत्ताहारैः यस्मिन्नसौ निर्यातकारणस्तस्मिन् साधोमहत्तराः प्रयोजनविशेषास्तत्फलाभावात आकारविशेषं न कुर्वन्ति । कान्तारवृत्तौ भिल्लपल्ल्यादिकान्तारपतने दुर्मिक्षतायां दुर्मिक्षभावे चशब्दा-18|॥ ३०॥
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| हुष्टेनाहारनिषेधिते च अत्र यत्क्रियते एतत् प्रत्याख्यानं निराकारम् , भावार्थस्तु भोज्यलाभाभावादनाकारं प्रत्याख्याति यद्वा न जीवामीति ज्ञात्वाऽनाकारं प्रत्याख्याति । तत्राप्यनाभोगसहसाकारौ भवत एव । कदाचित् शलाका काष्ठमङ्गुलिं वा मुखे क्षिपेदनाभोगेन सहसा वा ॥ १५६९ ॥ परिमाणकृतमाह
दत्तीहि उ कवलेहि व घरेहिं भिक्खाहिं अहव दवेहिं ।
जो भत्तपरिच्चायं करेइ परिमाणकडमेयं ॥१५७०॥ दत्तिभिरेकवारेणैव दत्ताहारा कवलैर्वा गृहे भिक्षाभिः संसृष्टादिभिरथवा द्रव्यैरोदनादिभिराहाराय सप्रमाणैयों भक्तत्यागं कुर्यात् , तत्र दत्तिरेकवारेऽन्नपातः, कृतपरिमाणं प्रत्याख्यानमेतत् ।। १५७० ॥ निरवशेषमाह
सवं असणं सत्वं पाणगं सबखज्जभुजविहं ।।
__वोसिरइ सबभावेण एवं भणियं निरवसेसं ॥ १५७१॥ अशनं आर्द्रकमांससप्तदशधान्यानि, एवं पानं खण्डपानादि, खादिमं फलादि, स्वादिमं दन्तपावनमध्वादि । सर्वखाद्यभोज्यविधी खाद्य इक्षुखण्डादि भोज्यं सर्वतः स्वाद्यं तयोर्विधी प्रकारौ सर्वप्रकारेण सर्वतो व्युत्सृजति । 'एयं' निरवसेसं निराकार पार्यतेऽपि, इदं तु न पार्यते इति विशेषः ॥ १५७१ ॥ संकेतमाह
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बावश्यक नियुक्तिदीपिका।
संकेतप्रत्याख्यानव्याख्या नम् ।
॥३१॥
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अंगुट्ठमुढिगंठीघरसेउस्सासथिबुगजोइक्खे ।
भणियं संकेयमेयं धीरेहिं अणंतनाणीहिं ॥ १५७२ ॥ अङ्गुष्टमुष्टिग्रन्थिगृहस्वेदोच्छ्वासस्तिबुकज्योतिष्कान् चिह्नं कृत्वा यत्क्रियते प्रत्याख्यानम् । अयमर्थः पूर्णेऽपि पौरुष्यादिप्रत्याख्याने साधुः श्राद्धो वा यावन्न भुक्ते तावत् किञ्चिञ्चिहममिगृह्णाति न युज्यतेऽप्रत्याख्यानिनः स्थातुं इति । ततोऽङ्गुष्टं यावन्न मुश्चामि ग्रन्थि यावन्न छोटयामि यावद् गृहं न विशामि यावत् स्वेदो न शुष्यति यावदेतावन्त उच्छ्वासाः पानीयमश्चिकायां यावदेतावन्तः स्तिबुका विन्दवोऽवश्यायपृषतो वा यावज्योतिष्कशब्देन दीपो गृह्यते ततो यात्रदेष दीपो ज्वलति तावदहं न भोक्ष्ये । एतत्तु प्रत्याख्यानं संकेत भणितं धीरम(रैर)नन्तज्ञानिभिः । न केवलं भक्तेऽन्येष्वप्यभिग्रहविशेषेषु संकेतं स्यात् । तेन सामायिकतुलनया ग्रन्थिसहितमपि प्रत्याख्याति श्राद्धः॥ १५७२ ।। अद्धामाह
अद्धा पञ्चक्खाणं जं तं कालप्पमाणछेएणं ।
पुरिमडपोरिसीए मुहुत्तमासद्धमासेहिं ॥ १५७३ ॥ ___ अद्धा काले प्रत्याख्यानं यत् तत् अद्धाप्रत्याख्यानम् , तत् कालप्रमाणछेदेन स्यात् पुरिमार्द्धपौरुषीभ्यां पश्चिमार्द्धन च तथा मुहूर्त नमस्कारसहितम् । एवं एकाशनोपचासदिवसद्वयादि यावत् मासार्द्धमासैः षण्मासैः स्यात् ।। १५७३ ।। अथ निगमयति
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॥३१॥
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भणियं दसविहमेयं पञ्चक्खाणं गुरुवएसेणं । कपञ्चक्खाणविहिं इत्तो वुच्छं समासेणं ॥ १५७४ ॥ आह जइ जीवघाए पच्चक्खाए न कारए अन्नं । भंग भयाऽसणदाणे ध्रुव कारवणे य नणु दोसे ॥ १५७५ ॥
कृतं प्रत्याख्यानं येन स तथाविधस्तस्य विधिं इतः समासेन संक्षेपेण वक्ष्ये ॥ १५७४ || 'आह' अत्र पर आह यथा जीवघाते प्राणातिपाते प्रत्याख्याते सति असौ परेण जीवघातं न कारयति प्रत्याख्यानभङ्गभयात् एवं कृतप्रत्याख्यानस्याशनादिदाने ध्रुवं कारणादि जायते इति ननु दोषो लगति प्रत्याख्यानभङ्गरूपः || १५७५ || अतः पच्चक्खाणो आयरियाईण दिन असणाई |
नो
नय विरईपालणाओ वेयावञ्चं पहाणयरं ॥ १५७६ ॥ नो तिविहं तिविणं पञ्चकखइ अन्नदाणकारवणं ।
सुद्धस्स तओ मुणिणो न होइ तब्भंग उत्ति ॥ १५७७ ॥
कृतप्रत्याख्यानः कृतोपवास आचार्यादिभ्योऽशनादि न दद्यात् । न च विरतिपालनाद्वैयावृत्यं गोचरचर्या प्रधानतरं
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आवश्यकनियुक्ति- दीपिका।
प्रत्याख्या
नविषये चालनाप्रत्यवस्थानम् ।
॥३२॥
स्यात् ॥ १५७६ ।। गुरुराह 'नो' त्रिविधं करणकारणानुमतिरूपं त्रिविधेन मनोवाकायेन योगेन न प्रत्याख्याति आहारविषये तेन अन्यदानरूपं कारणं शुद्धस्य आशंसारहितस्य मुनेस्तद्भङ्गहेतुः प्रत्याख्यानभङ्गहेतुन स्यात् यस्तु लोल्यादन्यस्मै दत्ते मया न भुक्तं एष भुङ्क्ते, तस्य प्रमाददोषो लगति ।। १५७७ ॥ किश्च
सयमेवणुपालणियं दाणुवएसो य नेह पडिसिद्धो ।
ता दिज उवइसिज्ज व जहा समाहीइ अन्नेसि ॥ १५७८॥ स्वयमेव प्रत्याख्यानं अनुपालनीयं इति नियुक्तिकारेणोक्तम् । शक्ती आत्मनाऽऽनीय दानं अशक्तौ यतीनां श्राद्धकुलादि| कथनं तौ द्वौ इह न प्रतिषिद्धौ । तस्माद्दद्यादुपदिशेद्वा यथासमाधिनाऽन्येभ्यो बालादिभ्यः ॥ १५७८ ॥ अमुमेवार्थमाह
कयपञ्चक्खाणो वि य आयरियगिलाणबालवुड्डाणं ।
दिज्जासणाइ संते लाभे कयवीरियायारो ॥ १५७९ ॥ लामे सति कृतवीर्याचारोऽशनादि दद्यात । सत्यां शक्तौ अन्यो न प्रेष्यः वैयावृष्यं स्वयं कार्यम् । 'दाणे 'त्ति गतम् , उवदिसिज वाऽलामे सति ।। १५७९ ।। आह भाष्यकृत
संविग्गअण्णसंभोइयाण देसेज सड्ढगकुलाई । अतरंतो वा संभोइयाण देज्जा जहसमाही ॥ २४७ ॥
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॥ ३२॥
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संविग्नान्यसाम्भोगिकानां तूपदिशेत यथैतानि श्राद्धकुलानि संखडिं च श्रुतां दृष्टा वा दर्शयेत् नानीय दद्यादित्यर्थः । अतरनशक्नुवन् सांभोगिकानामपि दिशेत न दोषः । सति सामर्थ्य साम्भोगिकानां एकमण्डलीकानां ज्ञातेभ्योऽज्ञातेभ्यो वा कुलेभ्यः संखड्या वानीय लब्धिमान् स्वयं दद्यात् । 'उवदेसोति गतम् , यथासमाधिर्नाम यथा यथा साधूनामात्मनो वा समाधिः स्यात्तथा प्रयतितव्यम् । अक्षमस्यान्यमण्डलीसत्कस्याप्यानीय देयम् । 'समाहि 'त्ति गतम् । प्रत्याख्यानशुद्धिमाह
सोही पच्चक्खाणस्स छबिहा समणसमयकेहि ।।
पन्नत्ता तित्थयरेहिं तमहं वुच्छं समासेणं ॥ २४८ ॥ श्रमणसमयकेतुभिः साधुसिद्धान्तध्वजरूपैरर्हद्भिः प्रज्ञप्ता । यथा ध्वजः सर्वोच्चस्तथाऽहल्लोकोत्तरः । षड्विधत्वमेवाह
सा पुण सद्दहणा जाणणा य विणयाणुभासणा चेव ।
अणुपालणा विसोही भावविसोही भवे छहा ॥ १५८० ॥ सा शुद्धिरेवं षड्विधा श्रद्धानशुद्धिः १ जाननाशुद्धिः २ विनयशुद्धिः ३ अनुभाषणाशुद्धिः ४ अनुपालनाशुद्धिः ५ भावशुद्धिः६॥ १५८० ॥ भाष्यम् , श्रद्धानशुद्धिमाह
पञ्चक्खाणं सबन्नुदेसिअं जं जहिं जया काले। तं जो सद्दहइ नरो तं जाणसु सद्दहणसुद्धं ॥ २४९ ॥
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बावश्यक नियुक्तिदीपिका।
प्रत्याख्यानस्य षड्विधशुद्धिः।
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॥३३॥
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पञ्च महाव्रतानि द्वादशधा श्राद्धधर्म: दशधोत्तरगुणप्रत्याख्यानमिति सप्तविंशतिः 'यत्' सप्तविंशतिविधस्यान्यतमत प्रत्याख्यानं ' यत्र' जिनकल्पादौ चतुर्यामादौ श्राद्धधर्मे वा ' यदा' सुभिक्षादौ दिवा रात्रौ वा पूर्वाह्नेऽपराह्ने वा 'काले' इति मरणे कर्त्तव्यं स्यात् । तत्र सप्तविंशतिभेदा एवं पञ्चविधं साधुमूलगुणप्रत्याख्यानं दशविधमुक्तमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं द्वादशधा श्राद्धप्रत्याख्यानं चेति तद्यो नरः श्रद्धत्ते द्वा०१॥ २४९॥
पञ्चक्खाणं जाणइ कप्पे जं जंमि होइ कायव्वं ।
मूलगुणे उत्तरगुणे तं जाणसु जाणणासुद्धं ॥ २५० ॥ यस्मिन् कल्पे चतुर्यामपश्चयामरूपस्थितिकल्पे जिनकल्पादिके वा मूलोत्तरगुणविषयं कर्तव्यं स्यात् द्वा० २ ॥२५०॥
किइकम्मस्ल विसोही पउंजई जो अहीणमइरित्तं ।
मणवयणकायगुत्तो तं जाणसु विणयओ सुद्धं ॥ २५१ ॥ विनयतो विनये(येन) शुद्धं प्रत्याख्यानकाले कृतिकर्मणो वन्दनस्य विशुद्धिं निरवद्यकरणक्रियां अन्यूनातिरिक्तां द्वा०३।
अणुभासइ गुरुवयणं अक्खरपयवंजणेहिं परिसुद्धं ।
पंजलिउडो अभिमुहो तं जाणणुभासणासुद्धं ॥ २५२ ॥ कृतकृतिकर्मा प्राञ्जलिषुटो योजितहस्तोऽभिमुखः प्रत्याख्यानं कुर्वन्ननुभाषते गुरुवचनं लघुतरेण शब्देन भणतीत्यर्थः
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अक्षरपदव्यञ्जनैः परिशुद्धम् । नवरं गुरुः पच्चक्खाइ बोसिरह त्ति वक्ति । प्रत्याख्याता पञ्चक्खामि वोसिरामि त्ति, शेषं सदृशमेव द्वा०४॥२५२॥
कंतारे दुब्भिक्खे आयंके वा महई समुप्पन्ने ।
जं पालियं न भग्गं तं जाणणपालणासद्धं ॥ २५३ ॥ कान्तारेऽरण्ये महत्यातङ्के रोगे वा यत् पालितं न भग्नम् , अत्र कान्तारादिष्वपि द्विचत्वारिंशदिक्षादोषान्न भनक्तीति भावः । तथापवादे यतनया सेवयाप्यभग्नमेवाऽन्यथापवादच्छेदः द्वा०५॥ २५३ ।।
रागेण व दोसेण व परिणामेण व न दूसियं जं तु ।
तं खलु पञ्चक्खाणं भावविसुद्धं मुणेयत्वं ॥ २५४ ।। रागेण सुतादिमोहेन द्वेषेण क्रोधादिना यद्वा रागेण स्वपूजाहेतोः द्वेषेण परेषां अपूजाहेतोः तथा परिणामेन इहलोकनिर्वाहादिना कीाद्यन्नपानगृहवस्तुशय्यादिहेतुना वा स्तम्भादिना वा वक्ष्यमाणेन न दृषितं यत् तत् भावशुद्धं प्रत्याख्यानं द्वा०६॥२५४॥
एएहिं छहिं ठाणेहिं पच्चक्खाणं न दूसियं जं तु । तं सुद्धं नायवं तप्पडिवक्खे असुद्धं तु ॥ २५५ ॥
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आवश्यक
निर्युक्तिदीपिका ।
॥ ३४ ॥
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पभिः स्थानकैः श्रद्धानादिभिः पालितैः प्रत्याख्यानं न दूषितं यदेव तच्छुद्धम्, तत्प्रतिपक्षेऽश्रद्धानादौ अशुद्धम् ।। २५५ ।। परिणाममाह
थंभा कोहा अणाभोगा अणापुच्छा असंतई ।
परिणामओ असुद्ध अवाउ जम्हा विउ पमाणं ॥ २५६ ॥
स्तम्भाद्गर्वात् स्वगौरवार्थं १, क्रोधात् वृद्धनिर्भत्सनादेः २, अनाभोगाद्विस्मृतेः प्रत्याख्यानमज्ञात्वा वा भुङ्क्ते भोजनादनु स्मृतं प्रत्याख्यानं तेन भग्नं ३, अनापृच्छया स्वेच्छया गुर्वनुज्ञां विना भुङ्क, चेत्प्रक्ष्यामि तदा वक्ष्यन्ति उपवासस्त्वया कृत इति ४, असंततिरसम्पत्तिस्तया यथात्र किञ्चिन्नास्ति ततो वरं प्रत्याख्यानम् ५, तथा इहलोकाद्यर्थं परिणामतोऽशुद्धं ६, एवं न कल्पते । तथाऽपायान्निष्कासनादिभियों यत्कुरुते तदप्यसाधु तस्माद्विद्वान् क्रियायुक्तः प्रमाणम् । स जानन्नन्यथा न करोति तस्य शुद्धं स्यादित्यर्थः ।। २५६ || इयता 'पच्चक्खाणं पच्चक्खाओ' इत्याद्यगाथायाः प्रत्याख्यानपदं व्याख्यातं अत्रान्तरेऽध्ययनशब्दः प्राग्वत् । सूत्रालाप कनिष्पन्ने निक्षेपे सूत्रम् - सूरे उग्गए नमोकारसहियमित्यादि यावत् सहसागारेण वोसिरह
सूरे उग्गए नमोकारसहियं पचक्खाइ चउवि पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं सहसागारेण वोसिरह || (सूत्रम् )
सूर्ये उद्गते नमस्कारसहितं मुहूर्त्तादिना नमस्कारकथनादर्वाक् प्रत्याख्याति । चतुर्विधमप्याहारम् |' अशू ' भोजने, अश्यते इत्यशनं मण्डकाद्रादि ( मण्डकौदनादि ) । पीयते इति पानं जलादि । 'खाद्य' भक्षणे, खाद्यते इति खादिमं
नमस्कारस
हितप्रत्या
ख्यानम् ।
॥ ३४ ॥
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फलसुखमक्षिकादि । स्वद आस्वादने स्व(स्वा)द्यते इति स्वादिमं गुडदन्तपावनसंमुखशक्यादि (गुडताम्बूलपुगफलादि)। परं अनाभोगात् अत्यन्तविस्मृत्या अन्यत्र सहसाकारः सहसाऽजानतो मुखक्षेपस्तस्मादन्यत्र । अनामोगसहसाकारौ मुक्त्वाऽन्यत्र चतुराहारं प्रत्याख्यातीत्यर्थः, एवं व्युत्सृजति चतुराहारान् । अत्र सूत्रस्पर्शिनियुक्तिः
असणं पाणगं चेव खाइमं साइमं तहा।
एसो आहारविही चउबिहो होइ नायवो ॥ १५८१ ॥ आहारविधिराहारप्रकारः ॥ १५८१ ॥ निरुक्तिमाह
आसुं खुहं समेई असणं पाणाणुवग्गहे पाणं ।
खे माइ खाइमं ति य साएइ गुणे तओ साई ॥ १५८२ ॥ आशु शीघ्र क्षुधं शमयतीत्यशनं १ । प्राणानामिन्द्रियादीनामुपग्रहे उपकारे यद्वर्तते तत्पानं, खमित्याऽऽस्याकाशं तत्र मातीति खादिमं । स्वादयति गुणान् सरसाहारान् जारयति स्वादयति संयम भक्षते वा तत्स्वादिमं सर्वत्र निपातात सिद्धम् ॥ १५८२ ॥ चालनामाह
सबो वि य आहारो असणं सवो वि वुच्चई पाणं । सबो वि खाइमं ति य सबो वि य साइमं होई ॥ १५८३ ॥
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बावश्यक यद्यनन्तरोक्तपदार्थापेक्षयाऽशनादीनि स्युस्तदा सर्वोऽपि चतुर्दाप्याहारोऽशनं सर्वोऽपि वोच्यते पानं इत्यादि, कथं १४ अशनादिनियुक्ति- अन्वथैक्यात, यतः यथैवाशनं क्षुधं शमयत्येवं पानं क्षीरपानाद्यपि क्षुधं शमयति । यथा पानं प्राणानुग्रहे वर्तत एवमशनादी- | चतुराहारे दीपिका। न्यपि । तस्मादयुक्त एवं भेदः ॥ १५८३ ॥ अथ प्रत्यवस्थानम् , गुरुराह-यद्यप्येतदेवं तथापि रूढितो नीतितः प्रयोजनं च
चालनासंयमोपकारकमस्त्येवं कल्पनयाऽन्यथा दोषस्तथा चाह
प्रत्यवजइ असणमेव सत्वं पाणग अविवजणमि सेसाणं ।
स्थानम् । हवइ य सेसविवेगो तेण विहत्ताणि चउरो वि ॥ १५८४ ॥ यद्यन्वर्थाश्रयादशनमेव सर्वमाहारजातं गृह्यते ततः शेषाणां लोकरूढानां पानकादीनां अविवर्जनं स्यात, भवति च शेषविवेकोऽस्ति च शेषाहारमेदपरित्यागो न्यायोपपन्नत्वात् । स चेह विदुषां सम्भवति । तेन विभक्तानि चत्वार्यप्यशनादीनि & ॥१५८४ ॥ एवं तु सामान्यविशेषभेदनिरूपणं सुखज्ञेयं स्यात् सुखश्रद्धेयं च स्यात् । अन्यथा द्विविधं त्रिविधं चतुर्विधमप्याहारप्रत्याख्यानं न घटते, तदाह
असणं पाणगं चेव खाइमं साइमं तहा।
एवं परूवियंमी सद्दहिउं जे सुहं होइ ॥ १५८५ ॥ श्रद्धातुं 'जे' पादपूय, सुखं स्यात् । उपलक्षणाद्दीयते पाल्यते च सुखम् ॥ १५८५ ॥ आह मनसाऽन्यथा चिन्तिते
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॥३५॥
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प्रत्याख्याने त्रिविधिस्य पौरुष्या वा प्रत्याख्यानं करोमीति वागन्यथा निर्गता चतुर्विधस्य पुरिमार्द्धस्येति, गुरुणापि तथैव दत्तमत्र कः प्रमाणम् ? उच्यते शिष्यस्य मनोगतो भाव इति, यतः
अन्नत्थ निवडिए वंजणमि जो खलु मणोगओ भावो । तं खलु पच्चक्खाणं न पमाणं वंजणच्छलणा || १५८६ ।।
अन्यत्र इति द्विविधं प्रत्याख्यामीति स्थाने त्रिविधं चतुर्विधं वा प्रत्याख्यामि इति व्यञ्जने शब्दे निपतिते सति यः खलु मनोगतो भावः प्रत्याख्यापयितुरधिकतर संयमयोगाक्षिप्तचेतसो न तु प्रमादात् तत् खलु प्रत्याख्यानं प्रमाणम् । एतेनान्तरालस्थसूक्ष्मविवक्षानिषेधमाह । निश्चिताशयस्यैव प्रामाण्याधिकृतत्वात् व्यञ्जनं शिष्याचार्यवचनं न प्रमाणम्, यतः छलनासौ व्यञ्जनरूपा ।। १५८६ ।। प्रत्याख्यानपालनमाह
फासियं पालियं चेव सोहियं तीरियं तहा ।
किअमाराहि चेव एरिसयंमी पयइयवं । १५८७ ॥
स्पृष्टं प्रत्याख्यानग्रहणकाले विधिना प्राप्तं १ । पालितं पुनः पुनरुपयोगप्रतिजागरणेन रक्षितं २ | शोभितं गुर्वादिप्रदानशेषभोजनासेवनेन ३ | तीरितं पूर्णेऽप्यवधौ यत्किञ्चित्कालावस्थानेन ४ । कीर्त्तितं भोजनवेलायाममुकं प्रत्याख्यानं पूर्णमित्युच्चारणेन ५ । आराधितमेभिरेव कारणैः सम्पूर्ण कृतं ६ । ईदृशि प्रत्याख्याने प्रयतितव्यम् । अत्र क्षेपकगाथा ' उचिए
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आवश्यक नियुक्तिदीपिका।
प्रत्याख्या| नगुणाः ।
ADSANA
काले विहिणा ज पत्तं फासियं ति तं (फासियं तयं) भणियं १। तं पालियं जमसयं ( तह पालियं च असई) सम्म उवओगपडियरियं२॥१॥ गुरुदत्तसेसभोयणसेवणयाए विसोहियं ( य सोहियं )३ जाण । पुण्णे वि थेवकालावथा(स्था)णा तीरियं ४ होइ ॥२॥ भोयणकाले अमुगं पच्चक्खायं ति भुंजओ कित्तियं ५। आराहियं पयारेहिं सम्ममेएहिं निहिब(दुवि)यं ६' ॥३॥ निष्ठापितं पूर्णीकृतं ॥ १५८७ ॥ प्रत्याख्यानगुणाः तथा विस्मृत्या सहसा वा नमस्कारेऽकृते मुखे क्षिप्तं स्यात् , स्मृते यत मुखे क्षिप्तं स्यात् स्मृते यत् मुखे तत् खेलमल्लके यद् हस्ते तत्पात्रे मुक्त्वा नमस्कारं कृत्वा मुते एवं न भग्नम् । यत एवमप्याहारानिवृत्त इति ।
पञ्चक्खाणंमि कए आसवदाराई हुन्ति पिहियाई।
आसववुच्छेएणं तण्हावुच्छेअणं होइ ॥ १५८८ ॥ प्रत्याख्याने कृते आश्रवद्वाराणि कर्मागमद्वाराणि पिहितानि स्युः, आश्रवव्युच्छेदनं स्यात् । तृष्णा विषयेच्छा ।
तण्हावोच्छेदेण य अउलोवसमो भवे मणुस्साणं ।
अउलोवसमेण पुणो पञ्चक्खाणं हवइ सुद्धं ॥ १५८९ ॥ अतुलोपशमो मध्यस्थः भावः स्यात् ॥ १५८९ ।।
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॥३६॥
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तत्तो चरित्तधम्मो कम्मविवेगो तओ अपुत्रं तु । तत्तो केवलनाणं तओ अ मुक्खो सासुक्खो ॥ १५९० ॥
ततः प्रत्याख्यानात् शुद्धचारित्रधर्म्मः स्फुरति । ततः कर्मविवेकः कर्मनिर्जरा । ततः क्रमेणापूर्वकरणं । छद्मस्थाऽध्यातपूर्वशुभाध्यवसायः । ततः श्रेणिक्रमेण केवलज्ञानं । ततश्च मोक्षः सदासौख्यः ।। १५९० ।। इदं च प्रत्याख्यानं दशविधं स्या दाकारैः सह गृह्यते पाल्यते च तदाह
नमोक्कार पोरिसीए पुरिमगासणेगठाणे य ।
आयंबिल अभत्तट्टे चरमे य अभिग्ग विगई ॥ १५९९ ॥
नमस्कारसहित १ पौरुष्यां २ पुरिमार्जे ३ एकाशने ४ एकस्थाने ४ च ५ आचाम्ले ६ अभक्तार्थे ७ चरमे च ८ अभिग्रहे ९ विकृतौ १० यथासङ्ख्यमेते आकाराः ।। १५११ ॥
दो छच्च सत्त अट्ठ सत्तट्ठ य पंच छच्च पामि ।
च पंच अट्ट नव य पत्तेयं पिंडए नवए । १५९२ ॥
द्वौ १ पट् २ सप्त ३ अष्टौ ४ सप्त ५ अष्टौ ६ पञ्च ७ एते नमस्कारादिषु सप्तप्रत्याख्यानेषु क्रमेण ज्ञेयाः, पानके च
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प्रत्येक
बावश्यकनियुक्तिदीपिका।
प्रत्याख्यानाकारकथनम् ।
॥३७॥
CHOCOCOCOCK
षट्, सामान्याभिग्रहे च चत्वारः पञ्च वा, निर्विकृतौ विकृतौ च अष्ट नव वा । तत्र निर्विकृतिर्द्विधा लेपाक्तं अलेपाक्तं च । अलेपाक्तनिर्विकृतौ द्रवविकृतिप्रत्याख्यानेन 'उक्खित्तविवेगेणं ति पदं नोचार्यते अतोऽष्ट नव वेत्याकाराः । प्रत्येकमेवमाकारा ज्ञेयाः । पिंडके समूहवचने च नवैव आकाराः कथ्यन्ते । यथा सामान्याभिग्रहे ४, 'अवाउडतं'पञ्चक्खामीत्यभिग्रहे ५ द्वयोर्मीलने ९। समूहवचने निर्विकृतौ विकृतौ च नवेति कथनं विशेषव्याख्या वाले तथाकारेत्याद्याऽन्यग्रन्थासंमतपिण्डको द्रवविकृतिरूपः नवको नवाकारवान् स्यादित्यर्थः । पिण्डकः समूहो नवकः नवसङ्ख्याक इति । जीवाःत्रयोदशक्रियास्थान: वर्तित्वात त्रयोदशभेदाः एवं द्वाविंशतिसङ्ख्या जाता, एतावन्तः सर्वे आकाराः स्युः। यथा अन्नत्थणाभोगेणं ४ चत्वारः आकाराः, पच्छन्नकालेणं ३ त्रय आकाराः, लेवालेवेणंमुख्याः ५ पश्चाकाराः, सागारियागारेणंमुख्याः ३ त्रय आकाराः, तथा चोलपट्टागारेणं १ अधिकः, लेवाडेणवामुख्याः ६ षट् आकाराः, एवं सर्वे प्रत्याख्यानाकाराः २२ जायन्ते । अत्र लघुवृत्तिव्याख्या नवकेति ९ आकारेत्याद्यान्यग्रन्थासंमतौ च मूलवृत्त्यादीनां च ॥ १५९२ ॥ व्यक्त्याह ।
दोच्चेव नमुक्कारे आगारा छच्च पोरिसीए उ। सत्तेव य पुरिमड्ढे एगासणगंमि अद्वैव ॥ १५९३ ॥ सत्तेगट्ठाणस्स उ अटेवायंबिलंमि आगारा। पंचेव अभत्तटे छप्पाणे चरिमि चत्तारि ॥ १५९४ ॥
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॥३७॥
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पंच चउरो अभिग्गहि निबीए अट्ट नव य आगारा।
अप्पाउराण पंच उ हवन्ति सेसेसु चत्तारि ॥ १५९५ ॥ आकारः प्रत्याख्यानापवादहेतुः । द्वावेवाकारौ नमस्कारसहिते यथा 'मरे उग्गए नमोक्का० अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं २ इति । व्याख्या सूर्ये उद्गते सति नमस्कारसहितमिति नमस्कारभणनोपलक्षितकालसहितं प्रत्याख्यामि त्यजामि स्वीकुर्वे चतुर्विधमप्याहारं शेषं प्राग्वत् । इदं चतुर्विधाहारस्यैव । मुहूर्तात्परतो भोजनकाले वा नमस्कारोच्चारेण 'मत्थएण वंदामो खमासमणो णमोकारं पारेमि त्ति पार्यतेऽन्यथा सूर्यास्तमनेऽपि न इति वृद्धाः। पौरुषी द्विविधाद्याहाराऽपि स्यादिति वृद्धाः तस्यां पट । इह सूत्रं 'पोरिसिं पच्चक्खाइ उग्गए सूरे'क्यादि
पोरिसिं पच्चक्खाइ उग्गए सूरे चउव्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अण्णवणाभोगेणं सहसाकारेणं पच्छन्नेणं कालेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि (सूत्रम्) ।।
दिनचतुर्भागमानकालेन पुरुषप्रमाणछायया निवृत्ताऽद्धा पौरुषी उच्यते, तां यावत् चतुर्विधाहारं प्रत्याख्यामि अन्यत्रा. भोगेन सहसाकारेणेति प्राग्वत् । तथा 'पच्छन्नेणं कालेणं' रजोवृष्यत्रादिना सूर्ये स्थगिते प्रच्छन्नेन कालेनेति तृतीया पञ्चम्यर्थे प्रच्छन्नकालादन्यत्रेत्यर्थः । प्रच्छन्नकाले सवेलमपि पारणे मा भङ्गः। अत्रापि भुञ्जानस्य पौरुष्यपूर्णताज्ञाने मुखस्थं श्लेष्ममात्रे करस्थं पात्रे मुक्त्वा मिथ्यादुष्कृतं दत्वा काले पूर्णे मनसा पारयित्वा भुते। दिग्मोहात पूर्वां प्रति पश्चिमाबुद्ध्या
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बावश्यक-
II शीतकाले वा दिग्मोहः स्यात् । साधुवचनेन यथा साहुणो भणन्ति उग्घाडपोरिसी ततः पारयित्वा भुञ्जानः केनाप्युक्तः पौरुष्यादिनियुक्ति- सकाल इति ततः स्थातव्यं । सर्वसमाधिप्रत्ययाकारात्समाधिप्रत्ययादेवापवादादन्यत्राहारान् व्युत्सृजामि स्वस्यान्यस्य चारी- प्रत्याख्यादीपिका। रौद्रध्यानपरिहारेण समाधिकरणहेतोराहारमपि गृह्णामि अन्यथा तु प्रत्याख्यामीत्यर्थः। समाही नाम तेण पोरुसी पच्च
नानि । क्खाया आसुकारियं दुक्खं जायं, गाढपीडा तस्स अन्नस्स वा तेण किं काय ? ताहे तस्स पसमणनिमित्तं पाराविजइ ॥३८॥
उस्स(ओस)हं वा दिजइ वैद्यादिर्वाऽऽगाढग्लानसारकः पौरुष्यां कृतायां पौरुष्यामपूर्णायामपि मुझेन भङ्गः । अर्द्धभुक्तो वा ग्लाना(न)समाधिमृती श्रुत्वा शेषानं त्यजति । सप्तैव पुरिमाद्धे आद्ययामद्वयप्रत्याख्याने 'सूरे उग्गए पुरिमड्डू पच्चक्खाइ चउविहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्न सह. पच्छ० दिसा० साहु० मह० सव' । अर्थः प्राग्वत् । साधुवचनेनेति केनापि भव्यपुंसा उक्तं यथा पुरिमाधों जात इति । महत्तराकारो लाभविशेषाकारः महत्तरं प्रत्याख्यानपालननिर्जराधिकलाभहेतुं अन्यनरासाध्यं ग्लानचैत्यसंघादिकार्य तदेवाकारा प्रत्याख्यानापवादस्तस्मादन्यत्र । सार्द्धपौरुषीप्रत्याख्यानं पौरुषीवदिति प्रकरणानि । एकाशने अष्टैवाकाराः एकाशनं स्थिरोपविष्टपुताचालनेन भोजनम् , सूत्रम्
एकासणं पञ्चक्खाइ चउव्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अण्णत्थऽणाभोगेणं सहसागारेणं सागारियागारेणं आउंटणपसारणेणं गुरुअन्भुटाणेणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेण सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि ॥ ( सूत्रम् )
एकाशनं एकस्थानाहारं प्रत्याख्यामि स्वीकरोमि 'चउ० अन्न सह. सागारियागारेण सह आगारेण वर्तन्ते इति P३८॥
*ॐॐॐॐॐ
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सागारिकाः, इहाधिकारात्साधूनां गृहिणः श्राद्धानां बान्दिकाद्याः तैः आगतैः आकारात् अपवादकारणात् अन्यत्र प्रत्याख्यानं । सागारियं अद्धसमुदिसियस्स आगयं जह बोलेइ पडिच्छह प्रतीक्ष्यते, अह थिरं ताहे सज्झायबाघाउ त्ति उद्वेउं अन्नत्थ गन्तूण समुहिस्सइ । आउं० आकुश्चनं पादादेराकर्षणं, प्रसारणं पादादिप्रलम्बकरणं ताभ्यामन्यत्र । हत्थं वा पायं वा सीसं वा | पसारिज न भजइ । गुरुअब्भु० आयरिया पाहुणगो वा आगओ अन्भुट्टेयत्वं तस्स । एवं समुद्दिद्वस्स उट्ठियस्स पारिद्वावणिया | | जइ होज कप्पइ । पारिट्ठा० परिष्ठापना त्यजना तया संसृष्टः पारिष्ठापनिकोऽधिकारादाहारस्तस्याकारादपवादादन्यत्रेत्यादि वोसिरामि व्युत्सृजामि आहारं । सप्तकस्थानस्य तु । एकस्थानं नाम प्रत्याख्यानं यथा 'एगट्ठाणं पच्च०' एगट्ठाणए जहा अंगोवंग ठवियं तेण तहाठिएण चेव समुद्दिसियत्वं । अत्र आउंटणपसारणं नत्थि शेषमेकाशनवत् । अष्टैवाचामाम्लस्या-1 काराः। इदं चाग्रे 'गोणं नामं तिविह' इत्यादिना ग्रन्थेन व्याख्यास्यते । सूर्योद्मादनु भक्तार्थस्य, भक्तनार्थो भक्तार्थः न भक्तार्थ अभक्तार्थ उपवासं इत्यर्थः, प्रत्याख्यामि सूर्योद्गमादित्युक्तो भोजनादनु प्रत्याख्याननिषेधः, तस्य पञ्चाकारा:'सूरे उग्गए अभत्तटुं० अन्न० सह पारि० मह सब । जइ तिविहस्स पञ्चक्खाइ तो विगिचणया कप्पइ । जइ चउन्विहस्स पच्चक्खाइ पाणगं च अहिगं नत्थि ततोऽकल्प्यं जइ पाणगं वि उवरियं ताहे से कप्पइ । सर्वप्रत्याख्यानानि चतुर्विधा- 12 हारत्यागेन क्रियन्ते । जइ तिविहस्स पच्चक्खाइ ताहे सपाणगस्स छ आगारा कीरन्ति । पानस्य षट् आकाराः 'लेवाडेण वा' लेपयुक्तेन द्राक्षाजलादिना तक्रादिपतनेन सलेपेन जलेन च । 'अलेवाडेण वा लेपचोपडितभाजनादिजलस्यागालयित्वा लेपयुक्तं कृतं तेन । अच्छेन निर्मलकाञ्जिकादिना, बहलेनायामगुडि(गड्ड)लधावनजलेन । ससिक्थेन सिक्थपतनेन तन्दुलादि
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यावश्यकनिर्युक्ति
दीपिका
॥ ३९ ॥
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सद्भावेन च । असिक्थेन वा सिक्थापनयनेन, वाशब्दाः समुच्चयार्थाः । अत्र प्रकरणगाथा 'लेवाडदक्खपाणाइ इयरसोवीरमच्छमुसिणजलं । बहलं धावणमायाम ससित्थं इयरसित्थविणा' ॥ १ ॥ इत्याकारार्थः । एवंविधेन पानकेन विनाऽन्यं त्रिविधमाहारं व्युत्सृजामि रात्रौ पानकाहारप्रत्याख्यानं न स्यात् सर्वजिनैर्निशाभोज्यस्य निषिद्धत्वात्, रात्रिभोजने च मूलव्रतविराधनाभावात् । श्राद्धानामपि यद्रात्रौ जलपानं तदप्युत्सर्गतोऽकल्प्यं तेन निर्विकृत्यादिषु तपोविशेषेषु निशासु जलं न पिबन्ति । पानकाकारेषु वशनादिलेपोऽस्ति अशनखादिमे च श्राद्वै रात्रिभोज्यनिषेधे निषिद्धे । तदा तु पानकाकारा नोक्ताः किन्तु दशाकारा राजाभियोगाद्या उक्ताः । तेन श्राद्धा रात्रौ सान्नलेपं नीरं न पिबन्ति । अपवादे तु दिनगलिता ले पोल्कालिताम्बु उत्कट रक्षाक्षेपणपरिणतगलिताम्बु च पिबन्ति । मुख्यतः सचित्तत्यागो निशाभोज्यत्यागादन्वेव युक्तः प्रतिमासु तथादर्शनात् । ततः केऽप्यशक्त्याम्बु पिबन्ति परं पानकाकारा नोक्ता एव । चरमे चत्वार इति चरमं द्विधा दिवसचरमं भवचरमं च । द्वयोरपि चत्वारः - अन्न० सह० मह० सङ्घ० । भवचरमं यावज्जीवं स्यात् । दिवसचरमं द्विविधादि स्यात् । भवचरमं त्रिविधाद्येवेति वृद्धाः । ततो नमस्कारस्मरणादिचतुर्विधप्रत्याख्यानं क्रियते तत्पारयित्वाऽनशनी पानं पिवति । पञ्च चत्वारश्चाभिग्रहे । तथा निर्विकृतौ अष्ट नव वाकाराः । तत्राभिग्रहेषु अप्रावरणेऽप्रावरणाभिग्रहे पञ्चाकाराः । यथा कोऽपि अवाउडत्तं पच्चक्खाइ । तत्र अन० सह० चोलपट्टागारेणं मह० सङ्घ० । शेषेष्वभिग्रहेषु दण्डकप्रमार्जनादिषु ग्रन्थि - सहितादिषु च चोलपट्टाकारं विना चत्वार आकाराः । अप्रावृत्तत्वे नियमिते सागारिकागमे चोलपङ्कं गृह्णाती त्यर्थः । निर्विकृत अलेपसंज्ञे द्रवविकृतौ वाष्टाकाराः । अन्यस्मिन्निर्विकृतौ विकृतिप्रत्याख्याने च नव । तत्र दश विकृतयः ।
पौरुष्यादिप्रत्याख्यानानि ।
॥ ३९ ॥
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खीरं दधि नवणीयं घयं तिल्लं गुलो मधु मजं मंसं ओगाहिमं च १० । तत्र विगईओ पच्चक्खामीति प्रमाणकृतशेषा विकृतीः प्रत्याख्यामि त्यजामि । निविगइयं पच्चक्खाइ' निर्विकृतिकं विकृतीनां निषेधं प्रत्याख्यामि स्वीकुर्वे । 'आं (आर्य) बिलं पच्चक्खाई' आयामं अवश्रामणं, अम्लं तुर्यो रसस्ताभ्यां निष्पन्नं आयामाम्लं प्रत्याख्यामि स्वीकुर्वे । अन्न० सह० लेवालेवेणं, लेपो भाजने निषिद्धविक्रेतेलंगनं यद्वा निर्विकृतौ विकृतिलेपः तस्मिन् दूरे कृतेऽन्यभक्तं अलेपमिव स्यात् ततो लेपालेप उच्यते । तस्माल्लेपाले पादन्यत्र निर्विकृतिकं प्रत्याख्यामि । आयामाम्ले चेत्पात्रे लेपवदात्तं समुद्दिष्टं संलिखितं च तेन वाssनयति निर्लेपं ततो न दोषः । 'उत्क्षिप्तविवेके' आयामाम्लाई विकृत्यादि पतितमुत्क्षिप्य विविच्यते विभिन्नं क्रियते मा गलत्विति । अन्यदप्याचाम्लानहं उद्धर्तुं शक्यं तदा कल्पते नान्यथा । ' गिहत्थसंसद्वेणं ' गृहिणा स्वार्थे निषिद्धविकृतिः लोहादिना संसृष्टा कुसणिताऽस्ति । एष आकारो निस्पृहयतेरेव स्यान्न तु श्राद्धस्येति वृद्धाः । इह चेद्गृही कुसणादिना तल्लेपयुगडोवपात्रादिना दत्ते तदा कल्प्यं यदि रसो दृश्यते ततोऽकल्प्यं । एष गृहस्थसंसृष्टाकार आचामाम्लादन्वग्रे निर्युक्तिकृता व्याख्यास्यते । ‘उक्खित्तविवेगेणं' उत्क्षिप्ते विकृतिद्रव्ये पोलिकादिगते पृथक्कृते सति विवेको विकृतिपार्थक्यं तस्मादन्यत्र, यथा पोलिकायां शीते ( तं) गाढस्त्यानघृतं पिण्डगुडो वा कठिनं गलितं दधि वाऽभूत्तद् दूरीकृतं ततो लेपो न ज्ञायते । एष उत्क्षिप्तविवेकः । ' पडुच्चमक्खिणं ' प्रतीत्य ज्ञात्वा सर्वरूक्षमण्डकादिकमपेक्ष्य सौकुमार्योत्पादनायेषत् स्नेहेन प्रक्षितं न तु गाढं स्नेहस्वाद्वभावाद्यन्प्रक्षिताभासमित्यर्थः, पोलिकादि धारां विना गृहिणा स्वार्थे अङ्गुल्याऽऽज्येन तैलेन प्रक्षितं प्रतीत्यक्षितं तस्मादन्यत्र । पारिष्ठापनिकाकारात् परिष्ठापनार्हविकृत्याकारादन्यत्र । तत्र बह्वन्नाप्तौ चेत् स्तोकं
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आवश्यक
निर्युक्ति
दीपिका ।
॥ ४० ॥
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वृद्धं तदा नमस्कारपौरुषीवतां देयं पारणकवतां वाऽसहानां वा देयं यथा पारिष्ठापनिकाहारः कल्प्यः तदग्रे वक्ष्यते । विकृति के निर्विकृति च अद्रवविकृतिषु नव द्रवविकृतिष्वष्टाकारा ज्ञेयाः । शेषं प्राग्वत् । अष्टनवाकारयुक्तिं वक्तिनवणीओगाहिमए अद्दवदहि (व) पिसियघयगुले चैव । नव आगारा तेसिं सेसदवाणं च अट्ठेव ॥ १५९६ ॥
नवी अवगाहिम अद्रवदनि गालिते इत्यर्थः पिशिते मांसे घृतगुडे चैव, अद्रवत्वं सर्वत्र ज्ञेयं । अमूषां विकृतीनां नवाकारा स्युः । शेषद्रवाणां शेषाणां द्रवाणां विकृतीनां विलीनघृततैलद्रव गुडादीनामष्टावाकाराः उत्क्षिप्त विवेको न स्यादित्यर्थः ।। १५९६ ।। अथाचामाम्लं
गोण्णं नाम तिविहं ओअण कुम्मास सतुआ चेव ।
इक्किक्कं पि य तिविहं जहन्नयं मज्झिमुकोसं ॥ १५९७ ॥
मालमिति गौणं नाम । आयामोऽवश्रामणं आम्लं चतुर्थरसः ताभ्यां निर्वृत्तं आयामाम्लं । इदं चोपाधिभेदात्रिधा-ओदनः धवलधान्यमित्यर्थः, कुल्माषाः काष्टद्विदलमित्यर्थः, सक्तवो लोह इत्यर्थः, ओदनादीनधिकृत्य स्यादिति । आचामाम्ले पक्त्रधान्यं निर्नखिकमप्यकल्प्यं मरीचजीरकादियुक् करीरादिफलानि च धान्यस्थानीयानि, पृथग् लवणं चाकल्यं उत्सर्गेऽनुक्तत्वात् । एकैकं ओदनादि त्रिविधं स्यात् । जघन्यं मध्यमं उत्कृष्टं स्यात् ।। १५९७ ।। कथमित्याह
आचामा
म्लस्व
रूपम् ।
॥ ४० ॥
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दवे रसे गुणे वा जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं ।
तस्सेव य पाउग्गं छलणा पंचेव य कुडंगा ॥ १५९८ ॥ द्रव्ये गुणे रसे च । द्रव्यं गुणं रसं चाश्रित्येत्यर्थः। किं जघन्य मध्यमं उत्कृष्टं च ? तथा तस्यैवाचाम्लस्य प्रायोग्यं । तथा छलना तथा पश्चैव कुडंगा वक्रवादित्वभावा वक्तव्याः । तत्र आचामाम्लयोग्यं द्रव्यमुत्कृष्टं शालिगोधूमकुल्माषादि यद्यस्मै रोचते, रस उत्कृष्टः शाल्यादिवश्रावणादिना, गुणो निर्जरारूप: स तदा जघन्यः स्यात् । जघन्यं द्रव्यं रालका कोद्रवादिः, रसो जघन्यो यद्यस्मै नेष्टं उष्णाम्भो वा, तेन गुण उत्कृष्टो निर्जरारूपः । मध्यमद्रव्यरसयोर्गुणो निर्जरा मध्या स्यात् । अत्रायं वृद्धाम्नायः-आचाम्लं नाम सप्तधा शालिकूरादिद्रव्यं तद्भेदाश्च । तेनाचाम्लं क्रियते उपचारात्तदप्याचाम्लमुक्तं, इदं चोत्कृष्टत्वात्प्रायो न गृह्यत एव । आचामाम्लप्रायोग्यं तन्दुलकणिकापिष्टपोलिकामण्डकादि, अस्य च निरपवादग्राह्यत्वात् प्रायोग्यत्वमुक्तम् । एवं कुलमाषाद्या आचामाम्लप्रायोग्यं तुषमिश्रितकणिकादिसक्तवो जवादीना[माचा]माम्लप्रायोग्यं धान्यमण्डकादि । आचामाम्लेऽपक्वतन्दुलादि प्रासुकमप्यकल्प्यं ओदनादीनामेवोक्तत्वात् । फलिकाः पलिमन्थत्वात्सदैवाग्राधाः किं पुनराचामाम्ले ?। तत्र कलमशालिकूरो द्रव्यत उत्कृष्टं द्रव्यं तत्सत्केनायामेन रसत उत्कृष्टं गुणतो जघन्यम् । स एव कूरोऽन्येषामायामैद्रव्यत उत्कृष्टो रसतो मध्यो गुणतोऽपि मध्यः, यदोष्णाम्बुना तदा रसतो जघन्यं गुणतो मध्यमम् । जौन(तण्डु)लोदना द्रव्यतो मध्यमा काञ्जिकेन रसोत्कृष्टा आयामेन रसमध्या उष्णोदकेन रसजघन्या एते त्रयो
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आचामा
बावश्यकनियुक्तिदीपिका।
कुडङ्गाः।
RECE
॥११॥
गुणेन मध्या मध्यमद्रव्यत्वात् । रालगादितृणकूरा द्रव्यतो जघन्याः, ते काञ्जिकायामाभ्यां रसोत्कृष्टमध्या गुणमध्या उष्णोदकेन तदा जघन्यं द्रव्यं रसो जघन्यः गुण उत्कृष्ट इत्यादि । अहवा उकोसोकोसं, उक्कोसमज्झिम, उक्कोसजहन्न । कजिय
आयामउण्होदएहिं जहन्ना मज्झिमा उक्कोसा निजरा । एवं त्रिष्वपि ज्ञेयं । तथा छलना इयं, यथा कोऽप्याचाम्लं प्रत्याख्याय | विकृतीमोक्तुं उपविष्टः । गुरुरूचे कथमेवं ? स ऊचे यथा हिंसां प्रत्याख्याय सा न क्रियते एवमाचाम्लं प्रत्याख्याय तत्कथं | क्रियते ? इति छलना। गुरुराह भो! प्रत्याख्याननियमव्रतादिशब्दाः प्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थास्ततोऽत्र प्रवृत्यर्थः प्रत्याख्यानशब्दो ज्ञेयः ॥ १५९८ ॥ अथ कुडङ्गा:
लोए वेए समये अन्नाणे खलु तहेव गेलन्ने ।
एए पंच कुडंगा नायवा अंबिलंमि भवे ॥ १५९९ ॥ केनाप्याचामाम्लं कृत्वा संखडिं दृष्ट्वा संखड्यां पक्वान्नाद्यटित्वाचार्येभ्योऽदर्शि । गुरुरूचे त्वयाचामाम्लं प्रत्याख्यातमस्ति । स ऊचे मया कापि लोके लोकशास्त्रेषु तथा वेदे तथा समये चरकादिसिद्धान्ते मयाचामाम्लं नादर्शि ततः किं आचामाम्लं ? एवं त्रयः कुडङ्गाः मायाभेदाः । तथाऽज्ञानेऽहं न जाने कथमाचामाम्लं क्रियते, मया ज्ञातं घृतेन भक्तमार्दीकृत्य भुज्यते इति ४ चतुर्थः कुडङ्गः । तथा ग्लानोऽहं शूलं समेति नक्षम आचामाम्लं कर्तुं पञ्चमः कुडङ्गः ५ ॥ १५९९ ॥ निर्विकृतिकाधिकारशेषमाह
NESCARENCEOCHOCOCCC
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पंचैव य खीराइं चत्तारि दहीण सप्पि नवणीता । चारि यतिलाई दो वियडे फाणिए दुन्नि || १६०० ॥
पञ्च क्षीराण्यजोष्ट्रीगोमहिष्येडिकानाम्, तथा चत्वारि दधीनि उष्ट्रीणां दघ्नोऽभावात्, तथा चत्वारि सर्पषि घृतानि, चत्वारि नवनीतानि । चत्वारि तैलानि तिलातसीलट्टासर्षपाणां विकृतयः, शेषाण्यविकृतयः लेवाडाणि तु स्युः । विकटे मधे द्वे काष्टजं पिष्टजं च । फाणितौ गुडौ द्वौ द्रवगुडः पिण्डगुडश्च ॥ १६०० ॥
महुपुग्गलाई तिन्नि चलचलओगाहिमं तु जं पक्कं । एसिं संस वुच्छामि अहाणुपुवी ॥ १६०१ ॥
मधूनि त्रीणि कौन्तिकं भ्रमरं माक्षिकं च । त्रीणि पुद्गलानि मांसानि जलचराणां स्थलगानां खगानां च । यच्चलचलेतिशब्देन पक्कं सफेनं अवगाहेन स्नेहबोलेन निर्वृत्तं अवगाहिमं दशमा विकृतिः । तत्राद्यद्वितीय तृतीय वारावगाहिमं विकृतिः । सेसाणि अ जोगवाहीणं कप्पन्ति । जड़ नजइ यथा एगेण चैव पूयएण तवगो भरिओ वीयं चैव कप्पड़ निविगइयपञ्चक्खाणइत्तगस्स लेवाडं तु होइ । एतेनेति स्पष्टं ज्ञायते पूपकाद्यप्यवगाहिमविकृतिरेव । एतेषां विकृतिभेदानां संसृष्टं गृहस्थसंसृष्टाकारं आनुपूर्व्या वक्ष्यामि ॥। १६०१ ॥
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आवश्यकनियुक्ति दीपिका।
संसृष्टाकारव्याख्या।
॥४२॥
CRECCANCIEOCOCC
खीरदही वियडाणं चत्तारि उ अंगुलाई संसटुं ।
फाणियतिल्लघयाणं अंगुलमेगं तु संसढें ॥ १६०२ ॥ क्षीरेण मिश्रितः करो लभ्यते तत्र तस्य कुण्डकस्य ओदनाच्चत्वार्यङ्गलानि दुग्धं स्यात्तदा निर्विकृतिकस्य कल्पते, पञ्चममारब्धं तदा विकृतिः। एवं दधिविकटयोरपि । फाणिततैलघृतानां मिश्रिते यद्यङ्गुलमुपरि ततः कल्पते परतोन॥१६०२॥
मधुपुग्गलरसयाणं अद्धंगुलयं तु होइ संसटुं।
गुलपुग्गलनवणीए अद्दामलयं तु संसढें ॥ १६०३ ॥ मधुनः पुद्गलरसकल्पश्लथमांसस्यार्धाङ्गुलेन संसृष्टं स्यात् । पिण्डगुडस्य पुद्गलस्य नवनीतस्य चाामलकमात्रं | संसृष्टं । आर्द्रामलकशब्देन निम्बमुकुरः, यदि बहून्येतन्मानानि तदा कल्पते एकमपि वृद्धं न कल्पते ॥ १६०३॥ पारिष्ठापनिकाकारे कीदृशस्य पारिष्ठापनिकं देयं ? गुरुराह
आयंबिलमणायंबिल चउथा बालवुड्डसहुअसह।
अणहिंडियहिंडियए पाहुणयनिमंतणावलिया ॥ १६०४ ॥ पारिष्ठापनिकयोग्याः साधवो द्विधा आचामाम्लवन्तोऽनाचामाम्लवन्तश्च । अनाचामाम्लवन्त एकाशनाद्यष्टमतपो यावत् ।
IOCOCCCCCCCUSA
PI४२॥
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दशमादितपसां पारिष्ठापनिकं न कल्पते तेपामुष्णपेयाद्यर्हत्वात् सूर्यधिष्ठानाच्च । केऽप्याचार्या अष्टमादितपो विकृष्टं केऽपि दशमादि विकृष्ट वदन्ति । तत्र ये अष्टमं वि(अवि)कृष्टमाहुः तेषामष्टमं यावत पारिष्ठापनिक कलप्यं । तत्राचामाम्लकृच्चतुर्थभक्तयोर्मध्ये चतुर्थकृतो देयं, सोऽपि द्विधा बालो वृद्धश्च वालाय देयं, सोऽपि द्विधा सहोऽसहश्च असहाय देयं तत्रापि हिण्डिताय देयं न त्वहिण्डिताय । तत्रापि प्राघुर्णकाय देयं मुख्यतो न तु वास्तव्याय । एवं चतुर्थभक्तो बालोऽसहो हिण्डितः || प्राघुर्णकः पारिष्ठापनिकं भोज्यते १ । तदभावे बालोऽसहो हिण्डितो वास्तव्यः २। तदभावे बालोऽसहोऽहिण्डकः प्राघुर्णकः ३। तदभावे बालोऽसहोऽहिण्डको वास्तव्यः ४ । एवमेतेन करणोपायेन चतुर्भिः पदेः पोडशभङ्गाः स्युः । स्थापना# ५ - - 1 - - 1
। एवं क्रियमाणे यावदन्त्यभङ्गे देयं । ततोऽपि the W W - - 0 0 - 0 W - -
बहौ परिष्ठाप्ये सर्वेभ्यो देयं । यथाचाम्लिकचातु. Fuuuuuuu
र्थिकयोमध्ये चातुर्थिकाय देयमुक्तं तथाचाम्लिकषष्ठतपसोरपि १६ भङ्गाः । ततोऽष्टमक ( तथाचाम्लिकाष्टमतपसोरपि) १६ भङ्गाः । आचाम्लनिर्विकृत्योरपि १६, तत्रा(त्राचा)म्लवते देयं तथाचाम्लैकस्थानयोभङ्गाः १६ आचाम्लवते देयं । आचामाम्लैकाशनयोः १६ आचाम्लवते देयं । एवं आचाम्लेन चतुर्थषष्ठाष्टमनिर्विकृत्येकस्थानकाशनसत्कैः षोडशभिर्भङ्गैः सर्वे षण्णबति भङ्गाः । चतुर्थषष्ठतपसोः पोडश षष्ठतपसे देयं, चतुर्थाष्टमभक्तयोः १६ अष्टमतपसो देयं । एकस्थाननिर्विकृत्योः १६ एकस्थाना(निका)य देयं । एकस्थान(काशन) निर्विकृत्योः १६ एकस्थानाय ( एकाशनिकाय ) देयम् ॥ १६०४ ॥ परिष्ठापना कथं स्यात्तत्र विधिमाह
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।। || sss || ss। 1515 ।। ss ।।।।
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आवश्यक नियुक्तिदीपिका।
पारिष्ठापनाविधिः।
॥ ४३॥
विहिगहियं विहिभुत्तं तह गुरूहिं जं भवे अणुन्नायं ।
ताहे वंदणपुवं भुंजइ से संदिसावेउं ॥ १६०५ ॥ विधिनाऽलुब्धेन निर्दोषं गृहीतं ततो विधिना वृद्धानां प्रदानुज्ञाप्य क्षुल्लादिनिमन्त्रणया कटप्रतरच्छेदसिंहखादना|दिना ओघनिर्युक्त्युक्तेन मण्डल्यां भुक्तम् । ईदृशं उद्वरितं अधिकं जातं गुर्वनुज्ञातं पारिष्ठाप्यं ज्ञात्वा यदा गुरुर्वक्ति आउँदै पारिष्ठापनिकमिच्छाकारेण भुक्ष्व, तदा तस्य वन्दनं दत्वा संदिश्य भोक्तुं कल्प्यम् ।। १६०५ ॥
चउरो य हुंति भंगा पढमे भंगमि होइ आवलिया ।
इत्तो अ तइयभंगो आवलिया होइ नायवा ॥ १६०६ ॥ चत्वारो भङ्गाः स्युः । विधिगृहीतं विधिभुक्तं १ विधिगृ. अविधिभुक्तं २ अविधिगृ० विधिभुक्तं ३ अविधिगृ० । अविधिभुक्तं ४ । प्रथमे भने पूर्वोक्तावलिकानां भोक्तं कल्प्यं । द्वितीये परिष्ठाप्यते । अविधिभुक्तं नाम काकशृगालादिरीत्या | भुक्तं, तत्र यद्वर्धते तदुज्झ्यते । दाने छर्यादिदोषः । ईदृग् यो दत्ते यश्च मुले द्वयोरपि विवेकः क्रियतेऽपुनःकारेण वोप| स्थितयोः पञ्चकल्याणं दीयते । तृतीयभङ्गेऽविधिगृ० स्वभोजनार्थ स्निग्धादिबहुलामं लात्वा विधिना भुक्तं रात्निकेन सह
मण्डल्या, तदुद्वरितं आवलिकानां कल्प्यं । अविधिगृहीतं अविधिभुक्तं अकल्प्यम् । तथा यद्वाऽसंस्तरणेऽशुद्धं गृहीतं ततो मण्डल्यां वृद्धादेशाद्विधिना भुक्तं । तत्रावलिकया न कल्पते ॥ १६०६ ।। व्याख्यातं आद्यगाथोक्तं प्रत्याख्यानद्वारं । प्रत्याख्यातारमाह
॥५३॥
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पञ्चक्खाएण कथा पञ्चक्खावितए वि सूआए(उ)।
उभयमवि जाणगेअर चउभंगे गोणिदिदंतो ॥ १६०७ ॥ प्रत्याख्याता गुरुस्तेन द्वारगाथोक्तेन प्रत्याख्या(ख्यापयि)तर्यपि शिष्ये सूचा कृता ज्ञेया तौ च वाच्यौ । न हि प्रत्याख्यानं प्रायो गुरुशिष्यो विना स्यात् । उभयोरप्यत्र ज्ञातरि अज्ञातरि च चतुर्भङ्गः तत्र चतुर्भङ्गे गोदृष्टान्तः॥१६०७॥ भावार्थ स्वयमाहमूलगुणउत्तरगुणे सवे देसे य तह य सुद्धीए । पञ्चक्खाणविहिन्नू पच्चक्खाया गुरू होइ ॥१६०८॥
मूलगुणेघूत्तरगुणेषु च सर्वतो देशतश्च तथा च शुद्धौ पविधायां श्रद्धानादिरूपायां प्रत्याख्यानविधिज्ञः प्रत्याख्याता गुरुः | स्यात् ।। १६०८ ॥
किइकम्माइविहिन्न उवओगपरो अ असढभावो अ ।
संविग्गथिरपइन्नो पञ्चक्खावितओ भणिओ ॥ १६०९ ॥ ___ कृतिकर्मादिविधिज्ञो वन्दनादिविधिज्ञः प्रत्याख्यानाकारप्रकारज्ञः उपयोगपरः संविग्नो मोक्षार्थी स्थिरप्रतिज्ञः प्रत्याख्या पयिता शिष्यो भणितो जिनायेः॥ १६०९॥
इत्थं पुण चउभंगो जाणगइयरंमि गोणिनाएणं । सुद्धासुद्धा पढमतिमा उ सेसेसु अ विभासा ॥ १६१० ॥
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आवश्यक नियुक्ति दीपिका।
5-
त्रोःचतु.
॥४४॥
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अत्र प्रत्याख्यातृप्रत्याख्यापयितृभ्यां चतुर्भङ्गी । जानतीतरस्मिश्च गोदृष्टान्तेन । प्रत्याख्याता गुरुः प्रत्याख्यापयिता
प्रत्याख्या शिष्यः। शुद्धाशुद्धौ प्रथमान्त्यो शेषयोमङ्गयोर्विभाषा विभागः कार्यः । यथा नमस्कारपौरुष्यादिकं विधिं जानन् जानतः
तृप्रत्याप्रत्याख्यानं कारयति आद्यो भङ्गः शुद्धः, अजाननजानतः कारयति तुर्यो भङ्गोऽशुद्धः । अत्र ज्ञातेन दृष्टान्तेन गावो ज्ञेयाः।।४ ख्यापयि. यदि गवां प्रमाण स्वामी वेत्ति गोपोऽपि वेति तदा स्वामी सुखं वृत्ति दत्ते गोपालश्च लाति । एवं शुद्धाशुद्धौ प्रथमान्त्यभङ्गो स्याताम् । शेषयोभङ्गयोर्विभाषा । स्थापना यथा गुरोर्जानतः शिष्यस्याजानतो द्वितीयभङ्गः । इह तत्कालं शिष्यं संक्षेपतः प्रबोध्य प्रत्याख्यानविधि ज्ञापयित्वा गुरोः प्रत्याख्यानं ददतोऽयमपि शुद्धः, अन्यथा त्वशुद्धः। गुरोरजानतः प्रत्याख्याने तृतीयः । यथा सामान्यसाध्वादिपार्श्वे प्रत्याख्यानाकारादिज्ञः श्राद्धः प्रत्याख्याति, अयं कारणे शुद्धः, अकारणेऽशुद्धः। यथा प्रभुर्गवां प्रमाणवेत्ता व्यग्रः सन् सन्दिशत्यज्ञस्यान्यस्य ततः स सन्दिष्टोऽज्ञस्य गोपालस्य तदुक्तमात्रेण वृत्ति दत्ते, असन्दिष्टो न दत्ते । एवमज्ञो गुरुसन्दिष्टः प्रत्याख्यापयिता शुद्ध एव । एवं प्रभुसन्दिष्टादिषु विभाषा ॥१६१०॥ उक्त प्रत्याख्याताद्वारम् , प्रत्याख्यातव्यमुक्तमध्यध्ययने द्वाराशून्यार्थमाह
दवे भावे य दुहा पच्चक्खाइवयं हवइ दुविहं ।
दवमि अ असणाई अन्नाणाई य भावंमि ॥ १६११ ॥ द्रव्ये भावे प्रत्याख्यातव्यं स्यादिति द्विविधं ज्ञेयं । द्रव्ये प्रत्याख्यातव्यमशनादि । अज्ञानादि तु भावे द्वा० ३ । अथ Ming४॥
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पर्षवारं, पर्षदिति प्रत्याख्यानाहभन्यश्रेणिः सा द्विधा उपस्थिताऽनुपस्थिता च । उपस्थिता श्रोतुं आगता, अनुपस्थिता श्रोतुमनागता। उपस्थितापि द्विधा सम्यगुपस्थिता च मिथ्योपस्थिता च । मिथ्योपस्थिता कपटागता गोविन्दाचार्यवत् । सम्यगु. पस्थिता द्विधा भाविताऽभाविता च । भाविता द्विधा विनीताऽविनीता च । विनीता द्विधा व्याक्षिप्ताऽव्याक्षिप्ता च । व्याक्षिप्ता या सीवनादिकर्मपरा, अव्याक्षिप्ता द्विधा उपयुक्ता अनुपयुक्ता च । तत्रोपस्थित १ सम्यगुपस्थित २ भावित ३ विनीत ४ अव्याक्षिप्तो ५ पयुक्तायाः ६ पर्षदः प्रत्याख्यानं वाच्यं, उपलक्षणादन्यदावश्यकादि सर्व श्रुतं च वाच्यं । एतद्विपरीताया अनुपस्थितादिविशेषणाया न देयं । एवं षट्पदैः अन्त्यपदादिपरावर्तेन प्राक्तनषोडशभङ्गवत अत्र चतुःषष्टिभङ्गा झेयाः, पश्चानुपूर्व्या द्विगुणगुरुलघुकरणे यदा सर्वलघुः समेतः तावता भङ्गकाः पूर्णाः स्युः । अत्रायो भङ्गः शुद्धः शेषा न ॥१६११।। तत आह
सोउं उवट्ठियाए विणीयवक्खित्ततदुवउत्ताए ।
... एवंविहपरिसाए पच्चक्खाणं कहेयत्वं ॥ १६१२ ॥ (द्वारम् ) __ श्रोतुं सम्यगुपस्थितायाः विनीतायाः अव्याक्षिप्तायास्तदुपयुक्तायाः पर्षदः ‘एवंविहे'त्यादि द्वा०४ । अथ कथनविधिःपूर्व मूलगुणाः साधुधर्मः स उच्यते तदशक्तस्य श्राद्धधर्मः। उत्तरगुणेषु पूर्व षण्मासतप उच्यते ततो यावद्ययेन शक्या कर्तुं शक्यते तद्देयं ॥ १६१२ ॥ अथवाऽयं कथन विधिः
आणागिज्झो अत्यो आणाए चेव सो कहेयवो ।
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कथनविधि
आवश्यक नियुक्तिदीपिका।
॥४५॥
दिटुंति उ दिटुंता कहणविहि विराहणा इअरा ॥ १६१३॥ (द्वारम् ) आज्ञा आगमस्तद्बाह्यस्तद्विनिश्चेयोऽर्थो विचारोऽनागतातिक्रान्तप्रत्याख्यानादिः सौधर्मादिर्वा आगमेनैवासौ कथयितव्यः
स्तथा फलन दृष्टान्तेन । रत्नज्ञपित्रा समग्रज्ञापितमूल्यः पुत्रो रत्नानि विक्रीणन् परोक्तमल्पमूल्यं न श्रद्धत्ते ततो मृषा न वदेदिति । तथा
द्वारम् । दार्शन्तिको दृष्टान्तवान्योऽर्थो वह्वयादिदृष्टान्तात् दृष्टान्तदर्शनात् कथनीयः, यथा आत्मा नित्यानित्यो वस्तुत्वाद् घटवत् इत्यादिदृष्टान्तात् दृष्टान्तेन वाच्यं । यद्वा यथामुकमेवं भवता ज्ञातं तथेदमपि प्रत्येतव्यमिति कथनेऽयं विधिः, अन्यथा | विपर्ययोक्तौ कथनविधेविराधना स्यात द्वा०५ ॥ १६१३ ॥ अथ फलंपच्चक्खाणस्स फलं इहपरलोए अहोइ दुविहं तु । इहलोइ धम्मिलाई दामनगमाई परलोए ॥१६१४॥ ___ इहलोके फलं स्यात् परलोके चेति द्विविधं । इहलोके दृष्टान्तो धम्मिलादिः । यथा धम्मिलेनाचामाम्लानि कृत्वा फलं प्राप्तं । 8 अत्र धम्मिल्लहिण्डी वीक्ष्या, आदिशब्दात कफविपुण्मलामदियो लब्धयः स्युः। परलोकफले दृष्टान्तो दामनकः। यथा राजपुरे एक: कुलपुत्रको जिनदासमित्रसंगात् साधुपार्श्वे गतो मत्स्यमांसनियम ललौ । दुर्भिक्षे मत्स्याहारे लोके श्यालकैः बलाद् इदं नीतः। तत्र तेन जालं क्षिप्तं मत्स्यान् दृष्ट्वाऽमुञ्चत् । एवं दिनत्रयं बलात्कृतं । एकदा मत्स्यपक्ष्म त्रुटितं ततो निवृत्तोऽनशनाद्राजगृहे श्रेष्ठिसुतो दामनकनामाऽभूत् । अष्टवर्षस्य मार्या कुलं मृतं । तत्रैव सागरपोतस्य गृहे तस्थौ । तत्र साधु मिक्षाया (मिक्षार्थमाया)तौ । साधृक्तिरेष गृहस्वामीति | गृहेशेन श्रुत्वाऽन्त्यजानामर्पितः, तैरङ्गलिच्छेदानिर्विषयीकृतः । नश्यन् श्रेष्ठिगोकुल
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पतिनाऽनाथत्वात स्थापितः पुत्रस्थाने, यौवने सागरपोतस्तत्रतस्तं दृष्टोपलक्ष्य लेखं दत्त्वा मारणाय राजगृहे पुत्राय प्रेषि चैत्ये सुप्तः क्रमात् विषापरिणयनं । पुनः श्रेष्ठिना मातृदेवीपूजाय स प्रेषि यावत्स श्रेष्ठी जातः । यावत् 'अणुपुंखमावह (य)ता वि अणत्था तस्स बहुगुणा हुन्ति । सुहदुक्ख कच्छ पुढ(ड)ओ, सुखदुःखयोः करणविषये कच्छापुटा कक्षापुटो यस्य स सुखदुःखकक्षापुटः, जस्स कयंतो वहइ पक्खं'।१। इति गाथा, ततस्तिस्रो लक्षाः ददौ । राज्ञा पृष्टे सम्बन्धं श्रुत्वा प्रसादः कृतः, ततो बोधिलाभो धर्माद्देवलोक: आदिशब्दात्सुकुलप्राप्तिमुक्ती ॥१६१४ ॥ पञ्चक्खाणमिणं सेविऊण भावेण जिणवरुढिं। पत्ता अणंतजीवा सासयसुक्खं लहं मुक्खं ॥१६१५॥
इदं प्रत्याख्यानं जिनवरोपदिष्ट, सेवित्वाऽनन्तजीवा लघु शीघ्रं मोक्ष प्राप्ताः । प्रत्याख्यानफलं 'पञ्चक्खाणमि कए' इत्यादौ स्वरूपद्वारेण (णोक्तं, इह तु) लोकनीत्या उक्तं ॥ १६१५ । उक्तोऽनुगमो व्याख्यारूपः, अथ नया:नायंमि गिण्हियत्वे अगिहियवंमि चेव अत्थंमि। जइयत्वमेव इइ जो उवएसो सो नओ नाम ॥१६१६॥
गृहीतव्येऽगृहीतव्ये चार्थे ज्ञाते एव सति यतितव्यं, ततो ज्ञानमेव प्रमाणं न क्रिया ज्ञानं विना साध्यसिद्ध्यभावात इति ज्ञाननयः। अथ क्रियानयः, गृहीतव्येऽगृहीतव्ये चार्थे ज्ञाते यतितध्यमेव ततः क्रियेव प्रमाणं न ज्ञानं यत्नं विना | साध्यसिद्ध्यभावात् इति द्वयोनिक्रियानययोर्य उपदेशः, स नयो नाम कथ्यते ॥ १६१६ ॥ अथ प्रमाणमाहA सवेसि पि नयाणं बहुविहवत्तवयं निसामित्ता । तं सवनयविसुद्धं जं चरणगुणढिओ साहू ॥१६१७॥ |
॥ इति पञ्चक्खाणनिज्जुत्ती समत्ता । श्रीभद्रबाहुस्वामिविरचिता श्रीमदावश्यकनियुक्तिः समाप्ता ॥
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________________ दीपिका कार प्रशस्ति। आवश्यकता सर्वेषामपि नयानां नैगमसंग्रहादीनां ज्ञान( ज्ञानक्रिया )द्वयसंगृहीतानां बहुविधां वक्तव्यतां निशम्य तत्सर्वनयविशुद्धं नियक्ति- सर्वनयसंमतं ज्ञेयं यत्साधुश्चरणगुणव्यवस्थितश्चारित्रक्रियाज्ञानस्थितः स्यात् / यतः पूर्व ज्ञाते गृहीतव्येऽगृहीतव्ये चाथै यतितदीपिका व्यमेव पश्चाक्रियायत्नः कार्य एव ततश्चारित्रं, यतः सर्वनया भावनिक्षेपमिच्छन्ति / भावश्च रत्नत्रयाराधनपरः साधुः। इति प्रत्याख्याननियुक्तिः समाप्ता। // 46 // ते श्रीअञ्चलगच्छमण्डनमणिश्रीमन्महेन्द्रप्रभ-श्रीसूरीश्वरपट्टपङ्कजसमुल्लासोल्लसद्भानवः / तर्कव्याकरणादिशास्त्रघटनाब्रह्मायमाणाश्चिरं, श्रीपूज्यप्रभुमेरुतुङ्गगुरवो जीयासुरानन्ददाः // 1 // तच्छिष्य एष खलु सूरिश्चीकरत् श्री-माणिक्यशेखर इति प्रथिताभिधानः / चश्चद्विचारचयचेतनचारुमेनां सद्दीपिका सुविहितवतिनां हिताय // 2 // एषा श्रीआवश्यकनियुक्तेर्दीपिका चिरं जयतात / मनिनिचयवाच्यमाना तमोहरा दीपिका पिण्डनिर्यक्रोधनिर्यत्ति है दीपिकादशवकालिकस्याप्युत्तराध्ययनदीपिके // 3 // . आचारदीपिकानावतत्वविचारणं तथास्य / एककर्तृतया ग्रन्था अमी अस्याः सहोदराः // 4 // इति श्रीविधिपक्षमुख्याभिधानश्रीमदश्चलगच्छाधिराजसुगुरुसुविहितचक्रवर्तिश्रीमन्मेरुतुङ्गसरीन्द्रक्रम कमलमरालशिष्यश्रीमाणिक्यशेखरसूरिविरचिता श्रीआवश्यकनियुक्तिदीपिका समाप्ता। SECRECTORRECIRCLOCACCIAC CERIA Jain Education Intel