Book Title: Aagam 12 AUPAPAATIK Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' [१२] श्री औपपातिक (उपांग)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदसणस्स । पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । "औपपातिक मूलं एवं वृत्ति: [मूलं एवं अभयदेवसूरि रचित: द्रोणाचार्य शोधित: वृत्तिः] [आदय संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता, मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) | 30/10/2014, गुरुवार, २०७० कार्तिक शुक्ल ७ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[१२], उपांग सूत्र-[१] *औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक BANANARIANSANANYAMANANANANANANANANAAG ॥ अहम् ॥ श्रीचतुर्दशपूर्वधरश्रुतस्थविरप्रणीतं चन्द्रकुलीनश्रीमदभयदेवसूरिविहितश्रीमद्रोणाचार्यशोधितवृत्तियुतं श्रीमदौपपातिकसूत्रम् । मुद्रयिता झव्हेरीनवलचन्दउदेचन्दवधूनन्दकोराख्यायुताऽमरचन्द्रात्मजहर्षचन्द्र पुत्रीरत्नायुततेजस्याख्याकृतद्न्यसाहाय्येन आगमोदयसमितिकार्यवाहकः शाह-वेणीचन्द्रः सूरचन्द्रात्मजः दीप अनुक्रम RANARTARNARNAANANAND ORNARNARNAANARNANAND मुद्रित मोहमग्यो निर्णयसागरमुद्रणयन्त्रे रा०रा० रामचन्द्र पेस शेडगेवारा थीरसंवत् . २४४२ विक्रमसंवत्. १९७२ काइए. १९१६ प्रथमसंस्करणे प्रतयः पशवी ५०० पथ्यं द्वादशाणका: 0-12JANUAUUNNNNNNNNURUMUNUN औपपातिक(उपांग)सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका: ४३+३० मूलांक: ०१-४३ विषय: समवसरण पदं -चम्पानगरी, पूर्णभद्रचैत्यं, - वनखंड, -अशोकवृक्षः, -शीलापट्ट, भगवंत महावीरस्य अन्तेवासी, स्थवीर वर्णनं, -ताप-भेदाः, देवआगमनं, - आगारधर्म इत्यादिः पृष्ठांकः ००४ औपपातिक (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम -------- मूलांक: ४४-४७ विषय: उपपात-पदं -गौतम गणधर अम्बड-परिव्राजकः, -देवउपपातवर्णनं - केवलीसमुद्घातः, -सिद्धजीवः, -सिद्धशीला, - सिद्धजीवस्य सौक्ख्यं, द्रष्टिः, लक्षणं इत्यादिः पृष्ठांक: ~2~ १६९ मूलांक मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः दीप- अनुक्रमा: ७७ पृष्ठांक Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['औपपातिक' - मुलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “औपपातिक सूत्रम्” के नामसे सन १९१६ (विक्रम संवत १९७२) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमद्सागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | हमारा ये प्रयास क्यों? * आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर विषय और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा विषय एवं मूलसूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ |- ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक विषय आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहँच शकता है। अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे खास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर. ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१) दीप अनुक्रम [१] ॥ अहम् ।। चतुर्दशपूर्वधरश्रुतस्थविरसंकलितं । श्रीमदभयदेवसूरिसंदृब्धविवरणयुतं । श्रीऔपपातिकसूत्रम् । | ॥॥श्रीवर्द्धमानमानम्य, प्रायोऽन्यग्रन्थवीक्षिता। औपपातिकशास्त्रस्य, व्याख्या काचिद्विधीयते ॥१॥ अथोपपातिक मिति कः शब्दार्थः १, उच्यते, उपपतनमुपपातो-देवनारकजन्म सिद्धिगमनं च, अतस्तमधिकृत्य कृतमध्ययनमीपपातिकम् ।। इदं चोपाङ्ग वर्तते, आचाराङ्गस्य हि प्रथममध्ययनं शास्त्रपरिज्ञा, तस्याद्योदेशके सूत्रमिदम्-"एव 'मेगोसि नो नायं भवइअस्थि वा मे आया उववाइए, नस्थि वा मे आया उबवाइए, के वा अहं आसी? के वा इह ( अहं) शुए (इओ चुओ) पेचा यह भविस्सामी" त्यादि, इह च सूत्रे यदीपपातिकत्वमात्मनो निर्दिष्टं तदिह प्रपश्यत इत्यर्थतोऽङ्गस्य समीपभावेने- दमुपागम् । अस्य चोपोद्घातग्रन्थोऽयम् तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था, रिडस्थिमियसमिहा पमुइयजणजाणवया आइण्ण-III .१ आचारायत्तिकाराभिप्रायेण पवेत्यादिर्भवइपर्यन्तः पाठो द्वितीयसूत्रोपसंहारवाक्यरूपः । aramera औपपातिक सूत्रे अत्र “समवसरण-पदं" आरभ्यते *. चंपानगर्या: वर्णनं Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: तिकम् प्रत सूत्रांक औषपा- IMIजणमणुस्सा हलसपसहस्ससंकिट्ठविकिट्ठलट्ठपण्णत्तसेउसीमा कुकुरसंडेअगामपउरा उकछुजवसालिकलिया| नगर्यधिक गोमहिसगवेलगप्पभूता आयारवंतचेइयजुषाविधिहसपिणविट्ठबहुला उक्कोडियगायगंठिभेयभडतकरखंड रक्खरहिया खेमा णिरुवदवा सुभिक्खा बीसत्थसुहावासा अणेगकोडिकुटुंबियाइण्णणिव्यसुहा ण॥१ ॥ अरणगजल्लंमल्लमुडियवेलंबयकहगपचगलासगआइक्खगलंखमंखतूणइल्लतुंचवीणियअणेगतालायराणुचरिया आरामुजाणअगडतलागदीहियवप्पिणिगुणोववेया नंदणवणसन्निभपगासा इह च बहवो वाचनाभेदा दृश्यन्ते, तेषु च यमेवावमोत्स्यामहे तमेव व्याख्यास्यामः, शेषास्तु मतिमता स्वयमूद्याः। तत्र योऽयं णंशब्दः स वाक्पालङ्कारार्थः, 'ते' इत्यत्र च य एकारः स प्राकृतशैलीप्रभवो, यथा 'करेमि भंते ! इत्यादिषु, ततोऽयं वाक्यार्थों जातः-तस्मिन् काले तस्मिन् समये यस्मिन्नसौ नगरी बभूवेति, अधिकरणे चेयं सप्तमी । अथ कालसमययो का प्रतिविशेषः ?, उच्यते, काल इति सामान्यकालो वर्तमानावसर्पिण्याश्चतुर्थविभागलक्षणः, समयस्तु सद्विशेषो यत्र सा नगरी स राजा वर्द्धमानस्वामी च बभूव । अथवा-तृतीयैवेयं, ततश्च तेन कालेन अवसर्पिणीचतुर्धारकलक्षणेन हेतुभूतेन तेन समयेन तद्विशेषभूलेन हेतुना चम्पा नाम नगरी 'होत्यत्ति' अभवद्, आसीदित्यर्थः । ननु चेदानीमपि साऽस्ति किं पुनरधिकृतग्रन्थकरणकाले ? तत्कथमुक्तमासीदिति ?, उच्यते, अवसर्पिणीत्वारकालस्य वर्णकान्धवर्णितविभूतियुक्ता सा तदानीं नास्तीति । 'ऋद्धस्थिमियसमिद्धा' ऋद्धा-भवनादिभिवृद्धिमुपगता, स्तिमिता-भयवर्जितत्वेन स्थिरा, समृद्धा-धनधान्यादियुक्ता, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः । 'पमुइयजणजाणवया' प्रमुदिताः-हृष्टाः दीप अनुक्रम -2-59-4-5%8-2-964-55 चंपानगर्या: वर्णनं ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१) CREAKESAXCX प्रमोदकारणवस्तूनां सद्भावात् जना-नगरीवास्तव्यलोका जानपदाश्च-जनपदभवास्तत्रायाताः सन्तो यस्यां सा प्रमुदित| जनजानपदा, पाठान्तरे 'पमुइयजणुजाणजणवया' तत्र प्रमुदितजनान्युद्यानानि जनपदाश्च यस्यां सा तथा । 'आइण्ण. जणमणुस्सा' मनुष्यजनेनाकीर्णा-सङ्कीर्णा, मनुष्यजनाकीर्णेतिवाच्ये राजदन्तादिदर्शनादाकीर्णजनमनुष्येत्युक्तम् , आकीर्णो वा-गुणव्याप्तो मनुष्यजनो यस्यां सा तथा । 'हलसयसहस्ससङ्किटविकिहलपणत्तसेउसीमा' हलाना-लालानां शतैः ||४| | सहबैश्च शतसहस्रा-लक्षैः संकृष्टा-विलिखिता विकृष्टं-दूरं यावद् अविकृष्टा वा-आसन्ना लष्टा-मनोज्ञा कपकाभिमत| फलसाधनसमर्थत्वात् 'पण्णत्त'त्ति योग्यीकृता बीजवपनस्य सेतुसीमा-मार्गसीमा यस्याः सा तथा, अथवा-संकृष्टादिविशेषणानि सेतूनि-कुल्याजलसेकक्षेत्राणि सीमासु यस्याः सा तथा, अधवा-हलशतसहस्राणां संकृष्टेन-संकर्षणेन | विकृष्टा-दूरवर्तिन्यो लष्टाः प्रज्ञपिता:-कथिताः सेतुसीमा यस्याः सा तथा, अनेन तजनपदस्य लोकबाहुल्यं क्षेत्रबाहुल्यं चोक्तम् । 'कुकुडसंडेयगामपउरा' कुकुटा:-ताम्रचूडाः पण्डेयाः-पण्डपुत्रकाः तेषां ग्रामा:-समूहास्ते प्रचुरा:-प्रभूताः यस्यां | सा तथा, अनेन लोकप्रमुदितत्वं व्यक्तीकृतं, प्रमुदितो हि लोकः क्रीडार्थ कुक्कुटान् पोषयति पण्डांश्च करोतीति । 'उच्छुजबसालिकलिया' पाठान्तरेण 'उच्छुजवसालिमालिणीया' एतद्व्याप्तेत्यर्धः, अनेन च जनप्रमोदकारणमुक्तं, न ह्येवंप्रकारव-|| स्वभावे प्रमोदो जनस्य स्यादिति । 'गोमहिसगवेलगप्पभूया' गवादयः प्रभूताः-प्रचुरा यस्यामिति वाक्यम्, गवेलगाउरभ्राः । 'आयारवन्त चेइयजुवइविविहसंविणविठ्ठबहुला' आकारवन्ति-सुन्दराकाराणि आकारचित्राणि वा यानि चैत्यानि-देवतायतनानि युवतीनांच-तरुणीनां पण्यतरुणीनामिति हृदयं, यानि विविधानि सन्निविष्टानि-सन्निवेशनानि है। दीप अनुक्रम चंपानगर्या: वर्णनं ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक २ ॥ (30 दीप औपपान IPI पाटकास्तानि बहुलानि बहूनि यस्यां सा तथा, 'अरिहन्तचेईयजणवयविसण्णिविठ्ठबहुले'ति पाठान्तरं, तत्रार्हचैत्यानां || नगयधिक जनानां वतिनां च विविधानि यानि सन्निविष्टानि-पाटकास्तैर्वहुलेति विग्रहः, 'सुयागचित्तचेईयजयसण्णियिहबहुला' इति । च पाठान्तरम् , तन्त्र च सुयागा:-शोभनयज्ञाः चिनचैत्यानि-प्रतीतानि यूपचितयो-यज्ञेषु यूपचयनानि यूतानि वा की-|| सू० डाविशेषाश्चितयः तेषां सन्निविष्टानि-निवेशास्सैर्वहुला या सा तथा, 'उक्कोडियगायगंठिभेयभडतकरखंडरक्खरहिया उत्कोटा-वरकोचा लश्चेत्यर्थस्तया ये व्यवहरन्ति ते औत्कोटिकाः गात्रात्-मनुष्यशरीरावयवविशेषात् कठ्यादेः सकाशात् ग्रन्थि-कार्षापणादिपुट्टलिका भिन्दन्ति-आच्छिन्दन्तीति गात्रग्रन्थिभेदका, 'उक्कोडियगाहगंठिभेय' इति च पाठान्तरं । व्यक्तं, भटाः-चारभटाः बलात्कारप्रवृत्तयः तस्कराः-तदेव-चौयं कुर्वन्तीत्येवंशीलाः खण्डरक्षा-दण्डपाशिकाः शुल्कपाला या एभी रहिता या सा तथा, अनेन तन्त्रोपद्रयकारिणामभावमाह । 'खेमा' अशिवाभावात् । 'णिरुवहवा' निरुपद्रवा. II | अविद्यमानराजादिकृतोपद्रवेत्यर्थः । 'सुभिक्खा' सुष्छु-मनोज्ञाः प्रचुरा भिक्षा भिक्षुकाणां यस्यां सा सुभिक्षा । अन एव | पापण्डिनां गृहस्थानां च 'चीसत्थसुहावासा' विश्वस्ताना-निर्भयानामनुत्सुकानां वा सुख:-सुखस्वरूपः शुभो वा आवासो यस्यां सा तथा । 'अणेगकोडिकुडुम्बियाइण्णनिच्चुयसुहा' अनेकाः कोटयो द्रव्यसङ्घयानां स्वरूपपरिमाणे वा येषां ते &| अनेककोटयः तै :कौटुम्बिकैः-कुटुम्बिभिराकीर्णा-सङ्खला या सा तथा, सा चासौ निर्वृता च-सन्तुष्टजनयोगात्सन्तो पवतीति कर्मधारयः, अत एव सा चासौ सुखा च शुभा वेति कर्मधारयः । 'नडनगजल्लमल्लमुडियवेलम्बयकहगपवग[लासगआइक्खगलखमखतूणइलतुम्बवीणियअणेगतालायराणुचरिया' नटा:-नाटकानां नाटयितारो नर्तका ये नृत्यन्ति, अनुक्रम ॥ २ चंपानगर्या: वर्णनं Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१) का अङ्किला इत्येके, जल्ला-वरनाखेलकाः, राज्ञः स्तोत्रपाठका इत्यन्ये, मलाः-प्रतीताः मौष्टिका-मल्ला एव ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति, ४ विडम्बका:-विदूषकाः, कथका:-प्रतीताः, प्लवका-ये उत्प्लवन्ते नद्यादिकं वा तरन्ति, लासका-ये रासकान् गायन्ति, जयशब्दप्रयोक्कारो वा, भाण्डा इत्यर्थः, आख्यायका-ये शुभाशुभमाख्यान्ति, लङ्का-महावंशानखेलकाः, मङ्खाः-चित्र फलकहस्ता भिक्षुकाः, तूणइला-तूणाभिधानवाद्यविशेषवन्तः, तुम्बवीणिका-वीणावादकाः, अनेके च ये तालाचराः-ताला४दानेन प्रेक्षाकारिणस्तैरनुचरिता-आसेविता या सा तथा । 'आरामुज्जाणअगडतलायदीहियवप्पिणिगुणोववेया' आरमन्तिIS येषु माधवीलतागृहादिषु दम्पत्यादीनि क्रीडन्ति, आरामाः, उद्यानानि-पुष्पादिमवृक्षसालान्युत्सवादी बहुजनभो ग्यानि, 'अगडत्ति' अवटा:-कूपाः, तडागानि-प्रतीतानि, दीपिका-सारणी, 'वप्पिणि'त्ति केदाराः, एतेषां ये गुणा| रम्यतादयस्तैरुपपेता-युक्ता या सा तथा, उप अप इत इत्येतस्य शब्दत्रयस्य स्थाने शकन्ध्वादिदर्शनादकारलोपे उपपेतेति भवति । कचित्पठ्यते 'नन्दणवणसन्निभप्पगासा' नन्दनवन-मेरोद्धितीयवनं तत्प्रकाशसन्निभः प्रकाशो यस्यां सा तथा, इह चैकस्य प्रकाशशब्दस्य लोपः उष्ट्रमुख इत्यादाविचेति । उब्बिद्धविउलगंभीरखायफलिहा चकगयमुसुंढिओरोहसयग्घिजमलकवाडघणदुपयेसा धणुकुडिलबंकपागारपरिक्खित्ता कविसीसयवहरइयसंठियविरायमाणा अद्यालयचरियदारगोपुरतोरणजपणयसुविभत्सरायमग्गा व्यायरियरदयदढफलिहइंदकीला 'उबिद्ध विउलगम्भीरखायफलिहा' उद्विद्ध-उद्धं विपुलं-विस्तीर्ण गम्भीरम्-अलब्धमध्यं खातम्-उपरिविस्तीर्णम् दीप अनुक्रम 444*AINME% ॐ चंपानगर्या: वर्णनं ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [...] दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा प्रत तिकम् सूत्रांक ॥३ ॥ 4-82-86 दीप अनुक्रम [१] | अधःसङ्कट परिखा च-अघ उपरि च समखातरूपा यस्यां सा तथा । 'चक्कगयमुसुंढि ओरोहसयग्धिजमलकवाडघणदुप्पवेसा' चक्राणि-रथाङ्गानि अरघट्टाङ्गानि वा, गदाः-प्रहरणविशेषाः, मुसुण्ढयोऽप्येवम् , अवरोधः-प्रतोलिद्वारेप्ववान्तरप्राकारः सम्भाव्यते, शतघ्यो-महायष्टयो महाशिला वा या उपरिष्टात्पातिताः सत्यः शतानि पुरुषाणां मन्तीति, यम-15 लानि-समसंस्थितद्वयरूपाणि यानि कपाटानि धनानि च निश्छिद्राणि तैर्दुष्प्रवेशा या सा तथा । 'धणुकुडिलवंकपागारप| रिक्सित्ता' धनुःकुटिलं-कुटिलधनुस्ततोऽपि वक्रेण प्राकारेण परिक्षिप्ता या सा तथा । 'कविसीसयवट्टरइयसंठियविराय|माणा' कपिशीर्षकैर्वृत्तरचितः-वर्तुल कृतैः संस्थितैः-विशिष्टसंस्थानवनिर्विराजमाना-शोभमाना या सा तथा। अट्टालयचरि| यदारगोपुरतोरणउण्णयसुविभत्तरायमग्गा' अट्टालकाः-प्राकारोपरिवाश्रयविशेषाः, चरिका-अष्टहस्तप्रमाणा नगरप्राकारान्तरालमार्गाः, द्वाराणि-प्राकारद्वारिकाः, गोपुराणि-पुरद्वाराणि, तोरणानि-प्रतीतानि, उन्नतानि-गुणवन्ति उच्चानि च यस्यां सा तथा, सुविभक्ताः-विविक्ता राजमार्गा यस्यां सा तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः। 'छेयायरियरइयदढ-16 फलिहईदकीला' छेकेन-निपुणेनाचार्येण-शिल्पिना रचितो दृढो-बलवान् परिषः-अर्गला इन्द्रकीलश्च-गोपुरावयवविशेषो यस्यां सा तथा। विचणिवणिच्छेत्तसिप्पियाइण्णणिन्यसुहा सिंघाडगतिगचउक्कचचरपणियावणविविहवत्युपरिमंडिया सुरम्मा नरवइपविइण्णमहिवइपहा अणेगवरतुरगमत्तकुंजररहपदकरसीयसंदमाणीयाइण्णजाणजुग्गा विम -%25 चंपानगर्या: वर्णनं ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [...१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१) दीप अनुक्रम | उलणवणलिणिसोभियजला पंदुरवरभवणसण्णिमहिया उत्ताणणयणपेच्छणिज्जा पासादीया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा ॥ (सू०१) 'विवणिषणिच्छेत्तसिप्पियाइण्णणिव्यसुहा' विषणीनां-वणिपथानां हट्टमार्गाणां, वणिजां च-बाणिजकानां च, क्षेत्र-18 स्थानं या सा तथा, शिल्पिमिः-कुम्भकारादिभिराकीर्णा अत एव जनप्रयोजनसिद्धेर्जनानां निर्वृतत्वेन सुखितत्वेन च निर्वतसुखा च या सा तथा, वाचनान्तरे छेत्तशब्दस्य स्थाने छेयशब्दोऽधीयते, तत्र च छेकशिल्पिकाकीर्णेति व्याख्येयम् । 'सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरपणियावणविविहवत्थुपरिमंडिया' शृङ्गाटक-त्रिकोणं स्थानं, त्रिक-यत्र रथ्यात्रयं मिलति, चतु-18 क-रथ्याचतुष्कमेलकं, चत्वरं-बहुरथ्यापातस्थानं, पणितानि-भाण्डानि तत्प्रधाना आपणा-हट्टाः, विविधवस्तूनि-अनेकविधद्रव्याणि, एभिः परिमण्डिता या सा तथा, पुस्तकान्तरेऽधीयते-'सिंघाडगतिगचउकचच्चरचउम्मुहमहापहपहेसु | पणियावणविबिहवेसपरिमंडिया' तत्र चतुर्मुख-चतुरिं देवकुलादि, महापथो-राजमार्गः, पन्थाः-तदितरः, ततश्च शृङ्गाटकादिषु पणितापणैः विविधवेषैश्च जनैविविधवेश्याभिर्वा परिमण्डिता या सा तथा । 'सुरम्मा' अतिरमणीया। नरवइपविइण्णमहिवइमहा' नरपतिना-राज्ञा प्रविकीणों-गमनागमनाभ्यां व्याप्तो महीपतिपथो राजमार्गों यस्यां सा तथा, अथवा-नरपतिना प्रविकीर्णा-विक्षिप्ता निरस्ताऽन्येषां महीपतीनां प्रभा यस्यां सा तथा, अथवा-नरपतिभिः प्रविकीर्णा | | महीपतेः प्रभा यस्यां सा तथा । 'अणेगवरतुरगमत्तकुंजररहपहकरसीयसंदमाणीयाइण्णजाणजुग्गा' अनेकवरतुरगैर्मतकुञ्जरैः। रहपहकरत्ति-रथनिकरैः शिविकाभिः स्यन्दमानीभिराकीर्णा-व्याप्ता यानयुग्यैश्च या सा तथा, अथवा-अनेके वरतुरगा REaratundina चंपानगर्या: वर्णनं ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औषपातिकम् पूर्णभदचै० प्रत ४ ॥ सूत्रांक दीप दयो यस्यां आकीर्णानि च गुणवन्ति यानादीनि यस्यां सा तथा, तत्र शिविका:-कूटाकारणाच्छादिता जम्पानविशेषाः, स्यन्दमानिका:-पुरुषप्रमाणजम्पानविशेषाः, यानानि-शकटादीनि, युग्यानि-गोलविषयप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि ४ वेदिकोपशोभितानि जम्पानान्येवेति । 'विमउलणवणलिणिसोभियजला' विमुकुलाभिः-विकसितकमलाभिर्नवाभिनलि-1 नीभिः-पद्मिनीभिः शोभितानि जलानि यस्यां सा तथा । 'पंडुरवरभवणसण्णिमहिया' पाण्डुरैः-सुधाधवलैः वरभवनैःप्रासादैः सम्यक् नितरां महितेव महिता-पूजिता या सा तथा । 'उत्ताणणयणपेच्छणिज्जा' सौभाग्यातिशयादुत्तानिकैः अनिमिषितैनयनैः-लोचनैः प्रेक्षणीया या सा तथा । 'पासाइया' चित्तप्रसत्तिकारिणी। 'दरिसणिज्जा' यां पश्यच्चक्षुःश्रम |न गपछति । 'अभिरूवा' मनोज्ञरूपा । 'पडिरूवा' द्रष्टारं २ प्रति रूपं यस्याः सा तथेति ॥१॥ तीसे णं चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए पुण्णभद्दे णाम चेइए होस्था, चिराईए पुथ्वपुरिसपण्णत्ते पोराणे सदिए वित्तिए कित्तिए णाए सच्छत्ते सज्झए सघंटे सपढागे पडागाइपडागमंडिए सलोमहत्थे कयवेयदिए लाउल्लोइयमहिए गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिपणपंचंगुलितले उवचियचंदणकलसे चंदणघडमुकयतोरणपडिदुवारदेसभाए आसत्तोसत्तविउलवद्वग्घारियमल्लदामकलावे पंचवण्णसरससुरहिमुक्कपुष्फपुंजोपयारकलिए कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे सुगंधवरगंधगंधिए गंध-४ बद्विभूए णडणट्टगजल्लमल्लमुट्टियवेलवयपवगकहगलासगआइक्खगलंखमखतूणइल्लतुंबवीणियनुयगमागहप- रिगए बहुजणजाणवयस्स विस्सुरकित्तिए बहुजणस्स आहुस्स आहुणिज्जे पाहुणिज्जे अच्चणिजे वंदणिज्जे नमस अनुक्रम [१] ॥४॥ चंपानगर्या: वर्णनं, पूर्णभद्रचैत्यस्य वर्णनं ~11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक (२) दीप ||णिज्जे पूयणिज्जे सकारणिज्जे सम्माणणिजे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पजुवासणिजे दिवे सचे। सबोचाए सपिणहियपाडिहेरे जागसहस्सभागपडिच्छए बहुजणो अचेइ आगम्म पुण्णभई चेइयं २ || (सू०२)॥ 'तीसेति तस्यां 'ण'मित्यलङ्कारे चम्पायां नगर्या 'उत्तरपुरस्थिमेत्ति उत्तरपौरस्त्ये-उत्तरपूर्वायामित्यर्थः, 'दिसिभाए'त्ति | दिग्भागे, पूर्णभद्रं नाम चैत्यं-न्यन्तरायतनं, 'होत्थे ति अभवत् । 'चिराईए पुबपुरिसपण्णत्ते' चिरम्-चिरकाल आदिःनिवेशो यस्य तधिरादिकम् , अत एव पूर्वपुरुषैः-अतीतनरैः प्रज्ञप्तम्-उपादेयतया प्रकाशितं पूर्वपुरुषप्रज्ञप्तं । 'पोराणे'त्ति | निरादिकत्वात्पुरातनं । 'सहिए'त्ति शब्दः-प्रसिद्धिः स सञ्जातो यस्य तच्छन्दितं । 'वित्तिए'त्ति वित्तं-द्रव्यं तदस्ति यस्य | | तद्वित्तिक, वृत्ति वाऽऽश्रितलोकानां ददाति यत्तद्धृत्तिदं । 'कित्तिए'त्ति पाठान्तरं, तत्र कीर्तित-जनेन समुत्कीर्तित कीर्तिदं वा । 'णाए'त्ति न्यायनिर्णायकत्वात् न्यायः ज्ञातं वा-ज्ञातसामर्थ्यमनुभूततत्प्रसादेन लोकेनेति । सच्छत्रं सध्वज | सघण्टंमिति व्यक्तं । 'सपडागाइपडागमंडिए' सह पताकया धर्तत इति सपताकं तच तदेका पताकामतिक्रम्य या पताका सा अतिपताका तया मण्डितं यत्तत्तथा, वाचनान्तरे-'सपडाए पडागाइपडागमंडिए'त्ति । 'सलोमहत्थे लोममयप्रमार्जनकयुक्तं । 'कयवेयदिए कृतवितर्दिक-रचितवेदिकं । 'लाउल्लोइयमहिए' लाइयं यद्भूमेश्छगणादिनोपलेपनम् , उल्लोइयंकुड्यमालानां सेटिकादिभिः संमृष्टीकरणं, ततस्ताभ्यां महितमिव महित-पूजितं यत्तत्तथा। 'गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितले' गोशीण-सरसरक्तचन्दनेन च दईरेण-वहलेन चपेटाप्रकारेण वा दत्ताः पञ्चाङ्गुलयः तला-हस्तका अनुक्रम FarPurwanaBNamunoonm | पूर्णभद्रचैत्यस्य वर्णनं ~ 12~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा. तिकम् प्रत सूत्रांक (२) दीप यत्र तसथा। 'उवचियचन्दणकलसे' उपचिता-निवेशिताः चन्दनकलशा-माङ्गल्यघटा यत्र तत्तथा । 'चंदणघडसुकय-IN | तोरणपडिदुबारदेसभाए' चन्दनघटाश्च सुटु कृततोरणानि च द्वारदेशभागं २ प्रति यसिंस्तचन्दनपटसुकृततोरणप्रतिद्वार-18|| देशभागे, देशभागाश्च देशा एव । 'आसत्तोसत्तविउलवद्वग्धारियमल्लदामकलावे' आसक्तो-भूमौ संबद्धः उत्सत-उपरिसं|बद्धः बिपुलो-विस्तीर्णः वृत्तो-वर्तुलः 'वग्धारिओ'त्ति प्रलम्बमानः माल्यदामकलापः-पुष्पमालासमूहो यत्र तत्तथेति । | 'पञ्चवण्णसरससुरभिमुकपुष्फपुंजोवयारकलिए' पश्चवर्णेन सरसेन सुरभिणा मुक्तेन-क्षिप्तेन पुष्पपुखलक्षणेनोपचारेणपूजया कलितं यत्तत्तथा । 'कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवमबमघन्तगन्धुळ्याभिरामे' कालागुरुप्रभृतीनां धूपानां यो मघमघायमानो गन्धः उद्भुत-उजूतस्तेनाभिरामं यत्तत्तथा, तत्र 'कुंदुरुकं ति चीडा 'तुरुकति च सिव्हकं । 'सुगन्धवरगंधगंधिए' सुगन्धा ये बरगन्धाः-प्रवरवासास्तेषां गन्धो यत्रास्ति तत्तथा । 'गन्धवडिभूए' सौरभ्यातिशयाद्गन्धद्रव्यगुटिका कल्पमित्यर्थः । 'नडनट्टे' त्यादि पूर्ववन्नवरमिह भुयगा-भुजङ्गा भोगिन इत्यर्थः, भोजका बा-तदर्थकाः 'मागधा' भट्टा से इति । 'बहुजणजाणवयस्स विस्सुयकित्तिए' यहोर्जनस्य-पौरस्य जानपदस्य च-जनपदभवलोकस्य विश्रुतकीर्तिक-प्रतीत ख्यातिक । 'बहुजणरस आहुस्स'त्ति आहोतुः-दातुः, कचिदिदं न दृश्यते, 'आहुणिजे 'त्ति आहवनीय-सम्प्रदानभूतं । 'पाहुणिज्जेत्ति प्रकर्षेण आहवनीयं । 'अच्चणिजे' चन्दनगन्धादिभिः । 'वन्दणिजे स्तुतिभिः । 'नमंसणिज्जे' प्रणामतः । पूणिज्जे पुष्पैः। 'सकारणिजे' वस्त्रैः। 'सम्माणणिजे' बहुमानविषयतया । 'कलाणं मङ्गलं देवयं चेइयं विणपणं पजुवासणिज्जे' कल्याणमित्यादिबुद्ध्या विनयेन पर्युपासनीयं, तत्र 'कल्याणम्' अर्थहेतुः 'मङ्गलम्' अनर्थप्रतिहतिहेतुः 'दैवतं'। अनुक्रम ॥५ ॥ | पूर्णभद्रचैत्यस्य वर्णनं ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: * प्रत सूत्रांक * (२) *% A दीप |देवः 'चैत्यम्' इष्टदेवताप्रतिमा 'दिवे' दिव्यं प्रधानं । 'सच्चे' सत्यं सत्यादेशत्वात् । 'सच्चोवाए' सत्यावपातं । 'सत्यसेव' | सेवायाः सफलीकरणात् । 'सणिहियपाडिहरे' विहितदेवताप्रातिहार्य । 'जागसहस्सभागपटिच्छए' यागाः-पूजाविशेषाः ब्राह्मणप्रसिद्धाः तत्सहस्राणां भागम्-अंशं प्रतीच्छति आभाव्यत्वात् यत्तत्तथा, वाचनान्तरे 'यागभागदायसहस्सपडि च्छए' यागा:-पूजाविशेषाः भागा-विंशतिभागादयो दायाः-सामान्यदानान्येषां सहस्राणि प्रतीच्छति यत्तत्तथा । 'बहुजणों' Mइत्यादि सुगम, नवरं 'पुण्णभद्दचेइयं ' इति अत्र द्विवचनं भक्तिसम्भ्रमविवक्षयेति ॥२॥ से णं पुण्णभद्दे चेइए एकेणं महया वणसंडेणं सब्बओ समंता संपरिक्खित्ते, से णं वणसंडे किण्हे किण्होभासे नीले नीलोभासे हरिए हरिओभासे सीए सीओभासे गिद्धे गिद्धोभासे तिब्वे तिब्वोभासे किण्हे | लकिण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीए सीयच्छाए णिहे णिच्छाए तिब्वे तिब्वच्छाए घणकडिअकडिच्छाए रम्मे महामेहणिकुरंबभूए। 'सधओ समन्ता' इति सर्वतः-सर्वदिक्षु समन्तात्-विदिक्षु । 'किण्हे'त्ति कालवर्णः । 'किण्होभासे त्ति कृष्णावभासः कृष्णप्रभः, कृष्ण एवावभासत इति कृष्णायभासः । एवं 'नीले नीलोभासे' प्रदेशान्तरे, 'हरिए हरिओभासे' प्रदेशान्तरे & एव, तत्र नीलो-मयूरगलवत्, हरितस्तु शुकपुच्छवत्, हरितालाभ इति वृद्धाः। 'सीए'त्ति शीतः पापेक्षया, बल्याद्या कान्तत्वात् इति वृद्धाः । 'णिद्धे'त्ति स्निग्धो न तु रूक्षः । 'तिब्बे'त्ति तीनो वर्णादिगुणप्रकर्षवान् । 'किण्हे किण्हच्छाएत्ति, | इह कृष्णशब्दः कृष्णच्छाय इत्यस्य विशेषणमिति न पुनरुक्तता, तथाहि-कृष्णः सन् कृष्णच्छायः, छाया चादित्यावरण अनुक्रम 4 % AC Baitaram.org | पूर्णभद्रचैत्यस्य वर्णनं, वनखंडस्य वर्णनं ~14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा- प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम जन्यो वस्तुविशेषः । 'घणकडियकडिच्छाए'त्ति अन्योऽन्य शाखानुप्रवेशाद् वहलनिरन्तरच्छाय इत्यर्थः । 'महामेहणिकुर- वनपण्डा |वभूए'त्ति महामेघवृन्दकल्पः। सू०३ ते णं पायवा मूलमंतो कंदमंतो खंभमंतो तयामतो सालमंतो पवालमंतो पत्तमंतो पुप्फमतो फलमंतो बीयमंतो अणुपुब्बसुजायरुइलबद्दभावपरिणया एक्कखंधा अणेगसाला अणेगसाहप्पसाहविडिमा अणेगनरवाममुप्पसारिअअग्गेज्मघणविउलवडखंधा अच्छिदपत्ता अविरलपत्ता अवाईणपत्ता अणईअपत्ता निभू| यजरढपंदुपत्ता णवहरियभिसंतपत्तभारंधकारगंभीरदरिसणिजा उवणिग्गयणवतरुणपत्सपल्लवकोमलउज्जलचलंतकिसलयसुकुमालपवालसोहियवरंकुरग्गसिहरा णिचं कुसुमिया णिचं माइया णिचं लवइया णिचं थवइया णिचं गुलइया णिचं गोच्छिया णिचं जमलिया णिचं जुबलिया णिचं विणमिया णिचं पणमिया |णिचं कुसुमियमाइयलवइयथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुवलियविणमियपणमियमुविभत्तपिंडमंजरिवर्डिसयघरा सुयबरहिणमयणसालकोइलकोहंगकभिंगारककोंडलकजीवंजीवकणंदीमुहकविलपिंगलक्खकारंडचकवायकलहंससारसअणेगसउणगणमिणविरइयसहुण्णइयमहरसरणाइए सुरम्मे संपिडियदरियभमरमहुकरिपहकरपरिलिन्तमत्तछप्पयकुसुमासवलोलमहुरगुमगुमंतगुंजतदेसभागे अभंतरपुप्फफले बाहिरपसोच्छण्णे पत्तेहि य पुप्फेहि य उच्छपणपडिवलिच्छपणे साउफले निरोयए अकंटए जाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगरम्मसोहिए विचित्तसुहकेउभूए वावीपुक्खरिणीदीहियासु य मुनिवेसिय रम्मजालहरए । वनखंडस्य वर्णनं, ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [3] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः 'ते णं पाययति यत्संबन्धाद् वनखण्ड इति । 'मूलमन्तो कन्दमन्तो' इत्यादीनि दश पदानि तत्र कन्दो- मूलानामुपरि वृक्षावयवविशेषो, मतुप्प्रत्ययश्चेह भूनि प्रशंसायां वा । स्कन्धः - स्थुडं । 'तय'त्ति त्वक् वल्कलं शाला-शाखा प्रवाल:| पलवाङ्करः, शेषाणि प्रतीतानि । 'हरियमन्ते'त्ति क्वचिद् दृश्यते, तत्र हरितानि - नीलतरपत्राणि । 'अणुपुवसुजाय रुइलवइभावपरिणयत्ति आनुपूर्व्येण मूलादिपरिपाव्या सुष्ठु जाता रुचिराः वृत्तभावैश्च परिणताः परिगता वा ये ते तथा 'अणेगसाहप्पसाहविडिमा' अनेकशाखा प्रशाखो विटप:- तन्मध्यभागो वृक्षविस्तारो वा येषां ते तथा । 'अणेगनरवामसुष्पसारियअग्गेज्झघणविउ लव (बद्ध) खंधेत्ति अनेकाभिर्नश्यामाभिः सुप्रसारिताभिरग्राह्यो घनो- निविडो त्रिपुलो- विस्तीर्णो बद्धो जातः स्कन्धो येषां ते तथा, वाचनान्तरेऽत्र स्थानेऽधिकपदान्येवं दृश्यन्ते- 'पाईणपडिणाययसाला उदीणदाहिणविच्छिण्णा ओणयनयपणय विप्पहा इय ओलंब पलंबलंबसाहप्पसाहविडिमा अवाईणपत्ता अणुईण्णपत्ता' इति, अयमर्थ:-प्राचीनप्रतीचीनयोः- पूर्वापरदिशोरायता - दीर्घाः शाला:- शाखा येषां ते तथा, उदीचीन दक्षिणयोः- उत्तरयाम्ययोर्दिशोविंस्तीर्णाविष्कम्भवन्तो येषां ते तथा, अवनता-अधोमुखा नता-आनम्राः प्रणताश्च नन्तुं प्रवृत्ताः विप्रभाजिताश्च विशेषतो विभागवत्यः अवलम्बा- अधोमुखतया अवलम्बमानाः प्रलम्बाश्च-अतिदीर्घाः (लम्बाः) शाखाः प्रशाखाश्च यस्मिन् स तथाविधो चिटपो येषां ते तथा, अवाचीनपत्राः - अधोमुखपर्णाः अनुङ्गीर्णपत्रा :- वृत्ततया अबहिर्निर्गतपर्णाः । अथाधिकृतवाचनाऽनुश्रि (त्रि ) यते-'अच्छिदपत्ता' नीरन्ध्रपत्राः । 'अविरलपत्ता' निरन्तरदलाः । 'अवाईणपत्ता' अवाचीनपत्रा १ वृक्षावयवविशेषो वेति प्र० । Education Internation वनखंडस्य वर्णनं For Penal Use Only ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा तिकम् प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम अधोमुखपलाशाः, अवातीनपत्रा वा-अवातोपहतवर्हाः । 'अणईयपत्ता' ईतिविरहितच्छदाः । ' नियजरढपंडुपत्ता' वनपण्डा अपगतपुराणपाण्डुरपत्राः । 'णवहरियभिसंतपत्तभारंधकारगंभीरदरिसणिज्जा' नवेन हरितेन भिसंतत्ति-दीप्यमानेन पत्रMI भारेण-दलचयेनान्धकारा-अन्धकारवन्तः अत एव गम्भीराश्च दृश्यन्ते ये ते तथा । 'उवणिग्गयणवतरुणपत्तपल्लवको-1|| सू०३ मलजज्जलचलंतकिसलयसुकुमालपवालसोहियवरंकुरग्गसिहरा' उपनिर्गतैर्नवतरुणपत्रपल्लवैः-अत्यभिनवपत्रगुच्छः तथा| | कोमलोन्ज्वलचलभिः किशलयैः-पत्रविशेषैः तथा सुकुमारप्रयालैः शोभितानि वराङ्कराणि अप्रशिखराणि येषां ते तथा । इह च अरनवालपलवकिसलयपत्राणामल्पबहुबहुतरादिकालकृतावस्थाविशेषाद्विशेषः सम्भाव्यत इति । णिचं कुसुमिया' इत्यादि व्यक्तं, नवरं 'माइय'त्ति मयूरिताः 'लवइय'त्ति पल्लविताः 'थवइय'त्ति स्तवकवन्तः 'गुलइया' गुल्मवन्तः 'गोच्छिया जातगुच्छाः, यद्यपि च स्तबकगुच्छयोरविशेषो नामकोशेऽधीतस्तथाऽपीह पुष्पपत्रकृतो विशेषो भावनीयः, 'जमलिय'त्ति यमलतया-समश्रेणितया व्यवस्थिताः, 'जुबलिय'त्ति युगलतया स्थिताः, "विणमिय'त्ति विशेषेण फलपुष्पभारेण नताः, 'पणमिय'त्ति तथैव नन्तुमारब्धाः, प्रशब्दस्यादिकार्थत्वात् । णिचं कुसुमियमाझ्यलवइयथवइयगुल-10 इयगोच्छियजमलियजुवलियविणमियमुविभत्तपिडिमंजरिवर्डिसयधरति केचित् कुसुमितायेकैकगुणयुक्ताः अपरे तु समस्तगुणयुक्ताः, ततः कुसुमिताश्च ते इत्येवं कर्मधारयः, नवरं सुविभक्ताः-सुविविक्ताः सुनिष्पन्नतया पिण्च्यो-लुम्ब्यो मजयंश्च प्रतीतास्ता एव अवतंसकाः-शेखरकास्ता धारयन्ति येते तथा। 'सुयवरहिणमयणसालकोइलकोहंगकभिंगारककोंडलकजीवंजीवकनंदीमुहकविलपिंगलक्खकारंडचक्कवायकलहंससारसअणेगसउणगणमिहुणविरइयसढुण्णइयमहुरसर वनखंडस्य वर्णनं ~17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [3] मूलं [३...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) Education Internation वनखंडस्य वर्णनं जाइए शुकादीनां सारसान्तानामनेकेषां शकुनगणानां मिथनैर्विरचितं शब्दोन्नतिकं च-उन्नतिशब्दकं मधुरस्वरं च नादितं| लपितं यस्मिन् स तथा वनखण्ड इति प्रकृतम् । 'सुरम्मे' अतिशयरमणीयः । 'संपिंडियदरिय भमरमहुकरिपहकर परिलि| न्तमत्तछप्पय कुसुमा सवलोलमहुरगुमगुमंत गुंजत देस भागे' संपिण्डिताः दृप्तानां भ्रमरमधुकरीणां वनसत्कानामेव पहक| रचि- निकश यत्र स तथा परिलीयमाना- अन्यत आगत्य लयं यान्तो मत्तषट्पदाः कुसुमासवलोला:- किञ्जल्कलम्पटाः मधुरं गुमगुमायमानाः गुञ्जन्तश्च-शब्दविशेषं विदधानाः देशभागेषु यस्य स तथा ततः कर्म्मधारयः । 'अब्भन्तरपुष्कफले बाहिरपत्तोच्छण्णे पत्तेहि य पुष्फेहि य उच्छण्णपडिवलिच्छपणे' अत्यन्तमाच्छादित इत्यर्थः, एतानि त्रीण्यपि क्वचि| वृक्षाणां विशेषणानि दृश्यन्ते - 'साउफले' त्ति मिष्टफलः, 'निरोयए'त्ति रोगवर्जितः, 'अकण्टक' इति । क्वचित् 'णाणाविह गुच्छगुम्ममंडवगरम्मसोहिए सि तत्र गुच्छा-वृन्ताक्यादयो गुल्मा-नवमालिकादयो मण्डपका - लतामण्डपादयः 'रम्मे'त्ति कचिन्न दृश्यते । 'विचित्तसुहके भूए' विचित्रान् शुभान् केतून् ध्वजान् भूतः - प्राप्तः । 'विचित्तसुहसेज केडबहुले' त्ति पाठान्तरं तत्र विचित्राः शुभाः सेतवः - पालिबन्धा यत्र केतुबहुलश्च यः स तथा । 'वावीपुक्खरिणीदीहियासु य सुनिवेसियरम्मजालहरए' वापीषु चतुरस्रासु पुष्करिणीषु वृत्तासु पुष्करवतीषु वा दीर्घकासु च ऋजुसारणीषु सुष्ठु निवेशितानि रम्याणि जालगृहकाणि यत्र स तथा । पिंडिमणी हारिमसुगंधि हसुरभिमणहरं च महया गंधद्धणिं मुयंता णाणाविहगुच्छ गुम्म मंडवकघर कसु For Penal Use Only ~18~ www.andrary or Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा तिकम् प्रत सूत्रांक ॥८॥ दीप अनुक्रम हसेउकेउपहला अणेगरहजाणजुग्गसिबियपविमोयणा सुरम्मा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा (सू०३) | "पिंडिमणीहारिमसुगंधिसुहसुरभिमणहरं च महया गंधद्धणि मुयंता' पिण्डिमनिहारिमां-पुललसमूहरूपां दूरदेशगा- | | मिनी च सुगन्धि च-सद्गन्धिको शुभसुरभिभ्यो गन्धान्तरेभ्यः सकाशान्मनोहरा या सा तथा तां च, महता मोचनप्रकारेण विभक्तिव्यत्ययान्महती वा गन्ध एव भ्राणिहेतुत्वात्तृप्तिकारित्वाद्गन्धधाणिस्तां मुञ्चन्त इति वृक्षविशेषणम् । एवमितोऽन्यान्यपि 'णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवकघरकसुहसे उकेउबहुला' नानाविधा गुच्छाः गुल्मानि मण्डपका गृहकाणि च येषां सन्ति ते तथा, तथा शुभाः सेतवो-मार्गा आलवालपाल्यो वा केतवो-ध्वजा बहुला-बहवो येषां ते तथा, ततः कर्मधारयः । 'अणेगरहजाणजुग्गसिवियपविमोयणा' अनेकेषां रथादीनामधोऽतिविस्तीर्णत्वात् प्रविमोचनं येषु ते तथा । 'सु-13 रम्मा पासाझ्या दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूव'त्ति एतान्येव वृक्षविशेषणानि बनखण्डविशेषणतयावाचनान्तरेऽधीतानि॥शा तम्स णं वणसंडस्स बहुमझदेसभाए एत्थ णं महं एके असोगवरपायवे पण्णत्ते, कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूले मूलमंते कंदमते जाव पविमोयणे सुरम्मे पासादीए दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवे 'तस्स ण वणसंडस्से'त्यादौ अशोकपादपवर्णके क्वचिदिदमधिकमधीयते-दूरोवगयकंदमूलवट्टलहसंठियसिलिघणम-II ४ासिणणिद्धसुजायनिरुवहउविद्धपवरखंधी' दूरोपगतानि-अत्यर्थे भूम्यामवगाहानि कन्दमूलानि-प्रतीतानि यस्य स तथा, REnama वनखंडस्य वर्णनं, अशोकवृक्षस्य वर्णनं ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [४] मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) वृत्तो- वर्तुलो, लष्टो मनोज्ञः संस्थितो विशिष्टसंस्थानः, श्लिष्टः सङ्गतो, घनो- निविडो, मसृणः-अपरुषः, स्निग्धः - अरुक्षः, सुजातः-सुजन्मा, निरुपहतो-विकारविरहित, उषिद्धः अत्यर्थमुच्चः, प्रवरः-प्रधानः, स्कन्धः-स्थुडं यस्य स तथा, इन्प्रत्ययश्च समासान्तः । 'अणेगनरपवर भुयागेज्झो' अनेकनराणां प्रवरभुजेः- प्रलम्बबाहुभिर्वामाभिरित्यर्थः, अग्राह्यः - अनाश्लेष्यो यः स तथा, 'कुसुमभर समोनमंतपत्तल विसालसालो' कुसुमभरेण समवनमन्त्यः पत्रलाः- पत्रवत्यः विशालाः शाला यस्य स तथा । 'महुकरिभ्रमरगणगुमगुमाइयनिलिंतउडितसस्सिरीए' मधुकरी भ्रमरगणेन-लोकरूढिगम्येन, 'गुमगुमाइन्त'त्ति कृतगुमगुमेतिशब्देन, नीलीयमानेन - निविशमानेन, उड्डीयमानेन च उत्पतता सश्रीकः सशोभो यः स तथा 'णाणासउणगणमिहुणसुमहुरकण्णसुहपलत्तसमहुरे' नानाविधानां शकुनिगणानां यानि मिथुनानि तेषां सुमधुरः कर्ण सुखश्च यः प्रप्तशब्दस्तेन मधुर इव मधुरो मनोज्ञो यः स तथा । अथाधिकृतवाचना- 'कुस बिकुसविसुद्ध रुक्खमूले' कुशा-दर्भाः विकुशा-वल्व (ल) जादयस्तैर्विशुद्धं विरहितं वृक्षानुरूपं वृक्षविस्तर प्रमाणमित्यर्थो मूलं- समीपं यस्य तथा । 'मूलमंते' इत्यादिविशेषणानि पूर्ववद्वाच्यानि यावत् पडिवे ॥ सेणं असोगवरपायवे अण्णेहिं बहूहिं तिलएहिं लउहिँ छत्तोवेहिं सिरीसेहिं सत्तवण्णेहिं दहिवपणेहिं लोकहिं धवेहिं चंदणेहिं अजुणेहिं णीवेहिं कुडएहिं सव्वेहिं फणसेहिं दाडिमेहिं सालहिं तालेोहं तमालेहिं पियएहिं पियंमूहिं पुरोवगेहिं रायरुक्खेहिं मंदिरुखखेहिं सब समता संपरिखिते, ते णं तिलया लवइया जाव णंदिरुक्खा कुसविक सविसुद्धरुक्खमूला मूलमंतो कंदमंतो एएासं वण्णओ Education Internation अशोकवृक्षस्य वर्णनं For Parts Only ~20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा तिकम् प्रत सूत्रांक ९॥ दीप अनुक्रम भाणियचो जाव सिबियपविमोवणा सुरम्मा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, ते णं तिलया अशोवृक० जाव णंदिरुक्खा अण्णेहिं पहर्हि पउमलयाहि णागलयाहिं असोअलयाहिं चंपगलयाहिं चूयलयाहिं वण-|| सु०४ लियाहि वासंतियलयाहिं अइमुत्तयलयाहिं कुंदलयाहिं सामलयाहिं सचओ समंता संपरिखिसा, ताओ णं 81 पउमलयाओ णिचं कुसुमियाओ जाव वडिंसयधरीओ पासादीयाओ दरिसणिजाओ अभिरूवाओद पडिस्वाओ ॥ (सू०४) Pal सोऽशोकबरपादपः अन्यैर्बहुभिस्तिलकैलकुचैइछत्रोपैः शिरीषैः सप्तपण:-अयुक्छदपर्यायैरयुक्पत्रनामकः दधिपणैः | लो]ः धवैः चन्दनैः-मलयजपर्यायैरर्जुनैः ककुरापर्यायैः नीपैः कदम्बैः कुटजैः-गिरिमल्लिकापर्यायैः सव्यः पनसैर्दाडिमैः | शालैः-सर्जपर्यायस्तालैः-तृणराजपर्यायैः तमालैः प्रियकैः-असनपर्यायैः प्रियङ्गुभिः-श्यामपर्यायैः पुरोपगैः राजवृक्षः नन्दिFoll वृक्ष-रूदिगम्यः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्त इत्यादि सुगममापद्मलताशब्दादिति । 'पउमलयाहि ति पद्मलताः-स्थलकम लिन्यः पद्मकाभिधानवृक्षलता वा, नागादयो वृक्षविशेषास्तेषां लता:-तनुकास्त एव, स्त्राशोका-कोली चूतः-सहकारः वन:पीलुकः, वासन्तीलता अतिमुक्तकलताश्च यद्यप्येकार्थी नामकोशेऽधीतास्तथाऽपीह भेदो रूढितोऽवसेयः, श्यामा-प्रियङ्गः । का शेषलता रूदिगम्याः, इह लतावणेकानन्तरमशोकवर्णकं पुस्तकान्तरे इदमधिकमधीयते-'तस्स णं असोगवरपायवरस उवरि ॥९ बहवे अडअट्ठमंगलगा पण्णत्ता' अष्टावष्टाविति वीप्साकरणात्प्रत्येकं तेऽष्टावित्ति वृद्धा, अन्ये त्वष्टाविति सझ्या, अष्टमङ्गलका-15 नीतिं च संज्ञा । 'तंजहा-सोवस्थिय १ सिरिवच्छ २ नंदियाक्त्त ३ वद्धमाणग ४ भद्दासण ५ कलस ६ मच्छ ७ अशोकवृक्षस्य वर्णनं ~214 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम || दप्पणा 4, तत्र श्रीवत्स-तीर्थकरहृदयावयवविशेषाकारो, नन्द्यावर्तः-प्रतिदिनवकोणः स्वस्तिकविशेषो रूदिगम्यो, पर्द्धमानक-शरावं, पुरुषारूढः पुरुष इत्यन्ये, भद्रासनं-सिंहासनं, दर्पणः-आदर्शः, शेषाणि प्रतीतानि । 'सवरयणामया' 'अच्छाः' स्वच्छाः आकाशस्फटिकवत्, 'सण्हा' श्लक्ष्णा:-श्लक्ष्णपुद्गलनिवृत्तत्वात् , 'मण्हा' महणाः, 'पठ्ठा' पृष्टा इव || घृष्टा खरशानया प्रतिमेव 'मट्ठा' मृष्टाः सुकुमारशानया प्रतिमेव प्रमार्जनिकयेव वा शोधिताः, अत एव 'निरया' नीर-1 | जसः रजोरहिताः 'निर्मला:' कठिनमलरहिताः 'निप्पंका' आर्द्रमलरहिताः 'निकंकडच्छाया' निरावरणदीप्तयः 'सप्पहा सप्रभाः 'समिरीया' सकिरणाः 'सउज्जोया प्रत्यासन्नवस्तुद्योतकाः 'पासादीया ४ । 'तस्स णं असोगवरपायवस्स उवरि वहवे 'किण्हचामरज्झया' कृष्णवर्णचामरयुक्तध्वजाः 'नीलचामरज्झया लोहियचामरज्झया सुकिल्लचामरज्झया हालिद्दचामरझया अच्छा सण्हा' 'रुप्पपट्टा रौप्यमयपताकापटाः 'वइरामयदंडा' वनदण्डाः 'जलयामलगंधिया' पद्मवत् निर्दो-3 पगन्धाः 'सुरम्मा पासादीया' 'तस्स णं असोगवरपायवस्स' 'उवरि' उपरिष्टात् 'वहवे' 'छत्ताइच्छत्ता' उपर्युपरिस्थिताss-14 तपत्राणि 'पडागाइपडाया' पताकोपरिस्थितपताकाः 'घण्टाजुयला चामरजुयला' 'उप्पलहत्थगा' नीलोत्पलकलापाः 'पउका महत्थगा' पद्मानि रविवोध्यानि 'कुमुयहत्थगा' कुमुदानि चन्द्रवोध्यानीति, 'कुसुमहत्थय'त्ति पाठान्तरं 'नलिणहत्थगा सुभ-| गहथगा सोगंधियहत्वगा' नलिनादयः पद्मविशेषा रूढिगम्याः, 'पुंडरीयहस्थया' पुण्डरीकाणि-सितपद्मानि 'महापुंडरीयहत्या' महापुण्डरीकाणि तान्येव महान्ति 'सयपत्तहत्था सहस्सपत्तहत्था सघरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ४॥४॥ तस्स णं असोगवरपायवस्स हेट्ठा ईसिं खंधसमल्लीणे एस्थ णं महं पक्के पुढविसिलापट्टए पपणत्ते, विक्खं-10 airmanasurary.org अशोकवृक्षस्य वर्णनं, पृथ्वीशीलापट्टकस्य वर्णनं ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: आपपा तिकम् प्रत ॥१०॥ सूत्रांक दीप अनुक्रम भायामउस्सेहसुप्पमाणे किण्हे अंजणघणकिवाणकुवलयहलधरकोसेज्जागासकेसकज्जलंगीखंजणसिंगभेदरि-1 यजंबूफलअसणकसणबंधणणीलुप्पलपत्तनिकरअयसिकुसुमप्पगासे मरकतमसारकलित्तणयणकीयरासिवण्णे णिद्धघणे अट्ठसिरे आर्यसयतलोवमे सुरम्मे ईहामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभ-18|| चमरकुंजरचणलयपउमलयभत्तिचित्ते आईणगरूयबूरणवणीततूलफरिसे सीहासणसंठिए पासादीए दरिस|णिज्जे अभिरूवे पडिरूवे ॥ (सू०५) __ अथाधिकृतवाचनाऽऽनि(नि) यते ईसिं खंध समल्लीणे' मनाक् स्कन्धासन्न इत्यर्थः । 'एस्थ णं मह एके इत्यत्र एत्थ णंति शब्दः अशोकवरपादपस्य यदधोऽवेत्येवं सम्बन्धनीयः। 'विक्खंभायामजस्सेहसुप्पमाणे' विष्कम्भा-पृथुत्वम् , आयामो-दैय॑म् , उत्सेध उच्चत्वमेषु सुप्रमाण-उचितप्रमाणो यः स तथा । 'किण्हे'त्ति कालः, अत एव 'अंजणकवाणकुवलयहलधरकोसेज्जागासकेसकजलंगीखंजणसिंगभेदरिष्ठयजंबूफलअसणकसणबंधणनीलुप्पलपत्तनिकरअयसिकुसुमप्पगासे'नील इत्यर्थः, तत्र अञ्जनको बनस्पतिविशेषः हलधरकोसेज-बलदेववस्त्रं कज्जलाङ्गी-कज्जलगृहं शृङ्गभेद-महिषादिविषाणच्छेदः रिष्ठक-रतम् अशनको-बीयकाभिधानो बनस्पतिः सनबन्धन-सनपुष्पवृन्तं । 'मरकयमसारकलित्तणयणकीयरासिवण्णे' मरकत-रनं मसारो-महणीकारकः पापाणविशेषः, स चात्र कषपट्टः सम्भाव्यते, कलित्तंति-कटिनं कृत्तिविशेषः नयनकीका-नेत्रमध्यतारा तद्राशिवर्णः काल इत्यर्थः । 'णिद्धघणे स्निग्धघनः 'असिरे' अष्टशिरा: अष्टकोण इत्यर्थः। 'आयसयतलोवमे सुरम्मे ईहामियउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउ ॥१०॥ पृथ्वीशीलापट्टकस्य वर्णनं ~23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप मलयभत्तिचित्ते ईहामृगाः-वृकाः व्यालकाः-वापदभुजगाः । 'आईणगरूयबूरणवणीयतूलफरिसे' आजिनक-चर्ममयवस्त्रं रूत-प्रतीतं बूरो-वनस्पतिविशेषः तूलम्-अर्कतूलं सीहासणसंठिए-सिंहासनाकारः, पासादीए जाव पडिरूवेत्ति ॥ वाचनान्तरे पुनः शिलापट्टकवर्णकः किश्चिदन्यथा दृश्यते, स च संस्कृत्यैव लिख्यते-अञ्जनकधनकुवलयहलधरकोशे यकैः सदृशः, घनो मेघ इत्यर्थः, आकाशकेशकजलकर्केतनेन्द्रनीलातसीकुसुमप्रकाशः, कर्केतनेन्द्रनीले रलविशेषौ, भृङ्गाहै अनशृङ्गभेदरिष्ठकनीलगुलिकागवलातिरेकभ्रमरनिकुरुम्बभूतः' भृङ्गः-कीटविशेषोऽङ्गारविशेषो वा अञ्जन-सौवीराजनं Fol शृङ्गभेदो-विषाणच्छेदो विषाणविशेषो बा, रिष्ठः-काकः फलविशेषो वा, अथवाऽरिष्ठनीले रजविशेषौ गुलिका-वर्णद्रव्य विशेषो गवलं-महिपशुङ्गम् , एतेभ्योऽतिरेको नीलतयाऽतिरेकवान् यः स तथा, स चासी भ्रमरनिकुरुम्बभूतश्चेति कर्म-1 |धारयः, निकुरुम्बः-समूहा, जम्बूफलासनकुसुमबन्धननीलोत्पलपत्रनिकरमरकताशासकनयनकीकाराशिवर्णः' आशास को-वृक्षविशेषः । स्निग्धो-धनोऽत एवाशुपिरः, 'रूपकप्रतिरूपदर्शनीयः' रूपकैः प्रतिरूपो-रूपवान् अत एव दर्शनीयश्च-10 प्रदर्शनयोग्यो यः स तथा, मुक्काजालखचितान्तकर्मा-मुक्काजालकपरिंगतप्रान्त इत्यर्थः ॥५॥ तत्थ णं चंपाए णयरीए कूणिए णाम राया परिवसइ, महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे अच्चंतविसुद्धदीहरायकुलवंशसुप्पसए णिरंतर रायलक्खणविराइअंगमंगे बहजणबहमाणे पूजिए सव्वगुणसमिडे ख-| ४||त्तिए मुइए मुद्धाहिसित्ते माउपिउसुजाए दयपत्ते सीमकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरेमणुस्सिदे जणचयपियाज णवयपाले जणवयपुरोहिए सेउकरे केउकरे णरपवरे पुरिसवरे पुरिससीहे पुरिसवग्घे पुरिसासीविसे पुरिसपुंड अनुक्रम पृथ्वीशीलापट्टकस्य वर्णनं, कोणिकराज्ञस्य वर्णनं ~ 24 ~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औषपा. तिकमा प्रत सू. ६ सूत्रांक ॥११॥ दीप pl परिसवरगंधहत्थी हे दित्ते वित्त विकिपणविउलभवणसपणासणजाणवाहणाइपणे बहुधणबहुजाय- कोणिका | स्वरयते आओगपओगसंपउत्ते विच्छडिअपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूते पडिपुण्णज-18 तकोसकोडागाराउधागारे बलवं दुब्बलपञ्चामित्ते ओहयकंटयं निहयकंटयं मलिअर्फटयं उद्धियकंटयं अकंटयं ओहयसत्तुं निहयसत्तुं मलियसत्तुं उद्धिअसत्तुं निजियसत्तुं पराइअसत्तुं वधगयदृम्भिक्खं मारिभयविष्पमुक्कं । खेम सिर्व सुभिक्ख पसंतडिंबडमरं रज पसासेमाणे विहरइ ।। (सू०६) राजवर्णके लिख्यते-'महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे' महाहिमवानिव महान् शेपराजपर्वतापेक्षया, तथा मलयः-पर्वतविशेषो मन्दरो-मेरुः महेन्द्रः-पर्वतविशेषः शक्रो वा, तद्वत्सार:-प्रधानो यः स तथा । 'अञ्चन्तविसुद्धदीहरायकुलवंससुष्पसूए' अत्यन्तविशुद्धो-निर्दोषो दीर्घः-चिरकालीनो यो राज्ञां कुलरूपो वंशस्तत्र सुष्टु प्रसूतो यः स तथा। 'णिरंतरं रायलक्खणविराइयंगमंगे' राजलक्षणैः स्वस्तिकादिभिः विराजितमङ्गमङ्गं-गात्रं यस्य स तथा, मकारस्तु । प्राकृत शैलीप्रभवः । 'मुइए'त्ति मुदितः प्रमोदवान् , अथवा निर्दोषमातृको, यदाह-"मुइओ जो होइ जोणिसुद्धोति । 'मुद्धाहिसित्ते'त्ति पितृपितामहादिभिः राजभिर्वा यो राज्येऽभिषिक्तः । 'माउपिउसुजाए'त्ति पित्रोविनीततया सत्पुत्रः। 'दयपत्ते'त्ति प्राप्तकरुणागुणः । 'सीमंकरे'त्ति सीमाकारी, मर्यादाकारीत्यर्थः । 'सीमंधरे'त्ति कृतमर्यादापालकः। एवं 'खेमकरे खेमंधरे'त्ति क्षेमं पुनरनुपद्रवता । 'मणुस्सिदे'त्ति मनुजेषु परमेश्वरत्वात् । 'जणवयपिय'त्ति जनपदानां पितेव १ मुदितो यो भवति योनिशुद्ध इति । अनुक्रम [६] ॥११॥ JMERural कोणिकराज्ञस्य वर्णन ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [६] दीप अनुक्रम [६] मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) हितत्वात् । 'जणवयपाले 'ति तद्रक्षकत्वात् । 'जणवयपुरोहिए' ति जनपदस्य शान्तिकरत्वात् । 'सेडकरे 'ति मार्गदर्शक इत्यर्थः । 'केउकरे 'ति अद्भुत कार्यकारित्वेन चिह्नकारी । 'गरपवरे'त्ति नराः प्रवरा अस्येतिकृत्वा । 'पुरिसवरे'त्ति पुरुषाणां मध्ये प्रधानत्वात् । 'पुरिससीहे'त्ति क्रूरत्वात् । 'पुरिसवग्धे त्ति रोपे सति रौद्ररूपत्वात् । 'पुरिसासीविसेति पुरुषश्चासावाशीविषश्च पुरुषाशीविषः, आशीविषश्च सर्पः, कोपसाफल्यकरणसामर्थ्यात् । 'पुरिसपुंडरीएत्ति सुखार्थिनां सेव्यत्वात्, पुण्डरीकं च सितपद्मं । 'पुरिसवरगंधहत्थी' प्रतिराजगजभञ्जकत्वात् । 'अ'ति समृद्धः 'दित्ते'त्ति दृष्ठो दर्पवान् 'वित्ते' त्ति | प्रसिद्धः । 'विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे'त्ति विस्तीर्णानि - विस्तारवन्ति विपुलानि प्रभूतानि भवनशयनासनानि प्रतीतानि यस्य स तथा, यानवाहनानि - रथाश्वादीनि, आकीर्णानि - गुणाकीर्णानि यस्य स तथा, ततः कर्मभारयः, अथवा विस्तीर्णविपुलभवनानि शयनासनयानवाहनाकीर्णानि यस्य: तथा । 'बहुधण बहुजायस्वरयते' बहु-प्रभूतं धनं-गणिमादिकं बहुनी च जातरूपरजते - सुवर्णरौप्ये यस्य स तथा । 'आओगपओग संपउत्ते' आयोगस्य - अर्थलाभस्य प्रयोगा- उपायाः सम्प्रयुक्ताः - व्यापारिता येन तेषु वा सम्प्रयुक्तो - व्यापृतो यः स तथा । 'विच्डड्डियपउरभत्तपाणे' विच्छर्दिते-त्य के बहुजनभोजनदानेनाविशिष्टोच्छिष्ट सम्भवात् सञ्जातविच्छद्दे वा नानाविधे प्रचुरे भक्तपाने- भोजनपानीये यस्य स तथा । 'बहुदासी दासगोमहिसग बेलगप्पभूए' बहवो दासीदासा गोमहिपगवेलकाश्च प्रभूता यस्य स तथा, गवेलका-उरभ्राः । 'पडिपुण्णजंतकोसकोठागाराउधागारे' प्रतिपूर्णानि यन्त्राणि च पाषाणक्षेपयन्त्रादीनि कोशो-भाण्डा| गारः कोष्ठागारश्च - धान्यगृहं आयुधागारश्च-प्रहरणशाला यस्य स तथा । 'बलवंत प्रभूतसैन्यः । 'दुम्बलपचामित्ते' Education Internation कोणिकराज्ञस्य वर्णनं For Parts Only ~26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [६] दीप अनुक्रम [६] औपपातिम् ॥ १२ ॥ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः *6*444% “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) सु० ७ दुर्बलाः प्रत्यमित्राः प्रातिवेश्मिकनृपा यस्य स तथा । 'ओहयकंटर्य'ति उपहता-विनाशिताः कण्टका:- प्रतिस्पर्द्धिगोत्रजा १ धारिणी० | यत्र राज्ये तत्तथा क्रियाया वा विशेषणमेतत् एवमन्यान्यपि, नवरं निहताः - कृतसमृद्ध्यपहाराः, मलिताः - कृतमानभङ्गाः, उद्धृता- देशान्निर्वासिताः, अत एवाविद्यमाना इति । तथा शत्रवः- अगोत्रजाः निर्जिताः-स्वसौन्दर्यातिशयेन परिभूताः, पराजितास्तु तद्विधराज्योपार्जने कृतसम्भावनाभङ्गाः, 'ववगयदुभिखं मारिभयविप्पमुक' मिति व्यक्तम् । 'पसंतडिंबडमरं 'ति डिम्बा:-विनाः उमराणि - राजकुमारादिकृतवैराज्यादीनि, 'पसंताहियडमरं 'त्ति कचित्पाठः, तत्राहितडमरंशत्रुकृतविरोऽधिकविङ्गरो वा । 'रज्जं पसासेमाणे'त्ति प्रशासयन् पालयन् 'पसाहेमाणे त्ति क्वचित्पाठः, तत्राप्ययमेवार्थः, 'विहरति वर्तते ॥ ६ ॥ तस्स णं कोणियtस रण्णो धारिणी नामं देवी होज्जा, सुकुमालपाणिपाया अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरा लक्खणर्वजणगुणोववेआ माणुम्माणष्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंग सुंदरंगी ससिसोमाकारकंतपियदंसणा | सुख्वा करयल परिमिअपसत्थतिवलियवलियमज्झा कुंडलुल्लिहिअमंडलेहा कोमुहरयणियर विमलपडिपुण्ण| सोमवयणा सिंगारागारचारुवेसा संगयगयहसिअभणिअविहिअविलाससललिअसंलावणिउणजुत्तोवयारकु|सला पासादीआ दरिसणिजा अभिरुवा पडिरुवा, कोणिएणं रण्णा भंभसारपुत्तेणं सद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता इट्ठे सद्दफरिसर सरूवगंधे पंचविहे माणुस्सर कामभोए पचणुन्भवमाणी विहरति ॥ (सू०७) शशीवर्णके लिख्यते- 'अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरा' क्वचित्तु 'अहीणपुण्णपंचिंदियसरी ' अहीनानि - अन्यूनानि Education Internation कोणिकराज्ञस्य वर्णनं, धारिणीराज्ञ्यः वर्णनं For Parts Only ~ 27 ~ ॥ १२ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम लक्षणतः, पूर्णानि स्वरूपतः, पुण्यानि वा-पवित्राणि पञ्चापीन्द्रियाणि यत्र तत्तथाविधं शरीरं यस्याः सा तथा । 'लक्खणवंजणगुणोववेया' लक्षणानि-स्वस्तिकचक्रादीनि व्यञ्जनानि-मपीतिलकादीनि तेषां यो गुणः-प्रशस्तत्वं तेनोपपेता-युक्ता या सा तथा । 'माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसवंगसुंदरंगी' तत्र मान-जलद्रोणप्रमाणता, कथम् ?-जलस्यातिभृते कुण्डे प्रमातव्यमानुपे निवेशिते यज्जलं निस्सरति तद्यदि द्रोणमानं स्यात्तदा तन्मानुपं मानप्राप्तमुच्यते, तथा उन्मानम्अर्द्धभारप्रमाणता, कथम् , तुलारोपितं मानुष यद्यर्द्धभारं तुलति तदा तदुन्मानप्राप्तमित्युच्यते, प्रमाणं तु-स्वाङ्गुलेनाष्टोत्तरशतोच्छ्यता, ततश्च मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि-अन्यूनानि सुजातानि-सुनिष्पन्नानि सर्वाण्यङ्गानि-शिरःप्रभृतीनि यत्र तत्सथाविधं सुन्दरमङ्ग-शरीरं यस्याः सा तथा । 'ससीसोमाकारकतपीयदसणा' शशिवत्सीम्याकार-कान्तं च-कमहनीयमत एव च प्रियं-बलभ द्रष्टणां दर्शन-रूपं यस्याः सा तथा । अत एव 'सुरूव'त्ति शोभनरूपा । 'करयलपरिमिअ पसत्थतिवलियवलियमझा' करतलपरिमितो-मुष्टिग्राह्यः प्रशस्तः-शुभत्रिवलिको चलित्रययुक्तो चलितः-सञ्जातवलिमध्यो-मध्यभागो यस्याः सा तथा । 'कुंडलुल्लिहियगडलेहा' कुण्डलाभ्यामुल्लिखिता गण्डलेखाः कपोलपत्रवल्यो यस्याः द सा तथा, 'कुण्डलोल्लिखितपीनगण्डलेखेति पाठान्तरं, व्यक्तं च । 'कोमुइरयणियरविमलपडिपुण्णसोमवयणा' कौमुदी चन्द्रिका कार्तिकी वा तत्प्रधानस्तस्यां वा यो रजनीकर:-चन्द्रस्तद्वद्विमलं प्रतिपूर्ण सौम्यं च वदनं यस्याः सा तथा । 'सिंगारागारचारुवेसा' शृङ्गारस्य-रसविशेषस्यागारमिव-स्थानमिव चारु:-शोभनो वेपो-नेपथ्यं यस्याः सा तथा, अथवा || लशृङ्गारो-मण्डनभूषणाटोपस्तत्प्रधानः आकार:-संस्थानं चारुश्च वेपो यस्याः सा तथा । 'संगयगयहसियभणियविहियवि AREarathinintimational धारिणीराज्य: वर्णनं ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपातिकम् प्रत सूत्रांक ॥१३॥ दीप अनुक्रम लाससललियसलावणिउणजुत्तोवयारकुसला' सङ्गता-उचिता गतहसितभणितविहितविलासा यस्याः सा तथा, तत्रधारिणीव |विहित-चेष्टितं विलासो-नेत्रचेष्टा, तथा सह ललितेन-प्रसन्नतया ये संलापा:-परस्परभाषणलक्षणास्तेषु निपुणा या सा तथा, तथा युक्ताः-सङ्गता ये उपचारा-लोकव्यवहारास्तेषु कुशला या सा तथा, ततः पदत्रयस्थ कर्मधारयः, कचिदिदमन्यथा दृश्यते-'सुंदरथणजघणवयणकरचरणनयणलावण्णविलासकलिया' व्यक्तमेव, नवरं जघनं-पूर्वकटीभागः लावण्यम्आकारस्य स्पृहणीयता विलासः-स्त्रीणां चेष्टाविशेषः, आह च-"स्थानासनगमनानां हस्तधूनेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टः स विलासः स्यात् ॥ १॥" इति । तथा 'कोणिपणं रण्णा सद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता इठे सदफरिसरसरूवगंधे पंचविहए माणुस्सए कामभोए पञ्चणुब्भवमाणी विहरति' व्यक्तमेव, नवरं अनुरक्ता-अविरक्का, अनुरज्य न | विप्रियेऽपि विरक्ततां गतेत्यर्थः ॥७॥ तस्स णं कोणिअस्स रण्णो एके पुरिसे विउलकयवित्तिए भगवओ पवित्तिवाउए भगवओ तदेवसि पविति णिवेएइ, तस्स णं पुरिसस्स बहवे अण्णे पुरिसा दिण्णभतिभत्तवेअणा भगवओ पवित्तिवाउआ भगवओ तद्देवसियं पवित्तिं णिवेदेति ॥ (सू०८)॥ 'तस्स ण' मित्यादी 'विउलकयवित्तिए'त्ति विहितप्रभूतजीविक इत्यर्थः, वृत्तिप्रमाणं चेदम्-अर्द्धत्रयोदशरजतसहस्राणि, यदाह-मंडलियाण सहस्सा पीईदाणं सयसहस्सा" । 'पवित्तिवाउए'त्ति प्रवृत्तिव्यापूतो-बार्ताव्यापारवान्, वार्तानिवेदक १ माण्डलिकानां सहस्राणि प्रीतिदानं शतसहस्राणि (आगमने)। NAGAR | धारिणीराज्य: वर्णनं, ~29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: CKS प्रत सूत्रांक A दीप अनुक्रम इत्यर्थः । तद्देवसिति दिवसे भवा दैवसिकी सा चासौ विवक्षिता-अमुत्र नगरादावागतो विहरति भगवानित्यादि-|| रूपा, दैवसिकी चेति तदेवसिकी, अतस्तां निवेदयति । 'तस्स णमित्यादि तत्र 'दिण्णभतिभत्तवेयण'त्ति दत्तं भृतिभक्तरूपं | वेतनं-मूल्यं येषां ते तथा, तत्र भृतिः-कार्षापणादिका भक्तं च-भोजनमिति ॥८॥ | तेणं कालेणं तेणं समएणं कोणिए राया भंभसारपुत्ते बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए अणेगगणनायगदंडनायगराईसरतलबरमाइंबिअकोडंबिअमंतिमहामंतिगणगदोवारिअअमचचेडपीढमदनगरनिगमसेहिसेणाव|| इसस्थवाहदूतसंधिवाल सर्दि संपरिबुडे विहरह ।। (सू०९)॥ 'भभसारपुत्ते'त्ति श्रेणिकराजसूनुः । 'अणेगगणे त्यादि, अनेके ये गणनायका:-प्रकृतिमहत्तराः, दण्डनायका:-तन्त्रपालाः राजानो-मण्डलिका ईश्वरा-युवराजाः, मतान्तरेणाणिमाद्यैश्वर्ययुक्ताः, तलवरा:-परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धविभूषिताःराजस्थानीयाः, 'भाडंबिया' छिन्नमडम्बाधिपाः, 'कोडंबिया' कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः मन्त्रिणः प्रतीताः, महामन्त्रिणो-मन्त्रिमण्डलप्रधानाः, हस्तिसाधनोपरिका इति वृद्धाः, गणका-ज्योतिषिकाः, भाण्डागारिका इति वृद्धाः, दौवारिका:-प्रतीहाराः राजदौवारिका वा, अमात्या-राज्याधिष्ठायकाः, चेटा:-पादमूलिकाः, पीठमर्दाः-आस्थाने आसनासन्नसेवकाः, वयस्या इत्यर्थः, नगर-नगरवासिप्रकृतयः, निगमाः-कारणिकाः वणिजो वा, श्रेष्ठिनः-श्रीदेवताध्यासि-18 ॥ तसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गाः, सेनापतयो नृपतिनिरूपितचतुरङ्गसैन्यनायकाः, सार्थवाहाः-सार्थवाहकाः, दूता-अन्येषां RSSORRORESTOST 1८1 EXASSACR ~30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: तिक प्रत सूत्रांक ॥ १४ ॥ | [१) * राजादेशनिवेदकाः, सन्धिपाला:-राज्यसन्धिरक्षकाः, एषां द्वन्द्वस्ततस्तैः, इह तृतीयाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः, 'सद्धिं ति सार्द्ध सहेत्यर्थः, न केवलं तत्सहितत्वमेव, अपि तु तैः समिति-समन्तात्परिवृतः परिकरित इति ॥९॥ सू०९ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तिस्थगरे सहसंबुद्धे पुरिमुत्तमे पुरिससीहे पुरिसवरपुंडरीए पुरिसवरगंधहत्धी अभयदए चक्खुदए मग्गदए सरणदए जीवदए दीवो ताणं सरणं गई पइहा चम्मवरचाउरंतचकवही अप्पडिहयवरनाणदसणधरे विअच्छउमे जिणे जाणए तिण्णे तारए मुत्ते | मोयए बुद्धे बोहए सवण्णू सम्बदरिसी सिवमयलमरुअमणतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तिों सिडिगइ णामधेयं ठाणं संपाविउकामे अरहा जिणे केवली सत्तहत्थूस्सेहे समचरंससंठाणसंठिए बजरिसहनाराय|| संघपणे अणुलोमवाउवेगे कंकग्गहणी कवोयपरिणामे सउणिपोसपिटुतरोरुपरिणए महावीरवर्णके लिख्यते-'श्रमणो महातपस्वी नामान्तरं वा इदमन्तिमजिनस्य 'भगवान्' समप्रैश्वर्यादियुक्तः 'महावीरो' देवादिकृतोपसर्गादिष्वचलितसत्त्वतया देवप्रतिष्ठितनामा, 'आदिकरः' आदी प्रथमतया श्रुतधर्मस्य करणशीलत्वात, 'तीर्थङ्करः' सहकरणशीलत्वात् 'सहसम्बुद्धः' स्वयमेव सम्यग्बोद्धव्यस्य बोधात् , कुत एतदित्याहयतः 'पुरुषोत्तमः' तथाविधातिशयसम्बन्धेन पुरुषप्रधाना, उत्तमत्वमेवोपमात्रयेणाह-'पुरुषसिंहा' शीयोतिशयात् || १४॥ |'पुरुषवरपुण्डरीकः' पुरुष एव बरपुण्डरीकम्-धवलपद्मं पुरुषवरपुण्डरीक, धवलता चास्थ सर्वांशुभमलीमसरहि-31 १ सयं प्र०। दीप अनुक्रम 8 | भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [१०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०] दीप तत्वात् , एवं 'पुरुषवरगंधहस्ती' गन्धहस्तिता चास्य सामान्यगजकल्पपरचक्रदुर्भिक्षजनमरकादिदुरितविनाशनात, तथा||* जान भयं दयते-ददाति प्राणापहारकरणरसिकोपसर्गकारिण्यपि प्राणिनीत्यभयदयः, अभया वा-सर्वप्राणिभयपरिहारवती दिया-घृणा यस्य सोऽभयदयः, न केवलमयमनर्थे न करोति अपित्वर्थ करोतीति दर्शयन्नाह-चक्षुरिव चक्षुः-श्रुतज्ञानं तह-15 यते यः स चक्षुर्दयः, यथा हि लोके चक्षुर्दत्त्वा वाञ्छितस्थानमार्ग दर्शयन्महोपकारी भवति इत्येवमिहापीति दर्शयन्नाहBI मार्ग-सम्यग्दर्शनादिकं मोक्षपथं दयत इति मार्गदयः, यथा हि लोके चक्षुरुद्घाटनं मार्गदर्शनं च कृत्वा चौरादिविलुप्तसाधनान्निरुपद्रवं स्थान प्रापयन् परमोपकारी भवतीत्येवमिहापीति दर्शयन्नाह-'शरणदयो' निरुपद्रवस्थानदायको, निर्वाण-IKI हेतुरित्या, यथा हि लोके चक्षुर्मार्गशरणदानादुःस्थानां जीवनं ददात्येवमिहापीति दशर्यनाह-जीवनं जीवो-भावपाणधाशरणम् , अमरणधर्मत्वमित्यर्थः, तं दयत इति जीवदयो, जीवेषु वा दया यस्य स जीवदयः, तथा दीप इव समस्तवस्तुप्रका-10 शकत्वात् द्वीपो वा संसारसागरान्तर्गताङ्गिवर्गस्य नानाविधदुःखकल्लोलाभिघातदुःस्थितस्याश्वासहेतुत्वात्, तथा बाणम्अनर्थप्रतिहननं तद्धेतुत्वानाणं, तथा शरणम्-अर्थसम्पादनं तद्धेतत्वाच्छरणं, तथा 'गइ'त्ति गम्यतेऽभिगम्यते दुःस्थितैः सुस्थतार्थमाश्रीयते इति गतिः, 'पइह'त्ति प्रतिष्ठन्त्यस्यामिति प्रतिष्ठा-आधारः संसारगर्ने प्रपततः प्राणिवर्गस्येति, तथा| वयस्समुद्राश्चतुर्थो हिमवानेते चत्वारः पृथिव्या अन्ताः-पर्यन्तास्तेषु स्वामितया भवतीति चातुरन्तः, स चासौ चक्रवर्ती च | || चातुरन्तचक्रवर्ती, वरश्वासी चातुरन्तचक्रवर्ती च वरचातुरन्त चक्रवती-सर्वराजातिशायी, धर्मविषये वरचातुरन्त चक्रवर्ती धर्मवरचातुरन्तचक्रवती, सकलधर्मप्रणेतृणां मध्ये सातिशयत्वादिति, तथा अप्रतिहते-कटादिभिरस्खलिते अविसंवादके अनुक्रम [१०] भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~ 32~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [१०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपातिकम् प्रत ॥१५॥ सूत्रांक [१०] दीप वा अत एव क्षायिकत्वाद्वा वरे-प्रधाने ज्ञानदर्शने-केवललक्षणे धारयतीति अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरः, कथमस्यैते दश्रीवीरव. इत्यत आह-यतो 'व्यावृत्तच्छा निवृत्तज्ञानाद्यावरणो निर्मायो वा, एतच्च रागादिजयात्तस्येत्याह-'जिनों रागादिजेता, रागादिजयश्च रागादिस्वरूपादिज्ञानादित्यत आह-'जाणए'त्ति ज्ञायको-ज्ञाता रागादिभावसम्बन्धिनां स्वरूपकारणफलानामिति, अत एव 'तिण्णो'त्ति तीर्ण इव तीर्णः, संसारसागरमिति गम्यते, अत एव 'तारकः' संसारसागरादुपदेशव|र्तिनां भगवानिति, तथा 'मुक्तो' बाह्याभ्यन्तरग्रन्थात् कर्मबन्धनाद्वा, अत एव 'मोचकः' अन्येषामुपदेशवर्तिनां, तथा || 'बुद्धे'त्ति बुद्धवान् बोद्धव्यम् , अत एव 'बोधकः' अन्येषामिति, एतावन्ति विशेषणानि भवावस्थामाश्रित्योक्तानि, अथ सिद्धावस्थामाश्रित्योच्यते-'सवण्णू सबदरिसी'त्ति, इह ज्ञान-विशेषावबोधः, दर्शनं च-सामान्यावबोधः, सिद्धावस्थायां || पुरुषस्य कैश्चित् ज्ञानं नाभ्युपगम्यते प्रकृतिविकारस्य बुद्धेरभावादित्येतन्मतव्यपोहार्थमिदं, तथा 'शिव' सर्वोपद्रवरहि| तत्वाद् 'अचलं खाभाविकमायोगिकचलनरहितत्वात् 'अरुज' रोगाभावात् 'अनन्तम्' अनन्तार्थविषयज्ञानस्वरूपत्वात् , M'अक्षयम्' अनाशं, साद्यपर्यवसितत्वात् , अक्षयं वा परिपूर्णत्वात्, 'अव्यायाधम्' अपीडाकारित्वात्, 'अपुनरावर्तकं'। पुनर्भवाभावात् , सिद्धिगतिरिति नामधेयं-प्रशस्तं नाम यस्य तसिद्धिगतिनामधेयं, तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थान-क्षीणकर्मणो | * |जीवस्य स्वरूपं लोकाग्रं वा, जीवस्वरूपविशेषणानि तु लोकाने उपचारादवसेयानीति, 'संपाविउकामे'त्ति संप्राप्तुकामस्त-18॥ १५ ॥ सत्राप्राप्त इत्यर्थः, 'जिणे जाणए इत्यादिविशेषणानि चिन्न दृश्यन्ते, दृश्यन्ते पुनरिमानि-'अरह'त्ति अर्हन्-अशोकादि-पटू महापूजार्हत्वात् अविद्यमानं पा रहा-एकान्तं प्रच्छन्नं सर्वज्ञत्वादू यस्य सोऽरहा, जिनः प्राग्वत्, केवलानि-सम्पूणोनि अनुक्रम [१०] भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~33~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [१०] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [१० ...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः “औपपातिक” | शुद्धानि अनन्तानि वा ज्ञानादीनि यस्य सन्ति स केवली, अत एव 'सबण्णू सवदरिसी' । 'सत्तहत्थुस्सेहे' सप्तहस्तप्रमाणः । 'समचउरंस संठाणसंठिए' समं तुल्यं अधःकायोपरिकाययोर्लक्षणोपपततया तच्च तच्चतुरस्रमिव चतुरस्रं च प्रधान लक्षणोपपेततयैव समचतुरस्रं तच्च तत् संस्थानं च-आकारस्तेन संस्थितो यः स तथा । 'वज्रऋषभनाराचसंहनन' इति प्रथमसं| हननः । 'अणुलोमवाडवेगे' अनुलोमः- अनुकूलो वायुवेगः- शरीरान्तर्वर्तिवायवो यस्य स तथा । 'कङ्कग्रहणी' कङ्कः-पक्षिविशेषः तस्येव ग्रहणी-गुदाशयो यस्य नीरोगवर्चस्कतया स तथा 'कवोयपरिणामे' कपोतस्येव पक्षिविशेषस्येव परि| णामः- आहारपाको यस्य स तथा कपोतस्य हि पाषाणलवानपि जठराग्निर्जरयतीति किल श्रुतिः । 'सउणिपोसपितरोरुपरिणए' शकुनेरिव पक्षिण इव 'पोसं'ति अपानदेशः पुरीषोत्सर्गैर्निर्लेपतया यस्य स तथा पृष्ठञ्च प्रतीतमन्तरे च- पृष्ठो दरयोरन्तराले पाइर्वावित्यर्थः, उरू च-ज इति द्वन्द्वस्तत एते परिणता विशिष्टपरिणामवन्तः सुजाता यस्य स तथा ॥ Education Internation - मुपगंधसरिसनिस्साससुरभिवघणे छवी निरायकउत्तमपसत्यअइसेयनिरुवमपले जलमल्लकलंक सेपरमदो सवज्जिय सरीरनिरुवलेवे छायाज्ज्जोइअंगमंगे घणनिचिय सुबलक्खणुण्णयकूडागारनिभपिंडिअग्ग| सिरए सामलिबोंडघणनिचियच्छोडिय मिडविसयपसत्यसुडुम लक्खणसुगंधसुंदर भुअमोअगभिंगने लकज्जलपहिङभमरगणणिडनिकुरुंब निचियकुंचिपपयाहिणावत्तमुद्ध सिरए दालिमपुप्फष्पगासतवणिज्ज्ञसरिसनिम्मलसुद्धिके संत केसभूमी घण (निचिय) छत्तागारुत्तमंगदेखे णिव्वणसमलमचंदद्धसमणिडाले उडुबइ पडिपुण्णसोमवयणे अल्लीणपमाणजुत्तसवणे सुसवणे पीणमंसलकबोल सभाए आणामियचावरुइलकिण्ह भराइतणुक भगवंतमहावीरस्य परिचय: For Parts Only ~34~ wor Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा प्रत तिकम् सूत्रांक ॥१६॥ [१०] दीप सिणणिडभमुहे अवदालिअपुंडरीयणयणे कोआसिअधवलपत्तलच्छे गरुलायतउजुतुंगणासे उवचिअसिलप्प- श्रीवीरव० वालबिवफलसण्णिभाहरोहे पंडरससिसअलविमलणिम्मलसंखगोक्खीरफेणकुंददगरयमुणालिआधवलदंतसेढी अखंडदंते अप्फुडिअदंते अविरलदंते सुणिद्धदंते सुजायदंते एगदंतसेढीविव अणेगदंते हुयवहणितधो-13 सू० यतत्ततवणिज्जरत्ततलतालुजीहे 'पउमुप्पलगंधसरिसनिस्साससुरभिवयणे' पद्म-कमलं उत्पलं च-नीलोत्पलमथवा प_-पद्मकाभिधानं गन्धद्रव्य| मुत्पलं च-उत्पलकुष्ठं तयोर्गन्धेन-सौरभ्येण सदृशः-समो यो निःश्वास:-श्वासवायुस्तेन सुरभि-सुगन्धि पदन-मुखं यस्य || स तथा। 'छवीति छविमान् उदात्तवर्णः, सुकुमारत्वचा युक्त इत्यर्थः । 'नीरायकउत्तमपसत्थअइसेयनिरुवमपले' निरातकनीरोगमुत्तम-प्रशस्तमतिश्वेतं निरुपमं च पलं-मांसं, पाठान्तरेण तलं-रूपं यस्य स तथा, पाठान्तरपक्षे 'अतिस्सेय' इति है अतिश्रेयः-अत्यन्तप्रशस्यम् । 'जल्लमल्लकलंकसेयरयदोसवज्जियसरीरनिरुवलेवे' याति च लगति चेति यल्लः-स्वल्पप्रयत्ना|पनेयः स चासी मल्लति यलमल्लः, स च कलवंच-दुष्टतिलकादिकं स्वेदश्च-प्रस्वेदो रजश्व-रेणुस्तेषां यो दोषो-मालिन्य करणं तेन वर्जितं शरीरं यस्य स तथा, स चासावत एव निरुपलेपश्चेति कर्मधारयः।'छायाउज्जोइयंगमंगे' छायया-दीया, | उद्योतित-प्रकाशितं अङ्गमा यस्य । 'घणनिचियसुबद्धलक्खणुण्णयकूडागारनिभपिडियग्गसिरए' घननिचितम्-अत्यर्थ-ID१६॥ |निबिडं धनवद्वा-अयोधनवत् निचितं-सुबद्धं सुष्टु स्नायुबद्धं लक्षणोन्नतं-प्रशस्तलक्षणं कूटस्य-पर्वतशिखरस्य आकारण-18 संस्थानेन निर्भ-सदृशं यत्तत्तथा, पिण्डिकेव-पाषाणपिण्डिकेवाग्रम्-उष्णीषलक्षणं यस्य तत्तथा, तदेवविध शिरो यस्य स अनुक्रम [१०] SAREaralia भगवंत-महावीरस्य परिचयः ~ 35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [१०] 5555555565458 ४ घननिचितादिविशेषणशिरस्कः। 'सामलिबोंडधणनिचियप्फो(च्छो)डियमिउविसयपसस्थसुहुमलक्खणसुगंधसुंदरभुअमोअगभिंगनेलकज्जलपहिडभमरगणणिद्धनिकुरुंबनिचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरए' शाल्मली-वृक्षविशेषः तस्या योण्डं-फलं घननिचितम्-अतीव निबिड 'छोटियं ति छोटितं स्फोटितं तद्वत् मृदवा-सुकुमाराश्च विशदाश्च-व्यक्ताः प्रशस्ताश्च-शुभाः || सूक्ष्माश्च-लक्ष्णाः लक्षणाच-लाक्षणिकाः सुगन्धयश्च-सुरभयः सुन्दराश्च-शोभनाः भुजमोचकवद्-रत्नविशेष इव भृङ्गवत्&|| कीटविशेषवदङ्गारविशेषवदा नैलवत्-नीलीविकारवत् अथवा भृङ्गनेलवत् कजलवत्-मपीव प्रहृष्टधमरगणवञ्च-निरुज द्विरेफवृन्दमिव स्निग्धा-कृष्णच्छायो निकुरुम्बः-समूहो येषां ते तथा, ते च निचिताश्च-निविडाः कुशिताश्च-कुण्डली॥ भूताः प्रदक्षिणावर्ताश्व-प्रतीताः मूर्द्धनि-मस्तके शिरोजा-वाला यस्य स तथा, अधिकृतवाचनायां भुजमोचकशब्दादारभ्य चेदमधीयते न सामलीत्यादीति । 'दालिमपुप्फप्पगासतवणिजसरिसनिम्मलसुणिद्धकेसंतकेसभूमी' दाडिमपुष्पप्रकाशा च रक्तेत्यर्थः, तपनीयसहशी च-रक्तसुवर्णसमवर्णेत्यर्थः, निर्मला च सुस्निग्धा च प्रतीता केशान्ते-चालसमीपे | केशभूमिः-केशोत्पत्तिस्थानभूता मस्तकत्वक् यस्य स तथा । घणनिचियेत्यादि प्राग्वत् , छत्राकारोत्तमाङ्गदेशः, उन्नतत्व| साधात् । 'णिषणसमलहमट्ठचंदद्धसमणिडाले' निर्ऋण-विस्फोटकादिकृतक्षतरहितं समम् अविषममत एव लष्टं-मनोज्ञ | मृष्टं-शुद्धं चन्द्राधसम-शशधरशकलसदृशं ललाटम्-अलिकं यस्य स तथा । 'उडुवइपडिपुष्णसोमवयणे' इह प्राकृतत्वात् प्रतिपूर्णो डुपतिसौम्यवदन इति दृश्यम्, उडुपतिः-चन्द्रः । 'अल्लीणपमाणजुत्तसवणे' आलीनी न तु टप्परौ प्रमाण-|| युक्ती-स्वप्रमाणोपेतौ श्रवणौ-कौँ यस्य स तथा, अत एव 'सुश्रवणः' शोभनश्रोत्रः शोभनश्रवणब्यापारो वा । 'पीणमं | भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत तिकम् "१७ सूत्रांक [१०] दीप सलकवोलदेसभाए' पीनौ-अकृशौ यतो मांसलौ-समांसौ कपोलो-गण्डौ तयोस्तावेव वा मुखस्य देशरूपी भागी यस्य स श्रीवीरव. तथा । 'आणामियचावरुइलकिण्हन्भराइतणुकसिणणिद्धभमुहे' आनामितम्-ईपन्नामितं यच्चापं-धनुस्तद्वद्रुचिरे-मनोज्ञे || | कृष्णाभ्रराजीव-कालिकमेघरेखेव तनुके कृष्णे-काले स्निग्धे च-सुच्छाये भुवी-नेत्रावयवविशेषौ यस्य स तथा, वाच खू०१० नान्तरे तु दृश्यते 'आणामियचावरुइलकिण्हदभराइसंठियसंगयआययसुजायभमुए आनामितचापवद्रुचिरे कृष्णाराजीवच्च संस्थिते-तसंस्थानवत्यो सङ्गते-उचिते आयते-दीर्घे सुजाते-सुनिष्पन्ने ध्रुवौ यस्य स तथा । 'अवदालियपुंडरीयण| यणे' अवदालित-रविकरैर्विकासितं यत्पुण्डरीकं-सितपद्मं तद्वन्नयने यस्य स तथा, अत एव 'कोआसिअधवलपत्तलच्छे ol कोकासियत्ति-पद्मवद्विकसिते धवले च कचिद्देशे पत्रले च-पक्ष्मवत्यौ अक्षिणी-लोचने यस्य स तथा । 'गरुलायतउज्जु तुंगणासे' गरुडस्येवायता-दीर्घा ऋज्वी-अवका तुङ्गा-उन्नता नासा-नासिका यस्य स तथा । 'उअचिअसिलपवालबिंत्रफलसण्णिभाहरोहे' उअचिअत्ति-परिकर्मितं यच्छिलारूपं प्रवालं विदुममित्यर्थों, बिम्बफल-गोल्हाफलं तयोः सन्निभःसदृशो रक्ततया उन्नतमध्यतया च अधरोष्ठः-अधस्तनदन्तच्छदो यस्य स तथा । 'पंडुरससिसअलविमलणिम्मलसंखगोक्खीरफेणकुंददगरयमुणालियाधवलदंतसेढी' पाण्डुरम्-अकलकं यच्छशिशकलं-चन्द्रखण्डं विमलानां मध्ये निर्मलश्च यः शङ्खः | गोक्षीरफेने च प्रतीते कुन्द-पुष्पविशेषः उदकरजश्च-तोयकणा मृणालिका च-विशिनी तद्वद्धवला दन्तश्रेणियस्य स ॥१७॥ तथा। अखण्डदन्ते सकलरदनः, 'अप्फुडियदंते' अजर्जरदन्तः, 'अविरलदंते धनरदनः, 'सुणिद्धदंतेत्ति व्यक्तं, 'सुजायदंते' सम्यगनिष्पन्नदन्तः 'एगदंतसेढीविव अणेगदंते' एकस्य दन्तस्य श्रेणिः पतिर्यस्य स तथा, स इव परस्परानुपल-18 अनुक्रम [१०] जा भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०] दीप क्ष्यमाणदन्तविभागत्वात् अनेके दन्ता यस्य स तथा । 'हुयवहणितधोयतत्ततवणिज्जरत्ततलतालुजीहे' हुतवहेन-अग्निना &ा निर्मात-दग्धमलं धौत-जलप्रक्षालितं तप्त-सतापं यत्तपनीयं-सुवर्ण तद्वद्रकतलं-लोहितरूपं तालु च-काकुदं जिह्वा || च-रसना यस्य स तथा । अवडियसुविभत्तचित्तमंसू मंसलसंठियपसत्थसहूलविउलहणूए चउरंगुलमुप्पमाणकंबुवरसरिसग्गीवे वर-3 महिसवराहसीहसलउसभनागवरपडिपुण्णविउलक्खंधे जुगसन्निभपीणरइयपीवरपउहसुसंठियमुसिलिदृविसिषणथिरसुबहसंधिपुरवरफलिहवहियभुए भुअईसरविउलभोगआदाणपलिहउच्छूढदीहबार रत्तत-19 लोवइयमउअमंसलसुजायलक्खणपसत्थअच्छिद्दजालपाणी पीवरकोमलवरंगुली आयंचतंवतलिणसुहरुइल&ाणिदणक्खे चंदपाणिलेहे सूरपाणिलेहे संखपाणिलेहे चक्रपाणिलेहे दिसासोत्थिअपाणिलेहे चंदसरसंखचकट दिसासोस्थिअपाणिलेहे कणगसिलातलुज्जलपसत्थसमतलवचियविच्छिण्णपिठुलवच्छे सिरिवच्छंकियवच्छे अकरंडुअकणगरुयपनिम्मलसुजायनिरुवहयदेहधारी अट्ठसहस्सपडिपुण्णवरपुरिसलक्खणधरे सपणय-18 पासे संगपपासे सुंदरपासे सुजायपासे मियमाइअपीणरइअपासे उज्जुअसमसहियजचतणुकसिणणिद्धआइजलडहरमणिजरोमराई झसविहगसुजायपीणकुच्छी I 'अवडियसुविभत्तचित्तमंसू' अवस्थितानि-अवर्द्धिष्णूनि सुविभक्तानि-विविक्तानि चित्राणि-अतिरम्यतया अद्भुतानि श्मश्रूणि-कूर्चकेशा यस्य स तथा । 'मसलसंठियपसत्थसहलविउलहणूए' मांसल-उपचितमांसः संस्थितो-विशिष्टसंस्थानः अनुक्रम [१०] भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [१०] औपपातिकम् ॥। १८ !! “औपपातिक” - मूलं [... १०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः भगवंत- महावीरस्य परिचयः उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) प्रशस्तः- शुभः शार्दूलस्येव- व्याघ्रस्येव विपुलो - विस्तीर्णो हनुः- चिबुकं यस्य स तथा । 'चउरंगुलसुष्पमाणकंबुवरसरिसग्गीवे' | चतुरङ्गुललक्षणं सुष्ठु प्रमाणं यस्याः सा तथाविधा कम्युवरसदृशी च-उन्नततया बलित्रययोगाच्च प्रधानशङ्खसदृशी ग्रीवाकण्ठो यस्य से तथा । 'वरमहिसव राहसीहस दूलउ सभनागवरपडिपुण्णविउ लक्खंधे' वरमहिषः - प्रधानः सैरभेयः वराहः| शूकरः सिंहः- केसरी शार्दूलो व्याघ्रः ऋषभो वृषभो नागवरः- प्रधानगजः एषामिव प्रतिपूर्णः - स्वप्रमाणेनाहीनो विपुलो-वि|स्तीर्णः स्कन्धः - अंशदेशो यस्य स तथा । 'जुगसन्निभपीणरपीवरपडडसंठियमु सिलिङ विसिङ्घणथिरमुबद्धसंधिपुरवरफलिहवट्टियभुए' युगसन्निभौ-वृत्तत्वायत्तत्वाभ्यां यूपतुल्यौ पीनौ - उपचितौ रतिदौ- पश्यतां सुखकरौ पीवरप्रकोष्ठो अकुशकला| चिकौ संस्थितौ विशिष्ट संस्थानौ सुश्लिष्टाः सङ्गता विशिष्टाः प्रधानाः घनानिविडाः स्थिरः- नातिश्वथाः सुबद्धाः सुष्ठु | नद्धाः स्नायुभिः सन्धयः-सन्धानानि ययोस्तौ तथा, पुरवरपरिघवत्-नगरार्गलावद्वर्तितौ च बाहू यस्य स तथा वाचनान्तरे | 'पुरवरफलिट्टियभुए' इत्येतावदेव भुजविशेषणं दृश्यते । 'भुयईसर विलभोगआदाणपलिहउच्छूढदीहवाहू भुजगेश्वरो-नागराजस्तस्य यो विपुलो महान् भोगो-देहः स तथा स चासौ आदानार्थम् ईप्सितार्थग्रहणाय 'पलिहोच्छूढ'त्ति पर्यवक्षितश्च-प्रसारित इति समासः, पाठान्तरे 'आयाणफलिहओच्छूढ ति आदीयते अस्मादित्यादानम् - अर्गलास्थानं तस्माद् ४ 'उच्छूढो 'ति निष्काशितः 'फलिहो'त्ति अर्गलादण्डः स इव ताविव वा दीर्घौ बाहू यस्य स तथा, वाचनान्तरे युगसन्नि भपीनरतिदपीवर प्रकोष्ठश्वासौ संस्थितोपचितघनस्थिर सुसम्बद्धसुनिगूढपर्वसन्धिश्चेति कर्मधारयपदमिति । 'रततलोब| इयम अमंसलसुजाय लक्खणपसत्थअच्छिद्दजालपाणी' रक्ततलौ-लोहिताधोभागी उपचिती-उन्नती मृदुकी-कोमलौ ॥ १८ ॥ For Parata Use Only ~39~ श्रीवीरव० सू० १० Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 24 प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [१०] मांसलौ-समांसी सुजाती-सुनिष्पन्नौ प्रशस्तलक्षणी-शुभचिह्नौ अच्छिद्रजालौ-विवक्षितानुल्यन्तरालसमूहरहिती पाणी-18 हस्ता यस्य स तथा। 'पीवरकोमलवरंगुली' व्यक्तं, नवरं पीवरा:-महत्यः, कचित्तु दृश्यते 'पीबरवट्टियसुजायकोमलवरंगुली व्यक्तं च । 'आयंबतंबतलिणसुइरुइलणिक्षणक्खे 'आयंवतंब'त्ति तामवत् आताम्रा-ईपलोहिताः तलिना:-प्रतलाः शुचयः-पवित्रा रुचिरा:-दीप्ताः स्निग्धा-अरुक्षा नखा:-कररुहा यस्य स तथा। 'चंदपाणिलेहे' चन्द्राकाराः पाणी रेखा यस्य स तथा, एवमन्यान्यपि त्रीणि । 'दिसासोत्थिअपाणिलेहे' दिक्स्वस्तिकः-दक्षिणावर्तस्वस्तिका, एतदेवानन्तरोक्तं | विशेषणपश्चकं तत्प्रशस्तताप्रकर्षप्रतिपादनाय सङ्ग्रहवचनेनाह-चन्द्रसूर्यशङ्खचक्रदिक्स्वस्तिकपाणिलेखः, अत एव वाचनान्तरेऽधीयते-'रविससिसंखचक्कसोस्थिय विभत्तसुविरइयपाणिलेहे' व्यक्तं, नवरं विभक्ता-विभागवत्यः सुविरचिताः-सुष्टुकृताः स्वकीयकर्मणा । 'अणेगवरलक्खणुत्तिमपसत्थसुइरइयपाणिलेहे' अनेकैबरलक्षणैरुत्तमाः प्रशस्ताः शुचयो रतिदाश्चरम्याः पाणिलेखा यस्य स तथा । अथ प्रकृतवाचनाऽनुश्रीयते-कणगसिलायलुजलपसरथसमतल उबचियविच्छिन्नपिहु-IN लवच्छे' कनकशिलातलवदुजपलं प्रशस्तं च शुभं समतलश्च-अविषमरूपम् उपचिता-मांसल विस्तीर्ण पृथुलं च-अतिका विशालं च वक्ष:-उरो यस्य स तथा । 'सिरिवच्छंकियवच्छे' व्यक्त, वाचनान्तरे तु वक्षोविशेषणान्येवं दृश्यन्ते-'उबचिय-16 पुरवरकवाडविच्छिण्णपिहुलवच्छे' उपचित पुरवरकपाटवद्विस्तीर्ण पृथुलं च-अतिपृथु वक्षो यस्य स तथा, 'कणयसिलायलुजलपसत्थसमतलसिरिवच्छरइयवच्छे' पूर्ववन्नवरं श्रीवत्सेन रतिदं-रम्यमिति विशेषः । 'अकरंडुअकणगरुययनिम्मलसुजायनिरुवहयदेहधारी' अकरण्डुकश्च-मांसलतयाऽनुपलक्ष्यमाणपृष्ठवंशास्थिक, कनकस्येव रुचको-रुचिर्यस्य स है SARASANSMISCAR भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा प्रत तिकम् सूत्रांक ॥१९॥ [१०] दीप अनुक्रम [१०] तथा निर्मलं च सजातं च निरुपहतं च-रोगोपहतिवर्जितं देहं धारयतीत्येवंशीलो यः स तथा । 'असहस्सपडि- श्रीवीरव. पुण्णवरपुरिसलक्खणधरे'त्ति क्वचिदृश्यते, अष्टसहस्रम्-अष्टोत्तरसहनं प्रतिपूर्णम्-अन्यून वरपुरुषलक्षणानां स्वस्तिका-1 दीनां धारयति यः स तथा । 'सण्णयपासे' अधोऽधःपार्श्वयोरवनतत्वात् 'संगयपासे' देहप्रमाणोचितपार्थः, अत एव || सू०१० 'सुंदरपासे'त्ति व्यक्तं, 'सुजायपासे' सुनिष्पन्नपाश्वः, 'मियमाइअपीणरड्यपासे' मितमात्रिकी-अत्यर्थं परिमाणवन्ती पीनी-। उपचिती रतिदी-रम्यौ पावों-कक्षाधोदेशौ यस्य स तथा । 'उजुयसमसंहियजच्चतणुकसिणणिद्धआइज्जलडहरमणिजरोमराई ऋजुकानाम्-अवक्राणां समानाम्-अविषमाणां संहितानां-संहतानां जात्याना-प्रधानानां तनूना-सूक्ष्माणां कृष्णाना-कालानां स्निग्धानाम्-अरूक्षाणाम् आदेयानाम्-उपादेयानां लडहानां-सलावण्यानाम् अत एव रमणीयानां च-रम्याणां रोम्णां-तनूरुहाणां राजिः-पतिर्यस्य स तथा । 'झसविहगसुजायपीणकुच्छी' मत्स्थपक्षिणोरिव सुजाती| सुनिष्पन्नी पीनी-उपचिती कुक्षी-उदरदेशविशेषी यस्य स तथा। झसोदरे सुइकरणे पउमविअडणाभे गंगावत्तकपयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणबोहियअकोसा. यंतपउमगंभीरवियडणाभे साहयसोणंदमुसलदग्पणणिकरियवरकणगच्छरुसरिसवरवाइरवलिअमझे पमुइयवरतुरगसीदवरवट्टियकडी वरतुरगसुजायसुगुज्झदेसे आइपणहउब्च णिरुवलेवे वरवारणतुल्लविकमविलसियगई गयससणसुजायसन्निभोरु समुग्गणिमग्गगूढजाणू एणीकुरुविंदावत्तवहाणुपुव्वजंघे संठियमुसिलि-| गूढगुप्फे सुप्पइद्वियकुम्मचारुचलणे अणुपुव्वसुसंहयंगुलीए उपणयतणुतंयणिद्धणक्खे रत्तुप्पलपत्तमउअ भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [१०] “औपपातिक” - मूलं [... १०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Eucation internation उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) सुकुमालकोमलतले अट्टसहस्सवरपुरिसलक्खणघरे नगनगरमगरसागरच कैक वरंक मंगलंकियचलणे विसिरूवे हुयवह निद्धूमजलियतडितडियतरुणरविकिरणसरिसतेए अणासवे अममे अकिंचणे छिन्नसोए निरुवलेवे ववगयपेमरागदोसमोहे निग्गंधस्स पवयणस्स देसए भगवंत- महावीरस्य परिचयः 'झसोदरे' त्ति व्यक्तं । 'सुकरणे' शुचीन्द्रियः । 'झपोदरपद्मविकटनाभि' इति पाठान्तरं । 'गङ्गावत्तकपयाहिणावत्ततरंगभंगुर रविकिरणतरुणवोहियअको सायं तपड मगंभीरवियडणाहे 'गङ्गावर्तक इव प्रदक्षिणावर्ततरङ्गैरिव वीचिभिरिव भङ्गरा च-भग्ना रविकिरणतरुणत्ति-तरुणरविकिरणैबधितं स्पृष्टं अकोसायंतति-विकाशीभवद् यत्पद्मं तद्वद्गम्भीरा च विकटा च नाभिर्यस्य स तथा । 'साहयसोणंद मुसलदप्पणणिक रियवर कणगच्छरुसरिसव रवरवलियमज्झे' साहयत्ति संहतं संक्षिसमध्यं यत्सोणंद-त्रिकाष्ठिका मुशलं च प्रतीतं दर्पणकश्य- आदर्शकदण्डो निगरियत्ति सारीकृतं यद्वरकनकं तस्य यः त्सरुः खङ्गमुष्टिः स चेति द्वन्द्व, तैः सदृशो वरवज्र इव वलितः क्षामो मध्यो- मध्यभागो यस्य स तथा । 'पमुइयवरतुरयसीवर वडियकडी' प्रमुदितस्य - रोगशोकाद्यनुपहतस्य वरतुरगस्येव सिंहवरस्येव व प्रतीतस्य वर्तिता-वृत्ता कटीनितम्बदेशो यस्य स तथा, पाठान्तरे तु 'पमुइयवरतुरगसीह अइरेगवट्टियकडी' त्ति दृश्यते, तत्र प्रमुदितयोर्वरयोस्तुरगसिंहयोः कव्याः सकाशादतिरेकेण अतिशयेन वर्तिता वृत्ता कटी यस्य स तथा । 'वरतुरगसुजायगुज्झदेसे' वरतुरगस्येव सुजातः - सङ्गतत्वेन सुनिष्पन्नो गुह्यदेशो यस्य स तथा, वाचनान्तरे तु 'पसत्थवरतुरगगुज्झदेसे' व्यक्तं च । 'आइण्णहउच्च निरुबलेवे' जात्यश्व इव निरुपलेपो-लेपरहितशरीरः, जात्यश्वो हि मूत्रपुरीषाद्यनुपलिप्तगात्रो भवति । 'वरवारण For Parts On ~ 42~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा- तिकम् प्रत सूत्रांक [१०] दीप तुलविक्कमविलसियगई वरवारणस्य-गजेन्द्रस्य तुल्यः-सदृशो विक्रमः-पराक्रमः विलसिता च-विलासवती गति:-गमनं श्रीवीर यस्य स तथा । 'गयससणसुजायसन्निभोरु' गजश्वसनस्य-हस्तिनासिकायाः सुजातस्य-सुनिष्पन्नस्य सन्निभे-सदृश्यो ऊरू-जो यस्य स तथा । 'समुग्गणिमग्गगूढजाणू' समुद्गः-समुद्गकाख्यभाजनविशेषस्तस्य तत्पिधानस्य च सन्धिस्तद्वन्निमनगूढे-अत्यन्तनिगूढे मांसलत्वादनुन्नते जानुनी-अष्ठीवती यस्य स तथा । 'एणीकुरुविंदावत्तवट्टाणुपुवघे एणी-हरिणी तस्या इव कुरुविन्दः-तृणविशेषः वत्रं च-सूत्रवलनकं ते इव च वृत्ते-वर्तुले आनुपूण तनुके चेति गम्यं, जो-प्रसूते यस्य स तथा, अन्ये वाहुः-एण्यः-स्नायवः कुरुविन्दा-कुटिलकाभिधानो रोगविशेपः ताभिस्त्यक्ते, शेष तथैव । 'संठियसुसिलिङगूढगुप्फे' संस्थिती-संस्थानविशेषवन्तौ सुश्लिष्टौ-सुघटनौ गूढौ-मांसलत्वादनुपलक्ष्यी गुल्फी-पादमणि-| |बन्धी यस्य स तथा । 'सुपइडियकुम्मचारुचलणे' सुप्रतिष्ठितौ-शुभप्रतिष्ठी कूर्मवत्-कच्छपवचारू-उन्नतस्पेन शोभनी चलनौ-पादौ यस्य स तथा । 'अणुपुवसुसंयंगुलीए' आनुपूयेण-क्रमेण वर्द्धमाना हीयमाना वा इति गम्य, सुसंहता-सुष्टु अविरला अङ्गुल्या-पादानावयवा यस्य स तथा, 'अणुपुवसुसाहयपीवरंगुलीए'त्ति कचिद् दृश्यते । 'उष्णयतणुतंबणिद्धणहे' उन्नता-अनिम्नाः तनवः-प्रतलाः ताम्रा-अरुणाः स्निग्धाः-कान्ता नखा:-पादानुल्यवयवा यस्य स तथा । 'रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालकोमलतले' रक्त-लोहितमुत्पलपत्रवत्-कमलदलवन्मृदुकम्-अस्तब्धं सुकुमारा- २० ४ाणां मध्ये कोमलं पादतलं यस्य स तथा । 'अवसहस्सवरपुरिसलक्खणधरे'त्ति व्याख्यातमेव । वाचनान्तरेऽधीयते-'नग-12 नगरमगरसागरचर्ककवरंकमंगलंकियचलणे' नगः-पर्वतो नगरं-पत्तनं मकरो-जलचरविशेषः सागर:-समुद्रः चर्क-रथाङ्गं 13 अनुक्रम [१०] | भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [१०] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... १०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः एतान्येवाङ्का - लक्षणानि वराङ्काश्च-नगादिव्यतिरिक्तप्रधानलक्षणानि मङ्गलादीनि च स्वस्तिकादीनीति द्वन्द्वः, तैरङ्कितौ चलनौ यस्य स तथा । 'विसिहरूवे 'ति व्यक्तं । 'हुयवहनिडू मजलियतडितडियतरुण रविकिरण सरिसतेए' हुतवहस्य निर्धूमं यद् ज्वलितं तस्य तटितडितश्च विस्तारितविद्युतः तरुणरविकिरणानां च--अभिनवादित्यकराणां सदृशं| समं तेजः प्रभा यस्य स तथा । 'अणासवे' प्राणातिपातादिरहितः ।'अममे' ममेतिशब्दरहितो, निर्लोभत्वात् । 'अकिंचणे' निर्द्रव्यः, परिग्रहसंज्ञारहित्यात् । 'छिन्नसोए' छिन्नश्रोताः त्रुटितभवप्रवाहः, छिन्नशोको था। 'निरुवलेवे' द्रव्यतो निर्मलदेहो, भावतस्तु कर्मबन्धहेतुलक्षणोपलेपरहितः । पूर्वोक्तमेव विशेषेणाह - 'ववगयपेमरागदोसमोहे' व्यपगतं नष्टं प्रेम च-अभिष्वङ्गलक्षणं रागश्च विषयानुरागलक्षणो द्वेषश्च-अनिष्टेऽप्रीतिरूपो मोहश्च अज्ञानरूपो वा यस्य स तथा । "निगंधस्स पवयणस्स देसए' निर्मन्थस्य- जैनस्य प्रवचनस्य - शासनस्य देशकः, सत्यनायगे पडावए समणगपई समणगविंदपरिअहए चउन्तीस युद्धवयणाति सेसपते पणतीस सचवयणातिसेसपत्ते आगासगएणं चकेणं आगासगएणं छत्तेणं आगासिपाहिं नामराहिं आगासफलिआमएणं सपायवीदेणं सीहासणेणं धम्मज्झएणं पुरओ पकढिज्ज़माणेणं ( चउदसहिं समणसाहस्सीहिं छत्तीसाए अनिआसाहस्सीहिं ) सद्धिं संपरिबुड़े पुष्वाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुग्गामं दृह्यमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे चंपाए णयरीए बहिया उवणगरग्गामं उवागए चंप नगरिं पुण्णभङ्गं चेइअं समोसरिडं कामे ॥ ( सू० १० ) ॥ १ आगसगया सेयवरचामराहिं । २ नैतद्वयाख्यानुगतम् । Education Internation भगवंत- महावीरस्य परिचयः For Parts Only ~44 ~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१२) --------- मूलं [...१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 18 औपपा प्रत सूत्रांक [१०] KI शास्ता नायका, तस्यैव नेता स्वामीत्यर्थः । 'पइटावर' तस्यैव प्रतिष्ठापकः, तैस्तैरुपायैर्व्यवस्थापकः। 'समणगपई लाश्रीवीरव० तिकम् ||श्रमणकपतिः, साधुसहाधिपतिः । 'समणगविंदपरिअट्टए' श्रमणा एव श्रमणकास्तेषां वृन्दस्य परिवर्तको-वृद्धिकारी परिकर्षको पा-अग्रगामी तेन वा पर्यायकः-परिपूर्णो यः स तथा । 'चउत्तीसबुद्धवयणातिसेसपत्ते चतुर्विंशत् बद्धाना-[ सू० ॥२१॥ जिनानां वयणत्ति-वचनप्रमुखाः 'सर्वस्वभाषानुगतं वचनं धर्माववोधकर'मित्यादिनोक्तस्वरूपा येऽतिशेषा-अतिशयास्तान् प्राधो यः स तथा । इह च वचनातिशयस्य ग्रहणमत्यन्तोपकारित्वेन प्राधान्यख्यापनार्थम् , अन्यथा देहवैमल्याद-| यस्ते पठ्यन्ते, यत आह-"देहं विमलसुबंधं आमयपस्सेयवजियं अरुयं । रुहिरं गोक्खीराम निधीसं पंडुरं मंस | ॥१॥" इत्यादि । 'पणतीससच्चवयणाइसेसपत्ते' पञ्चत्रिंशत् ये सत्यवचनस्यातिशेषा-अतिशयास्तान प्राप्तो यः स| तथा, ते चामी वचनातिशयाः-तद्यधा-संस्कारवत्त्वम् १ उदात्तत्वम् २ उपचारोपेतत्वं ३ गम्भीरशब्दत्वम् ४ अनुना-2 दित्वं ५ दक्षिणत्वम् ६ उपनीतरागत्वं ७ महार्थत्वम् ८ अव्याहतपौर्वापर्यत्वं ९ शिष्टत्वं १० असन्दिग्धत्वम् ११ अपहतान्योत्तरत्वं १२ हृदयग्राहित्वं १३ देशकालाव्यतीतत्वं १४ तत्त्वानुरूपत्वम् १५ अप्रकीर्णप्रस्तत्वम् १६ अन्योऽन्यप्रगृहीतत्वम् १७ अभिजातत्वम् १८ अतिस्निग्धमधुरत्वम् १९ अपरमर्मवेधित्वम् २० अर्धधर्माभ्यासानपेतत्वम् २१ उदारत्वं | २२ परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्वम् २३ उपगतश्लाध्यत्वम् २४ अपनीतत्वम् २५ उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलत्वम् २६ अद्भु-18 है तत्वम् २७ अनतिविलम्बित्वं २८ विभ्रमविक्षेपकिलिकिञ्चितादिविप्रयुक्तत्वम् २९ अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रत्वम् ३० १ देहो विमलः सुगन्ध मामयपखेदवर्जितः अरुजः । रुधिरं गोक्षीराभं निविलं पाण्डुरं मांसम् ॥१॥ दीप ACCESS *-964-96494504564594 अनुक्रम [१०] SAREaalind | भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~ 45~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम आहितविशेषत्वं ३१ साकारत्वं ३२ सत्त्वपरिगृहीतत्वम् ३३ अपरिखेदित्वम् ३४ अब्युच्छेदित्वं ३५ चेति वचनातिशयाः। तत्र 'संस्कारवत्त्वं संस्कृतादिलक्षणयुक्तत्वं १ उदात्तत्वम्-उच्चैवृत्तित्वम् २ उपचारोपेतत्वम्-अग्राम्यता ३ गम्भीरश ब्दत्वं-मेघस्येव ४ अनुनादित्वं-प्रतिरवोपेतत्वादि ५ दक्षिणत्वं-सरलत्वम् ६ उपनीतरागत्वं-मालवकेशिकादिग्रामराग| युक्तता ७ एते सप्त शब्दापेक्षा अतिशयाः, अन्ये त्वर्थाश्रयाः, तत्र महार्थत्व-बृहदभिधेयता ८ अव्याहतपूर्वापरत्वं-पूर्वापरवाक्याविरोधः ९ शिष्टत्वम्-अभिमतसिद्धान्तोक्तार्थता वक्तुः शिष्टतासूचकत्वं वा १० असन्दिग्धत्वम्-असंशयका-3 रिता ११ अपहतान्योत्तरत्वं-परदूषणाविषयता १२ हृदयग्राहित्वं-श्रोतृमनोहरता १३ देशकालाव्यतीतत्वं-प्रस्तावोचितता १४ तत्त्वानुरूपत्वं-विवक्षितवस्तुस्वरूपानुसारिता १५ अप्रकीर्णप्रसृतत्वं-सुसम्बद्धस्य सतः प्रसरणम् , अथवा अस-II म्बद्धाधिकारस्वातिविस्तरयोरभावः १६ अन्योऽन्यप्रगृहीतत्वं-परस्परेण पदानां वाक्यानां वा सापेक्षता १७ अभिजातत्वं | वक्तः प्रतिपाद्यस्य वा भूमिकानुसारिता १८ अतिस्निग्धमधुरत्वं-घृतगुडादिवत् सुखकारित्वं १९ अपरमर्मवेधित्वं-परम-IIG मानुद्घाटनस्वरूपत्वम् २० अर्थधर्माभ्यासानपेतत्वं-अर्थधर्मप्रतिबद्धत्वं २१ उदारत्वम्-अभिधेयार्थस्यातुच्छत्वं गुम्फगुण विशेषो वा २२ परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्वमिति प्रतीतमेव २३ उपगतश्लाघ्यत्वम्-उक्तगुणयोगात् प्राप्तश्लाध्यता २४| I&|| अनपनीतत्वम्-कारककालवचनलिङ्गादिव्यत्ययरूपवचनदोषापेतता २५ उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलत्वं-स्वविषये श्रोतां ट्र जनितमविच्छिन्नं कौतुकं येन तत्तथा तद्भावस्तत्वम् २६ अद्भुतत्वम् अनतिविलम्बित्वं च प्रतीतं २७-२८ विभ्रमविक्षेपकिलिकिश्चितादिवियुक्तत्व-विभ्रमो-वक्तृमनसो भ्रान्तता विक्षेपः-तस्यैवाभिधेयार्धं प्रत्यनासक्तता किलिकिश्चित [१०] | भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~ 46~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: SAR प्रत सूत्रांक ॥२६॥ [१०] दीप औपपारोषभयाभिलापादिभावानां युगपदसकृत्करणम्, आदिशब्दान्मनोदोषान्तरपरिग्रहः, तैर्वियुक्तं यत्तथा तझावस्तत्त्वं २९|| श्रीवीरव० तिकम् ४. अनेकजातिसंश्नयाद्विचित्रत्वम् , इह जातयो वर्णनीयवस्तुस्वरूपवर्णनानि ३० आहितविशेषत्वं-वचनान्तरापेक्षया दौकि तविशेषता ३१ साकारत्व-विच्छिन्नवर्णपदवाक्यत्वेनाकारप्राप्तत्व ३२ सत्त्वपरिगृहीतरव-साहसोपेतता ३३ अपरिखे-131 सू०१० दितत्वम्-अनायाससम्भवः ३४ अव्युच्छेदित्व-विवक्षितार्थसम्यसिद्धिं यावद् अव्यवच्छिन्नवचनप्रमेयतेति ३५ ॥ अथ | प्रकृतवाचना-'आगासगएण'ति आकाशवर्तिना 'चक्रेण धर्मचक्रेण 'आगासगएणं छत्तेणे'ति छत्रत्रयेण 'आगासियाहिति।* आकाशम्-अम्बरमिताभ्यां-प्राप्ताभ्यां आकर्षिताभ्यां वा-आकृष्टाभ्यामुत्पारिताभ्यामित्यर्थः, 'चामराहिंति चामराभ्यांप्रकीर्णकाभ्यां, प्राकृतत्वाच्च लिङ्गव्यत्ययः, लक्षित इति सर्वत्र गम्यम् । 'आगासफलियामएणति आकाशतुल्यं स्वच्छ-४ तया यत् स्फटिकं तन्मयेन, सपादपीठेन सिंहासनेनेति व्यक्त । 'धम्मज्झएणं'ति धर्मचक्रवर्तित्वसंसूचकेन केतुना-महेदन्द्रध्वजेनेत्यर्थः, 'पुरओ'त्ति अग्रतः 'पकढिज्जमाणेणंति देवैः प्रकृष्यमाणेनेति, 'सद्धिं' सह 'संपरिवुडे'त्ति सम्यक परिकरितः-समन्ताद्वेष्टित इत्यर्थः । 'पुषाणुपुरिति पूर्वानुपूर्व्या न पश्चानुपूर्व्या नानानुपूर्व्या वेत्यर्थः, क्रमेणेति हृदयं, 'चरन्' सञ्चरन्, एतदेवाह-'गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे त्ति ग्रामश्च प्रतीतोऽनुग्रामश्च-विवक्षितग्रामानन्तरो ग्रामो ग्रामानुग्रामं तद द्रवन्' गच्छन् ,एकस्माद्धामादनन्तरं ग्राममनुलपयन्नित्यर्थः, अनेनाप्रतिबद्धविहारमाह,तत्राप्यौत्सुक्याभावमिति। 'सुहंसुहेणं विहरमाणे'त्ति अत एव सुखंसुखेन-शरीरखेदाभावेन संयमबाधाभावेन च 'विहरन्' स्थानात् स्थानान्तरं गच्छन्द्र प्रामादिषु वा तिष्ठन् 'बहियत्ति बहिस्तात् 'उवणगरग्गामति नगरस्य समीपमुपनगरं तत्र ग्राम उपनगरग्रामस्तमुपागतः॥१०॥ अनुक्रम [१०] | भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~ 47~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [११] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः तणं से पवित्तिवाजए इमीसे कहाए लडट्टे समाणे हतुचित्तमानंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसव सविसप्पमाणहियए पहाए कयबलिकम्मे कयको अमंगलपायच्छिते सुडप्पवेसाई मंगलाई बस्थाई पवरपरिहिए अप्पमहग्या भरणा लंकियसरीरे सआओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, सआओ गिहाओ पडि|णिक्खमित्ता चंपाए णयरीए मजमज्झेणं जेणेव कोणिघस्स रण्णो गिहे जेणेव बाहिरिया उबद्वाणसाला जेणेव कृणिए राया भंभसारपुत्ते तेणेव उवागच्छ २ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु | जपणं विजएणं बद्धावेइ २ एवं व्यासी जस्स णं देवाणुपिया दंसणं कंस्वंति जस्स णं देवाणुपिया दंसणं | पीहंति जस्स णं देवाणुपिया दंसणं पत्थति जस्स णं देवाणुपिया दंसणं अभिलसंति जस्स णं देवाशुप्पिया णामगोत्तस्सवि सवणयाए हहतुट्ठजावहिअया भवंति से र्ण समणे भगवं महावीरे पुत्रवाणु - | पुचि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइजमाणे चंपाए णयरीए उवणगरगामं उवागए चंप णगरिं पुण्णभदं वेइअं | समोसरिडं कामे, तं एभ णं देवाणुप्पियाणं पिअट्टयाए पिअं णिवेदेमि, पिअं ते भव ॥ ( सू० ११ ) ॥ . ततोऽनन्तरं, 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे, 'से' इति असौ 'प्रवित्तिवाउए' त्ति प्रवृत्तिव्यावृतो भगवद्धातव्यापारवान् 'इमीसे | कहाए ति अस्यां भगवदागमनलक्षणायां वार्तायां 'लट्ठे समाणे'त्ति उधार्थः सन् प्राप्तार्थः सन् विज्ञः सन्नित्यर्थः, 'हतुचित्तमाणंदिए'त्ति हृष्टतुष्टम् अत्यर्थतुष्टं दृष्टं वा विस्मितं तुष्टं च-तोपवञ्चित्तं मनो यत्र तत्तथा तत् दृष्टतुष्टचित्तं १ क्रियापदस्याद्विलक्षणाङ्केन तस्यैव पूर्वकाल कृदन्तता ज्ञेयेति लिखनशैली, कचित्तु अग्रे 'ता' इति लिखनामपि, Ja Eucation Internationa For Park Use Only ~ 48~ ora Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रवृत्ति या प्रत औपपा- तिकम् १२३॥ सूत्रांक [११] यथा भवति, एवमानन्दित-ईषन्मुखसौम्यतादिभावैः समृद्धिमुपगतः ततश्च 'णदिए'त्ति नन्दितः-समृद्धितरतामुपगतः। XII 'पीइमणे' प्रीतिः-प्रीणनमाप्यायनं मनसि यस्य स तथा, 'परमसोमणस्सिए' परमं सौमनस्य-सुमनस्कता सञ्जातं यस्य || || स परमसीमनस्थिकः तद्वाऽस्यास्तीति परमसौमनस्थिकः, 'हरिसवसविसप्पमाणहियए' हर्षवशेन विसर्पत-विस्तार प्रज-|| जदयं यस्य स तथा, सर्वाणि चैतानि हष्टादिपदानि प्राय एकार्थानि, न च दुष्टानि, प्रमोदप्रकर्षप्रतिपत्तिहेतुत्वात् स्तुतिरूपत्वाच, यदाह-"वक्ता हर्षभयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवस्तथा निन्दन् । यस्पदमसकृद् ब्रूयात्तत्पुनरुक्तं न दोपाय | 'हाएत्ति' व्यक्त, 'कयवलिकम्मे त्ति स्नानानन्तरं कृतं बलिकर्म स्वगृहदेवतानां येन स तथा । 'कयकोउअमंगलपायच्छित्ते कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तानि-दुःस्वमादिविघातार्थमवश्यकरणीयत्वाद्येन स तथा, तत्र कौतुकानि-मपीतिलकादीनि मङ्गलानि तु-सिद्धार्थदध्यक्षतर्वाङ्करादीनि 'सुद्धप्पवेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए' शुद्धात्मा-मानेन | शुचिकृतदेहः वेश्यानि-वेशे साधूनि अथवा शुद्धानि च तानि प्रवेश्यानि च-राजसभाप्रवेशोचितानि चेति विग्रहः * मङ्गल्यानि-मङ्गलकरणे साधूनि वखाणि व्यक्तं, पवरत्ति-द्वितीयावहुवचनलोपात् प्रवराणि-प्रधानानि परिहितो-निवसितः अथवा प्रवरश्चासौ परिहितश्चेति समासः । 'अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे'त्ति व्यक्तं, नवरं अल्पानि-स्तोकानि || महापाणि-बहुमूल्यानि । 'सआओ'त्ति स्वकात्-स्वकीयात् । 'जेणेव'त्ति यस्मिन्नेव देशे इत्यर्थः । 'बाहिरिय'त्ति अभ्य-I न्तरिकापेक्षया बाह्या । 'उपहाणसाल'त्ति आस्थानसभेति । तेणेब'त्ति तस्मिन्नेव देश इत्यर्थः । 'सिरसावत्तंति शिरसा"मस्तकेनाप्राप्तम्-अस्पृष्ट शिरसि वा आवर्तत इति शिरस्यावर्तोऽतस्तं । 'जएण विजएणं बद्धावेति'त्ति जय-सामान्यो। । दीप अनुक्रम [११] ॥२३॥ ~ 49~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत [११] दीप अनुक्रम [११] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः | विनादिविषयो विजयः स एव विशिष्टतरः प्रचण्डप्रतिपन्थादिविषयः वर्धयति-जयेन विजयेन च वर्द्धस्व त्वमित्येवमा शिषं प्रयुङ्क्ते स्मेत्यर्थः । 'देवाणुपियत्ति सरलस्वभावाः । 'दंसणं'ति अवलोकनं । 'कति'त्ति प्राप्तं सद्विमोक्तुं नेच्छन्ति । 'पीहंति'त्ति स्पृहयन्ति अनवाप्तमवाप्तुमिच्छन्ति । 'पत्थंति'त्ति प्रार्थयन्ति तथाभूतसहायजनेभ्यः सकाशाद्याचन्ते । 'अभि| लसंति'त्ति अभिलषन्ति आभिमुख्येन कमनीयमिति मन्यन्ते । 'णामगोत्तस्सवि'त्ति नाम च-अभिधानं यथा महावीर | इति, गोत्रं च-वंशो यथा काश्यपगोत्र इति, नामगोत्रमिति द्वन्द्वैकत्वमतस्तस्य, अथवा नामाभिधानं गोत्रं च यथार्थ, ततः कर्मधारय इति । 'सवणयाए'ति श्रवणानां भावः श्रवणता तया, स्वार्थिको वा ताप्रत्ययः प्राकृत शैलीप्रभव इति ॥ ११॥ तप णं से कृणिए राया भंभसारपुत्ते तस्स पवित्तिबा अस्स अंतिए एयमहं सोचा णिसम्म हट्ठतुह जावहिभए विअसिअवरकमलणयणबघणे पअलिअवरकडगतुडियकेयूरमउडकुंडल हारविरायंतरइयवच्छे पालंबलंबमाणघोलंत भूसणघरे ससंभ्रमं तुरियं चवलं नरिंदे सीहासणार अन् २ ता पायपीढाउ | पचोरुहइ २ सा पाउआओ ओमुअ २ ता अवहट्टु पंच रायककुहाई तंजा-खग्र्ग १ छ २ उपसं ३ वाहणाओ ४ बालवीअणं ५ एक्कसाडियं उत्तरासंगं करेह २ त्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए अंजलि - मलि अग्गहत्थे तिस्थगराभिमुहे सत्त पथाई अणुगच्छति सत्त पयाई अणुगच्छित्ता वामं जाणं अंचेइ वामं जाणुं अंबेसा दाहिणं जाणं धरणितलंसि साह तिकखुत्तो मुद्राणं धरणितलंस निवेसेह २त्ता ईसिं पक्षुण्णमति पक्षुण्णमिता कहगतुडियर्थभिआओ भुआओ पडिसाहरति रत्ता करयल जाव कट्टु एवं वयासी annatal For Parts Only ~ 50~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [१२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 5 औपपा- प्रत सू०१२ ॥२४॥ सूत्रांक [१२] A5%45 दीप अनुक्रम 'सोचा णिसम्मत्ति श्रुत्वा-श्रोत्रेणाकये निशम्य-हृदयेनावधार्य । 'धाराहयनीवसुरभिकुसुमचंचुमालइअउच्छियरोमकू' धाराभिः-जलधरवारिधाराभिर्हतं यन्नीपस्य-कदम्बस्य सुरभिकुसुमं तत्तथा, तदिव चंचुमालइयत्ति-पुलकितोऽत अपय उच्छूितरोमकूपश्च यः स तथा, इदं च विशेषणं कचिदेव दृश्यते । 'विअसियवरकमलणयणवयणे' विकसितानिभगवदागमनवार्ताश्रवणजनितानन्दातिशयादुत्फुल्लानि बरकमलवन्नयनवदनानि यस्य स तथा । 'पचलियवरकडगतुडियकेऊरमउडकुंडलहारविरायंतरइयवच्छे प्रचलितानि-भगवदागमनश्श्रवणजनितसम्भ्रमातिरेकात् कम्पितानि वराणि-प्रधानानि कटकानि च कङ्कणानि तुटिकाश्च-बाहुरक्षकाः केयूराणि च-अङ्गदानि मुकुट च-किरीटं कुण्डले च-कर्णाभरणे यस्य स तथा, हारो-मुक्ताकलापो विराजन्-शोभमानो रचितो-विहितो वक्षसि उरसि येन स तथा, ततः कर्मधारयः। |'पालंबपलबमाणघोलतभूसणधरे' प्रालम्बो-झुम्बनकं प्रलम्बमानं-लम्बमान घोलं च-दोलायमानं यषणम्-आभरणं |४|| तद्धारयति यः स तथा । 'ससंभम ति सादरं 'तुरिय' (खरितं)चवलंति-अतित्वरितं, क्रियाविशेषणे चैते । 'पञ्चोरुहई' त्ति प्रत्यवरोहति-अवतरतीत्यर्थः, कचिदिदं पादुकाविशेषणं दृश्यते-वेरुलियवरिटरिडअंजणनिउणोवियमिसिमिसिंतम|णिरयणमंडियाओ'त्ति एवं चात्राक्षरघटना-बरिष्ठानि-प्रधानानि वैडूर्यरिष्ठाझनानि-रलविशेषा ययोस्ते तथा, तथा मा निपणेन-कशलेन शिल्पिना ओपियत्ति-परिकर्मिते येते तथा, अत एव मिसिमिसिंतत्ति-चिकिचिकायमाने मणिरलैः--- चन्द्रकान्तादिकतनादिभिर्मण्डिते-भूषिते ये तथा, ततः पदचतुष्टयस्य कर्मधारयः । तथेदमपि अवहट्ट पंच रायककु& हाई, तंजहा-खग्गं छत्तं उप्फेसं वाहणाओ वालवीअणति तत्राव९-अपहृत्य-परिहत्य राजककुदानि-राजचिह्नानि [१२] *45-45645- ~514 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [१२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम उप्फेसंति-मुकुटं वालन्यजनी-चामरमिति । 'एगसाडियं उत्तरासंगति एकः साटको यस्मिन्नस्ति स एकसाटिकः उत्तरासो-वैकक्षकम् 'आयते'त्ति आचान्तो-जलस्पर्शनात् 'चोक्खे'त्ति चोक्षो-विवक्षितमलापनयनात, किमुक्तं भवति ?-'परमसुइभूए' अतीव शुचिः संवृत्तः । 'अंजलिमउलियहत्थे अञ्जलिना-अञ्जलिकरणतो मुकुलिती-मुकुलाकृतीकृती हस्ती येन | स तथा । 'अंचेइति आकुश्चयति 'साहद्दु'त्ति संहृत्य निवेश्य । 'तिखुत्तो'त्ति विकृत्यत्रीन वारानित्यर्थः, 'निवेसेइ'त्ति न्यस्यति, 'ईसिं पञ्चुन्नमइति ईषत्-मनाक् प्रत्युन्नमति-अवनतत्वं विमवति 'पडिसाहरइ'त्ति ऊर्ध्व नयति ।। | णमोऽत्थु णं अरिहंताणं 'भगवंताणं आइगराणं तित्थगराणं सयंसंबुद्धाणं पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं| X पुरिसवरपुंडरीआणं पुरिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहियाणं लोगपईचाणं लोगपजो-18 अगराणं अभययाणं चक्खुदयार्ण मग्गदयाणं सरणदयाणं जीवदयाण बोहियाणं धम्मदयार्ण धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचक्कबहीणं दीवो ताणं सरणं गई पइहा अप्पडिहयवर-2 माणदसणधराणं विअदृछउमाणं जिणाणं जावयाणं तिण्णाणं तारयाणं बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोअगाणं| है सब्वन्नूर्ण सव्वदरिसीणं सिवमयलमरुअमर्णतमक्खयमव्वाबाहमपुणराबत्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं, नमोऽस्धु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आदिगरस्स तिस्थगरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मा यरियस्स धम्मोवदेसगस्स, बंदामि णं भगवंतं तत्थ गयं इह गते, पासइ मे (मे से) भगवं तत्थ गए इह & गयन्ति कटु वंदति णमंसति ॥ [१२] शक्रस्तव ~52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम [१२] औपपातिकम ।। २५ ।। शक्रस्तवं “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... १२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः 'नमोत्थु ण' मित्यादि प्राग्वत्, नवरं 'दीवो ताणं सरणं गई पट्टा' इत्यत्र जे तेसिं नमोऽत्थु णमित्येवं गमनिका कार्येति । 'धम्मायरियरसे' ति धर्माचार्याय, न तु कलाचार्याय, धर्माचार्यत्वमेव कथमित्यत आह- 'धम्मो वदे सगस ' धर्मोपदेशका येति । 'तस्थ गयंति तत्र ग्रामान्तरे स्थितम्, 'इह गए'त्ति अत्रावस्थितोऽहं वन्दे । कस्मादेवमित्यत आह'पासइ मे 'ति पश्यति मां, 'से'त्ति स भगवान् 'इतिकटु' इतिकृत्वा - इतिहेतोः 'वंदइति पूर्वोक्तस्तुत्या स्तौति 'णमंसइ' ति नमस्यति - शिरोनमनेन प्रणमति ॥ वंदिता मंसित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे निसीअह, निसीहत्ता तस्स पवित्तिवाउअस्स अनुत्तरसयसहस्सं पीतिदाणं दलयति, दलइत्ता सकारेति सम्माणेति सकारिता सम्माणित्ता एवं वयासी जया णं देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे इहमागच्छेजा इह समोसरिजा इहेब चंपाए जयरीए बहिया पुष्णभद्दे चेहए अहापडिरूवं उग्गह उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरेज्जा तया णं मम | एअम निवेदिजासित्तिक बिसज्जिते ॥ (सू० १२ ) ॥ 'अत्तरस्यसहस्सं पीइदाणं'ति अष्टोत्तरं लक्षं रजतस्य तुष्टिदानं ददाति स्मेदि, तचावश्यके माण्डलिकानां प्रीतिदानमर्द्धत्रयोदशलक्षमानमुक्तं, यदाह-""वित्ती उ सुवण्णस्सा बारस अद्धं च सयसहस्साई । यं चिय कोडी पीईदा तु १ वृतिस्तु सुवर्णानां द्वादश अर्द्ध च शतसहस्राणाम् । तावत्य एव कोटयश्च प्रीतिदानं तु चक्रिणाम् ॥ १ ॥ एतदेव प्रमाणं केवलं रजतानां तु केशवा ददति । माण्डलिकानां सहस्राणि प्रीतिदानं शतसहस्राणि ॥ २ ॥ Educatin internationa For Parata Lise Only ~53~ प्रवृत्तिवा० १२ ।। २५ ।। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [...१२ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम चक्किस्स ॥१॥ एवं चेव पमाणं नवरं रययं तु केसवा दिति । मंडलियाण सहस्सा पीईदाणं सबसहस्सा ॥२॥"13 इति, इह पुनस्तदष्टोत्तरलक्षमानमुक्तमिति कथं न विरोध!, उच्यते, भगवति चम्पायामागते तद्दास्यतीति न विरोधः। 'सकारेइत्ति प्रवरवस्त्रादिभिः पूजयति । 'सम्माणेइ'त्ति तथाविधया वचनादिप्रतिपत्त्या पूजयत्येवेति । एवं 'सामित्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइत्ति वाचनान्तरे वाक्यम् , एवमिति-यथाऽऽदेशं स्वामिन्नित्यामन्त्रणार्थः इतिः-उपप्रदर्शने | | आज्ञया-तदाज्ञां प्रमाणीकृत्येत्यर्थः विनयेन-अञ्जलिकरणादिना वचनं-राजादेश प्रतिशृणोति-अभ्युपगच्छति इति ॥१२॥3 | तएणं समणे भगवं महावीरे कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुलुप्पलकमलकोमलुम्मिलितंमि आहा (अह)| पंडुरे पहाए रत्तासोगप्पगासकिंसुअसुअमुहगुंजद्धरागसरिसे कमलागरसंडवोहए उड्डियम्मि सूरे सहस्सरस्सिमि दिणयरे तेयसा जलंते जेणेव चंपा गयरी जेणेव पुषणभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छति २त्ता अहापडिरूवं उग्गह उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति ॥ (सू०१३)॥ S 'कलं पाउप्पभायाए रयणीए'त्ति कल्यमिति-श्वः प्रादुः प्राकाश्ये ततः प्रकाशप्रभातायां रजन्यां 'फुल्लुप्पलकमलकोम लुम्मिलियमित्ति फुलं-विकसितं तच्च तदुत्पलं च-पद्म फुलोत्पलं तच्च कमलश्च-हरिणविशेषः तयोः कोमलम्-अकठोरमुन्मीलित-दलानां नयनयोश्चोन्मीलनं यस्मिस्तत्तथा । तत्र 'अह पंडुरे पभाए'त्ति अथ रजनीप्रभातानन्तरं पाण्डुरे-शुले & प्रभाते-उपसि । 'रत्तासोगप्पगासकिंसुअसुअमुहगुंजद्धरागसरिसे कमलागरसंडबोहए उडियंमि सूरे'त्ति रकाशोकस्य [१२] ~54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------ मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा अनगा प्रत सू०१४ सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम तरुविशेषस्य प्रकाशः-प्रभा स च किंशुकं च-पलाशकुसुमं शुकमुखं च-प्रतीतं गुञ्जा-रक्तकृष्णः फलविशेषः तदर्द्ध चेति द्वन्द्वः, एषां यो रागो-रक्तवं तेन सदृश:-समो यः स तथा, तथा कमलाकरा-पद्मोत्पत्तिस्थानभूता दादयस्तेषु यानि पण्डानि-नलिनवनानि तेषां बोधको-विकाशको यः स तथा तत्र, उत्थिते-उगते सूरे-रवौ । किम्भूते?-'सहस्सरसिमि || |दिणअरे तेअसा जलंते'त्ति विशेषणत्रयं व्यक्तम् । 'संपलियकनिसन्ने'त्ति पद्मासने निषण्णः, इदं च वाचनान्तरपदम् ॥१३॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे समणा भगवंतो अप्पेगइया उग्गपब्वइया भोगपब्वइया राइण्णणायक कोरब्ध खत्तिअपव्वाआ भडा जोहा सेणाबई पसत्थारो , सेही इन्भा अण्णे य बहवे एवमाइणो उत्तमजातिकुलरूवविणयविण्णाणवण्णलावण्णविकमपहाणसोभग्गतिजुत्ता बहुधणधण्णणिचयपरियालफिडिआ णरवइगुणाइरेगा इच्छिअभोगा सुहसंपललिआ किंपागफलो-18 वमं च मुणिअ विसयसोक्खं जलबुब्बुअसमाणं कुसग्गजलबिंदुचंचलं जीवियं च णाऊण अडुवमिण रयमिव है Pापडग्गलग्गं संविधुणित्ताणं चहत्ता हिरणं जाव पवइआ, अप्पेगइया अद्धमासपरिआया अप्पेगइआ मास|| परिआया एवं दुमास तिमास जाव एक्कारस० अप्पेगइआ वासपरिआया दुवास तिवास० अप्पेगहआ W|| अणेगवासपरिआया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरति ।। (सू०१४)॥ Mil 'अंतेवासित्ति शिष्याः। 'अप्पेगइयत्ति अपिः-समुच्चये एकका-एके अन्ये केचिदपीत्यर्थः । 'उग्गपबइय'त्ति उग्रा-1 आदिदेवेन ये आरक्षकत्वेन नियुक्ताः तद्वंशजाश्च अत उग्राः सन्तःप्रन्नजिता-दीक्षामाश्निता उग्रप्रवजिताः । एवमन्यान्यपि *CRORSCCCXCX [१३] |॥२६॥ SARERatininemarana विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं (कुल-अनुसार) ~55~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [१४] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः पदानि, नवरं भोगा - ये तेनैव गुरुत्वेन व्यवहृतास्तद्वंशजाश्च राजन्या ये तेनैव वयस्यतया व्यवस्थापितास्तद्वंशजाश्च, | ज्ञाता इक्ष्वाकुवंशविशेषभूताः नागा वा नागवंशप्रसूताः कोरवत्ति- कुरवः कुरुवंशप्रसूताः, क्षत्रियाश्चातुर्वण्यें द्वितीयवर्णभूताः, भडत्ति- चारभटाः, जोहत्ति-भटेभ्यो विशिष्टतराः सहस्रयोधादयः, सेणावइन्ति-सैन्यनायकाः, पसत्थारत्ति-प्रश स्तारो धर्मशास्त्रपाठकाः, श्रेष्ठिनः -श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टाङ्कितमस्तकाः, इम्भत्ति-इभ्या: हस्तिप्रमाणद्रविणराशिपतयः 'अण्णे य बहवे एवमाइणो'त्ति एवम्प्रकाराः 'उत्तमजाइकुलरूवविणय विष्णाणवण्णलावण्णविक्कमपहाण सोहग्गकंति जुत्त ति | उत्तमा ये जात्यादयः प्रधाने च ये सौभाग्यकान्ती तैर्ये युक्तास्ते तथा तत्र जातिः - मातृकः पक्षः कुलं - पैतृकः पक्षः रूपं शरीराकारः विनयविज्ञाने च-प्रतीते वर्णो-- गौरत्वादिका कायच्छाया लावण्यम् - आकारस्यैव स्पृहणीयता विक्रम:| पौरुषं सौभाग्यम् - आदेयता कान्तिः - दीप्ति: । 'बहुघणघण्णनिचयपरियालफिडिआ' बहवो ये धनानां - गणिमधरिमादीनां धान्यानां च - शाल्यादीनां निचयाः-सञ्चयाः परिवारश्च दासीदासादिपरिकरस्तैः स्फुटिता-ईश्वरान्तराण्यतिक्रान्ताः | अथवा तेभ्यः सर्वसङ्गत्यागेन दूरीभूता ये ते तथा, पाठान्तरे बहवो धनधान्यनिचयपरिवारा यस्यां सा तथाभूता स्थितिः गृहवासे येषां ते तथा । 'णरवइगुणाइरेआ' नरपतेः - राज्ञः सकाशाद्गुणैः- विभवसुखादिभिः अतिरेकः- अतिशयोयेषां ते तथा । 'इच्छियभोगा' ईप्सिता-बाच्छिताः भोगाः शब्दादयो येषां ते तथा। 'सुहसंपललिया' सुखेन सम्प्रल| लिताः - प्रक्रीडिता ये ते तथा । 'किंपागफलोबमं चत्ति विषवृक्षफलतुल्यं पुनः 'मुणिअ'त्ति ज्ञात्वा 'विसयसुहं'ति व्यक्तं, तथा 'जलबुब्बुअसमानं' कुशाग्रे जलबिन्दुः कुशाग्रजलविन्दुस्तद्वचञ्चलं 'जीवियं'ति जीवितव्यं च ज्ञात्वा तथा 'अजु Education International विविध प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं For Penal Use Only ~56~ www.inrary.org Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अनगा ॥२७॥ प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [१४] औपपा- IC वमिण ति इदं विषयसौख्यधनसश्चयादिकम् अध्रुवम्-अनित्यरूपं रज इव पटायलग्नं 'संविधुणित्ता णति विधूय-सगिति || तिकम् विहाय, नथा 'चइत्तत्ति त्यक्त्वा, किं तदित्याह-हिरण्यं च रूप्यं, यावच्छब्दोपादानादिदं दृश्यम्-चिच्चा सुवणं चिच्चा धणं एवं धणं बलं वाहणं कोस कोडागारं रज रडं पुरं अंतेउरं चिच्चा विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तिअसंखसिलप्पवा-1 लरत्तरयणमाईयं संतसारसावतेज विच्छड्डुइत्ता विगोवइत्ता दाणं च दाइयाणं परिभायइत्ता मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारिय मिति, व्यक्तं चैतत् , नवरं सुवर्ण घटितं धनं-गवादि बलं-चतुरङ्गं वाहन-बेगसरादिकं पुनर्धन-गणिमादि कनकम्-अघटितसुवर्ण रत्लानि-कर्केतनादीनि मणयः-चन्द्रकान्तादयः मौक्तिकानि-मुक्ताफलानि शङ्खा:-प्रतीताः शिलाप्रवालानि-विद्रुमाणि रक्तरत्नानि-पद्मरागा आदिशब्दाद्वस्त्रकम्बलादिपरिग्रहा, एतेन किमुक्तं भवतीत्याह-संतत्ति | विद्यमानं सारस्वापतेयं-प्रधानद्रव्यं, किमित्याह-विच्छध-विशेषेण त्यक्त्वा विच्छर्दवद्वा कृत्वा निष्क्रमणमहिमकरणतः, तथा तदेव गुप्तं सद्विगोप्य-प्रकाशीकृत्य दानातिशयादत एव 'दाणं च दाइयाण ति दानाहेभ्यः परिभाज्य-दत्त्वा, गोत्रिकेभ्यो वा-विभागशो दत्वा मुण्डा भूत्वा-द्रव्यतः शिरोलुश्चनेन भावतः क्रोधाद्यपनयनेन अगाराद्-गेहात् निष्कम्येति शेषः, अनगारितां-साधुतां प्रत्रजिता-ताः, विभक्तिपरिणामावा अनगारितया अवजिता:-श्रमणीभूताः, पर्यायसूत्राणि व्यक्तान्येवेति ॥ १४ ॥ ४ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे निग्गंथा भगवंतो अप्पेगइआ & आभिणिबोहियणाणी जाव केवलणाणी अप्पेगइआ मणवलिआ वयवलिआ कायवलिआ अप्पेगइआ मणेणं ॥२७॥ SARERaunintenarana विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -(ज्ञान-आदि अनुसार) ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१५] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः सावाणुग्गहसमत्था ३'. अप्पेगइआ खेलोसहिपत्ता एवं जल्लोसहि० विप्पोसहि० आमोसहि० सन्चोसहि० अप्पेगइआ कोडबुडी एवं बीअबुद्धी पडबुद्धी अप्पेगइआ पथाणुसारी अप्पेगइआ संभिन्नसोआ अप्पेगइआ वीरासवा अप्पेगइआ महुआसवा अप्पेगइआ सप्पिआसवा अप्पेगइआ अक्खीणमहाणसिआ एवं उज्जुमती अप्पेगइआ विउलमई विउयणिहिपत्ता चारणा विजाहरा आगासातिवाइणो ॥ • साधुवर्णकगमान्तरं व्यक्तमेव, नवरं 'मणोवलिय'त्ति मनोबलिका:-मानसावष्टम्भवन्तः वाग्बलिकाः- प्रतिज्ञातार्थनिवाहकाः परपक्षक्षोभकारिचचना वा, कायवलिकाः क्षुधादिपरीषहेष्वग्लानीभवत्कायाः 'नाणवलिया' अव्यभिचारिज्ञानाः 'दंसणबलिया' परैरक्षोभ्यदर्शनाः 'चारितवलिया' इति व्यक्त, वाचनान्तराधीतं चेदं विशेषणत्रयम् 'अप्पेगइआ मणेणं सावाणुग्गहसमत्था' मनसैव परेषां शापानुग्रही - अपकारोपकारी कर्तुं समर्था इत्यर्थः एवं वाचा कायेन चेति । 'खेलो| सहिपत्त'त्ति खेलो- निष्ठीवनं स एर्वौषधिः सकलरोगाद्यनर्थोपशमहेतुत्वात् खेलोपधिस्तां प्राप्ता ये ते तथा, एवमन्यत्रापि, | नवरं 'जल्लोसहि'त्ति जल्लो-मलः 'विप्पोसहि'त्ति विपुषः प्रश्रवणादिविन्दवः, अथवा वि इति विष्ठा प्र इति प्रश्रवणं ते | एव ओषधिः इति । 'आमोसहि'त्ति आमर्पणमामर्पः हस्तादिसंस्पर्श इति । 'सबोसहि'त्ति सर्व एव खेलजलविमुकेशरो मनखादय ओषधिः सर्वौषधिः, 'कोडबुद्धि'त्ति कोष्ठवत्-कुशूल इव सूत्रार्थधान्यस्य यथाप्राप्तस्याविनष्टस्याऽऽजन्मधरणाबुद्धि: मतिर्येषां ते तथा । 'बीजबुद्धि' त्ति बीजमिव विविधार्थाधिगमरूप महातरुजननाद्बुद्धिर्येषां ते तथा । 'पडबुद्धि ति १ वाक्कायशापानुग्रहसमर्थेति ज्ञापनाय त्रिकलक्षणोऽङ्कः ॥ Eucatur Internation विविध प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं - ( ज्ञान आदि अनुसार ) For Penal Use Only ~58~ wor Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [१५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: | अनगा प्रत औपपातिकम् सू०१५ सूत्रांक २८॥ [१५] दीप अनुक्रम CEO-CSC | पटवत् विशिष्टवक्तृवनस्पतिविसृष्टविविधप्रभूतसूत्रार्थपुष्पफलग्रहणसमर्थतया बुद्धिर्येषां ते तथा । 'पदाणुसारित्ति पदेनसूत्रावयवेनैकेनोपलब्धेन तदनुकूलानि पदशतान्यनुसरन्ति-अभ्यूहयन्तीत्येवंशीला पदानुसारिणः । 'संभिन्नसोपत्ति सम्भिन्नान् बहुभेदभिन्नान् शब्दान् पृथक् पृथक् युगपच्छृण्वन्तीति सम्भिन्नश्रोतारः, सम्भिन्नानि वा-शब्देन व्याप्तानि शब्दग्राहीणि, प्रत्येक वा शब्दादिविषयैः श्रोतांसि-सर्वेन्द्रियाणि येषां ते तथा । 'खीरासव'त्ति क्षीरवन्मधुरत्येन श्रोतां कर्णमनःसुखकरं वचनमाश्रवन्ति-क्षरन्ति ये ते क्षीराश्रवाः । 'महुआसव'त्ति मध्वाश्रवाः प्राग्वत् , नवरं मधुवत्सर्वदोषोपशमनिमित्तत्वादाल्हादकत्वाच्च तद्वचनस्य क्षीरानवेभ्यस्ते भेदेनोकाः । 'सप्पिासव'त्ति सर्पिराश्रवास्तथैव, नवरं श्रोतृणां स्वविषये स्नेहातिरेकसम्पादकत्वात् क्षीराश्रवमध्वाश्रवेभ्यो भेदेनोक्ताः । 'अक्खीणमहाणसीय'त्ति महानसम्-अन्नपाक| स्थानं तदाश्रितत्वाद्वाऽन्नमपि महानसमुच्यते, ततश्चाक्षीणं-पुरुषशतसहस्रेभ्योऽपि दीयमानं स्वयमभुक्तं सत् तथाविधलब्धिविशेषादत्रुटितं तच्च तन्महानसं च-भिक्षालब्धं भोजनमक्षीणमहानसं तदस्ति येषां ते तथा । 'उज्जुमईत्ति ऋग्वी सामान्यतो मनोमात्रग्राहिणी मतिः-मनःपर्यायज्ञानं येषां ते तथा । 'विउलमइत्ति विपुला-बहुविधविशेषणोपेतमन्यमानवस्तुमाहिरवेन विस्तीर्णा मतिः-मनःपर्यायज्ञानं येषां ते तथा, तथाहि घटोऽनेन चिन्तितः स च द्रव्यतः सौवर्णादिः क्षेत्रतः पाटलिपुत्रकादिः कालतः शारदादिर्भावतः कालवर्णादिरित्येवं विपुलमतयो जानन्ति, ऋजुमतयस्तु सामान्यत एव, तथा अर्द्ध तृतीयाकुलन्यूने मनुजक्षेत्र व्यवस्थितसंजिनां मनोयाहिका आद्याः, इतरे तु सम्पूर्ण इति । 'विउबणितिपत्त'त्ति विकुर्वणा-वैक्रियकरणलब्धिः सैव ऋद्धिस्ता प्राप्ता ये तथा । 'चारण'त्ति चरण-गमनं तदतिशयबदस्ति येषां ते [१५] ॥२८॥ विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णन ~59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१५] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [ ... १५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः “औपपातिक” - चारणाः, ते च द्विधा जङ्घाचारणा विद्याचारणाश्च तत्राष्टमाष्टमेन क्षपतो यतेर्या लब्धिरुत्पद्यते यया च कञ्चिज्जङ्घाव्यापारमाश्रित्यैकेनैवोपपातेन त्रयोदशं रुचकवराभिधानं द्वीपं मेरुमस्तकं च यावद्गन्तुं प्रतिनिवृत्तश्च तत उत्पातद्वयेनेहागन्तुं समर्थो भवति तथा युक्ता आद्याः, या पुनः षष्ठं षष्ठेन क्षपत उत्पद्यत यया श्रुतविहितेषदुपष्टम्भतयोत्पातद्वयेना|ष्टमं नन्दीश्वराख्यं द्वीपं मेरुमस्तकं च गन्तुं ततः प्रतिनिवृत्तश्चेकेनैवोत्पातेने हागन्तुं समर्थो भवति तया युक्ता द्वितीया इति । 'विज्जाहर'त्ति प्रज्ञत्यादिविविधविद्याविशेषधारिणः । 'आगासातिवाइणो'त्ति आकाशं व्योमातिपतन्ति - अतिक्रामन्ति | आकाशगा मिविद्याप्रभावात् पादलेपादिप्रभावाद्वा आकाशाद्वा हिरण्यवृष्ट्यादिकमिष्टमनिष्टं वाऽतिशयेन पातयन्तीत्येवंशीला आकशातिपातिनः, आकाशादिवादिनो या-अमूर्तानामपि पदार्थानां साधन (ने) समर्थवादिन इति भावः । अप्पेगइआ कणगावलिं तवोकम्मं पडिवण्णा एवं एकावलिं खुड्डागसीह निक्कीलियं तवोकम्मं पडिवण्णा अप्पेगइयामहालयं सहनिकीलियं तवोकम्मं पडिण्णा भद्दपडिमं महाभद्दपडिमं सव्वतोभद्दपडिमं आयंबिलवद्धमाणं तवोकम्मं पडिवण्णा 'कणगावलिं तवोकम्मं पडिवण्णगत्ति कनकमयमणिकमयो भूषणविशेषः, कल्पनया तदाकारं यत्तपस्तत्कनकावलीत्युच्यते, तत्स्थापना चैवम् चतुर्थ पष्ठमष्टमं चोत्तराधर्येणावस्थाप्य तेषामधोऽष्टावष्टमानि चत्वारि चत्वारि पङ्किद्वयेनावस्थापनीयानि, उभयतो वा रेखाचतुष्केण नव कोष्ठकान्विधाय मध्यमे शून्यं विधाय शेषेष्वष्टसु तानि स्थापनीयानि, ततस्तस्याधोऽधः चतुर्थादीनि चतुस्त्रिंशत्तमपर्यन्तानि ततः कनकावलिमध्यभागकल्पनया चतुस्त्रिंशदष्टमानि तानि चोत्तराधर्येण विविध प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं - (तपोकर्म आदि अनुसार) For Para Use Only ~60~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [...१५]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा- ॥ त्रीणि चत्वारि पश्च षट् पञ्च चत्वारि त्रीणि द्वे चेत्येवं स्थाप्यानि, अथवाऽष्टाभिः पनिश्च रेखाभिः पञ्चत्रिंशरकोष्ठकान विधाय मध्ये शून्यं कृत्वा शेषेषु तानि स्थापीयानीति, अनगा. तिकम् सू०१५ il२९॥ प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१५] ३/३३३३ 333013 ३३३३३ SAREautatuninternational विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -(तपोकर्म आदि अनुसार) ~ 61~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१५] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... १५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः तत उपर्युपरि चतुस्त्रिंशत्तमादीनि चतुर्थान्तानि ततः पूर्ववदष्टावष्टमानि ततोऽष्टमं षष्ठं चतुर्थं चेति । चतुर्थादीनि चक्रमेणैकोपवासादिरूपाणीति । अत्र चैकस्यां परिपाठ्यां विकृतिभिः पारणकं, द्वितीयस्यां निर्विकृतिकेन, तृतीयायामलेपकृता, चतुर्थ्यां चाचाम्लेनेति । अत्र चैकैकस्यां परिपाठ्यामेकः संवत्सरो मासाः पञ्च दिनानि च द्वादश परिपाटी| चतुष्टये तु संवत्सराः पञ्च मासा नव दिनानि चाष्टादशेति । 'एवमेकावली' कनकावल्यभिलापेनेत्यर्थः, एकावली च | नाम्यत्रोपलब्धेति न लिखिता । 'खुड्डागसी हनिक्कीलियं'ति वक्ष्यमाणमहासिंहनिक्रीडितापेक्षया क्षुलकं सिंहनिक्रीडितंसिंहगमनं तदिव यत्तपस्तत् सिंहनिक्रीडितमित्युच्यते, तद्गमनं चातिक्रान्तदेशावलोकनतः, एवमतिक्रान्ततपःसमासेवनेनापूर्वतपसोऽनुष्ठानं यत्र तत्सिंहनिक्रीडितमिति, तच्चैवम् चतुर्थी ततः षष्ठचतुर्थेऽष्टमपठे दशमाष्टमे द्वादशदशमे | चतुर्दशद्वादशे पोडशचतुर्दशे अष्टादशपोडशे विंशतितमाष्टादशे विंशतितमं चेति क्रमेण विधीयते, ततः पोडशाष्टादशे चतुर्दशपोडशे द्वादशचतुर्दशे दशमद्वादशे अष्टमदशमे षष्ठाष्टमे चतुर्थषष्ठे चतुर्थं चेति, स्थापना चैवम् १ ९ १। २३४५६७८९ ४५ ७६५४३२१ अत्र च एकस्यां परिपाव्यां दिनमानम् नवकसङ्कलने द्वे ४५ । ४५ अष्ट१२३४५६७८ ४५ ८७६५४३२ कसङ्कलना चैका ३६ सप्तकसङ्कलनाऽप्येकैव २८ पारणकदिनानि ३३ सर्वाग्रम् १८७, एवं च मासाः ६ दिनानि च ७, चतसृषु परिपाटीष्वेतदेव चतुर्गुणं स्यात्, तत्र वर्षे २ दिनानि २८, तत्र प्रथमपरिपाठ्यां पारणकं सर्वकामगुणितं, द्वितीयस्यां निर्विकृतिक, तृतीयायामलेपकारि, चतुर्थ्यामाचामाम्लमिति । एवं महासिंहनिक्रीडितमपि, नवरमिह स्थापना एकादयः षोडशान्ताः पुनः षोडशादय एकान्ताः स्थाप्यन्ते, तत्र यादीनां Education Internation विविध प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं - (तपोकर्म आदि अनुसार) For Pale One ~62~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१५] “औपपातिक" उपांगसूत्र- १ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः औपपातिकम् ॥ ३० ॥ Ov | पोडशान्तानामग्रे प्रत्येकमेकादयः पञ्चदशान्ताः स्थाप्यन्ते, तथा ये षोडशाद्य एकान्ताः स्थापितास्तेषु पञ्चदशादीनां | व्यन्तानामादौ चतुर्दशादयः स्थापनीयाः, चतुर्थादिना चाभिलापेन ते समुत्कीर्तनीयाः । BY 9 5 20 mm १ 20 g voor or or or or or or or mor 20 दिनमानं चैकस्यां परिपाव्यामिदमत्र - द्वे पोडशानां सङ्कलने १३६, १२६ एका पञ्चदशानां १२० चतुर्दशानामध्ये केव १०५ एकषष्टिश्च पारणकानीति, सर्वाग्रं च ५५८, एवं च वर्षमेकं पट् च मासाः दिनान्यष्टादशेति, परिपाटी चतुष्टये चतुर्गुणमेतदेव वर्षाणि ६ मासौ २ दिनानि १२ । तथा भद्रप्रतिमा - यस्यां पूर्वदक्षिणापरोत्तराभिमुखः प्रत्येकं प्रहरचतुष्टयं कायोत्सर्ग करोति, एपा चाहोरात्रद्वयमानेति, महाभद्राऽपि तथैव, नवरमहोरात्रं यावदेकैकदिगभिमुखः कायोत्सर्ग करोति, अहोरात्रचतुष्टयं चास्यां मानमिति, सर्वतोभद्रा पुनर्यस्यां दशसु दिक्षु प्रत्येकमहोरात्रं कायोत्सर्ग करोति । अस्यां च | दशाहोरात्राणि मानमिति । अथवा द्विविधा सर्वतोभद्रा क्षुद्रा महती च तत्र क्षुद्रायाः स्थापना | स्थापनोपायगाथा चेयमत्र - 'एगाई पंचंते ठविडं मज्झं तु आइमणुपंति । सेसे कमेण विडं जाणेजा सबओभदं ॥ १ ॥ तपोदिनानीह पञ्चसप्ततिः, पारण कदिनानि तु पञ्चविंशतिः, सर्वाणि दिनानि शतमे| कस्यां परिपाठ्यां चतसृषु त्वेतदेव चतुर्गुणम्। एवं महत्यपि, नवरमेकादयः सप्तान्तास्तस्यामुपवासा भवन्ति, | स्थापनोपायगाथा स्वियम् -'एगाई सत्ता ठडिं मज्झं तु आइमणुपंति । सेसे कमेण ठविडं जाण महासबओभदं ॥ १ ॥ १२३ Education Internation १४ १५ २ १३ १ १४ 205 - 0 - 5 20 mr or or oor or or 20 5 9 voor or or or or or विविध प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं - (तपोकर्म आदि अनुसार) For Parts Only ~63~ अनगा० सू०१५ ॥ ३० ॥ wor Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१५]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१५] शश४५६७) इयं प्रथमा पङ्किः ४।५।६।१२।३ द्वितीया अश२४.५।६। तृतीया शा५६७२ चतुर्थी | ६७१२२२४५ पञ्चमी २२४५।६७१ षष्ठी ५/६७।१४ सप्तमी । इह च पणवत्यधिक शतं तपोदिनानां स्यादेकोनपश्चाशच पारणकदिनानि, एवं चाष्टौ मासाः पञ्च दिनानि, चतसृषु परिपाटीप्वेतदेव चतुर्गुणमिति । 'आयविलवद्धमाण'ति यत्र चतुर्थ कृत्वा आयामाम्लं क्रियते, पुनश्चतुर्थं, पुनझै आयामाम्ले, पुनश्चतुर्थ, पुनस्त्रीणि आयामा-18 म्लानि, एवं यावचतुर्थ शतं चायामाम्लानां क्रियत इति, इह च शतं चतुर्थानां तथा पञ्च सहस्राणि पश्चाशदधिकानि | आयामाम्लानां भवन्तीति । ___मासिअंभिक्खुपडिम एवं दोमासि पडिमं तिमासि पडिम जाव सत्तमासिअं भिक्खुपडिम |पडिवण्णा पढम सत्तराईदिअं अप्पेगइया भिक्खुपडिम पडिवण्णा जाव तचं सत्तराइंदिरं भिक्खुपडिम |पडिवणा अहोराइंदिअंभिक्खुपडिम पडिवण्णा इकराइंदिअं भिक्खुपडिम पडिवण्णा सत्तसत्तमिअं| भिक्खुपडिमं अहमिअं भिक्खुपडिम णवणवमि भिक्खुपडिम दसदसमिअं भिक्खुपडिम खुड्डियं | मोअपडिमं पडिवण्णा महल्लियं मोअपडिम पडिवण्णा जवमझं चंदपडिम पडिवण्णा बहर (वज) मज्झं चंदपडिम पडिवण्णा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरति ।। (सू०१५॥) 'मासिय भिक्खुपडिमति मासपरिमाणा मासिकी तां भिक्षुप्रतिमां-साधुप्रतिज्ञाविशेष, तत्र हि मासं यावदेका दत्ति १ टीकाकृदभिप्रायेण राइंदिअं। २ एगराइयंति वृत्तिः । auralianchurary.org | विविध प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं --(भिक्षु-प्रतिमादि अनुसार) ~ 64 ~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम औपपा- भक्तस्यै कैव च पानकस्येति, एवं द्वितीयाचा सप्तभ्यन्ताः एकैकदत्तिवृद्धियुक्ता इति । 'पढमसत्तराइंदिति तिमणां || तिकम् ट्रामध्ये प्रथमा सप्तराविन्दिवा-सप्ताहोरात्रप्रमाणा, अस्यां च चतुर्थ चतुर्थेन पानकाहारविरहित उत्तानको वा पार्श्वशायी वा। OIL सू०१५ निषद्योपगतो वा प्रामादिभ्यो बहिर्षिहरति, द्वितीयसप्तरात्रिन्दिवाऽप्येवंविधैव, नवरं उत्कुटुको वा लगण्डशायी वा ॥३१॥ दण्डायतो वा विहरति, एवं तृतीया सप्तरात्रिन्दिवापि, नवरं गोदोहिकास्थितो वा वीरासनिको वा आमकुन्जो वा|| आस्त इति । 'राईदिति रात्रिन्दिवप्रमाणामहोरात्रिकीमित्यर्थः, अस्यां च षष्ठोपवासिको प्रामादिभ्यो बहिः प्रलम्बभुजस्तिष्ठतीति । 'एगराइयंति एका रात्रिः प्रमाणमस्या इत्येकरात्रिकी ताम्, अस्यां चाष्टमभक्तिको प्रामादिवहिरीषदवनतगात्रोऽनिमिषनयनः शुष्कपुद्गलनिरुद्धदृष्टिः जिनमुद्रास्थापितपादः प्रलम्बितभुजस्तिष्ठतीति, विशिष्टसंहननादियुक्त एव चैताः प्रतिपद्यन्ते, आह च-"पडिवजइ एयाओ संघयणधिइजुओ महासत्सो । पडिमाउ भावियप्पा सम्मं गुरुणा अणुन्नाओ ॥१॥" इत्यादि ॥ 'सत्तसत्तमिय'ति सप्तसप्तमानि दिनानि यस्यां सा तथा, सा च सप्तभिर्दिनानां सप्तकैर्भ वति, तत्र च प्रथमदिने एका दत्तिर्भक्तस्यैकैव च पानकस्यैवं व्यादिवेकोत्तरथा वृक्ष्या सप्तमदिने सस दत्तया, एवमन्यालान्यपि पटू सप्तकानि, अथवा प्रथमसप्तके प्रतिदिनमेका दत्तिद्धितीयादिषु तु धादयो यावत्सप्तमे सप्त के प्रतिदिनं सप्तेति, एवमष्टाष्टमिका नवनवमिका दशदशमिका चेति, नवरं दत्तिवृद्धिः कार्येति । कचिदिह स्थाने भद्रासुभद्रामहाभद्रासवें. तोभद्राभोत्तराश्च भिक्षुप्रतिमाः पठंयन्ते, तत्र सुभद्रा अप्रतीता, शेषास्तु व्याख्याताः प्राक्, नवरं भद्रोत्तरास्थापना १ प्रतिपद्यत एताः संहननधृतियुक्तो महासत्त्वः । प्रतिमा भावितात्मा सम्यागुरुणाऽनुज्ञातः ॥१॥ [१५] RELIGunintentATHREE विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं --(भिक्षु-प्रतिमादि अनुसार) ~65~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] 5-%25A दीप अनुक्रम [१५] | एवम्-14/६७८ारा प्रथमा पहिः७८।९।५।६। द्वितीया ।९।५।६३७८ तृतीया ।६७८९।५/ चतुर्थी दा९।५।६७ पश्चमीति । अथवा ।५।६ ।९।१०।११। प्रथमा पतिः ।८।९।१०।११।५।६७। द्वितीया ।१२५।६।७।८।९।१०। तृतीया ७८ ।९।१०।११।५।६ चतुर्थी ।१०।११।५/६७८९ पञ्चमी १६७८।९।१०१५। षष्ठी ।९।१०।११।५।६।७८) सप्तमीति । 'खुड्डिय'ति क्षुद्रिका-महत्यपेक्षया लघ्वी मोकप्रतिमा-प्रश्रवणाभिग्रहः, इयं च द्रव्यतः प्रश्रवणविषया प्रश्श्रवणस्याप्र|तिष्ठापनेत्यर्थः, क्षेत्रतो ग्रामादेवहिः, कालतः शरदि निदाघे वा प्रतिपद्यते, भुक्त्वा चेत् प्रतिपद्यते चतुर्दशभ केन समाप्यते, अभुक्त्या चेत् प्रतिपद्यते तदा पोडशभक्तेन समाप्यते, भावतस्तु दिन्यादिकोपसर्गसहनमिति । एवं 2 महामोकप्रतिमाऽपि नवरं भुक्त्वा चेत् प्रतिपद्यते तदा षोडशभक्तेन समाप्यते, अभुक्त्वा चेत्तदाऽष्टादशभक्तेनेति । 'जव-18 मझं चंदपडिमति यवस्येव मध्यं यस्यां सा यवमध्या, चन्द्र इव कलावृद्धिहानिभ्यां या प्रतिमा सा चन्द्रप्रतिमा, तथाहि शुक्लप्रतिपदि एक कवलं भिक्षा वा अभ्यवहत्य प्रतिदिनं कवलादिवृद्धया पञ्चदश पौर्णमास्यां कृष्णप्रतिपदि च पञ्चदशैव मा भुक्त्वा प्रतिदिनमेकहान्या अमावास्यायामेकमेव यस्यां भुलेसा स्थूलमध्यत्वात् यवमध्येति । 'बहरमण्झं चंदपडिम'ति वैरस्येव (वज्रस्येव) मध्यं यस्यां सा तथा, यस्यां हि कृष्णप्रतिपदि पञ्चदश कवलान् भुक्त्वा ततः प्रतिदिनमेकहान्या अमा वास्यायामेकं शुक्लप्रतिपद्यष्येकमेव, ततः पुनरकवृद्ध्या पौर्णमास्यां पञ्चदश भुने सा तनुमध्यत्वालूजमध्येति ॥ वाच-11 ४ानान्तराधीतमथ पदचतुष्कम्-'विवेगपडिमति विवेचन विवेकः-त्यागः, स चान्तराणां कषायादीनां बाह्यानांच गणशरी-18 रानुचितभक्तपानादीनां तत्प्रतिपत्तिविवेकप्रतिमेति। विउस्सग्गपडिमति व्युत्सर्गप्रतिमा-कायोत्सर्गकरणमिति । 'उवहाण 25 SARERatininemarana विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं --(भिक्षु-प्रतिमादि अनुसार) ~66~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१५] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [... १५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः औपपातिकम् ॥ ३२ ॥ ४ “औपपातिक” | पडिमं 'ति तपोविषयोऽभिग्रहः, यद्यपि दशाश्रुतस्कन्धे भिक्षूपासकप्रतिमास्वरूपेय मुक्ता तथापीह तथा न व्याख्याता, भिक्षुप्रतिमानां प्रागेव दर्शितत्वाद्, उपासकप्रतिमानां च साधूनामसम्भवात् । 'पडिली पडिमं ति संलीनताऽभिग्रहमिति ॥ १५ ॥ - ते काले तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे घेरा भगवंतो जातिसंपण्णा कुलसंपण्णा बलसंपण्णा रुवसंपण्णा विणयसंपण्णा णाणसंपण्णा दंसणसंपण्णा चरितसंपण्णा लज्जासं पण्णा लाघवसंपण्णा ओअंसी तेअंसी वयंसी जसंसी जिअकोहा जियमाणा जिअमाया जिअलोभा जिअइंदिआ जिअणिद्दा जिअपरीसहा जीविआसमरणभयविष्यमुक्का वयष्पहाणा गुणप्पहाणा करणष्पहाणा चरण पहाणा णिग्गहप्पहाणा निच्छयपहाणा अञ्जवप्पहाणा महवप्पहाणा लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा विज्ञापहाणा संतप्पहाणा बेअप्पहाणा वंभप्पहाणा नयप्पहाणा नियमप्पहाणा सच्चप्पहाणा सोअप्पहाणा चारुषण्णा लज्जातवस्सीजिइंदिआ सोही अणियाणा अप्पुस्सुआ अपहिल्लेसा | अप्पडिलेस्सा सुसामण्णरया देता इणमेव णिग्गधं पावयणं पुरओकाउं विहरति । Education International साधुवर्णकमान्तरमेव तत्र 'जाइसंपन्न'त्ति उत्तममातृकपक्षयुक्ता इत्यवसेयम्, अन्यथा मातृकपक्ष सम्पन्नत्वं पुरुषमात्रस्यापि स्यादिति नैषामुत्कर्षः कश्चिदुक्तः स्याद्, उत्कर्षाभिधानार्थं चैशं विशेषणकदम्बकं चिकीर्षितमिति, एवं 'कुलसंपन्ना' इत्याद्यपि विशेषणनवर्क, नवरं कुलं पैतृकः पक्षः वलं संहननसमुत्थः प्राणः रूपम्-आकृतिः विनयज्ञाने प्रतीते | दर्शनं सम्यक्त्वं चरित्रं- समित्यादि लज्जा- अपवादभीरुता संयमो वा लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधिता भावतो गौरवत्रयत्यागः विविध प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं - ( जातिसंपन्न आदि गुणाः) For Penal Use Only ~67~ अनगा० सू० १६ ॥ ३२ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [१६...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम 'ओसित्ति ओजो-मानसोऽवष्टम्भस्तद्वन्तः ओजस्विनः तयंसित्ति तेजः शरीरप्रभा तद्वन्तः तेजस्विनः 'वचंसित्ति । वचो-वचनं सौभाग्याधुपेतं येषामस्ति ते वचस्विनः, अथवा वर्चः-तेजः प्रभाव इत्यर्थः, तद्धन्तो वर्चस्विनः 'जसंसित्ति 3 यशस्विनः-ख्यातिमन्तः जितक्रोधादीनि सप्त विशेषणानि प्रतीतानि, नबर क्रोधादिजयः-उदयप्राप्तक्रोधादिविफलीकरण-16 तोऽवसेयः, 'जीविआसमरणभयविष्पमुक्का' जीविताशया मरणभयेन च विप्रमुक्ताः, तदुभयोपेक्षका इत्यर्थः, 'वयपहाणे ति व्रत-यतित्वं प्रधानम्-उत्तम शाक्यादियतित्वापेक्षया निर्ग्रन्थयतित्वाद्येषां, व्रतेन वा प्रधाना ये ते तथा, निर्गन्धश्रमणा इत्यर्थः, ते च न व्यवहारत एवेत्यत आह-गुणप्पहाण'त्ति प्रतीतं, नवरं गुणा:-करुणादयः, गुणप्राधान्यमेव प्रपञ्चयन्नाह-'करणप्पहाणे' त्यादिविशेषणसप्तके प्रतीतार्थ च, नवरं करणं-पिण्डविशुद्धयादि चरण-महाव्रतादि निग्रहः| अनाचारप्रवृत्तेनिषेधनं निश्चयः-तत्त्वनिर्णयः विहितानुष्ठानेषु वा अवश्यंकरणाभ्युपगमः, आर्जवं--मायोदयनिग्रहः । मार्दवं-मानोदयनिरोधा, लाघब-क्रियासु दक्षत्वं क्षान्ति:-क्रोधोदयनिग्रह इत्यर्थः, मुक्ति:-लोभोदयविनिरोधो विद्याःप्रज्ञत्यादिकाः मन्त्रा-हरिणेगमेष्यादिमन्त्राःवेदा:-आगमाः ऋग्वेदादयो वा ब्रह्म-ब्रह्मचर्य कुशलानुष्ठान वा नया-नीतयः । नियमा-अभिग्रहाः सत्यं-सम्यग्वादः शौच-द्रव्यतो निर्लेपता भावतोऽनवद्यसमाचारः, यच्चेह चरणकरणग्रहणेऽप्याजवादिग्रहणं तदार्जवादीनां प्राधान्यख्यापनार्थमवसेयं, 'चारुवण्ण'त्ति सत्कीर्तयः गौराद्युदात्तशरीरवणेयुक्ता वा सत्प्रज्ञा | वा 'लज्जातवस्सीजिइंदिय'त्ति लज्जाप्रधानास्तपस्विनः-शिष्या जितेन्द्रियाश्च येषां ते लज्जातपस्विजितेन्द्रियाः, अथवा लज्जया तपःश्रिया च जितानीन्द्रियाणि यैस्ते लज्जातपाश्रीजितेन्द्रियाः, यद्यपि जितेन्द्रिया इति प्रागुक्तं, तथापीह लज्जा [१६] | विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -(जातिसंपन्न आदि गुणा:) ~68~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [१६] पपा तिकम् ॥ ३३ ॥ “औपपातिक” मूलं [१६...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः * - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) तपोविशेषितत्वान्न पुनरुक्तत्वमव सेयमिति, 'सोहि'त्ति सुहृदो मित्राणि जीवलोकस्येति गम्यम्, अथवा शोधियोगाच्छोधयः- अकलुषहृदया इत्यर्थः, 'अणियाण'त्ति अनिदाना - निदानरहिताः 'अप्पुस्सुय'त्ति अल्पौत्सुक्या-औत्सुक्यवर्जिताः 'अहिलेस त्ति संयमादवहिर्भूतमनोवृत्तयः, 'अप्पडिलेस्सा [वा]' अप्रतिलेश्या - अतुल मनोवृत्तयः, 'सुसामण्णरय'त्ति अतिशयेन श्रमणकर्मासक्ताः, 'दंत'त्ति गुरुभिर्दमं ग्राहिताः विनयिता इत्यर्थः, इदमेव नैर्ग्रन्थ्यं प्रवचनं 'पुरओकार्ड'ति पुरस्कृत्य प्रमाणीकृत्य विहरन्तीति क्वचिदेवं च पठ्यते- 'बहूणं आयरिया' अर्थदायकत्वात् 'बहूणं उवज्झाया' सूत्रदायकत्वात्, बहूनां गृहस्थानां प्रत्रजितानां च दीप इव दीपो मोहतमःपटलपाटनपटुत्वात्, द्वीप इव वा द्वीपः संसारसागरनिमग्नानामाश्वासभूतत्वात्, 'ताणं'ति त्राणमनर्थेभ्यो रक्षकत्वात्, 'सरणं'ति शरणमर्थसम्पादकत्वात् 'गइति गम्यत इति गतिरभिगमनीया इत्यर्थः, 'पइति प्रतिष्ठन्त्यस्यामिति प्रतिष्ठा आश्रय इत्यर्थः ॥ तेसि णं भगवंताणं आयावायावि विदिता भवंति परवाया विदिता भवंति आयावायं जमइत्ता न लवणमिव मत्तमातंगा अच्छिद्दपसिणवागरणा रयणकरंडगसमाणा कुत्तिआवणभूआ परवादियपमद्दणा | दुबालसंगिणो समत्तगणिपिडगधरा सव्वक्खरसण्णिवाइणो सबभासाणुगामिणो अजिणा जिणसंकासा जिणा इव अवितहं वागरमाणा संजमेणं तवसा अप्पानं भावेमाणा विहरति ॥ (सू०१६) विविध प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं - ( जातिसंपन्न आदि गुणाः) तेषां भगवतां 'आयावायावित्ति भात्मवादा:- स्वसिद्धान्तप्रवादाः, अपिः समुच्चये, पाठान्तरेणात्मवादिनो जैना इत्यर्थः, विदिताः - प्रतीताः भवन्ति, तथा परवादाः - शाक्यादिमतानि, पाठान्तरेण परवादिनः- शाक्यादयो विदिता For Para Use Only ~69~ अनगा० सू० १६ ॥ ३३ ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम भवन्ति, स्वपरसिद्धान्तप्रवीणतया, ततश्च 'आयावाय'ति स्वसिद्धान्तं 'जमइत्त'सि पुनः पुनरावर्तनेनातिपरिचितं कृत्वा, ६ किमिव के इत्याह-नलवनमिव मत्तमातङ्गा इति प्रतीतं, नलवना इति पाठान्तरं, नलवनानीवेति व्याख्येय, ततः अच्छि-18 लादपसिणवागरण'त्ति अविरलप्रश्ना अविरलोत्तराश्च सम्भूताः सन्तो विहरन्तीति योगः, 'रयणकरंडगसमाण'त्ति प्रतीतं, 'कुत्तिआवणभूअत्ति कुत्रिक-स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणं भूमित्रयं तत्सम्भवं वस्त्वपि कुत्रिकं, तत्सम्पादक आपणो-हट्टः । कुत्रिकापणस्तजूताः-समीहितार्थसम्पादनलब्धियुक्तत्वेन तदुपमाः, 'परवाइयपमद्दण'त्ति तन्मतप्रमईनात् 'परवाईहिं अणो-3 कंता इत्यादि चोदसपुषी'त्यन्तं वाचनान्तरं, तत्र अनुपक्रान्ता-अनिराकृता इत्यर्थः, 'अण्णउस्थिएहि'ति अन्ययू-15 ★ थिकैः-परतीथिंकः 'अणोद्धंसिजमाण'त्ति अनुपध्वस्यमानाः माहात्म्यादपात्यमानाः, विहरन्ति-विचरन्ति, 'अप्पेगइया है आयारधरे'त्येवमादीनि पोडश विशेषणानि सुगमानि, नवरं सूत्रकृतधरा इत्यस्य प्राक्तनाङ्गधरणाविनाभूतत्वेऽपि तस्यातिशयेन धरणात्सूत्रकृतधरा इत्याधुक्तम् , अत एव विपाकश्रुतधरोक्तावपि एकादशाङ्गविद इत्युक्तम्, अथवा विदे*र्विचारणार्थत्वादेकादशाङ्गविचारकाः, नवपूादिग्रहणं तु तेषां सातिशयत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थमिति, चतुर्दशपूर्वित्वे | सत्यपि द्वादशामित्वं केषाश्चिन्न स्थाचतुर्दशपूर्वाणां द्वादशाङ्गस्यांशभूतत्वात् , अत आह-'दुवालसंगिणो'त्ति, तथा द्वाद शाङ्गित्वेऽपि न समस्तश्रुतधरत्वं केषाश्चित्स्यादित्यत आह-समत्तगणिपिडगधरा' गणीनाम्-अर्थपरिच्छेदानां पिटकमिव | पिटकं-स्थानं गणिपिटकम् , अथवा पिटकमिव वालजकवाणिजकसर्वस्वाधारभाजनविशेष इव यत्तस्पिटर्क, गणिन-आचायस्य पिटक गणिपिटक-प्रकीर्णकश्रुतादेशश्रुतनियुक्त्यादियुक्त जिनप्रवचनं, समस्तम्-अनन्तगमपर्यायोपेतं गणिपिटक [१६] विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णन ~ 70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [१६] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... १६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः औपपा तिकम् ॥ ३४ ॥ धारयन्ति ये ते तथा, अत एव 'सवक्खरसण्णिवाइणो त्ति सर्वे अक्षरसन्निपाताः - वर्णसंयोगा ज्ञेयतया विद्यन्ते येषां ते तथा, 'सबभासाणुगामिणो त्ति सर्वभाषाः आर्यानार्यामरवाचः अनुगच्छन्ति-अनुकुर्वन्ति तद्भाषाभाषित्वात् स्वभाषयैव वा लब्धिविशेषात्तथाविधप्रत्ययजननात्, अथवा सर्वभाषाः - संस्कृतप्राकृतमागध्याद्या अनुगमयन्ति-व्याख्यान्तीत्येवंशीला ये ते तथा, 'अजिण' त्ति असर्वज्ञाः सन्तो जिनसङ्काशाः, जिना इवावितथं व्याकुर्वाणाः ॥ १६ ॥ तेणें काले तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे अणगारा भगवंतो हरिआ४ समिभा भासासमिआ एसणासमिआ आदाणभंडमसनिक्खेवणासमिआ उच्चारपासवणखेलसिंघाणजलपारि द्वावणियासमिआ मणगुत्ता वयगुप्ता कायगुता गुत्ता गुसिंदिया गुप्तवंभयारी अममा अकिंचणा छिण्णग्गंथा छिण्णसोआ निरुबलेवा कंसपातीव मुकतोआ संख इव निरंगणा जीवो विव अप्पटिहपगती | जचकणगंपिव जातरूवा आदरिसफलगाविव पागडभावा कुम्मो इव गुसिंदिआ पुकखरपत्तं व निरूवलेवा | गगणमित्र निरालंबणा अणिलो इव निरालया चंद इव सोमलेसा सुर इव दिसतेआ सागरो इव गंभीरा विहग इव सव्वओ विप्यमुक्का मंदर इव अप्पकंपा सारयसलिलं व सुद्धहिअया स्वग्गिविसाणं व एगजाया | भारंडपक्खी व अप्पमत्ता कुंजरो इव सोंडीरा बसभो हव जायस्थामा सीहो इव दुडरिसा वसुंधरा इव सव्वफासविसहा सुहअहुआसणे इव तेअसा जलता १ वृत्त्यभिप्रायेण अग्न्या । Education Internation For Parts Only विविध प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -- ( केवलज्ञानप्राप्तिः योग्य अनगारस्य गुण-वर्णनं ) ~71~ अनगा० सू० १७ ॥ ३४ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [१७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] SCREENAX दीप 'तेणं कालेण'मित्यादि गमान्तरं व्यक्तं च, नवरं समितिसूत्रे 'आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिय'त्ति आदाने-ग्रहणे उपकरणस्येति गम्यते, भाण्डमात्रायाः-वस्खाधुपकरणरूपपरिच्छदस्य, भाण्डमात्रस्य वोपकरणस्यैव, अथवा भाण्डस्यवस्त्रादेम॒न्मयभाजनस्य वा मात्रस्य च-पात्र विशेषस्य निक्षेपणायां-विमोचने ये समिता:-सुप्रत्युपेक्षितादिक्रमेण सम्यक् प्रवृत्तास्ते तथा, 'उच्चारपासवणखेलसिंघाणजालपारिडावणियासमिया' पुरीपमूत्रनिष्ठीवननासिकाश्लेष्ममलपरित्यागे समिता इति शुद्धस्थण्डिलाश्रयणात, 'मणगुत्ते'त्यादि पदत्रयं कण्ठयम् , अत एव 'गुत्ता' सर्वथा गुप्तत्वात् 'गुतिदिय'त्ति शब्दादिषु रागादिरहिता इत्यर्थः, अथवा 'गुत्तागुत्तिवियत्ति गुप्तानि शब्दादिषु रागादिनिरोधाद् अगुप्तानि च आगमश्रवणेर्यासमित्यादिष्वनिरोधादिन्द्रियाणि येषां ते तथा, 'गुत्तबंभयारित्ति गुप्त-यसत्यादिगुप्तिमब्रह्म-मैथुनविरतिं चरन्ति-आसेवन्त इत्येवंशीला गुप्तब्रह्मचारिणः, 'अममति आभिष्वङ्गिकममेतिशब्दवर्जाः 'अकिंचन'त्ति निर्देव्याः (प्रन्थानम् १०००) वाचनान्तरे 'अकोहे'त्यादीन्येकादश पदानि दृश्यन्ते, तत्र 'अकोहे'त्यादि ४ प्रतीतानि, अत एव 'संत'त्ति शान्ता अन्तर्वृत्त्या 'पसंत'त्ति प्रशान्ताः पहिर्वृत्त्या 'उपसंत'त्ति उपशान्ता उभयतः, अधवा मनःप्रभृत्यपेक्षया शान्तादीनि पदानि, अथवा श्रान्ता भवभ्रमणात् प्रशान्ताः प्रकृष्टचित्तत्वात् उपशान्ता-निवृत्ताः पापेभ्य, अथवा प्रशमप्रकर्षाभिधानायैकार्थ पदत्रयमिदम् , अत एव 'परिनिबुआ' सकलसन्तापवर्जिताः 'अणासव'त्ति अनाश्रवाः-अविद्यमानपापकर्म बन्धाः 'अगंध'त्ति अविद्यमानहिरण्यादिग्रन्थाः 'छिन्नसो'त्ति छिन्नशोकाश्छिन्नश्रोतसो वा, छिन्नसंसारप्रवाहा इत्यर्थः, लानिरुबलेव'त्ति उपलिप्यते अनेनेत्युपलेपस्तद्रहिताः, कर्मबन्धहेतुवर्जिता इत्यर्थः, अथ निरुपलेपतामेवोपमानराह-वक्ष्यमा अनुक्रम [१७] FarPranamamumony विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं --(केवलज्ञानप्राप्ति: योग्य अनगारस्य गुण-वर्णन) ~72~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [१७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा प्रत तिकम् | ॐि सूत्रांक [१७]] कणपदानां च भावनाध्ययनायुक्ते इमे सङ्घहगाथे- कसे १ संखे २ जीवे ३ गयणे ४ वाए ५ य सारए सलिले ६ । पुख अनगा० पारपत्ते ७ कुम्मे ८ विहगे ९ खग्गे य १० भारंडे ११॥१॥ कुंजर १२ वसहे १३ सीहे १४ नगराया चेव १५ सागर||ऽक्लोहे १५ । चंदे १७ सूरे १८ कणगे १९ वसुंधरा चेव २१ सूहुयहुए २१ ॥२॥' उक्तगाधानुक्रमेणेह तानि पदानि | सू०१७ व्याख्यास्यामः, वाचनान्तरे इत्थमेव दृष्टत्वादिति, 'कंसपाईव मुकतोया' कांस्यपात्रीवेति व्यक्तं मुक्त-त्यकं तोयमिव तोयं-बन्धहेतुत्वात् स्नेहो यैस्ते तथा, 'संखो इव निरंगणे ति कम्बुवत् रङ्गणं-रागाद्युपरञ्जनं तस्मान्निर्गताः, 'जीव इव अप्पडिहयगती' प्रत्यनीककुतीथिकादियुक्तेष्वपि देशनगरादिषु विहरन्तो वादादिसामोपेतत्वेनास्खलितगतय इत्यर्थः, संयमे वा अप्रतिहतवृत्तय इत्यर्थः, 'गगणमिव निरालंबण'त्ति कुलग्रामनगराद्यालम्बनवर्जिता इत्यर्थः सर्वत्रानिश्चिता इति हृदयं, 'वायुरिव अप्पडिबद्धा' प्रामादिष्वेकराज्यादिवासात् 'सारयसलिलं व सुद्धहिअय'त्ति अकलुषमनस्त्वात् , 'पुक्खरपत्तं ४ व निरुवलेव'त्ति पङ्कजलकल्पस्व जनविषयस्नेहरहिता इत्यर्थः, 'कुम्मो व गुतिंदिय'त्ति कच्छपो हि कदाचिद् प्रीवापादलक्षणावयवपश्चकेन गुप्तो भवति, एवमेतेऽपीन्द्रियपश्चकेनेति, 'विहग इव विष्पमुक'त्ति मुक्तपरिकरत्वादनियतवासाच्च, 'खग्गिविसाणं व एगजाय'त्ति सङ्गी-आटन्यो जीवस्तस्य विषाणं-शृङ्गं तदेकमेव भवति तदेकजाता-एकभूता रागा-||४|| &ादिसहायवैकल्यादिति, 'भारंडपक्खीव अप्पमत्त'त्ति भारण्डपक्षिणोः किलक शरीरं पृथग्मी त्रिपादं च भवति, ती शाचात्यन्तमप्रमत्ततयैव निर्वाहं लभेते तेनोपमा कृतेति, 'कुंजरो इव सोंडीरा' हस्तीव शूराः कषायादिरिपन प्रती-III | त्येति, 'वसभो इव जायत्थामा' गौरिवोत्पन्नवलाः, प्रतिज्ञातकार्यभरनिर्वाहका इत्यर्थः, 'सीहो इव दुद्धरिसा' परीषहादि-18 SCSSACSIRESS दीप अनुक्रम [१७] ॥ ५ विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं --(केवलज्ञानप्राप्ति: योग्य अनगारस्य गुण-वर्णन) ~ 73~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [१७] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१७... ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१२] उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मृगैरनभिभवनीया इत्यर्थः, 'मंदरो इव अप्पकंपत्ति मेरुरिवानुकूलोपसर्गवायुभिर विचलितसत्त्वाः, 'सागरो इव गंभीर'त्ति | हर्षशोकादिकारण सम्पर्केऽप्यविकृतचित्ताः, 'चंदो इव सोमलेस्स' त्ति अनुपतापहेतुमनः परिणामाः, 'सूरो इव दित्ततेअ'त्ति | दीप्ततेजसो द्रव्यतः शरीरदीया भावतो ज्ञानेन, 'जञ्चकणगमिव जायरुवा' जातं लब्धं रूपं स्वरूपं रागादिकुद्रव्यविरहात् यैस्ते जातरूपाः, 'वसुंधरा इव सबफासविसह 'त्ति स्पर्शाः शीतोष्णादयो अनुकूलेतराः परीषहास्तान् सर्वान् विषहन्ते ये ते तथा, 'सुहुअहुआसणो इव तेअसा जलता' सुष्ठु हुतं क्षिप्तं घृतादि यत्र हुताशने चहौ स तथा, तद्वत्तेजसा-ज्ञानरूपेण तपोरूपेण च ज्वलन्तो दीप्यमानाः, पुस्तकान्तरे विशेषणानि सर्वाण्येतानीदं चाधिकम् - 'आदरिसफ | लगा इव पायडभावा' आदर्शफलकानीव पट्टिका इव प्रतले विस्तीर्णत्वादादर्शफलकानि तानीव प्रकटा यथावदुपलभ्यमानस्वभावा भावा- आदर्शपक्षे नयनमुखादिधर्माः साधुपक्षे अशठतया मनःपरिणामाः येषु ते प्रकटभावाः । नत्थि णं तेसि णं भगवंताणं कस्थह पडिबंधे भवइ, से अ परिबंधे चडव्हेि पण्णत्ते, तंजहा - दव्वओ वित्तओ कालओ भावओ, दव्वओ णं सचित्ताचित्तमीसिएस दव्वेसु, खेत्तओ गामे वा णयरे वा रणे | वा खेत्ते वा खले वा घरे वा अंगणे वा, कालओ समए वा आवलियाए वा जाव अयणे वा अण्णतरे वा दीहकालसंजोगे, भावओ कोहे वा माणे वा मायाए वा लोहे वा भए वा हासे वा एवं तेसिं ण भवइ । ते णं भगवंतो वासावासवलं अट्ट गिम्ह हेमंतिआणि मासाणि गामे एगराइआ णयरे पंचराइआ वासीचंदण For Para Use Only विविध प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -- ( केवलज्ञानप्राप्तिः योग्य अनगारस्य गुण-वर्णनं ) ~74~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अनगा० औपपातिकम् प्रत सूत्रांक सू०१७ ॥३६॥ [१७] दीप समाणकप्पा समलेहुकंचणा समसुहदुक्खा इहलोगपरलोगअप्पडिया संसारपारगामी कम्मणिग्घायणहाए अभुडिआ विहरंति ॥ (सू०१७)॥ ___ 'नत्थी' त्यादि, नास्ति तेषां भगवतामयं पक्षो यदुत कुत्रचिदपि प्रतिवन्धो भवतीति, तद्यथा-द्रव्यतः ४, द्रव्यतः सचित्तादिषु ३, क्षेत्रतो प्रामादिषु ७, तत्र क्षेत्रं-धान्यजन्मभूमिः खलं-धान्यमलनपवनादिस्थण्डिलं, शेषाणि व्यक्कानि, कालतः समयादिषु, तत्र समया-सर्वनिकृष्टः कालः, आवलिका-असङ्ख्यातसमया यावत्करणादिदं रश्यम्-'आणापाणू वा' उच्छासनि:श्वासकाल इत्यर्थः, 'थोवे वा' सप्तप्राणमाने 'लवे वा' सप्तस्तोकमाने 'मुहुत्ते वा' लवसप्तसप्ततिमाने अहोरात्रपक्षमासाः प्रतीता, 'अयण' दक्षिणायनमितरच, अन्यतरे वा 'दीहकालसंजोएत्ति वर्षशतादौ, भावतः क्रोधादिषु ६, एवं तेसिं न भवई'त्ति एवम्-अमुना प्रकारेण तेषां न भवति प्रतिवन्ध इति प्रकृतम्, 'वासावासवर्जति वर्षांसु-प्रावृषि|४ वासो-निवासस्तद्वर्जमित्यर्थः, 'गामे एगराइय'त्ति एकरात्रो वासमानतया अस्ति येषां ते एकरात्रिकाः, एवं नगरे पञ्चरात्रिका इति, एतच प्रतिमाकल्पिकानाश्रित्योकम् , अन्येषां मासकल्पविहारित्वादिति, 'वासीचंदणसमाणकप्प'त्ति वासीचन्दनयोः प्रतीतयोरथवा वासीचन्दने इव वासीचन्दने-अपकारकोपकारको तयोः समानो-निपरागत्वात्समः कल्पोविकल्पः समाचारो वा येषां ते वासीचन्दनसमानकल्पाः, 'समलेझुकंचण'त्ति समे-तुल्ये उपेक्षणीयत्वाल्लेष्टुकाश्चने येषां ते तथा, 'समसुखे' त्यादि 'विहरती' त्येतदन्तं व्यक्त, वाचनान्तरे पुनः 'तंजहा' इत्यतः परं गमान्तं यावदिदं पठ्यते-'अंडए इवा' अण्डजो-हंसादिः अण्डकं वा-मयूराण्डकादिः क्रीडादिमयूरादिहेतुरिति वा प्रतिबन्ध स्थात्, सप्तम्येकवचनान्तं * अनुक्रम [१७] * * ..:.:. . anditurary.com विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं --(केवलज्ञानप्राप्ति: योग्य अनगारस्य गुण-वर्णन) ~ 75~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] दीप चेदं व्याख्येयम् , इकारस्तु प्राकृतप्रभवः, 'पोयए इ वा पोतजो-हस्त्यादिः, पोतको वा शिशुरिति वा प्रतिबन्धः स्यात् , 'अंडजे इवा' बोंडजे इवे त्यत्र पाठान्तरे अण्डजं-वस्त्रं कोशिकारकीटाण्डकमभवं बोण्ड-कांसीफलप्रभवं वस्त्रमेव, 'जग्गहिए इ वा अवगृहीतं-परिवेषणार्थमुत्पाटितं भक्तपानं 'पम्गहिए वा' प्रगृहीतं भोजनार्थमुत्पाटितं तदेव, अथवा अवग्रहिक-अवग्रहोऽस्यास्तीत्यवग्रहिक-चसतिपीठफलकादिकं औपग्रहिकं वा दण्डकादिकमुपधिजातं, प्रगृहीतं तु प्रकप्राण गृहीतत्वादीपिकमिति, 'जण्णं जण्णं दिसं'ति णङ्कारस्य वाक्यालङ्कारार्थत्याद्यां यां दिशमिच्छन्ति विहर्तमिति शेषः। 'तं 'ति तां तां दिशं विहरन्तीति योगः, 'सुइभूय'त्ति शुचिभूता:-भावशुद्धिमन्तः श्रुतिभूता वा-प्राप्तसिद्धान्ताः, 'लघुभूय'त्ति अल्पोपधितया गौरवत्यागाच्च, अथवा लघुभूतो वायुस्तद्वत् ये सततविहारास्ते लघुभूताः, 'अणप्पगंधा'। अनल्पग्रन्थाः-बहागमाः अविद्यमानो वा आत्मनः सम्बन्धी अन्थो-हिरण्यादिर्येषां ते तथा, अनर्यग्रन्था या भावधनयुक्ता इत्यर्थः ॥१७॥ तेसि णं भगवंताणं एतेणं विहारेणं विहरमाणाणं इमे एआरूवे अन्भितरबाहिरए तवोवहाणे होत्था, तंजहा-अभितरए छविहे बाहिरएवि छविहे ॥ (सू०१८)॥ है अथ साधुवर्णकः प्रकारान्तरेणोच्यते-सच 'तेसि णमित्यादि से तं भावविउस्सग्गे' इत्येतदन्तः अनशनादितपो भेदप्रतिपादनपरः सुगम एव, नवरं वाचनान्तरे 'जायामायावित्ति'त्ति संयमयात्रामात्रार्थ वृत्तिः-भक्तग्रहणं यात्रामात्रावृत्तिः 'अदुचरं वत्ति अथापरं पुनरित्यर्थः । तथाऽधिकृतवाचनायाम् 'अभितरएत्ति अभ्यन्तरम्-आन्तरस्यैव शरी अनुक्रम [१७] विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं --(केवलज्ञानप्राप्ति: योग्य अनगारस्य गुण-वर्णन) ~ 76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा- प्रत तिकम् सूत्रांक ॥३७॥ [१८] रस्य तापनात्सम्यग्दृष्टिभिरेव तपस्तया प्रतीयमानत्वाच्च, 'बाहिरए'त्ति बाह्यस्यैव शरीरस्य तापनान्मिथ्यादृष्टिभिरपि तप- | तपोभेदः ४ स्तया प्रतीयमानत्वाञ्चेति ॥१८॥ सू०१८ | से किं तं बाहिरए ! २ छविहे, तंजहा-अणसणे ऊणो (अवमो) अरिया भिक्खाअरियारसपरिचाए कायकिलेसे पडिसंलीणया । से कितं अणसणे, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-इत्तरिए अ आवकहिए अ। से कित इत्तरिए, २ अणेगविहे पण्णते, तंजहा-चउत्थभत्ते छहभत्ते अट्ठमभत्ते दसमभसे वारसभत्ते चउद्दसभत्ते सोलसभत्ते अजमासिए भत्ते मासिए भत्ते दोमासिए भत्ते तेमासिए भत्ते चउमासिए भरो पंचमासिए * भत्ते छम्मासिए भत्ते, से तं इत्तरिए । से किं तं आवकहिए?,२दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पाओवगमणे अभत्तपञ्चक्खाणे असे किं तं पाओवगमणे, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-वाघाइमे अ निब्बाघाइमे अ नियमा अप्पडिकम्मे, से तं पाओवगमणे । से किं तं भत्तपञ्चक्खाणे १,२ दुविहे पण्णते, तंजहा-वाघाइमे अ का निव्वाघाइमे अणियमा सप्पडिकम्मे, से तं भसपञ्चक्खाणे, से तं अणसणे। | 'अणसणे'त्ति भोजननिवृत्तिः, तच्चेकर्तुं न शक्नोति तदा कि कार्यमित्याह-'अवमोयरित्ति अवमोदरस्य करणमवमोदरिका-उनोदरतेत्यर्थः, उपलक्षणत्वाच्चास्य न्यूनोपधिताऽपीह दृश्येति, तत्राशकस्य यत्कार्यं तदाह-'भिक्खायरिय'त्ति | [वृत्तिसंक्षेप इत्यर्थः, तत्राप्यशकस्य यत्कार्यं तदाह-रसपरिवाए'त्ति, तत्राप्यशक्तस्य यत्तदाह-कायकिलेसे', तत्रापि यत्त-I||" दाह-पडिसंलीणय'त्ति, 'इत्तरिए'त्ति इत्वरम्-अल्पकालिकमेकोपवासादि षण्मासान्तम् 'आवकहिए' त्ति यावती चासो SANSKAR दीप अनुक्रम [१८] तपस: बाह्य-अभ्यंतर भेदाः ~77~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [१९...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९] दीप कथा च-मनुष्योऽयमितिथ्यपदेशरूपा यावत्कथा तस्यां भवं यावत्कथिक-यावजीविकमित्यर्थः, 'पाओवगमणे'त्ति पादपस्येवोपगमनम्-अस्पन्दतयाऽवस्थानं पादपोपगमनं 'वाघाइमे अत्ति व्याघातवत्-सिंहदावानलाद्यभिभूतो यत् प्रतिप| द्यते 'निबाघाइमे अत्ति व्याघातविरहितं । से किं तं ओमोअरिआओ ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-ब्वोमोअरिआ य भावोमोअरिआ य, से कि तं व्वोमोअरिआ, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-उवगरणदब्योमोअरिआ य भत्तपाणदब्बोमोअरिआ थ। से किं तं उवगरणदव्योमोअरिआ, २तिविहा पण्णता, तंजहा-एगे बत्थे एगे पाए चियत्तोषकरणसा| तिवणया, सेतं उवगरणब्बोमोअरिआ। से किं तं भत्तपाणदब्बोमोअरिआ,२ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-अहकुकुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे अप्पाहारे, दुवालसकुकुडिभंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे अवडोमोअरिआ, सोलसकुकुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे दुभागपत्तोमोअरिआ, चउव्वीसकुकुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे पत्तोमोअरिआ, एकतीसकुकुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे किंचूणोमोअरिआ, बत्तीसकुकुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे पमाणपत्ता, एत्तो एगे णवि घासेण ऊण आहारमाहारेमाणे समणे णिग्गंधे णो पकामरसभोईत्ति वत्तव्वं सिआ, से तं भत्तपारणवोमोअरिआ, से तं व्वोमोअरिआ।से किंत भावोमोअरिआ?,२अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-अप्प कोहे अप्पमाणे अप्पमाए अप्पलोहे अप्पसद्दे अप्पझंझे, से तं भावोमोअरिभा, से तं ओमोअरिआ। से 645464545454556 अनुक्रम [१९] तपस: बाह्य-अभ्यंतर भेदाः ~ 78~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१९] दीप अनुक्रम [१९] औपपातिकम् ॥ ३८ ॥ मूलं [... १९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) किं तं भिक्खायरिया १, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा- दव्बाभिग्गहचरए खेत्ताभिग्गहचरए कालाभिग्गहचरण भावाभिग्गहचरए उक्खितचरए णिक्खित्तचरए उक्खिन्तणिक्खितचरए णिक्खितउक्खितचरए वट्टिमाणचरए साहरिज़माणचरए उवणीअचरए अवणीअथरए उवणीअअवणी अचरए अवणी अडवणी* अचरए संसद्वचरए असंसङ्घचरए तज्ज्ञातसंसट्टचरए अण्णायचरए मोणचरए दिट्ठलाभिए अहिलाभिएं २) पुट्ठलाभिए अपुलाभिए भिक्खालाभिए अभिक्खलाभिए अण्णगिलायए ओषणिहिए परिमितपिंडवाइए सुद्धेसणिए संखायत्तिए, से तं भिक्खाधरिया । 'चियतोवगरण साइजणय'त्ति चित्तं प्रीतिकरं त्यक्तं वा दोषैर्यदुपकरणं वस्त्रपात्र व्यतिरिक्तं वस्त्रपात्रमेव वा तस्य या श्रयणीयता स्वदनीयता वा सा तथा, 'अप्पाहारे' त्ति द्वात्रिंशत्कवलापेक्षया अष्टानामल्पखात्, 'अवहोमोयरियत्ति द्वात्रिंशतोऽर्द्ध षोडश, एवं च द्वादशानामर्द्धसमीपवर्तित्वादुपाऽवमोदरिका द्वादशभिरिति, 'दुभागोमोयरिय'त्ति द्वात्रिंशतः षोडश द्विभागोऽर्द्धमित्यर्थः, ततः षोडशकवलमाना द्विभागावमोदरिकेत्युच्यते, 'पत्तोमोयरिय'त्ति चतुर्विंशतेः कवलानां द्वात्रिंशद्वितीयार्द्धस्य मध्यभागं प्राप्तत्वाच्चतुर्विंशत्या कवलैः प्राप्तावमोदरिकेत्युते, अथवा प्राप्तेव प्राप्ता द्वात्रिंशतखयाणां भागानां प्राप्तत्वाच्चतुर्थभागस्य चाप्राप्तत्वादिति, 'किंचूणूमोयरियत्ति एकत्रिंशतो द्वात्रिंशत एकेनोन|| त्वात्, 'पमाणपते 'ति द्वात्रिंशता कवलैः प्राप्तप्रमाणो भवति साधुर्न म्यूनोदर इति, 'एसी'ति इतो द्वात्रिंशत्कवलमानादेकेनापि 'घासेणं'ति प्रासेन 'णो पकामरसभोईति वत्तवं सिया' इति नात्यर्थमन्नभोकेति वाच्यं स्यादिति, 'अप्पसद्दे 'ति तपस: बाह्य अभ्यंतर भेदा: For Parks Use Only ~79~ बाह्यत० सू० १९ ॥ ३८ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१९] दीप अनुक्रम [१९] “औपपातिक” Education Internation - मूलं [... १९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः तपस: बाह्य अभ्यंतर भेदा: उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) | अल्पकलह इत्यर्थः, कलहः- कोधकार्यम् 'अप्पत्ति अस्पशम्शः - अविद्यमान कलहविशेषः, अल्पशब्दश्चाभाववचनोऽप्यस्ति, 'दवाभिग्गहचरए ति द्रव्याश्रिताभिग्रहेण चरति - भिक्षामदति द्रव्याश्रिताभिग्रहं वा चरति आसेवते यः स द्रव्याभिग्रहचरकः, इह च भिक्षाचर्यायां प्रक्रान्तायां यद् द्रव्याभिग्रहचरक इत्युक्तं तद्धर्मधर्मिणोरभेदविवक्षणात्, द्रव्याभिग्रहश्च लेपकृतादिद्रव्यविषयः, क्षेत्राभिग्रहः- स्वग्रामपरग्रामादिविषयः, कालाभिग्रहः -पूर्वाह्नादिविषयः, भावाभिग्रहस्तु गानहसनादिप्रवृत्तपुरुषादिविषयः, 'उक्खित्तचरए'त्ति उत्क्षितं स्वप्रयोजनाथ पाकभाजनादुद्धृतं तदर्थमभिग्रहतश्वरति तद्गवेषणाथ गच्छतीत्युत्क्षिप्तचरकः, एवमुत्तरत्रापि, 'निक्खित्तचरए'त्ति निक्षिप्तं - पाकभाजनादनुद्धृतं 'उक्खित्तनिक्खितचरए'त्ति पाकभाजनादुत्क्षिप्य निक्षितं तत्रैवान्यत्र वा स्थाने यत्तदुत्क्षिप्तनिक्षिप्तम् अथवोत्क्षिप्तं च निक्षिप्तं च | यश्चरति स तथोच्यते 'निक्खित्त उक्खित्तचरए' ति निक्षिप्तं भोजनपात्र्यामुत्क्षिप्तं च स्वार्थ तत एव निक्षिप्तोत्क्षिप्तं, 'वट्टिीजमाणचरए ति परिवेष्यमाणचरकः 'साहरिजमाणचरए'त्ति यत् कूरादिकं शीतलीकरणार्थ पटादिषु विस्तारितं तत्पुनभजने क्षिष्यमानं संहियमाणमुच्यते, 'उवणीअचरए'त्ति उपनीतं केनचित्कस्यचिद्रपढौकितं प्रहेणकादि, 'अवणीयचरए'ति अपनीतं देयद्रव्यमध्यादपसारितमन्यत्र स्थापितमित्यर्थः, 'उवणीयावणीयचरए'त्ति उपनीतं विनीतं ढौकितं सत्प्रहेणकाद्यपनीतं स्थानान्तरस्थापितं अथवोपनीतं चापनीतं च यश्चरति स तथा अथवा उपनीतं-दायकेन वर्णितगुणं अपनीतं निराकृतगुणम् उपनीतापनीतं यदेकेन गुणेन वर्णितं गुणान्तरापेक्षया तु दूषितं यथाऽहो शीतलं जलं केवलं क्षारमिति, यत्तु क्षारं | किन्तु शीतलं तदपनीतोपनीतमुच्यत इति, अत आह-'अवणीयडवणीयचरए'ति, 'संसद्वचरए'त्ति संसृष्टेन - खरण्टितेन For Parts Only ~80~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपातिकम् प्रत सूत्रांक [१९] ॥३९॥ दीप | हस्तादिना दीयमानं संसृष्टमुच्यते तच्चरति यः स तथा, 'असंसहचरए'त्ति उक्तविपरीतः, 'तज्जायसंसङ्घचरए'त्ति तज्जातेन देयद्रव्याविरोधिना यत् संसृष्टं हस्तादि तेन दीयमानं यश्चरति स तथा, 'अण्णायचरए'त्ति अज्ञातः-अनुपदर्शितस्वाजन्यादिभावः संश्चरति यः स तथा, 'मोणचरए'त्ति व्यकं, "दिठ्ठलाभिय'त्ति दृष्टस्यैव भक्तादेष्टाद्वा पूर्वोपलब्धादायकालाभो यस्यास्ति स दृष्टलाभिकः, 'अदिहलाभिए'त्ति तत्रादृष्टस्यापि अपवरकादिमध्यान्निर्गतस्य श्रोत्रादिभिः कृतोपयोगस्य भक्तादेरदृष्टाद्वा पूर्वमनुपलब्धादायकालाभो यस्यास्ति स तथा, 'पुलाभिए'ति पृष्टस्यैव हे साधो! किं ते दीयत इत्यादिपश्नितस्य यो लाभः स यस्यास्ति स तथा, 'अपुट्ठलाभिए त्ति उक्तविपर्ययादिति, "भिक्खालाभिए'त्ति भिक्षेव भिक्षा तुच्छमविज्ञातं ४॥ वा तल्लाभो ग्राह्यतया यस्यास्ति स भिक्षालाभिकः, 'अभिक्खलाभिए ति उक्तविपर्ययात्, 'अण्णगिलायए'त्ति अन्न-भोजनं । विना ग्लायति अन्नग्लायकः, स चाभिग्रहविशेषात् प्रातरेव दोषान्नभुगिति, 'ओवणिहिए'त्ति उपनिहितं यथा कथञ्चित्र प्रत्यासन्नीभूतं तेन चरति यः स औपनिहितिका उपनिधिना वा चरतीत्यौपनिधिकः, 'परिमियपिंडवाइए'त्ति परिमितपिण्डपातः-अर्द्धपोषादिलाभो यस्यास्ति स तथा, 'सुद्धेसणिए'त्ति शुद्धैषणा शङ्कादिदोषरहितता शुद्धस्य वा निर्व्यञ्जनस्य कूरादेरेषणा यस्यास्ति स तथा, 'संखादत्तिए'त्ति सङ्ख्याप्रधाना दत्तयो यस्य स तथा, दत्तिश्च एकक्षेपभिक्षालक्षणा। से किं तं रसपरिचाए ?, २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-णिब्वि (य) तिए पणीअरसपरिचाए आयंबिलए आयामसित्थभोई अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे लूहाहारे, से तं रसपरिचाए । से किं तं कायकिलेसे , २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-ठाणद्वितिए ठाणाइए उकुटुआसणिए पडिमट्ठाई चीरासणिए नेस CACACANCE अनुक्रम [१९] ॥३९॥ तपस: बाह्य-अभ्यंतर भेदाः ~81~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: * * 4 प्रत सूत्रांक [१९] दीप लिए दंडायए लउडसाई आयावए अवाउडए अकंडुअए अणिहए सव्वगायपरिकम्मविभूसविप्पमुक्के, सेत कायकिलेसे । से किं तं पडिसंलीणया १,२ चउन्विहा पण्णत्ता, तंजहा-इंदिअपडिसलीणया कसायपडिसं-18 लीणया जोगपडिसंलीणया विवित्तसयणासणसेवणया, 'णिधियतिए'त्ति निर्गतघृतादिविकृतिकः, 'पणीयरसपरिचाई प्रणीतरसं गलघृतदुग्धादिबिन्दुः, 'आयंबिलए'त्ति आयाकम्लम्-ओदनकुल्मापादि, 'आयामसित्यभोइ'त्ति अवश्रावणगतसिक्थभोक्ता 'अरसाहारे'त्ति अरसो-हिङ्गादिभिरसंस्कृत आहारो यस्य स तथा, 'विरसाहारे'त्ति विगतरसः-पुराणधान्यौदनादिः, 'अंताहारे'त्ति अन्ते भवमन्त्य-जघन्यधान्य वल्लादि, 'पंताहारे'त्ति प्रकर्षणान्त्यं वल्लायेव भुक्तावशेषं पर्युषितं घा, 'लुहाहारे'त्ति रूक्ष-रूक्षस्वभावं, क्वचित् 'तुच्छाहारे'त्ति दृश्यते तत्र तुच्छोऽल्पोऽसारश्च ॥ 'ठाणदिइए'त्ति स्थान कायोत्सर्गस्तेन स्थितिर्यस्य स स्थानस्थितिका, पाठान्तरेण| 'ठाणाइए'त्ति स्थानं-कायोत्सर्गस्तमतिगच्छति-करोतीति स्थानातिगः, 'उकुडुयासणिए'त्ति प्रतीतं, 'पडिमाईति प्रतिमामासिक्यादयः, 'वीरासणिए'त्ति वीरासनं-सिंहासननिविष्टस्य भून्यस्तपादस्य सिंहासनापनोदे यादृशमवस्थानं तद्यस्यास्ति स वीरासनिकः, 'नेसज्जिए'त्ति निषद्या पुताभ्यां भूम्यामुपवेशनं तया चरति नैषधिकः, 'दंडायए लगंडसाईत्ति क्वचिद्दश्यते तत्र दण्डस्येवायतम्-आयामो यस्यास्ति स दण्डायतिका लगण्डं-बक्रकाष्ठं तद्वच्छेते यः स लगण्डशायी तस्य पार्णिका|शिरांस्येव पृष्ठमेव वा भूमौ लगतीति, 'आयावए'त्ति आतापयति-शीतादिभिर्देहं सन्तापयतीत्यातापकः, आतापना च | त्रिविधा भवति-निष्पन्नस्योत्कृष्टाऽनिष्पन्नस्य मध्यमा ऊर्ध्वस्थितस्य जघन्या, निष्पन्नातापनाऽपि विधा-अधोमुखशा अनुक्रम [१९] तपस: बाह्य-अभ्यंतर भेदाः ~ 82 ~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक औपपातिकम् ॥४०॥ ॥४०॥ [१९] दीप यिता १ पार्श्वशायिता २ उत्तानशायिता चेति ३, अनिष्पन्नातापनाऽपि त्रिधा-गोदोहिका उत्कुटुकासनता पर्यङ्कासनता बाह्यत० चेति, ऊर्ध्वस्थानातापनाऽपि त्रिधैव-हस्ति शौण्डिका एकपादिका समपादिका चेति, एतेषु चातापनाभेदत्रितयेषु उत्कृष्टादिवयं प्रत्येक योजनीयमिति, 'अवाउडए'त्ति अमावृतकः प्रावरणवर्जक इत्यर्थः, अकण्डूयकानिष्ठीवको व्यक्ती, 'धुयके-13 सू०१९ समंसुलोम'त्ति क्वचिदृश्यते, तत्र धुतानि-निष्प्रतिकर्मतया त्यक्तानि केशश्मश्रुरोमाणि-शिरोजकूचकक्षादिलोमानि येन सद तथा, किमुक्तं भवति-सर्वगात्रप्रतिकर्मविभूपाविप्रमुक्त इति । | से किं तं इंदियपडिसंलीणया ?, २ पंचविहा पण्णता, तंजहा-सोइंदियविसयपयारनिरोहो वा सोइंदियविसयपत्तेसु अस्थेसु रागदोसनिग्गहो वा चखिदियविसयपयारनिरोहो वा चक्खिदियविसयपत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा घाणिदियविसयपयारनिरोहो वा घाणिदियविसयपत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा जिभिदियविसयपयारनिरोहो वा जिभिदियविसयपत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा फासिदियविसयपधारनिरोहो था फार्सिदियविसयपत्तेसु अत्थेमु रागदोसनिग्गहो वा, से तं इंदियप-15 डिसंलीणपा । से कितं कसायपडिसंलीणया १,२ चउब्विहा पण्णत्ता, तंजहा कोहस्सुदपनिरोहो वा * उदयपत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं माणस्सुदयनिरोहो वा उदयपत्तस्स वा माणस्स विफलीकरणं || मायाउदयगिरोहो वा उदयपत्तस्स (ताए) वा मायाए विफलीकरणं लोहस्सुदयगिरोहो वा उदयपत्तस्स वा लोहस्स विफलीकरणं, से तं कसायपडिसंलीणया । से किं तं जोगपडिसलीणया ?, २ तिथिहा पण्णत्ता, अनुक्रम [१९] 0345 तपस: बाह्य-अभ्यंतर भेदाः ~83~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१९] दीप अनुक्रम [१९] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... १९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः | तंजहा-मणजोगपडिसंलीणया वयजोगपडिसलीणया कायजोगपडिलीणया । से किं तं मणजोगपडिसलीणया १, २ अकुसलमणणिरोहो वा कुसलमणउदीरणं वा, से तं मणजोगपडिसंलीणया । से किं तं वयजोगपडिलीणया ?, २ अकुसलवयणिरोहो वा कुसलवयउदीरणं वा, से तं वयजोगपडिसलीणया । से किं तं कायजोगपडिलीणया १, २ जपणं सुसमाहिअपाणिपाए कुम्मो इव गुतिदिए सब्बगायपडिसलीणे चिट्ठा, से तं कायजोगपडिसंलीणया । से किं तं विवित्तसयणासणसेवणया १, २ जं णं आरामेसु उज्जाणेसु देवकुलेसु | सभासु पवासु पणियगिहेसु पणिअसालासु इत्थीपसुपंडगसंसत्तविरहियासु बसहीसु फासुएसणिज्जपीढफलगसेज्जासंधारगं उयसंपत्ति णं विहरद, से तं पडिसंलीणया, से तं बाहिरए तवे (सू० १९ ) 'सोइदिय विसयप्पयारनिरोहो वत्ति श्रोत्रेन्द्रियस्य विषये शब्दे प्रचारस्य प्रवृत्तेर्निरोधो निषेधः श्रोत्रेन्द्रियविषयप्रचारनिरोधः, स च 'सोइंदियविसयपत्तेसु अत्थेसु'त्ति श्रोत्रेन्द्रियगोचरप्राप्तेष्वर्थेषु-शब्देषु कर्णप्रविष्टेष्वित्यर्थः, 'आरा| मेसु ति पुष्पप्रधानवनेषु 'उज्जाणेसु'ति पुष्पफलोपेतादिमहावृक्षसमुदायरूपेषु 'सभासु 'त्ति जनोपवेशनस्थानेषु 'पवास'ति | जलदानस्थानेषु 'पणिय गिहेसु'त्ति भाण्ड निक्षेपार्थगृहेषु 'पणियसालासु'त्ति बहुग्राहकदायकजनोचितेषु गेहविशेषेषु, शय्या यत्र प्रसारितपादैः सुप्यते, संस्तारकस्तु ततो हीनः ॥ १९ ॥ से किं तं भितर तवे? २ छव्विहे पण्णत्ते, तंजहा- पायच्छिन्तं विणओ वेयावचं सज्झाओ झाणं विउरसग्गो से किं तं पायच्छित्ते १, २ दसविहे पण्णत्ते, तंजहा-आलोअणारिहे पडिकमणारिहे तदुभयारिहे तपस: बाह्य अभ्यंतर भेदा: For Pal Use Only ~84~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूल [२०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत औपपा- तिकम् ॥४१॥ सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [२०] विवेगारिहे विउस्सग्गारिहे तबारिहे छेदारिहे मूलारिहे अणवढप्पारिहे पारंचिआरिहे, से तं पायच्छित्ते । हा आन्तर० से किं तं विणए ?, २ सत्तविहे पण्णत्ते, तंजहा-णाणविणए दंसणविणए चरित्तविणए मणविणए वइविणए | * कायविणए लोगोवयारविणए । से किं तं णाणविणए?,२पंचविहे पण्णते, तंजहा-आभिणियोहियणाणवि सू०२० ४ काणए सुअणाणविणए ओहिणाणविणए मणपजवणाणविणए केवलणाणविणए । से किं तदसणविणए १,२|| लादविहे पण्णत्ते, तंजहा-सुस्मुसणाचिणए अणचासायणाविणए । से किं तं सुस्मुसणाविणए?,२ अणेगबिहे | |पण्णत्ते, तंजहा-अब्भुट्ठाणे इ वा आसणाभिग्गहे इ वा आसणप्पदाणे इचा सकारे इ वा सम्माणे इ वा किहकम्मे इ वा अंजलिपग्गहे इ वा एतस्स अणुगच्छणया ठिअस्स पजुवासणया गच्छंतस्स पडिसंसाहणया, से तं सुस्सुसणाविणए । 'पायच्छित्त'ति अतिचारविशुद्धिः, सा च वन्दनादिना विनयेन विधीयत इत्यत आह-विणओ'सि कर्मविनयनहे-है तुव्यापारविशेषः, तद्वानेव च वैयावृत्ये वर्तत इत्यत आह-वेयावच्चंति भक्तादिभिरुषष्टम्भा, वैयावृत्यान्तराले च | स्वाध्यायो विधेय इत्यत आह-सज्झाओ'त्ति शोभनो मर्यादया पाठ इत्यर्थः, तत्र च ध्यानं भवतीत्याह-'झाणं'ति, शुभध्यानादेव हेयत्यागो भवतीत्यत आह-'विउस्सग्गे'त्ति, 'आलोयणारिहे'त्ति आलोचनां-गुरुनिवेदनां विशुद्धये यदहेति ॥४ ॥ भिक्षाचर्याचतिचारजातं तदालोचनाह, तद्विषयत्वादालोचनालक्षणा विशुद्धिरपि आलोचनाहमित्युक्तं, तस्या एव तपोप्रारूपत्वादिति, एवमन्यान्यपि, नवरं पडिक्कमणारिहे'त्ति मिथ्यादुष्कृतं, 'तदुभयारिहेत्ति आलोचनाप्रतिक्रमणस्वभावं, 'विवे-18/ तपस: बाह्य-अभ्यंतर भेदाः ~854 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत कलकर सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [२०] 2534533ॐ* गारिहे'त्ति अशुद्धभक्तादिविवेचनं, 'विजस्सग्गारिहेत्ति कायोत्सर्गः, तवारिहेत्ति निर्विकृतादिकं तपः, 'छेदारिहे'त्ति दिनपञ्च-६) | कादिना क्रमेण पर्यायरछेदनं, 'मूलारिहे'त्ति पुनव्रतोपस्थापनम् , 'अनवद्वापारिहेत्ति अचरिततपोविशेषस्य प्रतेवनबस्थापन, Mपारंचिआरिहे'त्ति तपोविशेषेणैवातिचारपारगमनमिति , 'आसणाभिग्गहे इ वत्ति यत्र यत्रोपवेष्टुमिच्छति तत्र तत्रासननयनं, 'आसणप्पयाणं ति आसनदानमात्रमेवेति । से कितं अणञ्चासायणाविणए , २ पणतालीसविहे पण्णते, तंजहा-अरहताणं अणचासायणया अरहतपण्णत्तस्स धम्मस्स अणचासायणया आयरियाणं अणचासायणया एवं उवज्झापाणं घेराणं कुलस्स गणस्स संघस्स किरिआणं संभोगिअस्स आभिणिवोहियणाणस्स सुअणाणस्स ओहिणाणस्स मणपज्जवणाणस्स लकेवलणाणस्स एएसिं चेव भत्तिवहुमाणे एएसिं चेव वण्णसंजलणया, से तं अणचासायणाविणए । से कित चरित्तविणए १,२ पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-सामाइअचरित्सविणए छेओवट्ठावणिअचरित्तविणए परिहारवि-1 सुद्धिचरित्तविणए सुहमसंपरायचरित्तविणए अहवखायचरित्तविणए, से तं चरित्तविणए । से किं तं मणचिगए?, २ दुबिहे पण्णत्ते, तंजहा-पसत्थमणविणए अपसत्यमणविणए । से किं तं अपसत्थमणविणए ?,२जे अमणे सावजे सकिरिए सककसे कडुए णिहुरे फरुसे अण्हयकरे छेयकरे भेयकरे परितावणकरे उद्दवणकरे भूओवघाइए तहप्पगारं मणो णो पहारेजा, से तं अपसस्थमणोविणए । से किं तं पसत्यमणोविणए?,२तं व पसत्थं णेयब्वं, एवं चेव बहुविणओऽवि एएहिं पएहिं चेव णेअब्बो, से तं वइविणए । +CASS तपस: बाह्य-अभ्यंतर भेदाः ~ 86~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: आन्तर प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [२०] औपपा 'किरियाणति क्रियावादिनां 'संभोइयस्स'त्ति एकसमाचारिकताया इति । मनोविनये लिख्यते-'जे अ मणे'त्ति यत्पु-15 तिकम् |नर्मन:-चित्तमसंयतानामिति गम्यते, 'सावजे'त्ति सहावद्येन-गर्हितकर्मणा हिंसादिना वर्तत इति सावद्यम्, एतदेवरा ॥४२॥ प्रपञ्चयते-'सकिरिय'त्ति कायिक्यादिक्रियोपेतं, 'सककसे'त्ति सकार्कश्यं कर्कशभावोपेतं, 'कडुएत्ति परेषामात्मनो वा कटुकमिव कटुकमनिष्टमित्यर्थः, 'निहुरे'त्ति निरं-मार्दवाननुगतं, 'फरुसे'त्ति स्नेहाननुगतं, 'अण्डयकरें'त्ति आश्रवकरम्-अशु| भकश्रिवकारि, कुत इत्याह-छेयकरे'त्ति हस्तादिच्छेदनकारि, 'भेयकरे'त्ति नासिकादीनां भेदनकारि, 'परितावणकरे'त्ति प्राणिनामुपतापहेतुः, 'उदयणकरे'त्ति मरणान्तिकवेदनाकारि धनहरणाद्युपद्यकारि वा, 'भूओवघाइए'त्ति भूतोपधातो | यत्रास्ति तद्भूतोपघातिकमिति, 'तहप्पगारंति एवम्प्रकारं असंयतमनःसदृशमित्यर्थः, 'मणो णो पहारेज'त्ति न प्रवर्तयेत् ।। से किं तं कायविणए , २ दुविहे पपणत्ते, तंजहा-पसत्थकायविणए अपसस्थकायविणए । से किं तं अपदासत्धकायविणए १, २ सत्सविहे पण्णसे, तंजहा-अणाउत्तं गमणे अणाउत्तं ठाणे अणाउत्तं निसीदणे अणाउत्तं तुअहणे अणाउसं उल्लंघणे अणाउत्तं पलंधणे अणाउत्तं सबिदियकायजोगजुंजणया, से तं अपसत्थकायविणए । से किं तं पसत्थकायविणए १,२एवं चेव पसत्थं भाणियध्वं, से तं पसत्धकायविणए, से तं कायविणए । से किं तं लोगोवयारविणए १,२ सत्तविहे पण्णत्ते, तंजहा-अब्भासवत्तिय परकउंदाणुवत्तियं कजहेर्ड ॥४२॥ कियपडिकिरिया अत्तगवेसणया देसकालण्णुया सचद्वेसु अपडिलोमया, से ते लोगोवयारविणए, से तं विणए। 'अणाउत्त'ति असावधानतया, 'उलंघणे'त्ति कर्दमादीनामतिक्रमणं पौनःपुन्येन तदेव प्रलङ्घनमिति, 'सबिंदियकायजो तपस: बाह्य-अभ्यंतर भेदाः ~87~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) ཡྻ सूत्रांक [२०] अनुक्रम [२०] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [... २०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः “औपपातिक” तपस: बाह्य अभ्यंतर भेदा: - गजुंजणय'त्ति सर्वेन्द्रियाणां काययोगस्य च योजनं प्रयोजनं व्यापारणं सर्वेन्द्रियकाययोगयोजनतेति 'अवभासवत्तिय'त्ति अभ्यासवृत्तिता-समीपवर्तित्वं 'परच्छंदानुवत्तिय'त्ति पराभिप्रायानुवर्तनं 'कज्जहे 'ति कार्यहेतो:- ज्ञानादिनिमित्तं भक्तादिदानमिति गम्यं, 'कयपडिकिरिय'त्ति अध्यापितोऽहमनेनेतिबुद्ध्या भक्तादिदानमिति 'अत्तगवेसणय'त्ति आर्तस्यदुःखितस्य वार्तान्वेषणं 'देसकालण्णुय'त्ति प्रस्तावज्ञता-अवसरोचितार्थसम्पादनमित्यर्थः 'सवत्थेसु अपडिलोमय'त्ति || सर्वप्रयोजनेध्वाराध्य सम्बन्धिष्त्रानुकूल्यमिति । से किं तं बेआवचे १, २ दसविहे पण्णत्ते, तंजहा-आयरियवेआवचे उवज्झायवेआवचे सेहवेआवचे गिलाणवे आवचे तवस्सिवेआवचे थेरवेआवच्चे साहम्मिअवे आवच्चे कुलवेआवचे गणवेआवचे संघवे आवच्चे, से तं बेआवचे से किं तं सज्झाए १, २ पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-वायणा परिपुच्छणा परिअडणा अणुप्पेहा धम्मकहा, से तं सज्झाए। से किं तं झाणे १, २ चउन्विहे पण्णत्ते, तंजहा-अहज्झाणे रुज्झाणे धम्मज्झाणे सुक्कझाणे, अट्टज्झाणे चउब्बिहे पण्णत्ते, तंजहा- अमणुण्णसंपओगसंप उसे तस्स विप्पओगरसतिसमण्णागए आवि भवइ, मणुण्णसंपओगसंपते तस्स अविप्पओगस्सतिसमण्णागए आवि भवइ, आयंकसंपओगसंपते तस्स विप्पओगस्सतिसमण्णागए आयि भवइ, परिजूसियकामभोगसंपओगसंपत्ते तस्म अविप्पओगरसतिसमण्णा गए आवि भवइ । 'वेआवचे 'त्ति वैयावृत्त्यं-भक्तपानादिभिरुपष्टम्भः 'सेह'ति अभिनवप्रव्रजितः तपस्वी - अष्टमादिक्षपकः 'थेर'त्ति For Parts Only ~88~ 6 % % Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सू०२० सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [२०] स्थविरो जम्मादिभिः, साधर्मिकः साधु साध्वी वा, कुलं गच्छसमुदायः, गणः कुलानां समुदायः, सो गणसमुदायः| तिकम् |||| इति । 'अमणुण्णसंपओगसंपउत्ते'त्ति अमनोज्ञा-अनिष्टो या शब्दादिस्तस्य यः सम्प्रयोगो-योगरतेन सम्प्रयुक्तो यः स तथा, तथाविधः सन् 'तस्स'त्ति तस्य-अमनोज्ञस्य शब्दादेविप्रयोगस्मृतिसमन्वागतश्चापि भवति-वियोगचिन्तानुगतः स्यात, ॥४३॥ वापीत्युत्तरवाक्यापेक्षया समुचयार्थः, असावातेध्यानं स्यादिति शेषः, धर्मधर्मिणोरभेदादिति । तथा 'मणुण्णसंपओगर्स-1 पउत्तेति व्यक्त, नवरं मनो-धनादि 'तस्स'त्ति मनोज्ञस्य धनादेः 'अविप्पओगस्तइसमण्णागए आवि भवति व्यक्त नवरम्-आर्तध्यानमसाबुच्यत इति वाक्यशेषः, तथा 'आयंकसंपओगसंपउत्तेत्ति व्यक, नवरमातङ्को-रोगः 'तस्सत्ति तस्यातस्य 'विष्पोगसइसमण्णागए'त्ति व्यक्तं, वाक्यशेषः पूर्ववत् । तथा 'परिजुसियकामभोगसंपओगसंपउत्ते'त्ति व्यक्त, नवरं परिजुसियत्ति-'जुपी प्रीतिसेवनयो रितिवचनात् सेवितः प्रीतो वा यः कामभोगः-शब्दादिभोगो मदनसेवा वा 'तस्स'त्ति तस्य कामभोगस्य 'अविप्पओगस्स इसमण्णागए'त्ति प्राग्वत् । अस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णता, तंजहा-कंदणया सोअणया तिप्पणया विलवणया । रुद्द-15 झाणे चउब्विहे पणत्ते, तंजहा-हिंसाणुचंधी मोसाणुबंधी तेणाणुबंधी सारक्खणाणुबंधी, रुद्दस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तंजहा-उसण्णदोसे पहुदोसे अण्णाणदोसे आमरणंतदोसे । धम्मज्झाणे चउबिहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तंजहा-आणाविजए अवायविजए विवागविजए संठाणविजए, धम्मस्स झाणस्स चित्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तंजहा-आणाई णिसग्गरुई उवएसरई मुत्तरुई, धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि C% ॥४३॥ ऊस तपस: बाह्य-अभ्यंतर भेदाः ~89~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [२०] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [... २०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः 240643 “औपपातिक” आलंगणा पण्णत्ता, तंजहा - वायणा पुच्छणा परियहणा धम्मकहा, धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तंजहा अणिचाणुप्पेहा असरणाणुप्पेहा एगत्ताणुप्पेहा संसाराणुप्पेहा । Education Internation - 'कंदणय'ति महता शब्देन विरवणं 'सोअणय'त्ति दीनता, 'तिप्पणय'त्ति तेपनता तिपेः क्षरणार्थत्वादश्रुविमोचनं, विलपनता - पुनः पुनः क्लिष्टभाषणमिति, 'उसण्णदो सेत्ति उसण्णेन - बाहुल्येनानुपरतत्वेन दोषो-हिंसाऽनृतादत्तादानसंरक्षणानामन्यतमः उसण्णदोषः, तथा 'बहुदोसे' त्ति बहुष्वपि सर्वेष्वपि हिंसादिषु ४ दोषः प्रवृत्तिलक्षणो बहुदोषः 'अण्णाणदोसे 'त्ति अज्ञानात् कुशास्त्रसंस्काराद्धिंसादिष्वधर्मस्वरूपेषु धर्मयुद्ध्या या प्रवृत्तिस्तलक्षणो दोषः अज्ञानदोषः, 'आमरणंतदोसे 'ति मरणमेवान्तो मरणान्तः आ मरणान्तात् आमरणान्तम्, असञ्जातानुतापस्य कालसौकरिकादेवि या हिंसादिषु ४ प्रवृत्तिः सैव दोषः आमरणान्तदोषः, इह चार्तरौद्रे परिहार्यतया साधुविशेषणे धर्मशुक्ले खासेव्यतयेति । 'चउप्पडोयारे'त्ति चतुर्षु-भेदलक्षणालम्बनानुप्रेक्षालक्षणेषु पदार्थेषु प्रत्यवतारः - समवतारो वक्ष्यमाणस्वरूपो यस्य तच्चतु प्रत्यवतारमिति । 'आणाविजय'त्ति आज्ञा-जिनप्रवचनं तस्या विचयो-निर्णयो यत्र तदाज्ञाविचयं, प्राकृतत्वादाणाविजयं, | आज्ञागुणानुचिन्तनमित्यर्थः, एवं शेषपदान्यपि, नवरम् अपायाः- रागद्वेपादिजन्या अनर्थाः, विपाकः - कर्मफलं, संस्था| नानि-लोकद्वीपसमुद्राद्याकृतयः । 'आणारुई 'त्ति नियुक्त्यादिश्रद्धानं 'णिसम्गरुई 'त्ति स्वभावत एव तत्त्वश्रद्धानम् 'उवएसरुई 'सि साधूपदेशात्तत्त्वश्रद्धानं 'सुत्तरुई 'ति आगमात्तत्त्वश्रद्धानम् 'आलंगण'त्ति आलम्बनानि धर्मध्यानसौधशिखरारोहणार्थ याम्यालम्व्यन्ते - आश्रीयन्ते तान्यालम्बनानि-वाचनादीनि, अनित्यत्वाशरणत्वैकत्वसंसारानुप्रेक्षाः प्रतीताः । तपस: बाह्य अभ्यंतर भेदा: For Parts Only ~90~ waryra Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: आन्तर० प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [२०] औपपा- सुकज्झाणे चउबिहे चउप्पडोआरे पण्णत्ते, तंजहा-पुहुत्तचियके सविआरी १ एगत्तषियके अविआरी २ तिकम् सुहमकिरिए अप्पडिवाई ३ समुच्छिन्नकिरिए अणियट्टी, ४, सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, पतंजहा-विवेगे विजसग्गे अब्धहे असम्मोहे, सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णता, तंजहा-खंती। ॥४४॥ मुत्ती अजबे मद्दवे, सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पहाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-अवायाणुप्पेहा असु-12 भाणुप्पेहा अर्णतवित्तिआणुप्पेहा विप्परिणामाणुप्पेहा, से तं झाणे ॥ 'पुहत्तवियके सविआरी'त्ति पृथक्त्वेन-एकद्रव्याश्रितानामुत्पादादिपर्यायाणां भेदेन वितकों-विकल्पः पूर्वगतश्रुतालम्बनो नानानयानुसरणलक्षणो यत्र तत् पृथक्त्ववितर्क, तथा विचार:-अर्थाद्वयञ्जने व्यञ्जनादर्थे मनःप्रभृतियोगानां चान्यस्मादन्यतरस्मिन् विचरणं सह विचारेण यत्तत्सविचारि, सर्वधनादित्यादिन् समासान्तः, तथा 'एगत्तविय के अवि-18 आरी त्ति एकत्वेन-अभेदेनोत्पादादिपर्यायाणामन्यतमैकपर्यायालम्वनतयेत्यर्थः, वितर्कः-पूर्वगतश्रुताश्रयो व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तदेकरववितर्क, तथा न विद्यते विचारोऽर्थव्यञ्जनयोरितरस्मादितरत्र तथा मनःप्रभृतीनामन्यत्तरस्मादन्यत्र यस्य तदविचारीति, 'सुहुमकिरिए अप्पडिवाइ'त्ति सूक्ष्मा क्रिया यत्र निरुद्धवाङ्मनोयोगत्वे सत्यर्द्ध निरुद्धकाययोगत्वात् Mतत् सूक्ष्मक्रियम् , अप्रतिपाति-अप्रतिपतनशीलं प्रवर्द्धमानपरिणामत्वाद्, एतच्च निर्वाणगमनकाले केवलिन एव स्यादिति, Pा समुच्छिन्नकिरिए अणियट्टी'त्ति समुच्छिन्ना-क्षीणा क्रिया-कायिक्पादिका शैलेशीकरणे निरुद्धयोगत्वेन यस्मिंस्तत्तथा, ४ा अनिवर्ति-अव्यावर्तनस्वभावमिति । विवेगेत्ति देहादात्मन आत्मनो वा सर्वसंयोगानां विवेचनं-युया पृथक्करणं विवेकः, - - तपस: बाह्य-अभ्यंतर भेदाः ~ 91~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [२०] 'विउसग्गे'त्ति व्युत्सर्गो-निःसङ्गतया देहोपधित्यागः 'अबहेत्ति' देवाद्युपसर्गजनितं भयं चलनं वा व्यथा तदभावोऽव्यर्थ 'असंमोहे सि देवादिकृतमायाजनितस्य सूक्ष्मपदार्थविषयस्य च सम्मोहस्य--मूढताया निषेधोऽसम्मोहः, 'अवायाणुप्पेह'त्ति | अपायाना-प्राणातिपाताद्याश्रवद्वारजन्यानानामनुप्रेक्षा-अनुचिन्तनमपायानुप्रेक्षा 'असुभाणुप्पेह'त्ति संसाराशुभत्वानुचिन्तनम् 'अणंतवत्तियाणुप्पेह'त्ति भवसन्तानस्यानन्तवृत्तिताऽनुचिन्तनं 'विपरिणामाणुप्पेह'त्ति वस्तूनां प्रतिक्षणं विविधपरिणामगमनानुचिन्तनमिति । से किं तं विउस्सग्गे ?, २ दुविहे पण्णसे, तंजहा-दवविउस्सग्गे भावविउस्सग्गे अ । से किं तं दध्ववि४|| उस्सग्गे ?, २ चउब्धिहे पण्णत्ते, तंजहा-सरीरविउस्सग्गे गणविउस्सग्गे उवहिविउस्सग्गे भत्तपाणविउ-18 लस्सग्गे, से तं दवविउस्सग्गे, से किं तं भावविउस्सग्गे, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-कसायविउस्सग्गे संसा रविउस्सग्गे कम्मविउस्सग्गे, से किं तं कसायविउस्सग्गे?.२ च उविहे पण्णत्ते, तंजहा-कोहकसायविउ. | स्सग्गे माणकसायविउस्सग्गे मायाकसायविउस्सग्गे लोहकसायविउस्सग्गे, से तं कसायविउस्सग्गे, से कि तं संसारविउस्सग्गे ?,२ चउबिहे पण्णत्ते, तंजहा-णेरइअसंसारविउस्सग्गे तिरियसंसारविउस्सग्गे मणु& असंसारविउस्सग्गे देवसंसारविउस्सग्गे, से तं संसारविउस्सग्गे, से किं तं कम्मविउस्सग्गे ?, २ अढविहे पण्णत्ते, तंजहा-णाणावरणिजकम्मविउस्सग्गे दरिसणावरणिज्जकम्मविउस्सग्गे वेधणीअकम्मविउस्सग्गे तपस: बाह्य-अभ्यंतर भेदाः ~92~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [...२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा- प्रत तिकम् सूत्रांक ॥४५॥ *** [२०] दीप अनुक्रम मोहणीयकम्मविउस्सग्गे आऊअकम्मविउस्सग्गे णामकम्मविउस्सग्गे गोअकम्मविउस्सग्गे अंतरायकम्म विजस्सग्गे, से तं कम्मविउस्सग्गे, से तं भावविउस्सग्गे ॥ (सू०२०)। _ 'संसारविउस्सग्गे'त्ति नरकायुष्कादिहेतूनां मिथ्यादृष्टित्वादीनां त्यागः 'कम्मविउस्सग्गे'त्ति ज्ञानावरणादिकर्मबन्ध हेतूनां ज्ञानप्रत्यनीकत्वादीनां त्यागः ॥२०॥ मा तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अणगारा भगवंतो अप्पेगर्दा आयार-1 धरा जाब विचागसुअधरा तस्थ तत्थ तहिं तहिं देसे देसे गच्छागछि गुम्मागुम्मि फड्डाफड्डेि अप्पेगहआ वायंति अप्पेगहआ पडिपुच्छति अप्पेगइया परियदति अप्पेगइया अणुप्पेहंति अप्पेगहआ अक्खेवणीओ विक्खेवणीओ संवेअणीओ णिवेअणीओ चउब्विहाओ कहाओ कहति अप्पेगइया उड्ढुजाणू अहोसिरा झाणकोडोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरति । __'अप्पेगइया आयारधरे' त्यादि प्रतीतं, क्वचिद् दृश्यते 'तत्थ तत्थति उद्यानादौ 'तहिं तहिति तदंशोक्तमेवाह देशे देशे-अवग्रहभागे, वीप्साकरणं चाधारबाहुल्येन साधुवाहुल्यप्रतिपादनार्थ, 'गच्छागच्छिति एकाचार्यपरिवारो गच्छः गच्छेन मागच्छेन च भूत्वा गच्छागच्छि वाचयन्तीति योगः, दण्डादण्ड्यादिवच्छन्दसिद्धिः, एवं 'गुम्मागुम्मि फडाफढेि च' नवरं गुल्म-गच्छकदेशः उपाध्यायाधिष्ठितः फडक-लघुतरो गच्छदेश एव गणावच्छेदकाधिष्ठित इति । अथ प्रकृतवाचना 'वायंति'त्ति सूत्रवाचनां ददति 'पडिपुच्छंति ति सूत्रार्थों पृच्छन्ति परिय१ति'त्ति परिवर्तयन्ति तावेव, 'अणुप्पेहति त्ति [२०] ॥४५॥ BE | विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -(आचार-आदि सूत्रधर एवं वाचनादि गुणयुक्तता) ~93~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम [२१] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [२१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः “औपपातिक” - अनुप्रेक्षन्ते तावेव चिन्तयन्ति । 'अक्खेवणीओ'त्ति आक्षिप्यते - मोहात्तत्त्वं प्रत्याकृष्यते श्रोता यकाभिरित्याक्षेपण्यः 'विक्खेवणीओ'त्ति विक्षिप्यते कुमार्गविमुखो विधीयते श्रोता यकाभिस्ता विक्षेपण्यः 'संवेयणीओ'त्ति संवेज्यते - मोक्षसुखाभिलाषो विधीयते श्रोता यकाभिस्ता संवेजन्यः 'निवेयणीओ'त्ति निर्वेद्यते संसारनिर्विण्णो विधीयते श्रोता यकाभिस्ता निघेंदिन्यः, तथा 'उडुंजाणू अहोसिर'त्ति शुद्धपृथिव्यासन वर्जनादौपग्रहिकनिषद्याया अभावाच्चोत्कुडुकासनाः सन्तोऽपदि| श्यन्ते-ऊर्ध्वं जानुनी येषां ते ऊर्ध्वजानवः, अधः शिरसो-अधोमुखा, नोर्ध्वं तिर्यग्या क्षिप्तदृष्टय इत्यर्थः, 'झाणकोडोवगय'त्ति ध्यानरूपो यः कोष्ठस्तमुपागता ये ते तथा, ध्यानकोष्ठप्रवेशनेन संवृतेन्द्रियमनोवृत्तिधान्या इत्यर्थः, संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन्तो विहरन्तीति । Education Internationa • संसारभव्विग्गा भीआ जम्मणजरमरणकरणगंभीर दुक्ख पक्खुभिअपउरसलिलं संजोगविओगवीचीचिंतापसंगपसरिअवहबंध महल्लविजलकल्लोलकलुणविलविअलोभकलकलंत बोलबहुलं अवमाणणफेणतिब्व| खिंसणपुलंपुलप्प भूअरोगवे अणपरिभव विणिवायफरुसवरिसणासमावडिअकठिणकम्म पत्थर तरंगरंगत निचमभयतोअप कसायपायालसंकुलं भवसयसहस्सकलुसजलसंचयं पतिभयं अपरिमिअम हिच्छकलुसम तिवाउवेगउजुम्ममाणद्गरयर पंधआरवर फेणपउरआसापिवासभवलं मोहमहावन्तभोग भ्रममाणगुप्पमाणुछतपचोणिय पाणियपमायचंड बहुदुइसावयसमा हउद्धाय माणप भार घोरकंदियमहारवरवंत भैरवरवं । प्रकारान्तरेण स एवोच्यते- 'संसारभविग्ग' त्ति प्रतीतं 'जंमणजरमरण करणगंभीरदुकूखपक्खुब्भियप उरसलिल' जन्म For Park Use Only ~94~ ***%* 56% Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) --------- मूलं [...२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा |श्रमण तिकम् ॥४६॥ प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम जरामरणान्येव करणानि-साधनानि यस्य तत्तथा, तच्च तद्गम्भीरदुःखं च तदेव प्रक्षुभितं-प्रचलितं प्रचुर-प्रभूत सलिलं-जलं यत्र स तथा तं, संसारसागरं तरन्तीति योगः, 'संजोगविओगवीइचिंतापसंगपसरियवबंधमहलविउलकल्लोलकलुणविलविअलोभकलकलिंतबोलबहुलं' संयोगवियोगा एव वीचयः-तरङ्गा यत्र स तथा, चिन्ताप्रसङ्ग:-चिन्तासातत्यमित्यर्थः स || एवं प्रसृत-प्रसरो यस्य स तथा, वधाः-हननानि बन्धाः-संयमनानि तान्येव महान्तो-दीर्घा विपुलाश्च-विस्तीर्णाः कलोला-महोर्मयो यत्र स तथा, करुणानि विलपितानि यत्र स तथा, स चासौ लोभश्च, स एव कलकलायमानो यो बोलोध्वनिः स बहुलो यत्र स तथा, ततः संयोगादिपदानां कर्मधारयोऽतस्तम्, 'अवमाणणफेणतिबखिसणपुलंपुलप्पभूयरो| गवेअणपरिभवविणिवायफरुसधरिसणासमावडियकढिणकम्मपत्थरतरंगरंगतनिश्चम[भयतोयपहुं' अपमानमेव-अपूजनमेव फेनो यत्र स तथा, तीव्रबिंसनं च-अत्यर्थनिन्दा पुलम्पुलप्रभूता-अनवरतोद्भूताः या रोगवेदनाः, पाठान्तरे तीव्रखिंसनं प्रलुम्पनानि च प्रभूतरोगवेदनाश्च परिभवविनिपातश्च-पराभिभवसम्पर्कः परुषर्षणाश्च-निष्ठुरवचननिभर्सनानि समापतितानि-समापन्नानि बद्धानि यानि कठिनानि-कर्कशोदयानि कर्माणि-ज्ञानावरणादीनि तानि चेति द्वन्द्वः, तत एतान्येव ये प्रस्तरा:-पाषाणास्तैः कृत्वा तरङ्गै रङ्गदू-वीचिभिश्चलत् नित्यं-ध्रुवं मृत्युभयमेव-मरणभीतिरेव तोयपृष्ठ-जलोपरितनभागो यत्र स तथा, ततः कर्मधारयः, अथवा अपमानफेनमिति तोयपृष्ठस्य विशेषणम्, अतो बहुव्रीहिरेवातस्तं, कसायपायालसंकुलं' कषाया एव पाताला:-पातालकलशास्तैः सङ्कलो यः स तथा तं, 'भवसयसहस्सकलुसजलसंचय |भवशतसहस्राण्येव कलुषो जलानां सश्चयो यत्र स तथा तं, पूर्व जननादिजन्यदुःखस्य सलिलतोक्ता इह तु भवानां जन [२१] ARSA ॥४६ ~ 95~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम [२१] “औपपातिक” Education Inte - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [... २१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः | नादिधर्मवतां जलविशेषसमुदायतोकेति न पुनरुक्तत्वमिति, 'पइभयंति व्यक्तं, 'अपरिमिअमहेच्छकलुसम इवाउवेगउडु|म्ममाणदगरयरथंधआरवर फेणपडर आसापिवासघवलं' अपरिमिता अपरिमाणा या महेच्छा-बृहदभिलाषा लोकास्तेषां कलुषा- मलिना या मतिः सैव वायुवेगेन उद्धुम्ममाणं उद्भुवमाणं वा - उत्पाद्यमानं यदुदकरजः - उदक रेणुसमूहस्तस्य रयो| वेगस्तेनान्धकारो यः स तथा बरफेनेनेव प्रचुराशापिपासाभिस्तत्र प्रचुरा-बहुच आशाः - अप्राप्तार्थानां प्राप्तिसम्भावनाः | पिपासास्तु तेषामेवाकांक्षा अतस्ताभिर्धवल इव धवलो यः स तथा, ततः कर्मधारयः, अतस्तं, 'मोहमहावत्तभोगभममाणगुप्पमाणुच्छलंतपच्चोणियत्तपाणियपमाय चंड बहुदुडसावयस माह उद्धायमाणपब्भारघोरकंदियमहारवरवंत भेरवरवं' मोहरूपे महावर्ते भोगरूपं भ्राम्यत्-मण्डलेन भ्रमनुष्यत्-व्याकुलीभवदुच्छलत् उत्पतत् प्रत्यवनिपतच-अधः पतत् पानीयं - जलं यत्र स तथा प्रमादा-मद्यादयस्त एव चण्डबहुदुष्टश्यापदाः- रौद्रभूरिक्षुद्रव्यालास्तैर्ये समाहताः प्रहता उद्धावन्तश्च- उत्ति पुन्तो वा विविधं चेष्टमाना समुद्रपक्षे मत्स्यादयः संसारपक्षे पुरुषादयस्तेषां प्राग्भारः पूरो वा समूहो यत्र स तथा, तथा घोरो यः क्रन्दितमहारवः स एव रवन्-प्रतिशब्दकरणतः शब्दायमानो भैरवरवो भीमघोषो यत्र स तथा ततः पदत्रयस्य कर्मधारयोऽतस्तम् । अण्णाणभमतमच्छ परिहृत्थअणिहुतिंदियमहामगरतुरिअचरिअखोखुग्भमाणनचं तच वलचंचल चलंत घुम्मंतजलसमूहं अरतिभयविसाय सोगमिच्छत्तसेल संकडं अणाइसंताणकम्मबंधणकिलेस चिक्खिल्लसुदुत्तारं अम| रनर तिरियनिरयग इगमणकुडिलपरिवत्तविउल वेलं चउरंतमहंतमणवद्गं रुषं संसारसागरं भीमदरिसणिज्जं For Personal Use Only ~96~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] -0-944 - दीप अनुक्रम औपपा-15 तरति धीईधणिअनिष्पकंपेण तुरियचवलं संवरवेरग्गतुंगकूवयसुसंपउत्तेणं णाणसितविमलमूसिएणं सम्मत्त- श्रमण तिकम् विसुडलद्धणिज्जामएणं धीरा संजमपोएण सीलकलिआ पसत्वज्झाणतववायपणोल्लिअपहाविएणं उज्जमववसायग्गहियणिजरणजयणजवओगणाणदंसणविसुद्धवयभंडभरिअसारा जिणवरवपणोवदिडमग्गेण अकु सू० २१ ॥४७॥ डिलेण सिद्धिमहापट्टणाभिमुहा समणवरसत्यवाहा सुसुइसुसंभासमुपण्हसासा गामे गामे एगरायं 3 गरे णगरे पंचरायं दूइज्जन्ता जिइंदिया णिब्भया गयभया सचित्ताचित्तमीसिएम दब्बेसु विरागयं गया|| संजया विरया मुत्ता लहुआ णिरवकखा साह णिहुआ चरंति धम्म ॥ (सू०२१)॥ 'अण्णाणभमंतमच्छपरिहत्थअणिहुतिदियमहामगरतुरियचरियखोखुन्भमाणनयंतचवलचंचलचलंतघुमंतजलसमूह' अज्ञानान्येव भ्रमन्तो मत्स्याः परिहत्थत्ति-दक्षा यत्र स तथा, अनिभृतानि-अनुपशान्तानि यानीन्द्रियाणि तान्येव महामकरास्तेषां यानि स्वरितानि-शीघ्राणि चरितानि-चेष्टितानि तेः खोखुम्भमाणत्ति-भृशं क्षुभ्यमाणो नृत्यन्निव नृत्यन् । चपलानां मध्ये चञ्चलच, अस्थिरत्वेन चलँश्च स्थानान्तरगमनेन घूर्णश्च-भ्राम्यन् जलसमूहो-जलसङ्घातोऽन्यत्र जडसमूहो यत्र स तथा, ततः कर्मधारयस्ततस्तम् , 'अरइभयविसायसोगमिच्छत्तसेलसंकर्ड' अरतिभयविषादशोकमिथ्यात्वानि प्रती-1 | तानि तान्येव शैलास्तैः सङ्कटो यः स तथा तम् , 'अणाइसंताणकम्मबंधणकिलेसचिक्खिल्लसुदुत्तारं' अनादिसन्तानम्-अना- ॥४७॥ दिप्रवाहं यत् कर्मबन्धनं तच्च क्लेशाश्च-रागादयस्तालक्षणं यञ्चिक्खिाई-कर्दमस्तेन सुष्टु दुस्तारो यः स तथा तम्, 'अमरन-2 "रतिरियनिरयगइगमणकुद्धिलपरिवत्तविउलवेल' अमरनरतिर्यग्निरयगतिषु यद्गमनं तदेव कुटिलपरिवर्ता-चक्रपरिवर्तना|| -- [२१] IML ~97~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम [२१] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... २१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः विपुला च विस्तीर्णा वेला - जलवृद्धिलक्षणा यत्र स तथा तं, 'चउरंतमहंतं' ति चतुर्विभागं दिग्भेदगतिभेदाभ्यां महान्तं च-महायामम्, 'अणवदग्गं ति अनवदनम् - अनन्तमित्यर्थः, 'रुद'ति विस्तीर्ण, संसारसागरमिति व्यक्तं, 'भीमदरिसणिजं'ति भीमो दृश्यत इति भीमदर्शनीयस्तं, 'तरंति' लक्ष्यन्ति, संयमपोतेनेति योगः, किम्भूतेन ? - 'घीईघणियनिष्पकंपेण' |धृतिरज्जुबन्धनेन धनिकम् - अत्यर्थ निष्प्रकम्पः - अविचलो यः स मध्यपदलोपाद्धतिधनिकनिष्प्रकम्पस्तेन त्वरितचपलम्अतित्वरितं यथा भवतीत्येवं तरन्ति, 'संवरवेरग्गतुंगकूवय सुसंपउत्तेणं' संवरः- प्राणातिपातादिविरतिरूपो वैराग्यं-कपायनिग्रहः एतल्लक्षणो यस्तुङ्गः- उच्चः कूपकः स्तम्भविशेषस्तेन सुष्ठु सम्प्रयुक्तो यः स तथा तेन, 'गाणसियविमलमूसिएणं 'ति ज्ञानमेव सित:- सितपटः स विमल उच्छ्रितो यत्र स तथा तेन, मकारचेह प्राकृतशैलीप्रभवः 'सम्मत्तविमुद्धलद्धणिजामएणं सम्यक्त्वरूपो विशुद्धो- निर्दोषो लब्धः - अवाप्तो निर्यामकः- कर्णधारो यत्र स तथा तेन, धीरा-अक्षोभाः संयमपोतेन शीलकलिता इति च प्रतीतं, 'पसत्यज्झाणतववायपणोलिय पहाविएणं' प्रशस्तध्यानं धर्मादि तद्रूपं यत्तपः स एव वातो वायुस्तेन यत् प्रणोदितं-प्रेरणं तेन प्रधावितो-येगेन चलितो यः स तथा तेन, संयमपोतेनेति प्रकृतम्, 'उज्जमव | वसायग्गहियणिज्जरणजयण उवओगणाणदंसणविसुद्धवयभंडभरिअसारा' उद्यमः - अनालस्यं व्यवसायो - वस्तुनिर्णयः सङ्ख्या| पारो वा ताभ्यां मूलकल्पाभ्यां यद्गृहीतं क्रीतं निर्जरणयतनोपयोगज्ञानदर्शन विशुद्धव्रतरूपं भाण्डं क्रयाणंक तस्य भरितःसंयमपोतभरणेन पिण्डितः सारो यैस्ते तथा, श्रमणवरसार्थवाहा इति योगः, तत्र निर्जरणं तपः यतना- बहुदोषत्यागेनास्पदोपाश्रयणम् उपयोगः - सावधानता ज्ञानदर्शनाभ्यां विशुद्धानि व्रतानि, अथवा ज्ञानदर्शने च विशुद्धब्रतानि चेति For Parts Only ~98~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम औपपा- समासः, प्रतानि च-महानतानि, पाठान्तरेण 'णाणदंसणचरित्तविसुद्धवरभंडभरियसार'त्ति तत्र ज्ञानदर्शनचारित्राण्येव श्रमण तिकम् विशवरभाण्डं तेन भरितः सारो यैस्ते तथा, 'जिणवरवयणोवदिछमग्गेणं अकुडिलेण सिद्धिमहापट्टणाभिमहा समणवरसत्थवाहपत्ति व्यक्त, 'सुमुसुसंभाससुपण्हसास'त्ति सुश्रुतयः सम्यक्श्रुतग्रन्थाः ससिद्धान्ता वा सुशुचयो वा सुखः || सू०२१ ॥४८॥ | सम्भापो येषां सुखेन वा सम्भाष्यन्त इति सुसम्भाषाः शोभनाः प्रश्नाः येषां सुखेन वा प्रश्श्यन्ते ये ते सुप्रश्नाः शोभना। | आशा:-चाम्छा येषां ते स्वाशाः अथवा सुखेन प्रश्यन्ते शास्यन्ते च-शिक्ष्यन्ते ये ते सुप्रश्नशास्याः शोभनानि वा प्रश्नशस्यानि-पृच्छाधान्यानि येषां ते तथा अथवा सुप्रश्नाः शस्याश्च-प्रशंसनीयाः, ततः कर्मधारय इति, 'दूइजन्त'त्ति द्रवन्तो-बसन्तः, अनेकार्थत्वाद्धातूनां, 'णिब्भय'त्ति भयमोहनीयोदयनिषेधात् 'गयभय'त्ति उदयविफलताकरणात् ट्रा'संजयत्ति संयमवन्तः, कुत इत्याह-विरय'त्ति यतो निवृत्ताः हिंसादिभ्यः, तपसि वा विशेषेण रताः विरताः, विरया वा-निरौत्सुक्याः विरजसो वा-अपापाः, 'संचयाओ विरय'त्ति क्वचिद् दृश्यते, तत्र सन्निधेर्निवृत्ता इत्यर्थः, 'मुत्त'त्ति मुक्ताः ग्रन्थेन 'लहुत्ति लघुका स्वल्पोपधित्वात् 'णिरवकंख'त्ति अप्राप्तार्थाकाडावियुक्ताः 'साहू' मोक्षसाधनात् 'णिहुआ' प्रशान्तवृत्तयः 'चरंति धम्मति व्यक्तम् । अत्र साधुवर्णके जितेन्द्रियत्वादीनि विशेषणानि बहुशोऽधीतानि, तानि च गमान्तरतया निरवद्यानि, यत् पुनरत्रैव गमे पुनरुक्तमवभासते तत् स्तवत्वान्न दुष्टं, यदाह-“सम्झायझाणतवओसहेसु । ॥४८॥ 3 उवएसधुइपयाणेसुं । संतगुणकित्तणासु य न हुंति पुनरुत्तदोसा उ ॥१॥" ॥२१॥ १ खाध्यायध्यानतपुऔषधेषु उपदेशस्तुतिप्रदानेषु । सद्गुणकीर्तनेषु च न भवन्ति पुनरुक्तदोषास्तु ॥ १ ॥ [२१] ~994 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२] दीप अनुक्रम [२२] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स यहवे असुरकुमारा देवा अंतिअं पाउभवित्था | कालमहाणीलसरिसणीलगुलिअगवलअयसिकुसुमप्पगासा विअसिअसपवत्तमिव पत्तलनिम्मलईसिसितरत्ततंषणयणा गरुलायतउजुतुंगणासा उअचिअसिलप्पचालविफलसण्णिभाहरोहा पंडुरससिसकलविमलणिम्मलसंखगोक्खीरफेणदगरयमुणालियाधवलदंतसेढी हुपवहणिद्धतधोयतत्सतवणिजरत्ततलतालुजीहा || अंजणघणकसिणस्यगरमणिजणिद्धकेसा वामेगकुंडलधरा अद्दचंदणाणुलित्तगत्ता। & असुरवर्णके किमपि लिख्यते-'कालमहाणीलसरिसणीलगुलिअगवलअयसिकुसुमप्पगासा' कालो यो महानीलो-मणि विशेषस्तेन सहशा वर्णतो ये से तथा, नीलो-मणिविशेषः गुलिका-नीलिका गवलं-माहिषं शृङ्गम् अतसीकुसुम-धान्यः | |विशेषपुष्पं एतेषामिव प्रकाशो-दीप्तिर्येषां ते तथा, ततः कर्मधारयः, कालवर्णा इत्यर्थः, 'विअसिअसयवत्तमिवेति व्यक्तं, 'पत्तलणिम्मलईसीसियरत्ततंवणयणा' पत्तलानि-पक्ष्मवन्ति निर्मलानि-विमलानि ईषत् सितरतानि क्वचिद्देशे मनाक श्वेतानि क्वचिच मनाग्रतानीत्यर्थः कचिच्च ताम्राणि-अरुणानि नयनानि येषां ते तथा, शतपत्रसाधम्य च व्यक्तमेव, | 'गरुले' त्यादिविशेषणचतुष्टयं महावीरवर्णकवन्नेयम् 'अंघणघणकसिणरुयगरमणिजणिद्धकेसा' अञ्जनधनौ-प्रतीती कृष्णः-1 | कालः रुचको-मणिविशेषस्तद्वद्रमणीयाः स्निग्धाश्च केशा येषां ते तथा, 'वामेगकुंडलधरा' बामे कर्णे एकमेव कुण्डलं| धारयन्ति ये ते तथा, दक्षिणे स्वाभरणान्तरधारिण इति सामर्थ्यगम्यम् , आईचन्दनानुलिप्तगात्रा इति व्यक्तम् । . ईसिसिलिंधपुप्फप्पगासाई सुहमाई असंकिलिट्टाई वत्थाई पवरपरिहिया वयं च परमं समतिकता भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: असुर-देवानाम् वर्णनं ~100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [२२] दीप अनुक्रम [२२] आँपपातिकम् ॥ ४९ ॥ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... २२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः विति च वयं असंपत्ता भद्दे जोन्वणे वट्टमाणा तलभंगयतुडिअपवर भूसणनिम्मलमणिरयणमंडिअभुआ दसमुद्दामंडिअग्गहत्था वूलामणिचिधगया सुरूवा महिहिआ महज्जुतिआ महवला महायसा महासोक्खा महाणुभागा हारविराइतयच्छा कडगतुडिअर्धभिअनुआ अंगयकुंडलमट्टगंडतलकण्णपीढधारी विचिन्तवत्थाभरणा विचित्तमालाम उलिमउडा कल्लाणकयपवरवत्थपरिहिया कल्लाणकयपवर मल्लाणुलेवणा भासुरवोंदी पलंबवणमालधरा । 'ईसिसिलिंधपुष्करपगासाइ' इति मनाक् सिलिन्धकुसुमप्रभाणि, ईषत्सितानीत्यर्थः, सिलिन्धं भूमिस्फोटक छत्रकम् 'असुरेसु होंति रत्तं'ति मतान्तरम्, 'असंकिलिडाई 'ति निदूषणानि 'सुहुमाई'ति श्लक्ष्णानि 'वत्थाई'ति वसनानि 'पवरपरिहिया' प्रवराश्च ते परिहिताश्च-निवसिता इति समासः, 'वयं च' इत्यादि सूत्रं, तत्र त्रीणि वयांसि भवन्ति, यदाह'आषोडशाद्भवेद्वालो, यावत् क्षीरान्नवर्तकः । मध्यमः सप्ततिं यावत्, परतो वृद्ध उच्यते ॥ १ ॥ आद्यस्य वयसोऽतिक्रमे द्वितीयस्य सर्वथैवाप्राप्तौ भद्रं यौवनं भवत्येवेति भद्रे यौवने इत्युक्तं, 'तलभंगयतुडियपवरभूसण निम्मलमणिरयण मं| डिअभुआ' तलभङ्गकानि - चाह्वाभरणानि त्रुटिकाश्च चाहुरक्षिकास्ता एव वरभूषणानि तैर्निमलमणिरलैश्च मण्डिता भुजा येषां ते तथा, 'चूलामणिचिंधगया' चूडामणिलक्षणं चिह्नं प्राप्ताः, श्रूयन्ते चासुरादीनां चूडामण्यादीनि चिह्नानि, यदाह"चूडामणिफणिवज्जे गरुडे घड अस्स वद्धमाणे य । मयरे सीहे हत्थी असुराईणं मुणसु चिंधे ॥ १॥" "महिडिअत्ति १ चूडामणिः फणी वज्रं गरुडः घटः अश्वो वर्द्धमानश्च । मकरः सिंहो हस्ती असुरादीनां गुण चिह्नानि ॥ १ ॥ Education Internationa | भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगताः असुर-देवानाम् वर्णनं For Penal Use On ~ 101 ~ असुराग सु० २२ ॥ ४९ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [२२] दीप अनुक्रम [२२] “औपपातिक” - मूलं [... २२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Eucation intervational उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) महर्द्धयो विशिष्टविमानपरिवारादियोगात्. 'महज्जुइय'त्ति महाद्युतयो विशिष्टशरीराभरणप्रभायोगात् 'महावल'त्ति विशि ष्टशारीरप्रमाणाः 'महायस'त्ति महायशसो- विशिष्टकीर्तयः 'महासोक्ख' त्ति महासौख्या: 'महाणुभाग'त्ति अचिन्त्यशक्तियुक्ता इति, इहैव गमान्तरं 'हारविराजितवक्षसः कटकत्रुटिकस्तम्भितभुजाः' इह कटकानि - कङ्कणानि त्रुटिका- चाहुरक्षकाः । 'अंगयकुंड लमट्टगंड कण्णपीढधारी' अङ्गदानि - बाह्राभरणविशेषान् कुण्डलानि च कर्णाभरणविशेषान् मृष्टगण्डानि चउल्लिखित कपोलानि कर्णपीठकानि कर्णाभरणविशेषान् धारयन्तीत्येवंशीला ये ते तथा, 'विचित्तहत्याभरण'त्ति व्यक्त, 'विचित्त मालामउलियमउडा' विचित्रा मालाः- कुसुमस्रजो येषां मोठी च-मस्तके मुकटं-किरीटं येषां ते तथा, शेषं सुगमं वर्णकान्तं यावत्, नवरं माल्यानि-पुष्पाणि बोन्दि:- शरीरं प्रलम्बो झुम्बनकं वनमाला - आभरणविशेषः प्रलम्बवनमाला वा तस्याः कण्ठतो जानुप्रमाणत्वादिति । दिव्वेणं वण्णेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं रूवेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघाए (घयणे ) णं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इहीए दिव्वाए जुत्तीए दिव्वाए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्बाए अबीए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए बेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिअं आगम्मागम्म रत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करे २ त्ता वंदति णर्मसंति वंदिता णमंसित्ता चासणे णाइदूरे सुस्समाणा णर्मसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिङडा पज्जुवासंति ॥ ( सू० २२ ) ।। दिवेणं' देवोचितेन प्रधानेनेत्यर्थः, 'संघाए (घयणे) 'ति संहननेन वज्रऋषभनाराचेनेत्यर्थः, 'संठाणेणं'ति समचतुरस्रलक्ष भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगताः असुर-देवानाम् वर्णनं For Penal Use Only ~ 102~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...२२] दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२] दीप अनुक्रम औपपा- त्यर्थः, 'रिडीए'त्ति परिवारादिकया 'जुइए'त्ति युक्त्या-विवक्षितार्थयोगेन 'पभाए'त्ति यानादिदीच्या 'छायाए'त्ति शोभया| भवनवा तिकम् | 'अच्चीए'त्ति अर्चिषा शरीरस्थरलादितेजोज्वालया 'तेएणं'ति तेजसा-शरीरसम्बन्धिरोचिपा प्रभावेन वा 'लेसापत्ति देह दावर्णेन, एकार्था या युत्यादयः शब्दाः प्रकाशप्रकप्रतिपादनपराश्चेति न पौनरुक्त्यमिति, 'उज्जोएमाण'त्ति उद्योतयन्तः। प्रकाशकरणेन 'पभासेमाण'त्ति प्रभासयन्तः-शोभयन्तः, एकाओं वैताविति, 'रत्त'त्ति रक्ताः-सानुरागाः 'तिक्खुत्तो'त्ति त्रिकृत्वा-त्रीन् वारान् आदक्षिणात्-पाश्र्थात् प्रदक्षिणो-दक्षिणपार्श्ववर्ती आदक्षिणप्रदक्षिणस्तं 'वंदंति'त्ति स्तुवन्ति 'नमंसंति'त्ति नमस्यन्ति शिरोनमनेनेति । वाचनान्तरे दृश्यते-'साई साईति स्वकीयानि स्वकीयानि 'नामगोयाईति नामगो त्राणि-यादृच्छिकान्वाभिधानानीति 'साविति'त्ति श्रावयन्ति ॥ २२॥ KI तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे असुरिंदवजिआ भवणवासी देवा|| अंतियं पाउभविस्था णागपइणो सुचण्णा चिजू अग्गीआ दीवा उदही दिसाकुमारा य पवण थणिआ य भवणवासी णागफडागरुलपयरपुण्णकलससीहहयगयमगरमउडवहमाणणिजुत्सविचित्तचिंधगया सुरूवा महिढिया सेसं तं चेव जाच पजुवासंति ॥ (सू०२३)॥ | 'नागे'त्यादि व्यक्तं, नागादीनां च नागफणादीनि चिह्नानि भवन्ति, तानि क्रमेण दर्शयन्नाह-'नागफडा १ गरुल २|| है वइर ३ पुण्णकलस ४ सीह ५ हयवर ६ गयंक ७ मयरंकवरमउड ८ वद्धमाण ९ निजुत्तविचित्तचिंधगया' नागफणादयो गजान्ता अङ्का:-चिह्नानि येषां मुकुटानां तानि तथा, तानि च मकराकानि च-मकरचिहानि यानि वरमुकुटानि तानि (२२ |॥५०॥ भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: असुर आदिः भवनपति-देवानाम् वर्णनं ~ 103~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम च, वर्धमानकं च-शरावं पुरुषारूढपुरुषरूपं वेति द्वन्द्वः, तानि च तानि नियुक्तानि यथास्थानं नियोजितानि विचित्राणि च-विविधानि चिहानि च-लक्षणानि गताः-प्राप्ता ये ते तथा, इह सूत्रे 'पुण्णकलससंकिण्णउप्फेससीहे 'त्येवं कचित् विशेषो दृश्यते, तत्र नागफणादिभिरविता ये उप्फेसा-मुकुटास्ते तथा, शेपं तथैव ।। २३॥ &| तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे वाणमंतरा देवा अति पाउभविस्था पिसाया भूआ य जक्ख रक्खस किंनर किंपुरिस भुअगवइणो अ महाकाया गंधव्वणिकायगणा णिउण-12 गंधवगीतरइणो अणपपिणअ पणपण्णिअ इसिवादीअ भूअवादीअ कंदिय महाकदिआ य कुहंड पयए य देवा चंचलचवलचित्तकीलणदवप्पिआ गंभीरहसिअभणिअपीअगीअणचणरई वणमालामेलमउडकुंडलसच्छंदविउब्विआहरणचारुविसणधरा सव्वोउयसुरभिकुसुमसुरइयपलंबसोभंतकंतविअसंतचित्तवणमा-1 | लरहअवच्छा कामगमी कामरूपधारी णाणाविहवण्णरागवरवत्थचित्तचिल्लियणियंसणा विविहदेसीणेवस्थ- | लग्गहिअवेसा पमुइअकंदप्पकलहकेलिकोलाहलप्पिआ हासबोलबहुला अणेगमणिरयणविविहणिजुत्तविचित्तचिंधगया सुरूवा महिहिआ जाव पज्जुवासंति ॥ (सू०२४)॥ 'भुयगवइणो'त्ति महोरगाधिपाः, किम्भूतास्ते इत्याह-'महाकाय'त्ति बृहदेहाः, इदं च विशेषणमवस्थाविशेषाश्रयम् , अन्यथा सर्व एव सप्तहस्तप्रमाणा भवन्ति, यदाह-"भवणवणजोइसोहमीसाणे सत्त होति रयणीओ" 'गंधवनिकायगण'त्ति १ भवनवनज्योतिष्कसौधर्मशानेषु सप्त भवन्ति रत्नयः । [२३] SARERainintenatural Hrelunurary.org | भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: वाणव्यन्तर-देवानाम् वर्णनं ~104 ~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा- तिकम् प्रत सूत्रांक ॥५१॥ [२४] दीप अनुक्रम गन्धर्वाणां-व्यन्तराष्टमभेदभूतानां निकायो-वर्गों येषां ते गन्धर्वनिकाया गन्धर्वा एव तेषां ये गणा-राशयस्ते तथा, व्यन्तरा० पाठान्तरे 'गन्धर्वपतिगणाचे ति व्यक्तमेव, किंविधास्ते इत्याह-निउणगंधवगीयरइणो'त्ति निपुणे-सूक्ष्मे गन्धर्वे च-नाव्योपेतगाने गीते च-नाट्यवर्जितगेये रतिर्येषां ते तथा, अणपन्निकादयोऽष्टौ ब्यन्तरनिकायविशेषभूताः रत्नप्रभापृथिव्या सू० २४ उपरितनयोजनशतवर्तिनः, किंविधा एत इत्याह-चंचलचवलचित्तकीलणदवप्पिया' चञ्चलचपलचित्ता:-अतिचपलमानसाः क्रीडनं-क्रीडा द्रवश्च-परिहासस्तत्प्रियाः, ततः कर्मधारयः, 'गंभीरहसियभणियपियगीयणचणरई' गम्भीर हसितं || येषां भणितं च-वाक्प्रयोगः प्रियं येषां गीतनृत्तयोश्च रतिर्येषां ते तथा, 'गहिरहसियगीयणचणरइ'त्ति क्वचिहृश्यते व्यक्त च, 'वणमालामेलमउडकुंडलसच्छंदविउवियाभरणचारुविभूसणधरा वनमाला-रलादिमय आप्रपदीन आभरणविशेषः आमेलका-पुष्पशेखरकः मुकुट-सुवर्णादिमयं कुण्डलानि च-प्रतीतानि एतान्येव स्वच्छन्दविकुर्विताभरणानि-स्वाभिप्रा| यनिर्मितालङ्कारास्तथंचार विभूषण-भूषा तद्धारयन्ति येते तथा, 'सबोज्यसुरभिकुसुमसुरइयपलंचसोहंतकतषियसंत-||४|| चित्तवणमालरइयवच्छा' सर्वर्तुकानि-सर्वऋतुसम्भवानि यानि सुरभीणि-कुसुमानि तैः सुरचिता या सा तथा, सा चासी प्रलम्बा च शोभमाना च कान्ता च विकसन्ती च चित्रा च वनमाला च-वनस्पतिसक् इति समासः, सा रचिता वक्षसि यैस्ते तथा, 'कामगमित्ति इच्छागामिनः 'कामरूवधारित्ति ईप्सितरूपधारिणः 'गाणाविहवण्णरागवरवस्थचित्तचिल्लियनियंसणा' नानाविधवों रागो येषु तानि तथा, तानि वरवस्त्राणि चित्राणि-विविधानि 'चिल्लियति लीनानि दीप्तानि १ प्रत्यन्तरे नास्ति । [२४] | भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: वाणव्यन्तर-देवानाम् वर्णनं ~ 105~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] वा निवंसनानि-परिधानानि येषां ते तथा, "विविधदेसीणेवत्थग्गहियवेसा' विविधदेशिनेपथ्येन-नानादेशरूढवस्त्रादिलान्यासेन गृहीतो वेपो नेपथ्यं यैस्ते तथा, 'पमुइयकंदपकलहकेलिकोलाहलप्पिया' प्रमुदितानां यः कन्दर्पः-कामप्रधानः केलिः, काम एव वा, कलहश्च-राटी केलिश्च नर्म कोलाहलश्च-कलकलस्ते स्वपरकृताः प्रिया येषां ते तथा, अथवा प्रमुदिताश्च ते कन्दर्पादिप्रियाश्चेति समासः, 'हासबोलबहुला' पाठान्तरे 'हासकेलिबहुला' इति व्यक्तम्, 'अणेगमणिरयणविविहनिजुत्तचित्तचिंधगया' अनेकानि-बहूनि मणिरत्नानि-प्रतीतानि विविधानि-बहुप्रकाराणि नियुक्तानि-नियोजितानि ||3 येषु तानि तथा, तानि चित्राणि चिहानि गताः-प्राप्ता येते तथा, चिह्नानि च-पिशाचादीनां क्रमेणैतान्युच्यन्ते-द 'चिंधाइ कलंबझए १ सुलस २ वडे ३ तह य होइ खटुंगे।आसोए ५चंपए वा ६ नागे ७ तह तुंबुरी चेव८॥१॥॥२४॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जोइसिया देवा अंतिअंपाउन्भवित्था विहस्सती लाचंद सूर सुक सणिचरा राह घूमकेतू बुहा य अंगारका य तत्ततवणिज्जकणगवण्णा जे गहा जोइसंमि चार|| चरंति केऊ अ गइरहआ अट्ठावीसविहा य णक्खत्तदेवगणा णाणासंठाणसंठियाओ पंचवण्णाओ ताराओ Bाठिअलेस्सा चारिणो अ अविस्साममंडलगती पत्तेयं णामंकपागडियचिंधमउडा महिहिया जाव पज्जुवा-12 संति ॥ (सू०२५)॥ दीप अनुक्रम [२४] चिहानि कदम्पध्वजः मुलसः वटः तथा च भवति खवाङ्गम् । अशोकश्चम्पको वा नागस्तथा तुम्बरी चैव ॥१॥ भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क-देवानाम् वर्णनं ~ 106~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपातिकम् प्रत ॥५२॥ सूत्रांक [२५] ज्योतिष्कवर्णको व्यक्तो, नवरम् 'अंगारका यत्ति मङ्गलाः, बहुत्वं च प्रत्येक ज्योतिषामसङ्ख्यातत्वात् , 'तचतवणिजकण-15 ज्योति |गवण्णा' तप्तस्य तपनीयस्य-सुवर्णस्य यः कणको-बिन्दुः शलाका वा अथवा तपनीयं-रकं सुवर्ण कनक-सुवर्णमेव पीतं | तहगणों येषां ते तथा, 'जे य गहत्ति उक्तव्यतिरिक्ताः, 'जोइसमित्ति ज्योतिश्चके 'चार चरन्ती'तिश्रमणं कुर्वन्ति, केऊ || यत्ति केतवो जलकत्वादयः, किम्भूता ?-गइरइय'त्ति मनुष्यलोकापेक्षयोक, "ठियलेस्स'त्ति स्थितलेश्या:-निश्चलप्रकाशा: 'चारिणो यत्ति सञ्चरिष्णवः, अत एवाह-'अविस्साममंड लगइत्ति प्रतीतं, 'नामंकपागडियचिंधमउडा' नामाकृतानि | प्रकटितानि-चिह्नप्रधानानि मुकुटानि यैरिति समासः ॥ २५ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स वेमाणिया देवा अंतिअं पाउन्भविस्था सोहम्मीसाणसणकुमारमाहिंदवंभलंतकमहामुक्कसहस्साराणयपाणयारणअच्चुयबई पहिहा देवा जिणदसणुस्सुगागमणजणियहासा पालकपुप्फकसोमणससिरिवच्छणंदिआवत्तकामगमपीइगममणोगमविमलसव्यओभद्दणामधिजेहिं विमाणेहिं ओइण्णा चंदका जिणिदं । मिगमहिसवराहछगलदहुरहयगयवइभुभगखग्गउसभंकविडिमपागडियचिंधमउडा पसिढिलवरमउडतिरीडधारी कुंडल उज्जोविआणणा मउडदित्तसिरया रत्ताभा पउमपम्हगोरा सेया सुभवण्णगंधफासा उत्तमविउविणो विविहवस्थगंधमल्लधरा महि हिआ महज्जु ॥५२॥ तिआ जाय पंजलिउडा पजुवासंति ॥ (सू०२६)॥ वैमानिकवर्णकोऽपि व्यक्तो, नवरं वाचनान्तरगतं किञ्चिदस्य व्याख्यायते, तदन्तर्गतं किश्चिदधिकृतवाचनान्तरगतं | SARKAARAKAKARA दीप अनुक्रम [२५] | भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: ज्योतिष्क एवं वैमानिक-देवानाम् वर्णनं ~ 107~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [२६] च, तत्र 'सामाणियतायत्तीससहिया' सामानिका-इन्द्रसमानायुष्कादिभावाः त्रायविंशाः-महसरकल्पाः पूज्यस्थानीयाः||४ | 'सलोगपालअग्गमहिसिपरिसाणीअअप्परक्खेहिं संपरिबुडा' सह लोकपाल:-सोमादिभिर्दिक्पालकनियुक्तकैः या अग्रम-पटू हिप्या-प्रधानजायाः परिषदश्च-बाह्यमध्यमाभ्यन्तरा जघन्यमध्यमोत्कृष्टपरिवारविशेषभूताः अनीकानि च-हस्त्यश्वरथपदातिवृषभनर्तकगाथकजनरूपाणि सैन्यानि आत्मरक्षाश्च-अङ्गरक्षा इति द्वन्द्वः, अतस्तैः सम्परिवृता इति, देवसहस्रानु-18 यातमाः सुरवरगणेश्वरैः प्रयतैः 'समणुगम्मतसस्सिरीय'त्ति समनुगम्यमानाश्च ते सश्रीकाश्चेति समासः, सर्वादरभूषिताः | सुरसमूहनायकाः सौम्यचारुरूपाः 'देवसंघजयसद्दकयालोया' देवसङ्केन जयशब्दः कृत आलोके-दर्शने येषां ते तथा। | 'मिग १ महिस २ वराह ३ छगल ४ ददुर ५ हय ६ गयवइ ७ भुयग ८ खग्ग ९ उसभंक १० विडिमपागडियचिंध४ मउडा' मृगादयो दश दशामां शकादीन्द्राणां चिह्वभूताः, तत्र वराहः-शूकरः खड्ग-आटव्यचतुष्पदविशेषः ऋषभो-वृषभः॥ई | शेषाः प्रतीताः, तत्र मृगादयः अङ्का लाञ्छनानि विटपेषु-विस्तरेषु येषां मुकुटानां तानि तथा, तानि प्रकटितचिहानि रत्नादिदीप्त्या प्रकाशितमृगादिलाञ्छनानि मुकुटानि येषां ते तथा । पालक १ पुष्पक २ सौमनस ३ श्रीवत्स ४ नन्द्यावर्त४५ कामगम ६ प्रीतिगम ७ मनोगम ८ विमल ९ सर्वतोभद्र १० नामधेयैर्विमानैः, उत्तरवैक्रियैरित्यर्थः, सम्पस्थिता इतिx & योगः, एतानि च क्रमेण शक्रादीनामच्युतान्तानां दशानामिन्द्राणां भवन्तीति । किंविधैस्तैरित्याह-तरुणदिवागरकरातिशारेगप्पहेहिं तरुणदिवाकरकरेभ्योऽतिरेकेण-अतिशयेन प्रभा येषां तानि तथा तैः, 'मणिकणगरयणघडियजालुज्जलहेमजा॥ लपेरतपरिगएहि मणिकनकरघटित-युक्तं यज्ज्वालोज्यलं-प्रभोज्ज्वलं हेमजालं-स्वर्णजालकं तेन पर्यन्तेषु परिगतानि भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: वैमानिक-देवानाम् वर्णनं ~108~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [२६] औपपातिकम् ॥ ५३ ॥ “औपपातिक” Education Internation - मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः उपांगसूत्र- १ (मूलं + वृत्तिः) तानि तथा तैः, 'सपयरवरमुत्तदा मलं बंतभूसणेहिं' सह प्रतरैः- आभरणविशेषैर्वर भुक्तादामलक्षणानि लम्बमानानि भूषणानि येषु तानि तथा तैः, 'पचलियघंटावलिमहर सदवंसतंतितलतालगीवाइयरवेणं' प्रचलितायाः घण्टावल्याः यो मधुरः शब्दः स तथा वंशश्च वेणुस्तन्त्री च-वीणा तलतालाश्च - हस्तताला अथवा तलाश्च हस्ताः तालाश्च-कंशिका गीतं च-गेयं वादितं चचादित्रमिति द्वन्द्वः अतस्तेषां यो रवः-शब्दः स तथा ततः पदद्वयस्य समाहारद्वन्द्वः, अतस्तेन करणभूतेन मधुरेण - मनोहरेण पूरयन्तः अम्बरं, दिशश्च शोभयन्तस्त्वरितं सम्प्रस्थिताः स्थिरयशसो देवेन्द्रा इति व्यक्त, 'हडतुट्टमणस'त्ति अतीव तुष्टचित्ताः 'सेसावि य'त्ति इन्द्रसामानिकादयः, तानेवाह- 'कप्पवरविमाणाहिया' कल्पेषु यानि वरविमानानि तेनामधिपा इत्यर्थः समनुयान्ति सुरवरेन्द्रानिति योगः, अत एव सुरवराः 'सविमाणविचित्तविधनामंकविगडपागडमउडाडोवसुभदंसणिज्जा' स्वविमान विचित्रचिह्नानां नामाङ्कविकटप्रकटमुकुटानां च य आटोपः स्फारता तेन शुभा ये दृश्यन्ते ते तथा | ते विचित्र कल्पवरविमानाधिपाः, 'समन्निति'त्ति समनुयान्ति समनुगच्छन्ति सुरवरेन्द्रानिति, तथा 'लोयंतविमाणवासिणो | यात्रि देवसंघायत्ति लोकस्य ब्रह्मलोकस्यान्ते- समीपे यानि विमानानि तद्वासिनो लोकान्तिकाश्चापीत्यर्थः, 'पत्तेयविरायमाणविरइयमणिरयणकुंडल भिसंत निम्मलनियगंकियविचित्तयागडियचिंधमउडा' प्रत्येकं विराजमानानि - शोभमानानि विरचितानि - कर्णेषु कृतानि मणिरत्नकुण्डलानि येषां ते तथा, भिसंतत्ति-दीप्यमानानि निर्मलानि निजाङ्कितानि निजकेन नामादिनाऽङ्केनाङ्किवानि विचित्राणि विविधानि प्रकटितानि - प्रकाशितानि चिह्नानि च मुकुटानि चिह्नप्रधानानि वा मुकुटा । भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगताः वैमानिक - देवानाम् वर्णनं For Parts Only ~ 109~ वैमानि० सू० २६ ॥ ५३ ॥ wor Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम नियैस्ते तथा, तथा 'दायतत्ति दर्शयन्तः अप्पणो समुदय'ति आत्मीयं ऋळ्यादिसमूह 'पेच्छंताविय परस्स रिद्धीउत्ति प्रेक्षमा-12 Aणाश्च परद्धी उत्तमाः, एवं कल्पालयाः सुरवराः 'जिणिंदवंदणनिमित्तभत्तीए'त्ति जिनेन्द्रवन्दनहेतुभूतभावेन 'चोइयमइत्ति है प्रेरितबुद्धयः हर्षितमानसाश्च जीतकल्पमनुवर्तमाना देवाः 'जिणदंसणूस्सुयागमणजणियहासा'जिनदर्शनाय यदुत्सुकं-शीघ्रमागमनं तेन जनितो हर्षो येषां ते तथा, 'विउलवलसमूहपिंडिया' विपुलो बलसमूहः-सैन्यसमुदायः पिण्डितो यैस्ते तथा, 8 कथमित्याह-संभमेणंति भक्तिकृतीत्सुक्येन ‘गयणतलविमलविउलगमणगइचवलचलियमणपवणजइणसिग्धवेगा' गगन-8 तले विमले विपुले च यद्गमनं तस्य सम्बन्धी शीघ्रवेग इति सम्बन्धः गतिश्चपला स्वरूपत एवं यस्य तद्गतिचपलं तच्च सच्चलितं च गन्तुं प्रवृत्तं तद्विधं यन्मनः पवनश्च तयोर्जयनशीलोऽत एव शीघ्रो बेगो येषां ते तथा, नानाविधयानवाहनलगताः यानानि-रथादीनि वाहनानि-जादीनि उच्छुितविमलधवलातपत्राः। विउधियजाणवाहणविमाणदेहरयणप्पभाए'त्ति I|| क्रियाणां यानादीनां ४ रत्नानां च स्वाभाविकानामितरेषां च या प्रभा सा तथा तया, 'उज्जोएंता नह' कथमित्याह-ISK |'वितिमिरं करेंता' नभ एवेति 'सविड्डीए' युक्ता इति शेषः, 'हुलिय'ति शीघ्रं प्रयाताः । गमान्तरमिदम्-'पसिढिलवरमउडतिरीडधारी' प्रश्लथा:-शिथिलबन्धना, गाढवन्धनानां बाधाजनकत्वात् (वर) मुकुटाश्चतुरस्राः शेखरविशेषाः तिरीटास्त एव शिखरत्रययुक्तास्तान् धारयन्ति ये तच्छीलाश्च ते तथा, कुण्डलोद्योतिताननाः, 'मउडदित्तसिरय'त्ति मुकुटेन दीप्ताः शिरोजामस्तककेशा येषां ते तथा, मुकुटदीपशिरस्का बा, 'रत्ताभ'त्ति लोहितवर्णाः 'पउमपम्हगोर'त्ति कमलगर्भकान्ताः पीता [२६] भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: वैमानिक-देवानाम् वर्णनं ~ 110~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: निक प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम औपपा- I इत्यर्थः, 'सेय'त्ति शुक्ला, त्रिवर्णा एव वैमानिका भवन्ति, यदाह-"कणगत्तयरत्ताभा सुरवसभा दोसु होति कप्पेसु । तिसुवैमानिक ठा होति पम्हगोरा तेण परं सुकिला देवा ॥१॥" शेष व्यक्तमेवेति ॥ २४ ॥ द्रा पुस्तकान्तरे देवीवर्णको दृश्यते, स चैवम्-'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अच्छरग-रा सू०२६ णसंघाया अंति पाउन्भवित्था, ताओणं अच्छराओ धंतधोयकणगरुअगसरिसप्पभाओं मातम्-अग्निना तापितं || धौत-जलेन क्षालितं यत्कनकं तस्य यो रुचको-वर्णस्तत्सदृशप्रभाः गौराजय इत्यर्थः, 'समइकंता य बालभावं'ति अति-18 कान्ता इव शिशुत्वं, मध्यमजरठवयोविरहिताः, नवयौवना इवेत्यर्थः, 'अणइवरसोम्मचारुरूवा' अनतिवरम्-अविद्यमाभान हासतया प्रधानं न विद्यते अतिवरं यस्मात्तदनतिवरमिति वा सौम्य-नीरोगं चार-शोभनं रूपं यासा तास्तथा, || 'निरुवयसरसजोषणककसतरुणवयभावमुवगयाओ' निरुपहतं-रोगादिना अबाधितं सरसं च-शृङ्गाररसोपेतं निरुपहतो लवा स्वो रसो यत्र तत्सथाविधं यौवनं तथा कर्कशः-अश्लधाङ्गतया यस्तरुणवयोभावस्तारुण्यं तं चोपगता यास्तास्तथा इह च यौवनतरुणभावयोर्यद्यप्येकार्थता तथापि सरसत्वाश्लथाङ्गत्वलक्षणयोर्मनःशरीराश्रितयोः प्रधानतया विवक्षितयो-17 धर्मयोराधारतया भेदेन विवक्षणान्न पौनरुक्त्यमिति, 'निच्चमवडियसहावा' न जरां प्रामुवन्तीत्यर्थः, 'सबंगसुंदरीउत्ति | इच्छियनेवत्थरइयरमणिज्जगहियवेसा' इष्टवस्त्राभरणादिरूपनेपथ्यस्य रचितेन-रचनेन रतिदो वा अत एव रमणीयो |१ ॥५४॥ गृहीतः-आत्तो वेषः-आकृतिविशेषो यकाभिस्तास्तथा, 'किंते'त्ति तद्यथाथेः 'हारजहारपाउत्तरयणकुंडलवासुत्तगहेमजालम १ कनकत्वग्रतामाः सुरवृषभा द्वयोर्भवन्ति कल्पयोः । त्रिषु भवन्ति पद्मगौरास्ततः परं शुक्ला देवाः ॥१॥ [२६] | भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: देवी-वर्णनं ~111~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [२६] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः | णिजालकणगजाल सुभगउरितियकड गख डुगरगावलि कंठसुत्तम गहगधरच्छवेजसोणिमुत्तगतिलग फुलग सिद्धत्थिय कण्णवालियस सिसूरउ सभचकयतलभंग यतु डियहत्थमालयहरिसकेऊरवलयपालंचपलंच अंगुलिजगवलक्ख दीणा रमालियाचं दसूरमा|लियाकंचि मेहलकलावपयरगपरिहेर गपाय जालघंटियाखिखिणिरयणोरुजालखड्डियवरनेउरचलणमालिया कणगणिगलजालगमगरमुहविरायमाणनेऊरपचलियसद्दालभूसणधरीड'त्ति हारादीनि मकरमुखविराजमान नूपुरान्तानि प्रचलितानि सन्ति सद्दाउत्ति-शब्दवन्ति यानि भूषणानि तानि धारयन्ति यास्तास्तथा तत्र हारः- अष्टादशसरिकः अर्द्धहारो-नवसरिकः पाउसति-प्रयुक्तानि माणिक्ययुक्तकङ्कणानि रत्नकुण्डलानि - प्रतीतानि अथवा प्रयुक्तरत्नकुण्डलानि प्रयुक्तरत्नानि यानि कुण्डलानि तानि तथा तथा व्यामुक्तकानि - परिहितानि प्रलम्बितानि वा यानि हेमजालादीनीति कर्मधारयः, तत्र हेम| जालं- सच्छिद्रः सुवर्णालङ्कारविशेषः एवं मणिजालमपि कनकजालहेमजाउयोस्तु आकारकृतो विशेषः स च रूढिगम्यः सूत्रकं वैकक्षककृतं सुवर्णसूत्रम् 'उरितिय'त्ति उरसि त्रिकं त्रिसरकं कटकानि कङ्कणानि खड्डगत्ति - अङ्गुलीयकविशेषः | एकावली-नानामणिकमयी माला कण्ठसूत्रं - गलावलम्बि सङ्कलकविशेषः मगधकं धराक्षं च रूढिगम्यं मैवेयकंकण्ठलं श्रोणिसूत्रकं - सौवर्ण कटीसूत्रं तिलको विशेषको ललाटाभरणमित्यर्थः फुलकं पुष्पाकृतिललाटाभरणं सिद्धार्थिका - सर्प|पप्रमाणसुवर्ण कणरचित सुवर्णमणिमयी कण्ठिका कर्णवालिका - कर्णोपरितनभागभूषणविशेषः शशिसूरऋषभचक्रकानि तलभङ्गकं च रूढिगम्यानि त्रुटिका :- बाहुरक्षिकाः हस्तमालक :- अङ्गगेत्रिका हरिसत्ति - रूढिगम्यं केयूरम् - अङ्गदं बाहा भरणविशेषः वलयानि - कटकविशेषाः प्रालम्बो झुम्बनकं प्रलम्बो गलाभरणविशेषः इत्यर्थः अङ्गुलीयकानि अङ्गुल्य Education Internation भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगताः देवी-वर्णनं For Peralata Use Only ~ 112~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: तिकम् सू०२६ प्रत सूत्रांक [२६] ॥ ५५॥ ** लाभरणविशेषाः बलाक्ष-रूढिगम्यं दीनारमालिकाचन्द्रमालिकासूर्यमालिकास्तु दीनाराद्याकृतिमालाः काग्रीमेखलयो। देवीवर्णनं कट्याभरणयोर्यद्यपि नामकोशे एकार्थत्वमधीयते तथापीह विशेषो रूढेरवसेयः कलाप:--कण्ठाभरणविशेषो मेखलाकलाप इति वा द्रष्टव्यं प्रतरकाणि-वृत्तपतला आभरणविशेषाः परिहेरगत्ति-रूव्यवसेयं पादजालघण्टिका:-पादाभरणविशेषाः &ाकिलिणीका:-क्षुद्रघण्टिकाः रत्नोरुजालं-रलमयं जङ्घन्योः प्रलम्बमानं सङ्कलकं क्षुद्रिका:-तत्प्रान्तपण्टिकाः वरनपुराणि-18 प्रतीतानि क्षुद्रिकावरनूपुराणि वा-क्षुद्रघण्टिकाप्रधानतुलाकोटिकानि चलनमालिका-पादाभरणविशेषः कनकनिगलानिनिगडाकाराः सौवर्णपादाभरणविशेषाःजालक-चरणाभरणविशेषः, मकरमुखविराजमाननूपुराणि-प्रतीतानि । 'दसवण्णरागरइयरत्तमणहरे'त्ति दशार्द्धवण:-पञ्चवर्णं राग-रञ्जनद्रव्यैः कुसुम्भादिभियोनि रञ्जितत्वेन रक्तानीव रकानि मनो-8 हराणि च तानि तथा तानि अंशुकानि निवसिता इति योगः, महापाणि, नासानिःश्वासवायुवाद्यानि लघूनीत्यर्थः, चक्षु|हराणि अङ्गावारकत्वात् , वर्णस्पर्शयुक्तानि अतिशयवर्णादीनीत्यर्थः, 'हयलालापेलवाइरेगे' अश्वलालाभ्यः सकाशात् पेल-IN वानि-सुकुमाराण्यतिरेकेण यानि तानि तथा, 'धवले'त्ति कानिचिद्धबलानि, 'कणगखचियंतकम्मे कनकखचित-सुवर्णमण्डितम् अन्तकर्म-अञ्चलकर्म वानलक्षणं येषां तानि तथा, 'आगासफालियसरिसप्पहे' आकाशस्फटिकयोराकाशरूप| स्फटिकस्य वा सदृशी प्रभा येषां तानि तथा 'अंसुए नियत्थाओ'त्ति वस्त्राणि निवसिताः, 'आयरेण ति व्यक्तं, 'तुसारगोक्खीरहारदगरयपंडुरदुगुतसुकुमालमुकयरमणिजउत्तरिजाई पाउयाओ'त्ति व्यक्तं, नवरं तुषार-हिम दगरयत्ति-उदक-15 रजस्तद्वत् पाण्डुराणि यानि दुकूलानि-यखाणि तान्येव सुकुमालानि सुकृतानि रमणीयानि च यान्युत्तरीयाणि तानि तथा दीप अनुक्रम [२६] * | भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: देवी-वर्णनं ~113~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम तानि प्राप्ताः, 'वरचन्दनचर्चिताः वराभरणभूपिता' इति व्यक्त, 'सबोउयसुरभिकुसुमसुरक्ष्यविचित्तवरमलधारिणीओं सर्वतुकैः सुरभिकुसुमैः सुरचितं विचित्रं वरं माल्य-मालां धारयन्ति यास्तच्छीलाश्च तास्तथा, 'सुगंधिचुण्णंगरागवरवासपुष्फपूरगविराइया' सुगन्धिचूर्णैरङ्गरागेण च-देहरञ्जनेन वरवासः पुष्पपूरकेण च-पुष्परचनाविशेषेण विराजिता यास्तास्तथा, 'अहियसस्सिरीया' अधिकं सह श्रिया-शोभया यास्तास्तथा, 'उत्तमवरधूवधूविया' उत्तमानां मध्ये यो वरधूपः स है ४ा तथा तेन धूपेन धूपिताः कृतसौगन्ध्याः यास्तास्तथा, 'सिरीसमाणवेसा' श्री:-देवता सा च लोके शोभनवेषेति रूढा अतस्तयोपमा कृतेति, 'दिधकुसुममल्लदामपन्भंजलिपुडाओ' दिव्यैः-वरैः कुसुमैः-अविकसितैः माल्यैः-विकसितैः दामभि|श्च-तन्मयमालाभिः प्रहा:-पूजासज्जाः अञ्जलिपुटा:-अञ्जलय एव यासां तास्तथा, उच्चत्वेन च सुराणां स्तोकोनमुच्छ्रिता, का'चन्द्रानना' इति व्यक्तं, 'चंदविलासिणीओत्ति चन्द्रस्येव विलासः-कान्तिर्यासां तास्तथा, 'चन्द्रार्द्धसमललाटाः चन्द्राधिलोकसौम्यदर्शना उल्का इवोद्योतमाना' इति व्यक्तं, 'विजुघणमिरीइसूरदिपंततेअअहियतरसंनिकासाओ' विद्यतो ये धना मरीचयः-किरणाः सूरस्य च यद्दीप्त-तेजस्तेभ्योऽधिकतरः सन्निकाशो-दीप्तिर्यासां तास्तथा, 'सिंगारागारचारुवेसाओं शृङ्गारो-रसविशेषस्तत्प्रधान आकार:-आकृतिश्चारुश्च वेपो-नेपथ्यं यासा तास्तथा, अथवा शृङ्गारस्यागारमिव-गृहमिव । याश्चारुवेषाश्च यास्तास्तथा, 'संगयगयहसियभणियचेष्ठियविलाससललियसलावनिउणजुत्तोवयारकुसलाओं' सङ्गतानि-उचि& तानि यानि गतादीनि तेषु निपुणा याः सङ्गतोपचारकुशलाश्च यास्तास्तथा, तत्र गतामनं हसितं-हासः भणितं-वचनं || चेष्टित-चेष्टा विलासो-नेत्रविकारः, यदाह-"हावो मुखविकारः स्यात्, भावश्चित्तसमुद्भवः। विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो [२६] भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: देवी-वर्णनं ~114~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा देवीवर्णन तिकम् ॥५६॥ प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [२६] भूसमुद्भवः॥१॥" सललिता-समाधुर्यः संलापा-परस्परभाषणम्, आह च-"संलापो भाषण मिधः" अथवा ललितेन | सह यः संलापः स तथा, ललितलक्षणं चेदम्-"हस्तपादाङ्गविन्यासो, नेत्रोष्ठप्रयोजितः । सौन्दर्य कामिनीनां यल्ललितं तरप्रकीर्तितम् ॥१॥" उपचार:-पूजा, 'सुन्दरस्तनजघनवदनकरचरणनयनलावण्यरूपयौवनविलासकलिता' सुन्दराः स्तनादिनयनान्ता अवयवा यासां लावण्यप्रधानरूपेण स्पृहणीयेनेत्यर्थों यौवनेन विलासेन च कलिता यास्तास्तथा, इह च विलास एवंलक्षणो ग्राह्यो, यदुक्तम्-"स्थानासनगमनानां हस्तधूनेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टः स तु विलासः स्यात् ॥१॥" इति, श्लिष्ट इति सुश्लिष्टः 'सुरवधुओ'त्ति विशेष्यपदं, 'सिरीसनवणीयमउयसुकुमालतुलफासाओ' शिरीष-शिरीषाभिधानतरुकुसुमं नवनीतं च-चक्षणं ते च ते मृदुकसुकुमारे च-अत्यन्तसुकुमारे इति विशेष्यपूर्वपदः &कर्मधारयः तस्यः स्पर्शो यास तास्तथा, 'ववगयकलिकलुसधोयनिद्धतरयमलाओ' व्यपगते कलिकलुपे-राटीपापकर्मणी Pायासां तास्तथा धौती-प्रक्षालिती निर्माती दग्धौ रजः स्पृष्टावस्थो रेणुः मलस्तु बद्धावस्थं रज एवेति धौतनिर्माताविव धौतनिर्मातौ रजोमलौ यासा तास्तथा, ततः कर्मधारयः, 'सोमाउत्ति सोम्या-नीरुजः 'कंताओ'त्ति काम्याः 'पियदंट्रा सणाओ'त्ति सुभगा, सुरूपा इति व्यक्त, 'जिणभत्तिदसणाणुरागेण हरिसियाओ'त्ति जिनं प्रति भक्त्या कृत्वा यो दर्शना- नुरागो-दर्शनेच्छा स तथा तेन हर्षिता:-सञ्जातरोमाञ्चादिहर्षकायाः, 'ओवइया याविपत्ति अवपतिताश्चाप्यवतीर्णाः, जिनसगास'ति जिनसमीपे, 'दिषेण' मित्यादि देववर्णकवनेयं, नवरं 'ठियाओञ्चेब'त्ति ऊर्ध्वस्थानस्थिता इति ॥२६ ।। ॥५६॥ भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: देवी-वर्णनं ~115~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [२७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ॐ प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम तए णं पाए नयरीए सिंघाडगतिगचउकचञ्चरचउम्मुहमहापहपहेसु महया जणसद्दे इ वा जणवूहे इया जणघोले इ वा जणकलकले इ वा जणुम्मी ति वा जणुशलिया इ वा जणसन्निवाए इ वा बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिा ! समणे भगवं महावीरे आदिगरे तित्वगरे सघसंबुद्धे पुरिमुत्तमे जाव संपाविउकामे पुवाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे हहमागए इह संपत्ते इह समोसढे इहेव चंपाए णयरीए बाहिं पुण्णभद्दे चेहए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गि|ण्डित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह। | 'तए 'ति ततोऽनन्तरं, णमित्यलङ्कारे, सिंघाडयेत्यादाक्यं वाक्यार्थः-सिङ्घाटकादिषु यत्र महाजनशब्दादयः तत्र बहुजनोऽन्योऽन्यस्यैवमाख्यातीति, तत्र सिङ्काटक-सिङ्घाटकाभिधानफलविशेषाकारं स्थानं त्रिकोणमित्यर्थः त्रिकं-पत्र स्थाने रथ्यात्रयमीलको भवति चतुष्क-यत्र रथ्याचतुष्कमीलकः स्यात् चत्वरं-यत्र बहवो मार्गा मिलन्ति चतुर्मुख-15 तथाविधदेवकुलादि महापधो-राजमार्गः पन्था-रथ्यामात्रं 'महयाजनसद्दे इ वा' महान् जनशब्दः-परस्परालापादिरूपः। इकारो वाक्यालङ्कारार्थों वाशब्दः पदान्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, अधवा 'सद्देइ वति इह सन्धिप्रयोगादितिशब्दो द्रष्टव्यः, स चोपप्रदर्शने, ततश्च यत्र महान् जनशब्दः इति तद्वस्तु, कचित् 'बहुजणसद्दे इ बत्ति पाठो व्यकश्च, यत्र च जनब्यूह IM इति वा-लोकसमूहा, परस्परेण वा पदार्थानां विशेषेणोहनं वतेत इत्यर्थः, एवं सर्वत्र, कचित्पठ्यते-'जणवाए इ वाटू जणुलावे इ वा' इति तत्र जनवादो-जनानां परस्परेण वस्तुविचारणं उल्लापस्तु-तेषामेव काका वर्णनम्, आह च 5453 Acc (२७] ~ 116~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [२७] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ २७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः औपपातिकम् ॥ ५७ ॥। ४ " स्यात्सम्भाषणमालापः, प्रलापोऽनर्थकं वचः । काका वर्णनमुलापः, संलापो भाषणं मिथः ॥ १ ॥” एवं बोल:- अव्यक्तवर्णो ध्वनिः, कलकलः स एवोपलभ्यमानवर्णविभागः, ऊर्मि:-सम्बाधः उत्कलिका - उघुतरः समुदाय एव सन्निपातः - अपरापरस्थानेभ्यो जनानामेकत्र मीलनमिति, 'एव'मिति वक्ष्यमाणप्रकारं वस्तु 'आइक्खइ'ति, आख्याति सामान्येन 'भास'त्ति भाषते विशेषतः, एतदेवार्थद्वयं पदद्वयेनाह - प्रज्ञापयति प्ररूपयति चेति, अथवा आख्याति - सामान्यतः भाषते विशेषतः प्रज्ञापयति-व्यक्तपर्यायवचनतः प्ररूपयति-उपपत्तितः 'इह आगए'त्ति चम्पायाम् 'इह संपत्ते' त्ति पूर्णभद्रे 'इह समोसढे 'ति साधूचितावग्रहे, एतदेवाह 'इह चंपाए' इत्यादि 'अहापडिरूवं 'ति यथाप्रतिरूपम् उचितमित्यर्थः । तं महाफलं खलु भो देवाणुपिया ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णामगोअस्सवि सवणताए, किमगपुण अभिगमणवंदणणमंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए ?, एक्कस्सवि आयरियस्स धम्मिअस्स सुवयणस्स सवणता ?, किमंगपुण विजलस्स अत्थस्स ग्रहणयाए ?, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो सकोरेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइअं [ विणएणं ] पज्जुवासामो एतं णे पेचभवे भवे अ हियाए सुहाए खमाए निस्सेअसाए आणुगामिअत्ताए भविस्सइत्तिकट्टु बहवे उग्गा उग्गपुसा भोगा भोगपुत्ता 'तं महष्फलं 'ति यस्मादेवं तस्मान्महद् - विशिष्टं फलम्-अर्थों भवतीति गम्यं, 'तहारुवाणं'ति तत्प्रकारस्वभावानां महाफलजनन स्वभावानामित्यर्थः, 'णामगोयस्सवि'त्ति नाम्रो - यादृच्छिकाभिधानस्य गोत्रस्य - गुणनिष्पन्नाभिधानस्य 'सव Eucation International भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे निर्गता: जन-समूहानां वर्णनं For Parts Only ~ 117 ~ जननिर्ग० सू० २७ ।। ५७ ।। caror Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [२७] “औपपातिक” - मूलं [... २७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education International उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) |णयाए'ति श्रवणमेव श्रवणता तथा श्रवणेनेत्यर्थः, 'किमंग पुण'त्ति किं पुनरिति पूर्वोकार्थस्य विशेषद्योतनार्थः, अङ्गेत्यामन्त्रणे, अथवा परिपूर्ण एवायं शब्दो विशेषणार्थः, 'अभिगमणवंदणनमंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए'त्ति अभिगमनम् - अभिमुखगमनं वन्दनं-स्तुतिः नमस्यनं-- प्रणमनं प्रतिप्रच्छनं शरीरादिवार्ताप्रश्नः पर्युपासनं सेवा एतेषां भावस्तत्ता तया, | तथा 'एगस्सवि'त्ति एकस्यापि 'आरियरस' आर्यस्यार्यप्रणेतृकस्यात् 'धम्मियस्स'त्ति धार्मिकस्य धर्मप्रयोजनत्वात्, अत एव सुवचनस्येति, 'वंदामो'ति स्तुमः 'नमसामो' ति प्रणमामः 'सकोरेमो'त्ति सत्कुर्मः, आदरं वस्त्राद्यर्चनं वा विदध्मः, 'संमामोति सम्मानयामः उचितप्रतिपत्तिभिः, 'कलाणं मंगलं देवयं चेहयं पज्जुवासेमो' कल्याणं- कल्याणहेतुत्वादभ्युदयहेतुमित्यथों, भगवन्तमिति योगः, मङ्गलं- दुरितोपशमहेतुं दैवतं देवं चैत्यम् इष्टदेवप्रतिमा तदिव चैत्यं, 'पर्युपासयामः' सेवामहे, 'एयं णे'ति एतद्-भगवद्वन्दनादि अस्माकं 'पेश्च भवे'ति प्रेत्यभवे-जन्मान्तरे पाठान्तरे 'इहभवे य परभवे य' 'हियाए' ति हिताय पथ्यान्नवत् 'सुहाए'सि सुखाय शर्मणे 'खमाएति क्षमाय सङ्गतत्वाय 'निस्सेयसाए सि निःश्रेयसाय | मोक्षाय 'आणुगामियत्ताए'त्ति आनुगामिकत्वाय भवपरम्परासु सानुबन्धसुखाय भविष्यतीति कृत्वा इतिहेतोरित्यर्थः, 'उग्ग' त्ति आदिदेवावस्थापितारक्षवंशजाः 'उभ्गपुत'त्ति त एव कुमारावस्थाः 'भोग'त्ति आदिदेवावस्थापितगुरुवंशजाः 'भोगपुत्तति त एव कुमारावस्थाः । एवं दुपडोआरेणं राहण्णा खत्तिआ माहणा भडा जोहा पसत्थारो मल्लई लेच्छई लेच्छईपुत्ता अण्णे य बहवे राईसरतलवर माउंबियको डुबि अइभ सेट्ठिसेणाव इसत्थवाहपभितिओ अप्पेगइआ बंदणवत्तिअं अप्पे भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे निर्गता: जन-समूहानां वर्णनं For Parts Only ~118~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा प्रत तिकम् C+ C ॥५८॥ सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम गइआ पूअणपत्ति एवं सकारवत्तियं सम्माणवत्तियं दसणवत्तियं कोहलवसियं अप्पेगहा अढविणि-15 जना च्छयहेजे अस्सुयाई सुणेस्सामो सुयाई निस्संकियाई करिस्सामो अप्पेगहा अट्ठाईहेकई कारणाई वागरणाई पुच्छिस्सामो। | एवं पदद्वयोच्चारणेन शेषपदानि ज्ञेयानि, तत्र 'राजन्यका' भगवदयस्यवंशजाः, क्वचित्पठ्यते 'इक्खागा नाया कोरवा' तत्रेक्ष्वाकवो नाभेयवंशजाः नायत्ति-नागवंश्या ज्ञातवंशा या कोरबत्ति-कुरुवंशजाः खत्तियत्ति-सामान्यराजकुलीनाः माहणत्ति-प्रतीताः भडत्ति-शूराः जोहत्ति-योधाः सहस्रयोधादयः पसत्यारोत्ति-धर्मशाखपाठकाः 'मलाई लेच्छइत्ति मल्लकिनो लेपछकिनश्च राजविशेषाः, यथा श्रूयन्ते चेटकराजस्याष्टादश गणराजा:-नवमलई नवलेच्छई कासीकोसलगा & अडारस गणरायाणो' इति, राईसरतलवरमाइंबियकोडुंबियइम्भसेडिसेणावइसत्यवाहपभितिओ'ति राजानो-माण्डलिका ईश्वरा-युवराजाः, अणिमाद्यैश्वर्ययुक्का इति केचित् , तलवरा:-परितुष्टनरपतिवितीर्णपट्टबन्धविभूषिता राजस्थानीयाः | माण्डविका:-मण्डपाधिपाः कौटुम्बिकाः कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः इभ्याः-यद्व्यनिचयान्तरितो महेभो न दृश्यते, से श्रेष्ठिनः-श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गाः सेनापतयः नृपतिनिरूपिताश्चतुरज सैन्यनायकाः सार्थवाहा:-सार्थ नायकाः 'वंदणवत्तिय'ति वन्दनप्रत्ययं वन्दनार्थमित्यर्थः, 'अट्ठाई हेऊई कारणाई वागरणाई पुरिछस्सामो'त्ति क्वचिद् * ॥५८॥ दृश्यते, तत्र अर्थान्-जीवादीन् हेतून-तद्गमकानन्वयव्यतिरेकयुक्तान् कारणानि-उपपत्तिमात्राणि, यथा निरुपमसुखः | सिद्धो, ज्ञानानाबाधत्वप्रकर्षादिति, व्याकरणानि-परप्रनितार्थोत्तररूपाणि । CIANCE [२७]] 44345 | भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे निर्गता: जन-समूहानां वर्णनं ~119~ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम अप्पेगहआ सबओ समंता मुण्डे भवित्ता अगाराओ अणगारि पब्वइस्सामो, पंचाणुवइयं सत्तसि-15 &|क्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजिस्सामो, अप्पेगहआ जिणभत्तिरागेण अप्पेगइआ जीअमेअंति कट्ट पहाया कयषलिकम्मा कयकोऊयमंगलपायच्छित्ता सिरसाकंठेमालकडा आविद्धमणिसुवण्णा कप्पिय[४ हारऽहारतिसरयपालंघपलंबमाणकडिसुत्तयसुकयसोहाभरणा पवरवत्थपरिहिया चंदणोलित्तगायसरीरा।। है 'कयबलिकम्मत्ति कृतं बलिकर्म स्वगृहदेवतानां यैस्ते तथा, 'कयकोऊयमंगलपायच्छित्त'त्ति कृतानि कौतुकमगला न्येव प्रायश्चित्तानि-दुःस्वमादिविधातार्थमवश्यंकरणीयत्वाद् यैस्ते तथा, तत्र कौतुकानि-मपीतिलकादीनि मङ्गलानि तु-सिद्धार्थकदध्यक्षतादीनि 'उच्छोलणयधोय'त्ति कचिदृश्यते, तत्र उच्छोलनेन-प्रभूतजलक्षालनक्रियया धौताः-धीतगात्रा & येते तथा, इदं च स्नानस्य प्रचुरजलस्वसूचनार्थ विशेषणं, स्नानव्यतिरिक्तप्रयोजनगतं वेदमिति, 'सिरसाकंठेमालकड'-16 त्ति शिरसा कण्ठे च माला कृता-धृता यैस्ते तथा, 'आविद्धमणिसुवण्ण'त्ति आविद्ध-परिहितं 'कप्पियहारऽद्धहारतिसर|यपालंबपलंबमाणकडिसुत्तसुकयसोहाभरणा' कल्पितानि-इष्टानि रचितानि वा हारादीनि कटीसूत्रान्तानि येषामन्यानि &च सुकृतशोभान्याभरणानि येषां ते तथा, 'पवरवत्थपरिहियत्ति निवसितप्रधानवाससः 'चंदणोलित्तगायसरीरा' चन्दनाPानुलिप्तानि गात्राणि यत्र तत्तथाविधं शरीरं येषां ते तथा । 21 अप्पेगइआ हयगया एवं गयगया रहगया सिवियागया संदमाणियागया अप्पेगहआ पायविहारचारिणो ||8 * पुरिसवग्गुरापरिखित्ता महया उक्विडिसीहणायबोलकलकलरवेणं पक्खुभिअमहासमुद्दरवभूतंपिव करे (२७] SARELIEatunintentratime niralaunciurary.org भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे निर्गता: जन-समूहानां वर्णनं ~ 120~ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपातिकम् । प्रत GGER सूत्रांक ॥ ५९॥ [२७] दीप अनुक्रम [२७] माणा चंपाए णयरीए मझमझेणं णिगच्छंति २त्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छति रत्ता समणस्सा जननिर्मल भगओ महावीरस्स अदरसामंते छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासंति, पासित्ता जाणवाहणाई ठावईति, २साद जाणवाहणेहिंतो पचोरुहंति, पञ्चोरुहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सू०२७ समर्ण भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति, करित्ता बंदंति णमंसंति, चंदित्ता णमंसित्ता णञ्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूममाणा णमंसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउड़ा पजुवासंति ॥ (सू० २७) । __वाचनान्तराधीतमथ पदपञ्चक 'जाणगयत्ति यानानि-शकटादीनि 'जुग्गगय'त्ति युग्यानि-गोलविषयप्रसिद्धानि* जम्पानानि-द्विहस्तप्रमाणानि चतुरस्राणि वेदिकोपशोभितानि "गिलि'त्ति हस्तिन उपरि कोलररूपा या मानुषं गिलतीवेति'थिलि'ति लाटानां यानि अदुपस्यानानि तान्यन्यविषयेषु घिल्लीओत्ति अभिधीयन्ते 'पवहण'त्ति प्रवहणानि वेगसरादीनि| 'सीय'त्ति शिबिकाः कूटाकाराच्छादिता जम्पानविशेषाः 'संदमाणिय'त्ति स्यन्दमानिकाः पुरुषप्रमाणायामा जम्पानविशेषा है एव 'पायविहारचारेण पादविहाररूपो यश्चार:-सञ्चरणं स तथा तेन, 'पुरिसवागुर'त्ति वागुरा-मृगवन्धनं पुरुषो वागुरेव | | सर्वतोऽवस्थानात् पुरुषवागुरा 'वग्गायगि गुम्मागुम्मिति कचिदृश्यते, तत्र धर्ग:-समानजातीयवृन्दं वर्गेण वर्गेण च | भूत्वा वावर्गि अत एवेहाव्ययीभावसमासः, गुम्मागुम्मिति-गुल्म-वृन्दमात्र गुल्मेन च गुल्मेन च भूत्वेति गुल्मागुल्मि,I 'महय'त्ति महता, रवेणेति योगः, 'उद्विसीहनायबोलकलकलरवेणं'ति उत्कृष्टिश्च-आनन्दमहाध्वनिः सिंहनादश्च-प्रतीतः| बोलच-वर्णव्यकिवर्जितो ध्वनिरेव कलकलश्च-व्यक्तवचनः स एव एतलक्षणो यो रवः स तथा तेन, 'पक्खुभियमहा ॥ ५९॥ भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे निर्गता: जन-समूहानां वर्णनं ~ 121~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम & समुहरवभूयं पिव करेमाण'त्ति प्रक्षुभितमहाजलधे?षप्राप्तमिव-तन्मयमिव नगरं विदधाना इत्यर्थः, क्वचिदिदं पदचतुष्टयं दृश्यते-पायदद्दरेणं भूमि कंपेमाण'त्ति त्वरितगमनजनितपादप्रहारेण, 'अंबरतलमिव फोडेमाण'त्ति पादपातप्रतिरवेणाकाशं स्फोटयन्त इव, 'एगदिसिं'ति एकया दिशा पूर्वोक्तलक्षणया, 'एगाभिमुह'त्ति एक भगवन्तमभि-लक्षणीकृत्य मुखं | येषां ते एकाभिमुखाः, 'तित्थगराइसेसे'त्ति तीर्थकरातिशेषान् जिनातिशयान, 'जाणवाहणाई ठावईतित्ति यानानि-शक-18 टादीनि वाहनानि-गवादीनि स्थापयन्ति-स्थिरीकुर्वन्ति, क्वचिद् विडन्भंती'ति दृश्यते, तत्र विशेषेण स्तम्भयन्ति-निश्च४ालीकुर्वन्ति, इतो वाचनान्तरगतं बहु लिख्यते-'जाणाई मुयंति'त्ति भुवि विन्यस्यन्ति, 'वाहणाई विसजेति'त्ति चरणार्थ मुत्कलयन्ति, 'पुप्फतंबोलाइयं आउहमाइयं सच्चित्तालंकारीति सचित्तं च-सचेतनमलङ्कारं च-राजलक्षणं च विसर्जयन्तीति योगः, किंरूपं सचित्तमित्याह-पुष्पताम्बूलादिकम् , आदिशब्दात् तथाविधफलादिग्रहः, तथा अलङ्कारं च किंविधमि-t | त्याह-आयुधादिकम् , आयुध-खगादि आदिशब्दाच्छत्रचामरमुकुटपरिग्रहः, 'पाहणाओ यत्ति उपानही च, 'एगसाडियं || उत्तरासंगति एकशाटकवन्तमुत्तरीयविन्यासविशेष, 'आयंत'त्ति आचान्ताः-शौचाथै कृतजलस्पर्शाः, 'चोक्ख'त्ति आचम-1 नादपनीताशुचिद्रव्याः, 'परमसुईभूय'त्ति अत एवात्यर्थं शुचीभूताः, 'अभिगमेणं ति उपचारेण, 'अभिगच्छति' भगवन्तमुपचरन्ति, 'चक्खुप्फासे'त्ति दर्शने 'मणसा एगत्तीभावकरणेण'ति अनेकत्वस्य एकत्वस्य भवनम् एकत्वीभावस्तस्य यत् | करणं तत्तथा तेन एकत्वीभावकरणेन, आत्मन इति गम्यते, मनसः एकाग्रतयेत्यर्थः, कायिकपर्युपासनामाह-'सुसमाहियपसंतसाहरियपाणिपाया' सुसमाहितैः-वहिवृत्त्याऽत्यन्तनिभृतैः प्रशान्तैः-अन्तवृत्त्या उपशान्तैः सद्भिः संहृतं-संलीनी (२७] SARERatininemarana | भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे निर्गता: जन-समूहानां वर्णनं ~ 122 ~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...२७]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा जननिर्ग० सू०२७ प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम कृतं पाणिपादं यस्ते तथा, अत एव 'अंजलिमउलियहत्था' अञ्जलिना-अञ्जलिरूपतया मुकुलिती-मुकुलाकारौ कृती तिकम् । हस्ती यैस्ते तथा, वाचिकपर्युपासनामाह-'एवमेयं भंते'त्ति एवमेतद्भदन्त !-भट्टारकेति सामान्यतः 'अवितहमेय'ति विशे पतः, अत एव 'असंदिद्धमेय'ति शङ्काया अविषय इत्यर्थः, अत एव 'इच्छियमेय'ति इष्टमस्माकमेतत् , अत एव 'पडि. च्छियमेय'ति भगवन्मुखात् पतत् प्रतीप्सितमागृहीतमेतत् इह च किञ्चिदिष्टमेव दृष्टमन्यत् प्रतीप्सितमेवेत्यत उच्यते-'इच्छियपडिच्छियमेयंति, 'सच्चे णं एसमडे' प्राणिहितोऽयमर्थ इति, माणसियाए 'तञ्चित्त'त्ति तस्मिन् भगवद्वचने चित्त-भावमनो येषां ते तच्चित्ताः, सामान्योपयोगापेक्षया वा तच्चित्ताः,'तम्मण'त्ति तन्मनसो द्रव्यमनःप्रतीत्य विशेषोपयोग वा, 'तल्लेस्स'त्ति तल्लेश्याः भगवद्वचनगतशुभारमपरिणामविशेषाः, लेश्या हि कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यजनित आत्मपरिणामः, तदाह-कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामोय आत्मनः। स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दःप्रयुज्यते ॥१॥"'तयज्झवसिय'त्ति इहाध्यवसायः अध्यवसितं तच्चित्तत्वादिभावयुक्तानां सतां तस्मिन्-भगवद्वचने एवाध्यवसितं क्रियासम्पादनविषयं येषां ते तदध्यव|सिताः, तत्तिव-झवसाण'त्ति तस्मिन्नेव-भगवद्वचने तीनमध्यवसान-श्रवणविधिक्रियाप्रयलविशेषरूपं येषां ते तथा, तदप्पियहै करण त्ति तस्मिन्-भगवत्यर्पितानि करणानि-इन्द्रियाणि शब्दरूपादिषु श्रोत्रचक्षुरादीनि यैस्ते तदप्तिकरणाः, तयहोवउत्त'त्ति तस्य-भगवद्वचनस्य योऽर्थस्तत्रोपयुक्ता येते तदर्थोपयुक्ताः, 'तम्भावणाभाविय'त्ति तेन-भगवदचनेन तदर्थेन वा यका |भावना-वासना प्राक्तनमुहूर्ते तया भाविता-वासिता न वासनान्तरमुपगता येते तद्भावनाभाविताः, अत एव 'एगमण'त्ति (२७] ६० SAREaurainintenational For P OW | भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे निर्गता: जन-समूहानां वर्णनं ~ 123~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत 3-54- 550 सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम ४ मनसो वा प्रमुदितत्वात् , अणन्नमणत्ति भगवन्मनस इत्यर्थः, किमुक्तं भवति ?-'जिणवयणधम्माणुरागरत्तमणा' जिन-18 वचने जिनवदने वा धर्मानुरागेण रक्तं मनो येषां ते तथा, एकार्थिकानि वैतानि तन्मनःप्रभृतीनि सर्वाणि पदानि तदे काग्रताप्रकर्षप्रतिपादनार्थानीति, 'वियसियवरकमलनयणघयण'त्ति विकसितानि वरकमलानीव नयनवदनानि येषां ते 8 तथा पर्युपासत इति । 'समोसरणाई'ति समवसरणानि वसतयः 'गवेसह'त्ति भगवदवस्थानावगमार्थ निरूपयत , का8 भगवानवस्थित इति जानीतेति भावः । 'आगंतारेसु वत्ति आगन्तुगाराणि-येष्वागन्तुका वसन्ति, 'आरामागारेसु वत्ति आराममध्यवर्तिगृहेषु 'आएसणेसु वत्ति आवेशनानि येषु लोका आविशन्ति तानि चायस्कारकुम्भकारादिस्थानानि, 'आव-2 सहेसु बत्ति आवसथाः-परिव्राजकस्थानानि, 'पणियगेहेसु व ति पण्यगृहाणि हट्टा इत्यर्थः, 'पणियसालासु चत्ति भाण्ड-| ॐशालासु, गृहं सामान्य शाला तु गृहमेव दीर्घतरमुच्चतरं च, एवं 'जाणगिहेसु जाणसालासु'त्ति 'कोडागारेसुत्ति धान्यगृहेषु 'सुसाणेसुति इमशानेषु 'सुन्नागारेसु'त्ति शून्यगृहेषु परिहिंडमाणे त्ति भ्रमन् परिघोलेमाणे'त्ति गमागर्म कुर्वन् ॥२७॥ तए णं से पवित्तिवाउए इमीसे कहाए लट्टे समाणे हत्तुढे जाब हियए हाए जाव अप्पमहग्याभरणालं|| किसरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, सपाओ गिहाओ पडिणिक्वमित्ता चंपाणयरि मझमझण। जेणेव बाहिरिया सब्वेव हेडिल्ला वत्तव्यया जाव णिसीय णिसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउअस्स अद्भुत्तरसस४ा यसहस्साई पीइदाणं दलयति, २त्ता सकारेइ सम्माणेइ सकारता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ (सू० २८ ) ॥ १ अप्रमादित्वात् । [२७]] *5453 भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे निर्गता: जन-समूहानां वर्णनं ~ 124~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: नगरीस तिकम् | सू०२९ प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम औपपा-४ तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते बलवाउअं आमंतेइ आमंतेत्सा एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणु प्पिआ! आभिसेकं हस्थिरयणं पडिकप्पेहि, हयगयरहपवरजोहकलिअंच चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहिहि, सुभद्दापमुहाण य देवीणं बाहिरियाए उचट्ठाणसालाए पाडिएकपाडिएक्काई जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाई ॥६१॥ उववेह, पं णयरिं सम्भितरवाहि रिअं आसित्तसित्तमुइसम्महरत्वंतरावणबीहिरं मंचाइमंचकलिअं| भणाणाविहरागउच्छियज्झयपडागाइपडागमंडिअं लाउल्लोइयमहियं गोसीससरसरत्तचंदणजावगंधवट्टिभूअं करेह कारवेह करित्ता कारवेत्ता एअमाणत्ति पञ्चप्पिणाहि, निजाइस्सामि समणं भगवं महावीरं अभि वंदए ॥ (सू०२९)॥ 8 प्रकृतवाचनाऽनुश्रीयते-'बलवाउय'ति बलव्यापृत-सैन्यव्यापारपरायणम् 'आभिसेकति अभिषेकमहतीत्याभिषेक्य, ६ हत्थिरयण'ति प्रधानहस्तिनं 'पडिकप्पेहित्ति प्रतिकल्पय सन्नद्धं कुरु 'पाडेकति प्रत्येकमेकैकशः 'जत्ताभिमुहाईति गमनाभिमुखानि 'जुत्ताई ति युक्तानि-बलीवादियुतानि, क्वचित् युग्यानि पठ्यन्ते, तानि च जम्पानविशेषाः, 'जाणाईति | शकटानि 'सभितरवाहिरिय'ति सहाभ्यन्तरेण नगरमध्यभागेन बाहिरिका-नगरबहिर्भागो यत्र तत्तथा, क्रियाविशेषणं चेदम् , 'आसित्तसंमजिओवलितं' आसिक्ताम्-उदकच्छटेन सम्मार्जितां-कचवरशोधनेन उपलिप्तां-गोमयादिना, केष्वि-| त्याह-'सिंघाडगतिगचउकचचरचउम्मुहमहापहपहेसु' इदं च वाक्यद्वयं कचिन्नोपलभ्यते, तथा 'आसित्तसित्तसुइसम्महरत्थरावणवीहियं आसिक्तानि--ईपसिक्तानि सिक्तानि च-तदन्यथा अत एव शुचीनि-पवित्राणि संमृष्टानि कचवरापनयनेन 25-SCIRCASSESCkAXSEX [२९] SARERadhntainamaina कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~ 125~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ★RRCCCAR [२९] दीप अनुक्रम रथ्यान्तराणि-रथ्यामध्यानि आपणवीथयश्च-हट्टमार्गा यत्र सा तथा तां , 'मंचाइमंचकलिय' मथा-मालकाः प्रेक्षणदएजनोपवेशननिमित्तम् अतिमञ्चा:-तेपामप्युपरि ये तैः कलिता या सा तथा तां, 'णाणाविहरागउच्छियज्झयपडागाइपडाग| मंडिय' नानाविधरागैरुच्छूितैः-ऊर्वीकृतैः ध्वजैः चक्रसिंहादिलाञ्छनोपेतैः पताकाभिः-तदितराभिरतिपताकाभिश्च|पताकोपरिवर्तिनीभिर्मण्डिता या सा तथा तां, शेषो नगरीवर्णकश्चैत्यवर्णक इवानुगमनीयः, 'आणत्ति पञ्चप्पिणाहित्ति | 'आज्ञप्तिकाम्' आज्ञा प्रत्यय-सम्पाद्य मम निवेदयेत्यर्थः ।। २९ ।। तए से बलवाउए कृणिएणं रपणा एवं बुत्ते समाणे हतुजावहिए करयलपरिग्गहिरं सिरसावत्तं मथए अंजलिं कट्ट एवं बयासी-सामित्ति आणाइ विणएणं वयणं पडिसुणेइ २त्ता हत्थिवाउअं आमंतेड आमंतेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! कूणिअस्स रणो भभसारपुत्तस्स आभिसेकं हस्थिर-16 यणं पडिकप्पेहि, हयगयरहपवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सपणाहिहि सण्णाहित्ता एअमाणत्ति पञ्चप्पिणाहि । तए णं से हस्थिवाउए बलवाउअस्स एअमई सोचा आणाए विणएर्ण वयणं पढिसुणेइ पडिसुणित्ता छेआयरियउवएसमइविकप्पणाविकप्पेहिं मुणिउणेहिं उज्जलणेवत्यहत्थपरिवस्थि मुसज्जं धम्मिअसपणहबदकवइयउष्पीलियकच्छवच्छगेवेयवहगलवरसणविरायंतं अहियतेअजुत्तं सललिअवरकपणपूरविराइ पलंबउचूलमहुअरकर्यधयार चित्तपरिच्छेअपच्छयं पहरणावरणभरिअजुद्धसमै सच्छत्तं सज्झयं सघंटे सप&| डाग पंचामेलअपरिमंडिआभिरामं ओसारियजमलजुअलघंटं विजुपणडं व कालमेहं उप्पाइयपब्वयं व SAARCCCASSRO [२९] SAREauratonintenariana | कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~ 126~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१२) ------- मूल [३०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम औपपा चकमंतं मत्तं गुलगुलंतं मणपवणजइणवेगं भीमं संगामियाओजं आभिसेकं हस्थिरयणं पडिकप्पई पडि- सेनास तिकम् कप्पेत्ता हयगयरहपवरजोहकलिअं चाउरंगिणिं सेणं सपणाहेइ, सण्णाहित्ता जेणेव चलवाउए तेणेव । उवागच्छइ उवागच्छित्ता एअमाणत्ति पचप्पिणइ । तए णं से बलवाउए जाणसालिअं सद्दावेइ २त्ताद सू० ॥ ६२॥ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! सुभद्दापमुहाणं देवीणं बाहिरियाए उबट्ठाणसालाए पाडिएक-10 पाडिएकाई जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाई उवहवेह २त्ता एअमाणत्तिरं पञ्चप्पिणाहि । el हत्थिवाउए'त्ति हस्तिव्यावृतो महामात्रः, इह प्रदेशे 'आभिसेयं हस्थिरयणं ति यत्कचिद् दृश्यते सोऽपपाठः, अग्रे एतस्य वक्ष्यमाणत्वात् , 'छेआयरिय उवएसमइकप्पणाविकप्पेहि छेको-निपुणो य आचार्यः-शिल्पोपदेशदाता तस्योपदेशाद्या 13 मतिः-बुद्धिस्तस्या ये कल्पना-विकल्पाः कृप्तिभेदास्ते तथा तैः, किंविधैः ?-सुणिउणेहिंति व्यक्तं, निपुणनरैर्वा, 'उज्ज-18 लणेवत्वहत्थपरिवस्थिय'ति उज्ज्वलनेपथ्येन-निर्मलवेषेण हत्थंति-शीघ्रं परिपक्षितं-परिगृहीतं परिवृत्तं यत्तत्तथा तत् , पा ठान्तरे उज्ज्वलनेपथ्यैरिति, 'सुसज्जति सुष्टु प्रगुणं, 'धम्मियसण्णद्धवद्धकवइयउष्पीलियकच्छवच्छगेवेयवद्धगलवरभूसण-* सविरायंतति धर्मणि नियुक्ता धार्मिकाः तैः सन्नद्धं-कृतसन्नाहं यत्तद्धार्मिकसन्नद्धं बद्धं कवचं-सन्नाह विशेषो यस्य तत्तथा, लातदेव बद्धकवचिकम् , अथवा धर्मितादयः शन्दा एकार्था एव सन्नद्धताप्रकर्षख्यापनार्थी, भेदो वैषामस्ति, स च रूढि तोऽवसेयः, तथा उत्पीडिता-गाढीकृता कक्षा-हृदयरज्जुर्वक्षसि-उरसि यस्य तत्तथा, 'वक्षःकक्ष' इति पाठान्तरं, तथा टीबद्धं अवेयक-ग्रीवाभरणं गले यस्य तत्तथा, तथा वरभूषणविराजमानं यत्तत्तथा, अवेयकबद्धभूपणविराजितमिति [३०] ॥६२॥ | कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~ 127~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [३०] “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [ ३० ...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः पाठान्तरं ततो धर्मितादीनां कर्मधारयः, अतस्तत्, 'अहियतेयजु'ति कचिद्दृश्यते, तत्राधिकाधिकेन- अत्यर्थमधिकेन अहितानां वा शत्रूणामहितेन-अपथ्येन तेजसा प्रभावेण युक्तं यत्तत्तथा तत् । 'सहलियवरकण्णपूर विराइयं' सललिते - लालित्योपेते बरे ये कर्णपूरे- कर्णाभरणे ताभ्यां विराजितं यत्तत्तथा तत्, 'पलंवडयूलमहुअरकथं धयारं' | प्रलम्बाम्यवचूलानि - टगकन्यस्ताधोमुखकूर्चका यस्य तत् प्रलम्बावचूलं मधुकरैः - भ्रमरैर्मदजलगन्धाकृष्टैः कृतमन्धकारं यस्य तत्तथा ततः कर्मधारयः, अतस्तत्, वाचनान्तरं त्वेवं नेयं 'विरचितवरकर्णपूरं सललितप्रलम्बावचूलं च चामरोत्करकृतान्धकारं च यत्तत्तथा तत्, चामरोत्करकृतान्धकारता तु चामराणां कृष्णत्वात्, 'चित्तपरिच्छेयपच्छयं' चित्रः परिच्छेको लघुः प्रच्छदो- त्रस्त्रविशेषो यस्य तत्तथा तत्, 'पहरणावरण भरियजुद्धस' प्रहर| गावरणानाम्-आयुधकवचानां भृतं यत् युद्धसज्जं च सङ्ग्रामप्रगुणं यत्तत्तथा तत्, पाठान्तरे 'सचापशरप्रहरणावरणभरितयुद्धसज्जा' मिति, सच्छत्रं सध्यजं सघण्टमिति व्यक्तम्, सपताकमित्यपि दृश्यते, तत्र पताका-गरुडसिंहादिचिहरहिताः, 'पंचामेदयपरिमंडियाभिरामं पञ्चभिः- आमेलकैः चूडाभिः परिमण्डितमत एवाभिरामं रम्यं यत्तत् तथा तत्, 'ओसारियजमलजुयलघंटे' अवसारितम्-अवलम्बितं यमलं समं युगलं-द्विकं घण्टयोर्यत्र तत्तथा तत्, 'विज्जुपणद्धं व कालमेह' घण्टाप्रहरणादीनामुज्ज्वलदीप्तियुक्तत्वेन विद्युत्कल्पत्वात् विद्युत्परिगतमिवेत्युक्तं हस्तिदेहस्य कालत्वेन महत्वेन च मेघकल्पस्वात् कालमेघमित्युक्तम्, 'उप्पाइयपवयं व चकमत' स्वाभाविकपर्वतो हि न चङ्क्रमते अत उच्यते औत्पातिक| पर्वतमिव चङ्क्रम्यमाणं, पाठान्तरे तु औत्पातिकपर्वतमिव सक्खंति-साक्षात्, 'मत्तं गुलुगुलंत 'मिति व्यक्तं, कचित् 'महामेघ' For Parta Use Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~ 128~ yor Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [३०] औपपातिकम् ॥ १३ ॥ Jan Euca “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ३० ...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः 996496 मिवेति दृश्यते, 'मणपवणजइणवेगं मनः पवनजयी वेगो यस्य तत्तथा तत्, शीघ्रवेगमिति कचित्, 'भीमं संगामियायोगं' साङ्ग्रामिक आयोगः-परिकरो यस्य तत्तथा तत्, पाठान्तरे 'संगामियाओजं' साङ्ग्रामिकातोयं साङ्ग्रामिकवाद्यमित्यर्थः, पाठान्तरे साङ्ग्रामिकम् अयोध्यं येन सहापरो हस्ती न योद्धुं शक्नोति तदयोध्यं । तए णं से जाणसालिए बलवाउअस्स एअमडं आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ पडिणित्ता जेणेव जाणसाला तेणेव उवागच्छ तेणेव उवागच्छिता जाणाई पशुवेक्खेइ २ त्ता जाणाई संपमनेइ २त्ता जाणाई संवट्टेद जाणाई संवट्टेसा जाणारं णीणेइ जाणाई णीणेत्सा जाणाणं दूसे पवीणेइ २ सा जाणाई समलंकरेइ २त्ता जाणाई वरभंडकमंडियाई करेति २ ता जेणेव वाणसाला तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता वाहणाई पचुवेक्खेइ २त्ता वाहणाई संपमज्जइ २त्ता वाहणाई जीणे २ ता वाहणाई अप्फालेइ २त्ता दूसे पीड़ | २त्ता वाहणाई समलंकरेइ २त्ता वाहणाई वरभंडकमंडियाई करेइ २ सा वाहणाई जाणाई जोएइ २सा पओदलडिं पओअधरे अ समं आडहइ आडहिता वहमग्गं गाहेइ २ सा जेणेव बलवाउए तेणेव उवागच्छइ २त्ता | बलवाउअस्स एअमाणत्तिअं पचप्पिणइ । तए णं से बलवाउए णयरगुत्तिए आमंतेइ २त्ता एवं वयासी-खि प्यामेव भो देवाणुपिया ! चंप णयरिं सभितरबाहिरियं आसित्त जाव० कारवेत्ता एअमाणत्तिअं पचप्पि णाहि । तए र्ण से णयरगुतीए बलवाउअस्स एअमहं आणाए विणणं परिसुणेइ २ सा चंप णयरिं सभितरबाहिरियं आसितजाव० कारवेत्ता जेणेव बल वाउए तेणेव उवागच्छइ २ सा एअमाणत्तिअं पचप्पिण । तए णं For Parts Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~ 129~ सगासज्ज० सू० ३० ॥ ६३ ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम से बलवाउए कोणिअस्स रणो भंभसारपुत्तस्स आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पिों पासइ हयगय जाव. सण्णाहिरं पासइ, सुभदापमुहाणं देवीणं पडिजाणाई उवविआई पासइ, चंपं णयरिं सम्भितरजाव गंध-15 बहिभूअं कयं पासइ, पासित्ता हहतुद्दचित्तमाणंदिए पीअमणे जाव हिअए जेणेव कृणिए राया भंभसार-16 पुत्ते तेणेव उवागच्छइ २त्ता करयलजाव एवं बयासी-कप्पिए णं देवाणुप्पियाणं आभिसिके हत्थिरयणे हय गयपवरजोहकलिआ य चाउरंगिणी सेणा सपणाहिआ सुभद्दापमुहाणं च देवीणं बाहिरियाए अ उवट्ठाठाणसालाए पाडिएकपाडिएकाई जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाई उवठावियाई चंपा णयरी सम्भितरवाहिरियाद आसित्तजाव गंधवहिनूआ कया, तं निजंतु णं देवाणुप्पिया!समणं भगवंमहावीर अभिवंदआ॥(स०३०) | 'जाणाई पञ्चुवेक्खेइ'त्ति शकटादीनि प्रत्युपेक्षते-निरीक्षते 'संपमजेइ'त्ति विरजीकरोति, 'नीणेइ'त्ति शालाया निष्काशलायति, 'संबढेइति संवर्तयति एकत्र स्थाने न्यस्यति, 'दूसे पवीणेइ'त्ति दृष्याणि-तदाच्छादनवखाणि प्रविनयति-अपसार-IK यति, 'समलंकारेइत्ति समलङ्करोति-यन्त्रयोक्रादिभिः कृतालङ्काराणि करोति, 'वरभंडगमंडियाईति प्रवराभरणभूषितानि, | 'वाहणाईति बलीवादीन् 'अप्फालेइत्ति आस्फालयति हस्तेनाऽऽताडयति-उत्तेजयतीत्यर्थः, 'दूसे पवीणेईत्ति मक्षिकाX|| मशकादिनिवारणार्थ नियुक्तानि वस्त्राणि व्यपनयति 'जाणाई जोएइ'त्ति वाहनयानानि योजयतीति संवन्धयतीत्यर्थः, 'पओयलडिंति प्रतोत्रयष्टि-प्राजनकदण्डं, 'पओयधरे यत्ति प्रतोत्रधरान् शकटखेटकान 'सम'ति एककालं 'आडहईत्ति आदधाति नियुले, 'बट्ट गाहेइत्ति वर्म ग्राहयति यानानि मार्गे स्थापयतीत्यर्थः ॥३०॥ [३०] FaPranaamaan unsony | कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~ 130~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१२) -------- मूल [३१...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा- जेणेव अणसाला तिकम् प्रत सूत्रांक [३१] H६४॥ दीप अनुक्रम 25-450-54- तए णं से कूणिए राया भभसारपुत्ते बलवाउअस्स अंतिए एअमटुं सोचा णिसम्म हड्तुजावहिअएकोणिक. जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छद २त्ता अट्टणसालं अणुपविसहरसा अणेगवायामजोग्गवग्गणवामह-या णमल्लजुद्धकरणेहिं संते परिस्संते सयपागसहस्सपागेहिं सुगंधतेल्लमाइएहिं दप्पणिज्जेहिं मयणिज्जेहिं विंह-131 है णिज्जेहिं सविदियगायपल्हायणिज्जेहिं अभिगेहिं अभिगिए समाणे तेल्लचम्मंसि पडिपुषणपाणिपायमुकुमालकोमलतलेहिं पुरिसेहिं छेएहिं दक्खेहिं पत्तद्देहिं कुसलेहिं मेहावीहिं निउणसिप्पोवगएहिं अभिगणपरिमद्दणुवलणकरणगुणणिम्माएहिं अधिसुहाए मंससुहाए तथासुहाए रोममुहाए चउब्बिहाए संवाहणाए संचाहिए समाणे अवगयखेअपरिस्समे अट्टणसालाउ पडिणिक्खमइ पडिणिक्वमित्ता जेणेव मजणधरे तेणेव उवागच्छह तेणेव उवागच्छित्ता मजणघरं अणुपविसइ २त्ता समुत्तजालाउलाभिरामे विचित्तमणिरयणकुहिमतले रमणिजे पहाणमंडवंसि णाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि पहाणपीटंसि सुहणिसपणे सुद्धोदएहिं गंधोदपहिं पुष्फोदएहिं सुहोदपहिं पुणो २ कल्लाणगपवरमजणविहीए मजिए तत्थ कोउअसएहिं बहुवि-14 आहेहिं कल्याणगपवरमजणावसाणे पम्हलसुकुमालगंधकासाइयलूहिअंगे सरससुरहिगोसीसचंदणाणुलित्तगये। अयसुमहग्यदूसरयणसुसंखुए सुइमालावणगविलेवेण आविद्धमणिसुवपणे कप्पियहारहारतिसरयपा-| लंबपलबमाणकडिसुत्तसुकयसोभे पिणद्धगेविज अंगुलिजगललियंगयललियकयाभरणे वरकडगतुडियर्थभिअभुए अहियरूवसस्सिरीए मुदिआपिंगलंगुलिए कुंडलउजोविआणणे मउडदित्तसिरए हारोस्थषसुकपर-12 [३१] - FaPranaamaan unsony | कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~131~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: क प्रत सूत्रांक [३१] यवच्छे पालंघपलंयमाणपडसुकयउत्तरिजे णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहणिउणोविअमिसिमिसंत-18 विरइयसुसिलिडविसिलट्ठआविडवीरवलए। | 'भट्टणसाल'त्ति व्यायामशाला 'अणेगवायामजोगवम्गणवामद्दणमलजुद्धकरणेहि ति अनेकानि यानि व्यायामाय-व्यायामनिमित्तं योग्यादीनि तानि तथा तैः, तत्र योग्या-गुणनिका वल्गनम्-उलानं च्यामईनं-परस्परस्याङ्गमोटनं मल्लयुद्धं-प्रतीतं करणानि च-अङ्गभङ्गविशेषा मल्ल शास्त्रप्रसिद्धाः, सयपागसहस्सपागेहिति शतकृत्वो यत्पकमपरापरौषधीरसेन सह शतेन वा कापणानां यत्पक्कं तच्छतपाकमेवमितरदपि, 'सुगंधतेल्लमाईएहिति अत्र अभ्यङ्गरिति योगः,आदिशब्दाद् घृतकर्पूरपानीयादिपरिग्रहः, किम्भूतैरित्याह-पीणणिज्जेहिंति रसरुधिरादिधातुसमताकारिभिः 'दप्पणिजेहिंति दर्पणीयैर्वलकरैः 'मयणिजेहिंति मदनीयैर्मन्मथवर्द्धनैः 'विहणिज्जेहिति बृहणीयौसोपचयकारिभिः 'सबिंदियगायपल्हायणिजेहिंति प्रतीतं, एतानि पदानि वाचनान्तरे क्रमान्तरेणाधीयन्ते, 'तेल्लचम्मसि'त्ति तैलाभ्यक्तस्य यत्र स्थितस्य सम्बाधना क्रियते तत्तैलचर्म, तत्र संवाहिएत्ति योगः, 'पडिपुण्णपाणिपायसुकुमालकोमलतलेहिति प्रतिपूर्णानां पाणिपादानां सुकुमारकोमला दीप अनुक्रम CASSACRORS [३१] १ न च वाच्यं 'प्राणितुर्याङ्गाणा' मिति द्वन्दै कत्वभावादसाधु, सिद्ध एकवचनेन कार्ये बहुवचनात्तदनित्यता, न च ततोऽसाधुरयं, यद्वाऽनेकमाणिविवक्षया पाणिपादं च पाणिपादं च पाणिपादं च पाणिपादानि तेषामिति समाहारगों द्वन्द्वः तेषां पाणिपादानामिति स्थान, आलोच्यमेतदविरोधेन सुधिया। . कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~ 132~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] + दीप अनुक्रम औपपा-||5|| नि-अत्यन्तकोमलानि तलानि-अधोभागा येषां ते तथा तैः, 'छेएहिंति छेकै अवसरज्ञैः, द्विसप्ततिकलापण्डितैरिति | कोणिक तिकम् ॥ वृद्धाः, 'दक्खेहिति कार्याणामविलम्बितकारिभिः 'पत्त हिंति प्राप्ताथैः-उब्धोपदेशैरित्यर्थः 'कुसलेहि ति सम्बाधनाकMIणि माधभिः मेहाचीहिति मेधाविभिः-अपूर्वविज्ञानग्रहणशक्तिकः 'निजणसिप्पोवगएहिति निपुणानि-सक्ष्माणि सू० ३१ यानि शिल्पानि-अङ्गमर्दनादीनि तान्युपगतानि-अधिगतानि यैस्ते तथा तैः, 'अभंगणपरिमद्दणुषलणकरणगुण[णिम्मापहिति अभ्यङ्गानमईनोद्वलनानां प्रतीतार्थानां करणे ये गुणाः-विशेपास्तेषु निर्माता येते तथा तः। 'अडिसुहाए'त्ति अस्थना सुखहेतुत्वादस्थिसुखा तया, एवं शेषाण्यपि, 'संवाहणाए'त्ति सम्बाधनया संवाहनया वा, वि-18 श्रामणयेत्यर्थः, 'अवगयखेयपरिस्समे'त्ति खेदो-दैन्यं 'खिद दैन्ये' इति वचनात् परिश्रमः-व्यायामजनितशरीरास्वास्थ्य-18 विशेषः, 'समत्तजालाउलाभिरामे'त्ति समस्त:-सर्वो जालेन-विच्छत्तिच्छिद्रोपेतगृहावयवविशेषेणाकुलो-व्याप्तोऽभिरामश्च रम्यो यः स तथा, पाठान्तरे समुक्तेन-मुक्ताफलयुतेन जालेनाऽऽकुलोऽभिरामश्च यः स तथा, 'विचित्तमणिरयणकुटि-15 ४ मतले'त्ति कुट्टिमतलं-मणिभूमिका, 'महोदएहिति शुभोदकैस्तीर्थोदकैः सुखोदकैर्वा-नात्युष्णरित्यर्थः, 'गंधोदएहि ति श्रीखण्डादिरसमित्रैः 'पुष्फोदएहिति पुष्परसमित्रैः 'सुद्धोदएहिति स्वाभाविकरित्यर्थः, 'तस्थ कोउयसपहिति तत्र-III॥५॥ मानावसरे यानि कौतुकानां-रक्षादीनां शतानि तैः 'पम्हलसुकुमालगंधकासाइलूहियंगे' पक्ष्मला-पक्ष्मवती अत || साएव सुकुमाला गन्धप्रधाना कापायी-कषायरक्तशाटिका तया लूक्षित-विरुक्षितमङ्ग-शरीरं यस्य स तथा । RC-R [३१] R FaPranaamaan unsony कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~ 133~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम 'अहयसुमहग्धदूसरयणसुसंवुए' अहतं-मलमूषिकादिभिरनुपदूषितं प्रत्ययमित्यर्थः सुमहापं च-बहुमूल्यं यदृष्यरलप्रधानवस्त्रं तेन संवृतः परिगतः तद्वा सुन्छु संवृतं-परिहितं येन स तथा, 'सुइमालावण्णगविलेवणे यत्ति शुचिनी-पवित्रे | माला च-कुसुमदाम वर्णकविलेपनं च-मण्डनकारि कुङ्कुमादिविलेपनं यस्य स तथा, चः समुच्चये, यद्यपि वर्णकशब्देन नामकोषे चन्दनमभिधीयते तथापि 'गोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते' इत्यनेनैव विशेषणेन तस्योक्तत्वादिह वर्णकश्चन्दनमिति न व्याख्यातम्, 'आविद्धमणिसुवणे'त्ति आविद्धं-परिहितं, कप्पिय इत्यादि प्राग्वत् , 'पिणद्धगेवेजगअंगुलिज्जगललियंगयललियकयाभरणे' पिनद्धानि-पद्धानि ग्रीवादिषु वेयकाङ्गलीयकानि-ग्रीवाभरणागल्याभरणानि येन स तथा, ललिता-द |ङ्गके-ललितशरीरे कृतानि-विन्यस्तानि ललिताभरणानि तदन्यानि येन स तथा, ततः कर्मधारयः, अथवा पिनद्धानिअवेयकामुलीयकानि ललिताङ्गबदेव ललितकचाभरणानि च-मनोज्ञकेशाभरणानि पुष्पादीनि येन स तथा, 'वरकडगतुडि| यथंभियभुए' वरकटकतुटिकः-प्रधानहस्ताभरणवाह्वाभरणविशेषैर्वहुत्वात्तेषां तैः स्तम्भिताविव स्तम्भिती भुजी यस्य स दतथा, 'अहियरुवसस्सिरीए' अधिकरूपेण सश्रीका-सशोभो यः स तथा, 'मुद्रिकापिलाङ्गलीक' इति क्वचिदृश्यते, | 'कुण्डलोयोतिताननो मुकुटदीप्तशिरस्कः' इति प्रतीतं, "हारोत्थयसुकयरइयवच्छे' हारावस्तृतेन-हारावच्छादनेन सुष्टु कृतरतिकं वक्ष-उरो यस्य स तथा, 'पालंबपलबमाणपडसुकयउत्तरिजे' प्रलम्बेन-दीघेण प्रलम्बमानेन च-झुम्बमानेन पटेन मुष्टु कृतमुत्तरीयम्-उत्तरासङ्गो येन स तथा, 'णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहणिउणोवियमिसिमिसंतबिरझ्यसु [३१] FaPranaamaan unsony | कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~ 134~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: कोणिक प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम औपपा- सिलिंडविसिलहआविद्धवीरघलए' नानामणिकनकरत्नविमलैर्महाहनिपुणेन शिल्पिना ओवियत्ति-परिकर्मितैः मिसिमि-1 तिकम् | संतत्ति-देदीप्यमानविरचितानि निर्मितानि सुश्लिष्टानि-सुसन्धीनि विशिष्टानि अन्येभ्यो विशेषवन्ति लष्टानि-मनोहराणि | |आविद्धानि-परिहितानि वीरवलयानि वरवलयानि वा येन स तथा, सुभटो हि यदि कचिदन्योऽप्यस्ति वीरस्तदाऽसौ मां |विजित्याऽऽमोचयत्वेतानि बलयानीति स्पर्द्धयन् यानि कटकानि परिदधाति तानि वीरवलयानीत्युच्यन्ते । किं बहुणा ? कप्परुक्खए चेच अलंकियविभूसिए णरवई सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं चउच्चामरवालवीजियंगे मंगल जयसद्दकयालोए मज्जणघराओ पडिनिक्खमह मजणघराउ पडिणिक्खमित्ता अणेग| गणनायगदंडनायगराईसरतलवरमाडंपियकोडुंबियइन्भसेडिसेणावइसत्ववाहदूअसंधिवाल सद्धि संपरिबुडे धवलमहामेहणिग्गए इव गहगणदिपंतरिक्खतारागणाण मज्झे ससिव्व पिअदसणे णरवई जेणेव बाहि| रिआ उवहाणसाला जेणेव आभिसेके हस्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्सा अंजणगिरिकूडसण्णिभं & गयवई णरवई दूरूढे । ___ 'कप्परक्खए चेव'त्ति कल्पवृक्ष इव 'अलंकियविभूसिएत्ति अलङ्कृतो-मुकुटादिभिः विभूषितो-वस्त्रादिभिरिति, 'सको-18 मारंटमहदामेण ति सकोरण्टानि कोरण्टकाभिधानकुसुमस्तवकवन्ति माल्यदामानि-पुष्पसजो यत्र तत्तथा तेन । वाचनाप्रान्तरे पुनश्छत्रवर्णक एवं दृश्यते-'अन्भपडलपिंगलुजलेण' अनपटलमिव-मेघवृन्दमिव बृहच्छायाहेतुत्वात् अभ्रपटलं [३१] 2541256 PRIMaitaram.org कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~ 135~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] ARRAGNOSRONGRECCCCCC दीप अनुक्रम पिङ्गालं च-कपिशं सुवर्णकम्बिकानिर्मितत्वात् उज्ज्वलं-निर्मलं यत्तत्तथा, अथवा अभ्रम्-अधकं पृथिवीकायपरिणामविशेषस्तत्पटलमिव पिङ्गलंच-उज्ज्वलं च यत्तत्तथा तेन, अविरलसमसहियचंदमंडलसमप्पभेणं' अविरलं धनशलाकावत्त्वेन | समं तुल्यशलाकायोगेन सहियत्ति-संहतमनिम्नोन्नतशलाकायोगात् चन्द्रमण्डलसमप्रभ च यद्दीच्या तत्तथा तेन, 'मंगल| सयभत्तिछेयविचित्तियखिंखिणिमणिहेमजालविरइयपरिगयपरंतकणगघंटियापयलियकिणिकिणितसुइसुहसुमहुरसद्दालसोहि| एणं' मङ्गलाभिा-माङ्गल्याभिः शतभक्तिभिः-शतसङ्ख्याविच्छित्तिभिः छेकेन-निपुणेन शिल्पिना विचित्रितं यत्तत्तथा, | किङ्किणीभिः-शुद्रघण्टिकाभिः मणिहेमजालेन च-रत्नकनकजालकेन विरचितेन-कृतेन विशिष्टरतिदेन वा परिगतं-परि| वेष्टितं यत्तत्तथा, पर्यन्तेषु-प्रान्तेषु कनकघण्टिकाभिः प्रचलिताभिः किणिकिणायमानाभिः श्रुतिसुखसुमधुरशब्दवतीभिश्च, | आलप्रत्ययस्य मत्वर्थीयत्वात् , शोभितं यत्तत्तधा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयोऽतस्तेन, 'सप्पयरवरमुत्तदामलंबंतभूसणेणं'। | सप्रतराणि-आभरणविशेषयुक्तानि यानि बरमुक्कादामानि-बरमुक्ताफलमाला: लंबंतत्ति-प्रलम्बमानानि तानि भूषणानि 8 यस्य तत्तथा तेन, 'नरिंदवामप्पमाणरूंदपरिमंडलेण' नरेन्द्रस्य-तस्यैव राज्ञो वामप्रमाणेन-प्रसारितभुजयुगलमानेन रुन्द-18 विस्तीर्ण परिमण्डलं-वृत्तभावो यस्य स तत्तथा तेन, 'सीयायववायवरिसविसदोसनासणेण' शीतातपवातवृष्टिविषजन्यदोषाणां शीतादिलक्षणदोषाणां या विनाशनं यत्तत्तथा तेन, 'तमरयमलबहलपडणधाडणप्पभाकरेण' तमः-अन्धकारं| रजो-रेणुमल:-प्रतीतः एषां बहलं-धनं यत्पटलं-वृन्दं तस्य धाडनी-नाशनी या प्रभा-कान्तिस्तस्करणशीलं यत्तत्तथा तेन, अथवा-रजोमलतमोबहलपटलस्य धाडने प्रभाकर इव-दिवाकर इव यत्तत्तथा 'उउसुहसिवच्छायसमणुबद्धेणं' ऋती-कालवि [३१] HTuniturary.orm कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~ 136~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१२) -------- मूलं [...३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा- तिकम् कोणि ॥६७॥ प्रत सूत्रांक [३१] SEXRANSRANC453 दीप अनुक्रम शेषे सुखा-सुखहेतुः ऋतुसुखा शिवा-निरुपद्वा या छाया-आतपवारणलक्षणा तया समनुषद्धम्-अनवच्छिन्नं यत्तत्तथा तेन, वेरुलियदंडसजिएण'ति वैडूर्यमयदण्डे सजितं-वितानितं यत्तत्तथा तेन, 'बइरामयवस्थिनिउणजोइयअसहस्सवरचण-४ सलागनिम्मिएण' बज्रमय्या वस्ती-शलाकानिवेशनस्थाने निपुणेन शिल्पिना योजिता:-सम्बन्धिताः अहसहस्सत्ति-अष्टोत्तरसहस्रसङ्ख्याः या वरकाञ्चनशलाकास्ताभिनिर्मित यत्तत्तथा तेन, 'सुनिम्मलरययसुच्छएण'ति सुनिर्मलो रजतस्य सम्बन्धी सुच्छदः-शोभनप्रच्छादनपटो यत्र तत्तथा तेन, "निउणोवियमिसिमिसिंतमणिरयणसूरमंडलबितिमिरकरनिग्गयग्गपडिहयपुणरविपञ्चायतचंचलमिरिइकवयं विणिमुयंतेणं' निपुणेन शिल्पिना निपुणं वा यथा भवति एवं उवियत्ति-परिकमितानि मिसिमिसिंतत्ति-देदीप्यमानानि यानि मणिरलानि तानि तथा सूरमण्डलाद-आदित्यविम्बात् ये वितिमिराहतान्धकाराः करा:-किरणा निर्गतास्तेषां यान्यग्राणि तानि प्रतिहतानि-निराकृतानि पुनरपि प्रत्यापतन्ति च-प्रति-४ वर्तमानानि यस्माच्चञ्चलमरीचिकवचात्तत्तथा, अथवा सूरमण्डलाद् वितिमिरकराणां निर्गतानामग्रैः प्रतिहतं पुनरपि प्रत्यापतच तच तश्चलमरीचिकवचं च-चपलरश्मिपरिकर इति समासः, निपुणोपितमिसिमिसायमानमणिरलानां यत्सूरमण्डलवितिमिरकरनिर्गतामप्रतिहतं पुनरपि प्रत्यापतञ्चञ्चलमरीचिकवचं यत्तत्तथा तद्विनिमुश्चता-विसृजता, 'सपडिदंडेणं' अतिभारिकतया एकदण्डेन दुर्वहत्वात्सप्रतिदण्डेन, 'धरिजमाणेणं आयवत्तेणं विरायते' इति व्यक्तम् , अधिकृतवाचनायतु चतुचामरवालवीजिताङ्ग इति व्यक्तं, वाचनान्तरे तु 'चउहियपवरगिरिकुहरविचरणसुमुइयनिरुवहयचमरपच्छिमसरी-| रसंजायसंगयाहिं' चउहियत्ति-चतसृभिः, 'ताहिय'त्ति कचित् तत्र ताभिश्च तथाविधाभिर्वर्णकवर्णितस्वरूपाभिः चामराभि [३१] ॥ ७॥ SAREmirasathiHational | कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~ 137~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम कलित इति योगः, इह च चामरशब्दस्य नपुंसकलिङ्गत्वेऽपि स्त्रीलिङ्गनिर्देशो लोकरूढेः छान्दसत्वाद्वा न दुष्टः, प्रवर यनिरिकुहरं-पर्वतनिकुञ्जस्तत्र यद्विचरणं-सचरणं तेन सुमुदिता-अतिहृष्टा निरुपहताश्च-उपघातरहिता ये चमरा: आटव्यगोविशेषास्तेषां यत्पश्चिमशरीरं-देहस्य पश्चिमो भागस्तत्र या सञ्जाता-उत्पन्नाः सङ्गताश्च-अनवद्यास्तास्तथा ताभिः । | 'अमलियसियकमलविमलुजलियरययगिरिसिहरविमलससिकिरणसरिसकलधोयनिम्मलाहिं अमलितम्-अमर्दितं यत्सितकमलं-पुण्डरीकं तथा विमलं-निर्मलं उज्ज्वलितम्-उद्दीप्तं यद्रजतगिरिशिखरं-वैतादयगिरिकूट तथा विमला ये शशिकिरणास्तत्सदृश्यो यास्तास्तथा ताश्च ताः कलधौतनिर्मलाश्च-रूप्यवदुज्ज्वला इति समासोऽतस्ताभिः, 'पवणाहयचवलललियतरंगत्वनचंतवीइपसरियखीरोदगपवरसागरुप्पूरचंचलाहिं' पवनाहता:-वायुप्रेरिताश्चपलाः-तरला ललिता-मनोहरास्तरङ्गहस्ताः-प्रतनुकल्लोलपाणयस्तैः नृत्यन्निव नृत्यन् यःस तथा वीचयो-महाकलोलास्तैः प्रसूतश्च-विस्तारमुपगतः स चासो क्षीरोदकश्च-क्षीराकारजलः स चासौ प्रवरसागरश्चेति कर्मधारयस्तस्य य उत्पूर:-प्रकृष्टः प्रवाहः स तथा तद्वच्चञ्चला यास्तास्तथा ताभिः, 'माणससरपरिसरपरिचियावासविसयवेसाहि इह हंसवधूभिरिव कलित इत्यनेन सम्बन्धः, मानसा|भिधानसरसः परिसरे-पान्ते परिचितः-पुनः पुनः कृत आवासो-निवासो यकाभिस्तास्तथा ताश्च ता विशदवेषाश्च-धवलाकारा इति कर्मधारयोऽतस्ताभिः, 'कणगगिरिसिहरसंसियाहिं' कनकगिरेः-मेरोरन्यस्य वा यच्छिखरं तत्संसृता यास्तास्तथा ताभिः, 'उवइयउप्पइयतुरियचवलजइणसिग्धवेगाहिं' अवपतितोत्पतितयोः-निपतनोत्पतनयोस्त्वरितचपल:-अत्य[न्तचपला जविनः-शीघ्रो वेगवतां मध्येऽतिशीघ्रो वेगो-गतिविशेषो यासा तास्तथा ताभिा, 'हंसवधूयाहिं चेव कलिए'। SAREERENCE [३१] | कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~ 138~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: तिकम् स०३१ प्रत सूत्रांक [३१] ॥६८। दीप अनुक्रम हंसिकाभिरिव युक्तः, इह च हंसिकाभिश्चामराणां धवलरवेन दण्डोपरिवर्तित्वेन चपलत्वेन च साधर्म्यमिति, तथा 'णाणा-10 कोणिक मणिकणगरयणविमलमहरिहतवणिजुजलविचित्तदंडाहि नानामणिकनकरलानां सम्बन्धिनो निर्मला महरिहत्ति-महा_स्तपनीयोज्ज्वला:-रक्तवर्णसुवर्णदीनाः विचित्रा-विविधचित्रा दण्डा यासा तास्तथा, 'चिल्लियाहिं' दीप्यमानाभिलीनाभिर्वा 'नरवइसिरिसमुदयपगासणकरीहिति व्यक्त, 'वरपट्टणुग्गयाहिं' प्रधानपत्तनसमुद्भवाभिः, वरपत्तने हि वराः शिस्पिनो || भवन्तीति तत्परिकर्मिताः प्रधाना भवन्तीति वरपत्तनोद्गताभिरित्युक्तम् , अथवा वरपट्टनात्-प्रधानाच्छादनकोशकादुनता-निष्काशिता यास्तास्ताभिः, 'समिद्धरायकुलसेवियाहिति व्यक्त, 'कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक परवण्णवासगंधुदुयाभि-18 | रामाहि' कालागुरुः-कृष्णागुरुः प्रवरकुन्दुरुक-सच्चीडा तुरुक-सिल्हकं वरवर्णः-प्रधानचन्दनं एतैयों वासो-वासन तस्माद्यो गन्धः-सौरभ्यम् उद्भूत-उद्भूतस्तेनाभिरामा रम्या यास्तास्तथा ताभिः, 'सललिथाहिति व्यक्तम्, 'उभओ पासपिपत्ति उभयोरपि पायोरित्यर्थः, 'उक्खिप्पमाणाहिं चामराहिति व्यक्तं, कलित इति वर्तते, 'सुहसीयलवायवीइयंगे'ति समुक्षिष्यमाणचामराणामेव यः शुभः शीतलश्च वातस्तेन वीजितमङ्गं यस्य स तथेति । इतोऽधिकृतवाचना-'मंगलजय& सहकयालोए' मङ्गलाय जयशब्दः कृतो जनेनालोके-दर्शने यस्य स तथा, 'अणेगगणनायगे'त्यादि पूर्ववत्, तए णं तस्स कूणियस्स रपणो भभसारपुत्तस्स आभिसिकं हत्धिरयणं दुरूढस्स समाणस्स तप्पढमयाए || इमे अहमंगलया पुरओ अहाणुपुब्बीए संपडिआ, तंजहा-सोवत्थिय सिरिवच्छ गंदिआवत्त वडमाणक [३१] CREA FaPramamyam uncom | कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~ 139~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३१] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [... ३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः “औपपातिक” - भद्दासण कलस मच्छ दप्पण, तयाऽणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगारं दिव्वा य छतपडागा सचामरा दंसणरहअआलोअदरसणिज्जा वाउयविजयवेजयंती कस्सिआ गगणतलमणु लिहती पुरओ अहाणुपुब्बीए संपडिआ, तथाऽर्णतरं च णं वेरुलियाभिसंतविमलदंडं पलंबकोरंटमल्लदा मोव सोभियं चंदमंडलणिभं समूसिअ - विमल आयवत्तपवरं सीहासणं वरमणिरथणपादपीढं सपाउआजोयसमा उतं बहुकिंकरकम्मकरपुरिसपायसपरिक्खित्तं पुरओ अहाणुपुब्बीए संपद्वियं । तयाऽणंतरं बहवे लट्ठिग्गाहा कुंतग्गाहा चावग्गाहा चाम|ग्गाहा पासरगाहा पोत्थयग्गाहा फलकग्गाहा पीढग्गाहा वीणग्गाहा कुंलग्गाहा हडप्फरगाहा पुरओ अहाणुपुच्चीए संपट्टि । तयाऽणंतरं बहवे डंडिणो मुंडिणो सिहंडिणो जडिणो पिंछिणो हासकरा डमरकरा चाटुकरा बाकरा कंम्पकरा दबकरा को कुआ किट्टिकरा वार्यता गायंता हसता पणचंता भात साता रक्खता आलोअं च करेमाणा जयसिदं पजमाणा पुरओ अहाणुपुथ्वीप संपडिआ । Education Internationa 'पुण्णकलसभिंगारे 'ति जलपरिपूणों घटभृङ्गारावित्यर्थः । 'दिवा य छत्तपडागा' दिव्बेव दिव्या-शोभना सा च छत्रेण सह पताका छत्रपताका, 'सच्चामर'त्ति चामरयुक्ता, 'दंसणरइय आलोयदरसणिज्जा' दर्शने-राज्ञो दृष्टिमार्गे रचिता-विहिता दर्श नरचिता दर्शने वा सति रतिदा- सुखप्रदा दर्शन- रतिदा आलोकं दृष्टिपथं यावदृश्यते अत्युच्चैस्त्वेन या सा आलोकदर्शनया ततः कर्मधारयः, 'वाउजू यविजयवेजयंती' वातेनोद्धृता-उत्कम्पिता विजयसूचिका वैजयन्ती पार्श्वतो लघुपताकिकाद्वययुतः पताकाविशेष एव 'उस्सिय'त्ति उत्सृता-ऊर्ध्वकृता 'सपाउयाजोयस माउत्तं'ति स्वः स्वकीयो राजसत्क इत्यर्थो यः For Pasta Use Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~ 140~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: तिकम् प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम औपपा- पादुकायोगः-पादुकायुगं तेन समायुक्तं यत्तत्तथा, 'बहुकिंकरकम्मकरपुरिसपायत्तपरिक्खित्त' बहवो ये किङ्कराः-प्रतिकर्म कोणिक. प्रभोः पृच्छापूर्वकारिणः कर्मकराश्च-तदन्यविधास्ते च ते पुरुषाश्चेति समासः, पादातं-पदातिसमूहस्तैः परिक्षिप्त सू०३१ | यत्तत्तथा, क्वचित् 'दासीदासकिंकरकम्मकरपुरिसपायत्तपरिखित्त'मिति दृश्यते, तत्र दास्यश्च-चेव्यो दासाश्च चेटकाः । |लडिग्गाह'त्ति काष्टिकाः, क्वचिदृश्यते 'असिलडिग्गाहा' तत्र असिः-खगः स एव यष्टि:-दण्डोऽसियष्टिः, अथवा असिश्च यष्टिश्चेति द्वन्द्वः, कुन्तचामराणि प्रतीतानि, पाशा-छूतोपकरणं उत्रस्ताश्वादिबन्धनानि वा चापं-धनुः पुस्तकानि-आयपरिज्ञानहेतुलेखकस्थानानि पण्डितोपकरणानि वा फलकानि-सम्पुटफलकानि खेटकानि या अवष्टम्भनानि वा|| तोपकरणानि वा पीठकानि-आसनविशेषा बीणाः-प्रतीताः कुतुपः-पक्कतैलादिभाजनं हडप्फो-द्रम्मादिभाजनं ताम्बू-3 लार्थे पूगफलाविभाजनं वा 'सिहंडिणोति शिखाधारिणः 'पिञ्छिणोति मयूरादिपिच्छवाहिनः 'डमरकर'त्ति विवरकापरिणः 'दवकर'त्ति परिहासकारिणः 'चाटुकर'त्ति प्रियवादिनः 'कंदप्पिय'त्ति कामप्रधानकेलिकारिणः 'कोकुइय'त्ति भाण्डा भाण्डप्राया वा 'सासिंता यत्ति शिक्षयन्तः 'सावेत'त्ति इदं चेदं च परुत्परारि वा भविष्यति इत्येवम्भूतवचांसि श्रावयन्तः शपन्तो वा रक्खंत'त्ति अन्यायं रक्षन्तः, क्वचिद् राषिता यत्ति रावयन्तः शब्दान् कारयन्तो रामयन्तो वा 'आलोयं|४| ति अवलोकनं राजादेः कुर्वन्तः, इह गमे कानिचित् पदानि न स्पृष्टानि स्पष्टत्वात् , सङ्ग्रहगाथाश्चास्य गमस्य क्वचिदृश्यन्ते तद्यथा-"असिलडिकुंतचावे चामरपासे य फलग पोस्थे य । वीणाकूयग्गाहे तत्तो य हडप्फगाहे य ॥ १॥ दंडी मुंडी सिहंडी 5%%%%%%%%%%%%%%%%% [३१] ४ ॥६९॥ SAREasatan international | कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~141~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक 5AE%ESSA [३१] दीप अनुक्रम पिच्छी जडिणो य हासकिड्डा य । दवकारा चटुकारा कंदप्पिय कोछुइयगाहा ॥२॥ गायंता वायंता नचंता तह हसंत । 3 हासिंता । साता राता आलोय जयं पर्जता ॥३॥" * तयाऽणतरं जच्चाणं तरमल्लिहायणाणं हरिमेलामउलमल्लियच्छाणं चुचुच्चियललिअपुलियचलचवलचंचल- & गईणं लंघणवग्गणधावणधोरणतिवईजइणसिक्खिअगईणं ललंतलामगललायवरभूसणाणं मुहभंडगउच्चूलग-1 थासगअहिलाणचामरगण्डपरिमंडियकडीणं किंकरवरतरुणपरिग्गहिआण अडसयं वरतुरगाणं पुरओ अहाणुपुरबीए संपडियं । तयाऽणंतरं च णं ईसीदताणं ईसीमत्ताणं ईसीतुंगाणं ईसीउच्छंगविसालघवलदंताणं : कंचणकोसीपविट्ठदंताणं कंचणमणिरयणभूसियाणं वरपुरिसारोहगसंपउत्ताणं अहसयं गयाणं पुरओg * अहाणुपुब्बीए संपहियं । तयाऽणंतरं सच्चत्ताणं सज्झयाणं सघंटाणं सपडागाणं सतोरणवराणं सणंदिघो-ट साणं सखिखिणीजालपरिक्खित्ताणं हेमवयचित्ततिणिसकणकणिजुत्तदारुआणं कालायसमुकयणेमिजंतक-12 म्माणं सुसिलिहवत्तमंडलधुराणं आइपणवरतुरगसुसंपउत्ताणं कुसलनरच्छेअसारहिसुसंपग्गहिआणं बत्तीMसतोणपरिमंडिआणं सकंकडवडेंसकाणं सचावसरपहरणावरणभरिअजुडसजाणं असर्य रहाणं पुरओद अहाणुपुव्वीए संपष्टियं । तयाऽणंतरं च णं असिसत्तिकोततोमरसूललउडभिंडिमालधणुपाणिसज्जं पायत्ताणीयं पुरओ अहाणुपुब्बीए संपडि। [३१] GE SARERatunintennational कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~142~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: कोणिक. आपपातिकम् प्रत सूत्रांक ॥ ७ ॥ [३१] दीप अनुक्रम 'तरमल्लिहायणाणं ति तरो-बेगो बलं वा तथा 'मल मल्ल धारणे' ततश्च तरोमल्लो-तरोधारकः वेगादिकारको हायनःसंवत्सरो वर्तते येषां ते तरोमलिहायनाः, यौवनवन्त इत्यर्थः, अतस्तेषां वरतुरङ्गाणामिति योगः, वाचनान्तरे त्वेवमधीयते | -वरमलिभासणाणं' प्रधानमाल्यवताम् , अत एव दीप्तिमतां चेत्यर्थः, 'हरिमेलामउलमलियच्छाणं हरिमेला-वनस्पतिवि- शेषस्तस्या मुकुलं-कुड्मलं मल्लिका च-विचकिलस्तद्वदक्षिणी येषां ते तथा तेषां, शुक्लाक्ष्णामित्यर्थः, 'चंचुच्चियललियपुलियचलचवलचंचलगईण' चंचुच्चियंति प्राकृतत्वेन चञ्चुरित-कुटिलगमनं अथवा चशुः-शुकच स्तबद्धकतयेत्यर्थः, उचितम्-उच्चताकरण पादस्य उचितं वा-उत्पाटनं पादस्यैवं चलचितं तच ललितं च-विलासबद्गतिः पुलितं च-गतिविशेषः । प्रसिद्ध एव एवंरूपा चलानाम्-अस्थिराणां च सतां चपलेभ्यः सकाशाच्चञ्चला अतीव चटुले त्यों, गतिर्येषां ते तथा तेषां, 'लंघणवग्गणधावणधोरणतिवईजइणसिक्खियगईणं' लडुन-ग देरतिक्रमणं वल्गनम्-उत्कुईनं धावनं-शीघ्रमृजुगमनं |धोरणं-गतिचातुर्य त्रिपदी-भूमौ पदत्रयन्यासः जयिनी च-गमनान्तरजयवती जविनी वा-वेगवती शिक्षिता-अभ्यस्ता |गतियस्ते तथा तेषां, 'ललंतलामगललायवरभूसणाणं' ललन्ति-दोलायमानानि लामंति-प्राकृतत्वाद्रम्याणि गललातानिकण्ठेनाऽऽत्तानि वरभूषणानि येषां ते तथा तेषां, 'मुहभडगओचूलगथासगमिलाणचमरीगंडपरिमंडियकडीण' मुखभाण्डक-- मुखाभरणम् अवचूलाः-प्रलम्बमानगुच्छाः स्थासकाच-आदर्शकाकारा येषां ते तथा मिलाणत्ति-पर्याणैरथवा अम्लानैः--अम| लिनैः चमरीगण्डैः-चामरदण्डैः परिमण्डिता कटिर्येषां ते तथा ततः कर्मधारयोऽतस्तेषां, 'किंकरवरतरुणपरिग्गहियाण'ति व्यक्तम् । अधाधिकृतवाचनाऽनुश्रीयते-'धासगअहिलाणचामरगण्डपरिमंडियकडीणं' थासगअहिलाणत्ति इह मत्वर्थीयलो. CARE [३१] M ॥७०॥ कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~143~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३१] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः पात् स्थासकाहिलाणवतामित्यर्थः, अहिलाणं च-मुखसंयमनं, शेषं प्राग्वत्, 'ईसिदंताणं' ति ईषत् मनागू दन्तानाम् 'ईसिउच्छेगविसालधवलदंताणं' उत्सङ्ग इव उत्सङ्गः- पृष्ठदेश ईषदुत्सङ्गे विशाला ते ये यौवनारम्भवर्तित्वात्ते तथा ते च धवलदन्ताश्चेति समासोऽतस्तेषां । किंच णको सीपविदंताणं' काञ्चनकोशी - सुवर्णखोला, 'वरपुरिसारोहग सुसंपत्ताणं ति क्वचिदृश्यते तत्रारोहका:- हस्तिपकाः, 'सझयाणं सपडागाणमित्यत्र ध्वजो गरुडादियुक्तस्तदितरा तु पताका, 'सनंदिघोसाणं'ति नन्दी - द्वादशतूर्यनिर्घोषः, तद्यथा- 'भंभा १ मउंद २ मद्दल ३ कर्डब ४ झल्लरि ५ हुडुक ६ कंसाला ७ । काहल ८ तलिमा ९ वंसो १० संखो | ११ पणवो १२ य वारसमो ॥ १ ॥' 'सखिखिणीजालपरिक्खित्ताणं' सह किङ्किणीकाभिः - क्षुद्रघण्टिकाभिः यज्जाले - जालक तदाभरणविशेषस्तेन परिक्षिप्ता-परिकरिता ये ते तथा तेषां, 'हेमवयचित्ततेणिसकणगणिजुत्तदाख्याणं' हैमवतानि-हिमगिरिसम्भवानि चित्राणि विविधानि तैनिशानि-तिनिशाभिधानतरुसम्बन्धीनि कनकनिर्युक्तानि सुवर्णखचितानि दारुकाणि-काष्ठानि येषु ते तथा तेषां 'कालायससुकयनेमिजंतकम्माणं ति कालायसेन-लोहविशेषेण सुष्ठु कृतं नेमेः-चक्रग |ण्डधारायाः यत्र कर्म - बन्धनक्रिया येषां ते तथा तेषां 'सुसिलिङवत्तमंडलधुराणं'ति सुष्ठु श्लिष्टा वृत्तमण्डला - अत्यर्थ मण्डला धूर्येषां ते तथा तेषां क्वचिदृश्यते 'सुसंविद्धचकमंडलधुराणं' सुसंविद्धानि - कृतसद्वेधानि चक्राणि रथाङ्गानि येषां मण्डला च-वृत्ता धूर्येषां ते तथा तेषाम्, 'आइण्णवरतुरगसंपत्ताणं' आकीर्णाः जात्याः, 'कुसलनरच्छेयसारहि सुसंपग्ाहिआणं' कुशलनरा-विज्ञपुरुषास्ते च ते छेकसारथयश्च- आशुकारिप्राजितार इति समासः, तैः सुष्ठु संप्रगृहीता ये ते तथा तेषां कचित्पठ्यते 'हेमजालगवक्खजाल खिंखिणिघंटाजालपरिक्खित्ताणं' हेमजाल - सौवर्ण आभरणविशेषः गवाक्ष For Parts Only कोणिक- राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~ 144 ~ wor Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१२) -------- मूलं [...३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: कोणिक. ३१ प्रत सूत्रांक [३१] औपपा- जाजालं-जालकोपेता गवाक्षाः किङ्किण्यः क्षुद्रघण्टिकाः घण्टास्तु-वृहद्घण्टास्तासां यजालं-समूहस्तत्तथा, हेमजालादिभिः तिकम् परिक्षिताः-परिकरिता येते तथा तेषां, 'बत्तीसतोणपरिमंडियाण ति द्वात्रिंशता तोणैः-भत्रकैः परिमण्डिता येते तथा ॥७१॥ IM|| तेषांकचित्पठ्यते 'बत्तीसतोरणपरिमंडियाण'ति द्वात्रिंशद्विभागं यत्तोरणं तेन परिमण्डिताना, 'सकंकडवडेंसगाण'सह कङ्कटै:Poil कवचैरवतंसकैश्च-शेखरकैः शिरस्त्राणैर्वा ये ते तथा तेषां, 'सचावसरपहरणावरणभरियजुद्धसज्जाण' सह चापशरैः-धनुर्वाण योनि ग्रहरणानि-खगादीन्यावरणानि च-स्फुरकादीनि तेषां भरिता-भृता अत एव युद्धसज्जा:-रणप्रहा येते तथा तेषाम्, |'असिसत्तिकुंततोमरसूललउलभिंडिमालधणुपाणिसज' अस्यादीनि प्रसिद्धानि नवर-शक्तित्रिशूलं शूलं वेकशूलं लजलोत्ति-लकुटः भिण्डिमालं-रूढिगम्यं, ततः अस्यादीनि पाणी-हस्ते यस्य तत्तथा तच्च तत्सज च-प्रगुणं युद्धस्येति समासः, 'पायत्ताणीय'ति पादातानीक-पदातिकटक (ग्रन्धानं २०००) वाचनान्तरे पुनः 'सन्नद्धबद्धवम्मियकवयाणं' तत्र बर्द्ध कशाबन्धनात् वर्मितं च-वीकृतं तनुत्राणहेतोः शरीरे नियोजनात् कवचम्-अङ्गरक्षको यैस्ते तथा, सन्नद्धाश्च ते सन्नहन्या बन्धनाद्बद्धवर्मितकवचाश्चेति समासस्तेषाम् , 'उप्पीलियसरासणवट्टियाण' उत्पीडिता-आरोपितप्रत्यञ्चा शरासनप|विका-धनुष्टियः, अथवा-उत्पीडिता-बाही बद्धा शरासनपट्टिका-धनुर्दण्डाकपणे वाहुरक्षार्थ चर्मपट्टो यैस्ते तथा तेषां, पिनद्धगेवेजविमलवरवद्धचिंधपट्टाण'पिनड़-परिहितं वेयर्क-ग्रीवाभरणं बैस्ते तथा, विमलो बरो बद्धो शिरसीति गम्यं T चिह्नपट्टो-पीरतासूचको नेत्रादिवस्त्रमयः पट्टो यैस्ते तथा, ततः कर्मधारयोऽतस्तेषां, 'गहिया उहपहरणाणं गृहीतान्यायुउधानि-खगादीनि प्रहरणाय यैस्ते तथा तेषाम् , अथवा-आयुधान्यक्षेप्याणि प्रहरणानि तु क्षेप्याणीति विशेषः।। SARIB*5*35*** SAXCLEARLS दीप अनुक्रम [३१] ॥ ७१॥ FaPramamyam uncom | कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~145~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३१] “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [... ३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education International तए णं से कूणिए राया हारोत्थयसुकयरयवच्छे कुंडलउज्जोविआणणे मउडदित्तसिरए परसीहे णरवई णरिंदे परवस हे मणुअरायवसभकप्पे अन्महिअरायते अलच्छीए दिव्यमाणे हत्यिक्खंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज़माणेणं सेअवरचामराहिं उद्धच्वमाणीहिं २ बेसमणो चेव णरवईअमरवईसण्णिभाए इडीए पहियकिसी हयगयरपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए समनुगम्ममाण| मग्गे जेणेव पुण्णभद्दे चेहए तेणेव पहारित्थ गमणाए, तए णं तस्स कूणिअस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स पुरओ महंआसा आसघरा उभओ पासिं जागा नागधरा पिइओ रहसंगेलि । अथाधिकृत वाचनानुश्रीयते-'तए णं से कूणिए राया' इत्यादि महंआसा' इत्येतदन्तं सुगमं व्याख्यातप्रायं च, नवरं 'पहारेत्थगमणाए 'त्ति सम्बन्धः, नरसीहे शूरत्वात् नरवई स्वामित्वात् नरिंदे परमैश्वर्ययोगात् नरवसमे अङ्गीकृतकार्य भरनिर्वाहकत्वात् 'मणुयरायव सहकप्पे' मनुजराजानां नृपतीनां वृषभा नायकाश्चक्रवर्तिन इत्यर्थः, तत्कल्पः- तत्सन्निभ उत्तरभर तार्द्धस्यापि साधने प्रवृत्तत्वात् एवंविधश्व 'वेसमणे चेव' यक्षराज इव, तथा 'नरवईअमरवईसन्निभाए इडीए पहिय| कित्ती' नरपतिरसौ केवलममरपतिसन्निभया ऋद्ध्या प्रथितकीर्तिः- विश्रुतयशा इति, 'जेणेव पुष्णभद्दे 'त्ति यस्यामेव दिशि पूर्णभद्रं चैत्यं 'तेणेव 'त्ति तस्यामेव दिशि 'पहारित्थ'त्ति प्रधारितवान् विकल्पितवान् प्रवृत्त इत्यर्थः, 'गमणाएं'त्ति गमनाय गमनार्थमिति । 'महंआस' ति महाश्या - बृहत्तुरङ्गाः 'आसघर'त्ति अश्वधारकपुरुषाः 'आसवर'ति पाठान्तरं For Parata Use Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~146~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) --------- मूलं [...३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: कोणिक तिकम् प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम औपपा- तत्र किम्भूता अश्वा इत्याह-'अश्ववरा' अश्वानां मध्ये प्रधानाः 'णागति हस्तिनः ‘णागधर'सि हस्तिधारकपुरुषाः पाठान्तरं तथैव, 'रहसंगलि त्ति रथसमुदायः । II तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते अश्रुग्गभिंगारे पग्गहियतालियंटे उच्छियसेअच्छत्ते पवी॥७२॥ इअवालवीयणीए सब्बिड्डीए सव्वजुसीए सव्वबलेणं सबसमुदएणं सव्वादरेणं सव्वविभूईए सब्बविभूसाए सब्वसंभमेणं सव्वपुष्पगंधमल्लालंकारेणं सव्वतुडिअसहसण्णिणाएणं महया इडीए महया जुत्तीए महया |बलेणं महया समुदएणं महया वरतुडिअजमगसमगप्पवाइएणं संखपणवपडहभेरिझल्लरिवरमुहिहहुकमुखसुरवमुअंगदुंदुभिणिग्घोसणाइयरवेणं चंपाए णयरीए मज्ज्ञ मज्झेणं णिगच्छद ।। (सू०३१) 'तए णं से कूणिए' इत्यादि सुगम, नवरम् अस्य निर्गच्छतीत्यनेन सम्बन्धः, तथा 'अब्भुग्गयभिंगारे'त्ति | |अभ्युगतः-अभिमुखमुद्गत-उत्पाटितो भृङ्गारो यस्य स तथा, 'पग्गहियतालियंटे' प्रगृहीतं तालवृन्तं यं प्रति स तथा, 'उच्छिय-| | सेयच्छत्ते' उच्छूितश्वेतच्छत्रा, पवीइयवालवीयणीए' प्रवीजिता वालव्यजनिका यस्य स तथा, 'सविडीए'त्तिसमस्तयाऽऽभरणादिरूपया लक्ष्म्या, युक्त इति गम्यम्, एवमन्यान्यपि पदानि, नवरं 'जुत्तीए'त्ति संयोगेन परस्परोचितपदार्थानां 'बलेणेति सैन्येन 'समुदएण'ति परिवारादिसमुदायेन 'आदरेणं ति प्रयत्नेन 'विभूईए'त्ति बिच्छर्दैन 'विभूसाए'त्ति उचितनेपथ्यादिकरणेन 'संभमेणं ति भक्तिकृतीत्सुक्येन, क्वचिदिदं पदचतुष्कमधिकं दृश्यते-'पगईहिंति कुम्भकारादिश्रेणिभिः 'नायगेहिति नगरकटकादिप्रधानः 'तालायरेहिति तालादानेन प्रेक्षाकारिभिः दण्डपाशिकर्वा 'सबोरोहहिति सर्वावरोधैः-समस्तान्तः [३१] FaPranaamaan unsony | कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~147~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॐॐॐॐ [३१] दीप अनुक्रम || पुरैः सवपुष्फगंध(वास)मल्लालंकारेण ति पुष्पाणि-अग्रथितानि वासाः-प्रतीताः माल्यांनि तु-अथितानि एतान्येवालङ्कारो || मुकुटादिर्वा, समासश्च समाहारद्वन्द्वः, कचिदृश्यते 'सच्चपुप्फवस्थगंधमल्लालंकारविभूसाए'त्ति, व्यक्तं च, 'सवतुडियसहसणि-II णाएणं'ति सर्वतूर्याणां यः शब्दो-ध्वनिर्यश्च सङ्गतो निनादः-प्रतिशब्दः स तथा तेन, पूर्वोक्तानामृत्यादिपदार्थानां सर्वत्वे सत्यपि महत्त्वं न स्यादपीत्यत आह-महया इड्डीए' इत्यादि महत्या, युक्त इति गम्यम् ,एवमन्यान्यपि पदानि, 'महया वर-18 तुरियजमगसमगपवाइएण'ति महता-वृहता वरतूर्याणां यमकसमक-युगपत् यत्प्रवादितं-ध्वनितं तत्तथा तेन, 'संखपणवPापडहभेरिझलरिखरमुहिहुडुकमुरवमुइंगदुंदुभिणिग्घोसणाइयरवेणं'ति शङ्ख:-प्रतीतः पणवस्तु-भाण्डपडहो लघुपटह इत्यन्ये, पटहस्त्वेतद्विपरीतः, भेरी-महाकाहला झलरी-वलयाकारा उभयतो बद्धा खरमुही-काहला हुडुक्का-प्रतीता मुरजो-महामर्दलो मृदङ्गो-मर्दला दुन्दुभी-महाढक्का एषां यो निर्घोषः-नादितरूपो रवः स तथा तेन, तत्र निर्दोषो-महाध्वनिनादितं तु-शब्दानुसारी नाद इति ॥ ३१॥ तए णं कूणिअस्स रपणो चंपानगरि मज्झमझेणं णिग्गच्छमाणस्स बहवे अस्थस्थिया कामथिआ भोग-18 त्थिया किब्बिसिआ करोडिआ लाभत्थिया कारवाहिया संखिआ चकिया पंगलिया मुहमंगलिआ बद्ध माणा पुस्समाणवा खंडियगणा ताहिं इटाहिं कंताहिं पिआहिं मणुपणाहिं मणामाहिं मणोभिरामाहिं। साहिययगमणिजाहिं वग्गहि जयविजयमंगलसएहिं अणवरयं अभिणंदंता य अभिधुणता य एवं बयासी जय २णंदा ! जय २ भद्दा ! भई ते अजियं जिणाहि जिअं (च) पालेहि जिअमज्झे वसाहि। । [३१] | कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~148~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [३२] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [३२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः “औपपातिक” औपपातिकम् - ॥ ७३ ॥ 'अस्थत्थिया' द्रव्यार्थिनः 'कामत्थिया' मनोज्ञशब्दरूपार्थिनः 'भोगत्थिया' मनोज्ञगन्धरसस्पर्शार्थिनः 'लाभत्थिया' भोजनमात्रादिप्राप्यर्थिनः 'किञ्चिसिया' किल्बिपिकाः परविदूषकत्वेन पापव्यवहारिणो भाण्डादयः 'कारोडिकाः कापालिकाः ताम्बूलस्थगिकावाहका वा 'कारवाहिया' करपीडिता नृपाभाव्यवाहिनो वा 'संखिया' शाङ्खिकाः चन्दनगर्भशङ्खहस्ता २ माङ्गल्यकारिणः शङ्खवादका वा 'चक्किया' चाक्रिकाश्चक्रप्रहरणाः कुम्भकारतैलिकादयो वा 'नंगलिया' गलावलम्बितसुवर्णादिमयलाङ्गलाकारधारिणो भट्टविशेषाः कर्षका या 'मुहमंगलिया' मुखे मङ्गलं येषामस्ति ते मुखमाङ्गलिका:- चाटुका|रिणः 'वद्धमाणा' स्कन्धारोपितपुरुषाः 'पूसमाणवा' पूष्यमानवा मागधा: 'खंडिअगणा' छात्रसमुदायाः 'ताहिं'ति ताभिविवक्षिताभिरित्यर्थः, विवक्षितत्वमेवाह-'इहाहिं' इष्यन्ते स्म इतीष्टा-वाञ्छितास्ताभिः प्रयोजनवशादिष्टमपि किञ्चित्स्वरूपतः कान्तं स्यादकान्तं चेत्यत आह-'कंताहिं' कमनीयशब्दाभिः 'पियाहिंति प्रियार्थिभिः 'मशुण्णाहिं' मनसा ज्ञायन्ते सुन्दरतया यास्ता मनोज्ञाः, भावतः सुन्दरा इत्यर्थस्ताभिः 'मणामाहिं' मनसा अम्यन्ते गम्यन्ते पुनः पुनर्याः सुन्दरत्वातिशयात्ता मनोऽमाः 'मणोभिरामाहिं' ति तत्र मनोऽभिविधिना बहुकालं यावत् रमयन्तीति मनोऽभिरामा अतस्ताभिः, | वाचनान्तराधीतमथ प्रायो वाग्विशेषणकदम्बकम् 'उरालाहिं' उदाराभिः शब्दतोऽर्थतश्च 'कलाणाहिं' कल्याणाभिःशुभार्थप्राप्तिसूचिकाभिः 'सिवाहि' उपद्रवरहिताभिः शब्दार्थदूषणरहिताभिरित्यर्थः 'धण्णाहिं' धन्याभिः- धनलम्भिकाभिः * ॥ ७३ ॥ 'मंगलाहिं' मङ्गले- अनर्धप्रतिघाते साध्वीभिः 'सस्सिरीयाहिं' सश्रीकाभिः शोभायुकाभिः 'हिययगमणिजाहिं' हृदयगमनीयाभिः, सुबोधाभिरित्यर्थः, 'हिययपल्हायणिजाहिं' हृदयप्रह्लादनीयाभिः हृदयगत कोपशोकग्रन्थिविलयनकरीभिरित्यर्थः, For Parts Use Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~ 149~ आशीर्व० सू० ३१ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१२) ........--- मूलं [३२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२] --54 'मियमहरगंभीरगाहिगाहिं' मिता:-परिमिताक्षराः मधुरा:-कोमलशब्दाः गम्भीरा-महाध्वनयः दूरबंधार्यमष्यर्थ श्रोतून प्रायन्ति यास्ता प्राहिकाः, ततः पदचतुष्टयस्य कर्मधारयोऽतस्ताभिः, 'अहसइयाहिं' अर्थशतानि थासु सम्ति ता अर्थशतिकास्ताभिः, अथवा सइ बहुफलत्वमर्थतः सइयाओ अडसइयाओताहिं 'अपुनरुक्ताभिरिति व्यकं, 'वग्गूहिति वाग्भिःगीर्भिः, एकार्थिकानि वा प्राय इष्टादीनि वाग्विशेषणानीति, 'जयविजयमंगलसपहि' जयविजयेत्यादिभिर्मङ्गलाभिधायकवचनशतैरित्यर्थः, 'अणवरय' 'अभिणदता य' अभिनन्दयन्तश्च-राजानं समृद्धिमन्तमाचक्षाणाः 'अभिथुणता य' अभिष्टुवन्तश्च राजानमेवेति 'जय जय णंदा" जय जयेति सम्भ्रमे द्विर्वचनं नन्दति-समृद्धो भवतीति नन्दस्तस्यामन्त्रणमिदम् , | इह च दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, अथवा जय त्वं जगन्नन्द-भुवनसमृद्धिकारक ! 'जय जय भद्दा!' प्राग्वत्, नवरं भद्रःकल्याणवान् कल्याणकारी वा 'जय जय नन्दा भद्रं ते' प्राग्वदेव, नवरं भद्रं ते तव भवत्विति शेषः, 'अजिय'मित्यादीन्याशंसनानि व्यक्तानि । इंदो इव देवाणं चमरो इव असुराणं धरणो इव नागाणं चंदो इव ताराणं भरहो इव मणुआणं बडूई| |वासाई पहुई वाससआई बडई वाससहस्साई बहई वाससयसहस्साई अणहसमग्गो हड्तुट्टो परमाउँ पाल४ याहि इट्ठजणसंपरिखुडो चंपाए णयरीए अपणेसिं च बहूर्ण गामागरणयरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणआस मनिगमसंवाहसंनिवेसाणं आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेणावचं कारेमाणे पाले SASRHANESEARCH दीप अनुक्रम [३२] ॐॐॐॐ | कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~150~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [३२] औपपातिकम् ॥ ७४ ॥ “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [... ३२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः RII Education Internation माणे महाऽऽयणहगीय वाइयतंतीतलतालतुडि यघणमुअंगपदुप्पवाइअरवेणं बिउलाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहराहित्तिकट्टु जय २ सदं पज्जति । 'इंदो इवेत्यादि विहराहि'त्ति एतदन्तं वाचनाद्वयेऽपि व्यक्तं, नवरम्- 'अणहसमग्गो' ति अनघो - निर्दोषः समग्र:समग्र परिवारः 'हडतुडे त्ति अतीव तुष्टः 'परमाउं पालयाहि'ति तत्कालापेक्षया यदुत्कृष्टमायुस्तत् परमायुः 'गामागरणगर| खेडकञ्चडमवदोणमुहपट्टणासमसंवाहसंनिवेसाणं' ग्रामो - जनपदाध्यासितः आकरो- लवणाद्युत्पत्तिभूमिः नगरम् - अविद्य मानकरं खेटं धूलीमाकारं कर्बटं कुनगरं मडम्बम् - अविद्यमानासन्ननिवेशान्तरं द्रोणमुखं- जलपथस्थलपथोपेतं परानं-| जलपथोपेतमेव स्थलपथोपेतमेव वा पत्सनं रत्नभूमिरित्यन्ये, आश्रमः- तापसाद्यावासः संवाहः पर्वतनितम्बादिदुर्गे स्थानं | सन्निवेशो-घोषप्रभृतिरिति 'आहेवच्चं 'ति आधिपत्यं तदाश्रितलोकेभ्य आधिक्येन तेष्ववस्थायित्वं 'पोरेवचं ति पुरोवर्तित्वम्-अग्रेसरत्वं 'भट्टित्तं'ति भर्तृत्वं पोषकत्वं 'सामित्तं'ति स्वस्वामिसम्बन्धमात्रं 'महयरतं' महत्तरत्वं तदाश्रितजनापेक्षया महत्तमता 'आणाईसरसेणावचं' आज्ञेश्वर-आज्ञाप्रधानो यः सेनापतिः सैन्यनायकः तस्य भावः कर्म वा आज्ञेश्वरसेना| पत्यं 'कारेमाणे'त्ति अन्यैः कारयन् 'पालेमाणे'त्ति स्वयमेव पालयन्निति, 'महयाऽऽय नदृगीयवाइय तंतीतलताल तुडियघण| मुइंगपडुप्पवाइयरवेर्ण' महता वेणेति योगः, आयत्ति - आख्यानकप्रतिवद्धं अहतं वा-अव्यवच्छिन्नं आहतं वा- आस्फालितं यन्नाव्यं नाटकं तत्र यद्गीतं च-गेयं वादितं च-वाद्यं तत्तथा तथा तन्त्री च-वीणा तलतालाश्च-हस्तास्फोटरवाः For Pal Use Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~ 151 ~ आशीर्व● सू० ३२ ॥ ७४ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [३२] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः तला वा हस्ताः तालाः- कंशिकाः तुडियत्ति-शेषतूर्याणि च धनमृदङ्गश्व - मेघध्वनिर्मद्दलः पटुप्रवादितो- दक्षपुरुषास्फालित इति कर्मधारयगर्भो इन्द्रः, ततश्च एतेषां यो रवः स तथा तेन । तणं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते जयणमालासहस्सेहिं पेच्छिज़माणे २ हिअयमालासहस्सेहिं अभि| दिजमाणे २ मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिष्पमाणे २ वयणमालासहस्सोहिं अभिधुव्यमाणे २ कंतिसोहग्गगुणेहिं परिथजमाणे २ बहूणं णरणारिसहस्साणं दाहिणहत्थेणं अंजलिमाला सहस्साई पडिच्छमाणे २ मंजुमंजुणा घोसेणं पडिवुज्झमाणे २ भवणपतिसहस्साई समइच्छमाणे २ चंपाए णयरीए मज्झमज्झेणं णिग्गच्छर २ त्ता जेणेव पुष्णभदे चेइए तेणेव उबागच्छइ २ सा समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासह पासित्ता अभिसेक हस्थिरयणं ठवे ठवित्ता आभिसेकाओ हत्थिरपणाओ पचोरुहइ अभिसेका ओरता अवहट्टु पंच रायककुहाई, तंजहा-खग्गं छतं उप्फेसं वाहणाओ वालवीअणं, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छति, तंजहा सच्चित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए १ अञ्चित्ताणं दव्वाणं अविउसरणयाए२एगसाडियं उत्तरासंगकरणेणं ३ चक्खुफासे अंजलिपग्गहेणं ४ मणसो एगत्तभावकरणेणं ५ समणं भ| गवं महावीरं तिक्खुत्तो आग्राहिणं पयाहिणं करेइ तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेत्ता वंदति णमंसति दित्ता णमंसित्ता तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासह, तंजहा- काइयाए बाइयाए माणसियाए, काइयाए ताब संकुइ For Parts Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~152~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा प्रत सूत्रांक सू०३३ [३२] दीप अनुक्रम ॥अग्गहत्वपाए सुस्वसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलि उडे पजुवासइ, वाइयाए जं जं भगवं वागतिकम् | रह एवमे भंते। तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिडमेअंभंते ! इच्छिअमेअंभंते । पडिच्छिी -|| ॥७५॥ मेअं भंते । इच्छियपडिच्छियमे भंते से जहेयं तुम्भे वह अपडिकलमाणे पजुवासति, माणसियाए||3|| महया संवेगं जणइत्ता तिब्वधम्माणुरागरत्तो पजुवासह ॥ (सू० ३२)॥ 'नयणमालासहस्सेहिति नयनमाला:-श्रेणिस्थितजननेत्रपतयः तासां यानि सहस्राणि तानि तथा तः, 'हिययमाला5 सहस्सेहिं अभिनंदिजमाणे'त्ति जनमनासहस्रः समृद्धिमुपनीयमानो जय जीव नन्देत्यादिपर्यालोचनादिति भावः, 'उझइज्ज-1 माणे'त्ति कचिदृश्यते, तत्र उन्नतिं क्रियमाण-उन्नति प्राप्यमाण इति 'मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे एतस्य वासे वत्स्याम इत्यादिभिर्जनविकल्पैःविशेषेण स्पृश्यमान इत्यर्थः 'वयणमालासहस्सेहिं अभिथुबमाणे'त्ति व्यक्तं,'कतिसोभम्गगुणेहिं । पत्थिजमाणे २'काम्त्यादिगुणैर्हेतुभूतैःप्रार्थ्यमानो-भर्तृतया स्वामितया वा जनेनाभिलष्यमाण मजुमंजुणाघोसेण पडिपुच्छ-18 माणे मम्जुमम्जुना-अतिकोमलेन घोषेण-स्वरेण प्रतिपृच्छन्-प्रश्नयन् प्रणमतः स्वरूपादिवा 'पडिबुज्झमाणोति पाठान्तरे प्रतिबुझ्यमानो जाग्रदू,अप्रचलायमान इत्यर्थः, 'अपडिवुज्झमाणे'त्ति पाठान्तरं, तत्राप्रत्यूह्यमानः-अनपद्रियमाणमानस | का इत्यर्थः समइच्छमाणे'त्ति समतिगच्छन्नतिकामन्नित्यर्थः, वाचनान्तरे त्वेवं 'तंतीतलतालतुडियगीयवाइयरवेण'व्यक्तमेव, किं|| विधेन रवेणेत्याह-मधुरेण,अत एव 'मणहरेणं' तथा जयसहुग्योसविसरणं मजुमजुणा घोसेणं'ति जयेति शब्दस्याभिधानस्य उद्घोषः-उद्घोषणं विशदं-स्पष्टं यत्र स तथा तेन,मन्जुमजुना-कोमलेन घोषण-ध्वनिना 'अपडिबुज्झमाणे'त्ति प्राग्वत्, ACTORSMASALCHAKAL 445CRROR [३२] ॥७५॥ | कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~153~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [३२] “औपपातिक” - Education Internationa उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [... ३२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः 'कंदरगिरिविवरकुहरगिरिवरपासादुद्धघणभवणदेव कुलसिंघाडगतिगचउक्कचच्चरआरामुज्जाणकाणणसभापवापदेसदेस भागे' कन्दराणि दर्यो गिरीणां विवरकुहराणि - गुहाः पर्वतान्तराणि वा गिरिवराः - प्रधानपर्वताः प्रासादाः सप्तभूमिकादयः ऊर्ध्वघनभवनानि - उच्चाविरलगेहानि देवकुलानि प्रतीतानि शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वराणि प्राग्वत् आरामाः - पुष्पजातिप्रधानाः वनपण्डाः उद्यानानि पुष्पादिमदृक्षयुक्तानि काननानि - नगराद् दूरवर्तींनि सभा - आस्थायिकाः प्रपा- जलदानस्थानम् एतेषां ये प्रदेशदेशरूपा भागास्ते तथा तान्, तत्र प्रदेशा- लघुतरा भागा देशास्तु- महत्तराः, 'पडिसद्द (डिंसुआ ) सय| सहस्ससंकुलं करेंति' प्राकृतत्वेन बहुवचनार्थे एकवचनमत्र, ततः प्रतिशब्दलक्षसङ्कुलान् कुर्वन् कूणिको निर्गच्छतीति सम्बन्धः, तथा 'हयहेसियहत्थिगुलुगुलाइय रहघणघणसद्दमीसएणं महया कलकलरवेणं जणस्स महुरेण पूरयंते' इत्यत्र नभइत्यनेन सम्बन्धः, प्रदेशदेशभागान् वेत्यनेन, 'सुगंधवर कुसुम चुण्ण विद्धवासरेणुकविलं नभं करेंते' सुगन्धीनां वरकुसुमानां चूर्णानां च उद्धिः - ऊर्ध्व गतो यो वासरेणुः- वासकं रजः तेन यत्कपिलं तत्तथा 'नर्भ'ति नभ आकाशं कुर्वन्, 'कालागुरुकुंदुरुकतुरुक्कधूवनिवहेण जीवलोगमिव वासयंते' जीवलोकं वासयन्निव, शेषं प्राग्वत्, 'समंतओ खुभिय चकवाल' सर्वतः क्षुभितानि | चक्रवालानि-जनमण्डलानि यत्र निर्गमने तत्तथा तद्यथा भवतीत्येवं निर्गच्छतीत्येवं सम्बन्धः, तथा 'पवरजणबालबुडपमुइयतुरियपहावियविडलाउल बोलबहुलं नर्भ करेंते' प्रचुरजनाश्च अथवा पौरजनाश्च बालवृद्धाश्च ये प्रमुदितास्त्वरितप्रधाविताश्चशीघ्रं गच्छन्तस्तेषां व्याकुलाकुलानाम् अतिव्याकुलानां यो बोलः स बहुलो यत्र तत्तथा तदेवम्भूतं नभः कुर्वन्निति । अथाधिकृतवाचनाऽनुश्रीयते- 'अदूरसामंते' अनिकटासन्ने उचिते देशे इत्यर्थः, 'ठबेइत्ति स्थिरीकरोति 'अवहट्टु'त्ति For Parts Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~ 154~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: तिकम् । प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम औपपा- || अपहत्य-परित्यज्य 'रायककुहाईति नृपचिह्नानि 'उपफेस'ति मुकुटं 'बालवीयणिय'ति चामरं 'सचित्ताण दवाणं विउ सरणयाए'त्ति पुष्पादिसचेतनद्रव्यत्यागेन 'अचित्ताणं दचाणं अविउसरणयाए'त्ति वस्त्राभरणाद्यचेतनद्रव्याणामत्यजनेन | 'चक्खुफासे ति भगवति दृष्टिपाते 'हस्थिक्खंधविहभणयाए'त्ति वाचनान्तरं, तत्र हस्तिलक्षणो यः स्कन्धः-पुद्गलसञ्चयस्तस्य ॥ ६ ॥ या विष्टम्भना स्थापना सा तथा तया, तिक्खुत्तो'त्ति त्रिकृत्वः त्रीन वारानित्यर्थः 'आयाहिणं पयाहिण'ति आदक्षिणात-द-1 क्षिणपाादारभ्य प्रदक्षिणो-दक्षिणपावती यः स आदक्षिणप्रदक्षिणस्तं करोति, दक्षिणपार्श्वतखिर्धाम्यतीत्यर्थः 'चंदई -1 त्यादि प्राग्वत् ।। ३२॥ तए णं ताओ सुभद्दाप्पमुहाओ देवीओ अंतो अंतेउरंसि पहायाओ जाव पायच्छित्ताओ सव्वालंकारविभूसियाओ बहहिं खुजाहि चेलाहिं वामणीहिं वडभीहिं बम्बरीहिं पयाउसियाहिं जोणिआहिं पण्हविAll आहिं इसिगिणिआहिं वासिइणिआहिं लासियाहिं लसियाहिं सिंहलीहिं दमीलीहिं आरबीहिं पुलंदीहिं पक्कणीहि बहलीहिं मुझंडीहिं सबरियाहिं पारसीहिंणाणादेसीविदेसपरिमंडिआहिं इंगियचिंतियपत्थियविजापणियाहिं सदेसणेवत्थरगहियवेसाहिं चेडियाचक्कवालपरिसधरकंचुइज्जमहत्सरगवंदपरिक्वित्ताओ अंतेउराओ णिग्गच्छति अंतेउराओ णिग्गच्छित्सा जेणेव पाडिएकजाणाई तेणेव उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता पाडिएकपा- | डिएकाई जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाई दुरूहंति दुरूहित्ता णिअगपरिआल सद्धिं संपरिबुडाओ चंपाए णयरीए | मझमज्झेणं णिग्गच्छति णिग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्सा समणस्स [३२] ॥६॥ कोणिक-राज्ञः सुभद्रा नामक राज्य: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: वर्णनं ~ 155~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] दीप अनुक्रम भगवओ महावीरस्स अदूरसामते छत्तादिए तित्थयरातिसेसे पासंति पासित्ता पाडिएकपाडिएकाई जाणाई [६/ ठवंति ठवित्ता जाणेहिंतो पचोरुहंति जाणेहिंतो पचोरुहित्ता बहहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ताओ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता समर्ण भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छति, तंजहा-सचित्ताणं दवाणं विउसरणयाए अञ्चित्ताणं व्वाणं अविउसरणयाए विणओणताए गायलट्ठीए चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं मणसो एगत्तकरणेणं समर्ण भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं |पयाहिणं करेन्ति वंदंति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता कूणियरायं पुरओ कडु ठिझ्याओ चेव सपरिवाराओ अभिमुहाओ विणएणं पंजलिउड़ाओ पजुवासंति ( सू० ३३)॥ | 'सुभद्दाप्पमुहाओ'त्ति सुभद्राप्रमुखाः, धारिण्याः सुभद्रेति नामान्तरं सम्भाव्यते, तेनेत्थं निर्देशः, क्वचिद्धारिणीप्पमु-III हाओ इत्येतदेव दृश्यते, 'अंतो अंतेउरंसि पहायाओ'त्ति अन्तः-मध्ये अन्तःपुरस्येत्यर्थः, वाचनान्तरं पुनः सुगममेव, नवरं 'वाहुयसुभयसोवस्थियबद्धमाणपुस्समाणबजयविजयमंगलसएहिं अभिथुवमाणीओं' व्याहृतं सुभगं येषां ते च्यातसुभ| गास्ते च ते सौवस्तिकाश्च-स्वस्तिवादका इति समासः, ते च बद्धमानाः-कृताभिमानाः पूष्यमानवाश्च-मागधा इति द्वन्द्व| स्तेषां यानि जयविजयेत्यादिकानि मङ्गलशतानि तानि तथा तैः, 'कप्पायछेयायरियरइयसिरसाओ' कल्पाकेन-शिरोजबन्धकल्पज्ञेन छेकेन-निपुणेनाऽऽचार्येण-अन्तःपुरोचितशिल्पिना रचितानि शिरांसि-उपचारात् शिरोजबन्धनानि यासां तास्तथा, 'महया गंधद्धणिं मुयंतीओं' महतीं गन्धप्राणिं मुश्चन्त्यः, अथाधिकृतवाचना 'खुजाहिं'ति कुनिकाभिः 'चेलाहि || [३३] कोणिक-राज्ञ: सुभद्रा नामक राज्य: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: वर्णनं ~ 156~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा ॥७७॥ प्रत सूत्रांक [३३] दीप अनुक्रम |5|| ति चेटिकाभिः अनार्यदेशोत्पन्नाभिर्वा युक्ता इति गम्यं, 'बामणीहि अत्यन्तहस्वदेहाभिः इस्वोन्नतहृदयकोष्ठाभिर्वा 'पडभि-18 धर्म तिकम् दयाहिंति वदभिकाभिर्वक्राधःकायाभिः बदरीहिति बर्बराभिधानानार्यदेशोत्पन्नाभिः, एवमन्याभ्यपि षोडश पदानि, 'णाणादे सीहि नानाजनपदजाताभिः, विदेशपरिमंडियाहिं' विदेशः परिमण्डितो यकाभिस्तास्तथा 'विदेसपरिपिडियाहिति वाचना- सू०३४ कान्तरं, तब विदेशे परिपिण्डिता-मिलिता यास्तास्तथा ताभिः, इंगियचिंतियपस्थियवियाणियाहिं' इङ्गितेन-चेष्टितेन चिन्तित || || प्रार्थितं च वस्तु जानन्ति यास्तास्तथा, पाठान्तरे 'इंगियचिंतियपत्थियमणोगतवियाणियाहिं' इङ्गितेन चिन्तितप्रार्थिते मनोगते-मनसि वर्तमाने वचनादिनाऽनुपदेशिते विजानन्ति यास्तास्तथा ताभिः, 'सदेसणेवत्थगहियवेसाहि' स्वदेशनेपथ्यमिव गृहीतो वेषो यकाभिस्तास्तथा ताभिः, तथा 'चेडियाचक्वालवरिसधरकंचुइजमहत्तरवंदपरिक्खित्ताओं वर्षधरा:वतिकाः कञ्चुकिनस्तदितरे च ये महत्तरा-अन्तःपुररक्षकास्तेषां यद्वन्दं तेन परिक्षिप्ता यास्तास्तथा, 'णियगपरियाल सद्धिं संपरिवुडाओत्ति निजकपरिवारेण लुप्ततृतीयैकवचनदर्शनात् सार्ध-सह संपरिवृताः-तेनैव परिवेष्टिताः 'ठियाउ चेव'त्ति का ऊर्ध्वस्थिता एवेति ॥ ३३ ॥ तए णं समणे भगवं महावीरे कूणिअस्स भभसारपुत्तस्स सुभद्दाप्पमुहाणं देवीणं तीसे अ महतिमहालियाए परिसाए इसीपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए देवपरिसाए अणेगसयाए अणेगसयवंदाए अणेगस- ॥७७॥ यवंदपरिवाराए ओहबले अइबले महब्बले अपरिमिअवलवीरियतेयमाहप्पकंतिजुत्ते सारयनवत्थणियमहुडीरगंभीरकोंचणिग्घोसदुंदुभिस्सरे उरेवित्थडाए कंठेऽवढियाए सिरे समाइण्णाए अगरलाए अमम्मणाए [३३] कोणिक-राज्ञ: सुभद्रा नामक राज्य: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: वर्णनं ~ 157~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१२) -------- मूल [३४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम SECREDROORDANCERCk सव्वक्खरसण्णिवाइयाए पुण्णरत्ताए सब्वभासाणुगामिणीए सरस्सइए जोयणणीहारिणा सरेणं अडमागहाए भासाए भासति अरिहा धम्म परिकहेइ । 'तीसे य महइमहालियाए' तस्याश्च महातिमहत्याः, गुरुकाणां मध्येऽतिगुरुकाया इत्यर्थः, 'इसिपरिसाए'त्ति पश्यन्तीति || 3ऋपयस्त एव परिषत्-परिवारः ऋपिपरिषत्तस्या अतिशयज्ञानिसाधूनामित्यर्थः, धर्म कथयतीति योगः, 'मुणिपरिसाए'। मौनवत्साधूनां वाचंयमसाधूनामित्यर्थः, 'जइपरिसाए'त्ति यतन्ते चारित्रं प्रति प्रयता भवन्तीति यतयस्तत्परिषदश्चरणोद्यतसाधूनामित्यर्थः, 'अणेगसयवंदाए'त्ति अनेकानि शतप्रमाणानि वृन्दानि यस्यां सा तथा तस्याः, 'अणेगसयवंदपरियालाए' अनेकशतमानानि यानि वृन्दानि तानि परिवारो यस्याः सा तथा तस्याः । किम्भूतो भगवानित्याह-'ओहबले'सि अव्यवच्छिन्नवल: 'अइबले'त्ति अतिशयबलः 'महचले'त्ति प्रशस्तबलः 'अपरिमियबलचीरियतेयमाहप्पर्कतिजुत्ते अपरिमितानिअनन्तानि यानि बलादीनि तैर्युक्तो यः स तथा, तत्र बल-शारीरः प्राणः वीर्य-जीवप्रभवं तेजो-दीप्तिः माहात्म्य-महा-| नुभावता कान्ति:-काम्यता, 'सारयनवत्धणियमहुरगंभीरकुंचनिग्योसदुंदुभिस्सरे' शारद-शरत्कालीनं यन्नवस्तनितं-मेघध्व| नितं तदिव मधुरो गम्भीरश्च क्रौञ्चनिर्घोषवच दुन्दुभेरिव च स्वरो यस्य स तथा, किम्भूतया कथया धर्म कथयतीत्याह| 'उरे वित्थडाए' उरसि विस्तृतया उरसो विस्तीर्णत्वात् , सरस्वत्येति योगः, 'कंठेऽवडियाए' गलविवरस्य वर्तुलत्वात् 'सिरे | समाइण्णाए' मूनि सङ्कीर्णया आयामस्य मूर्धा स्खलितत्वात् 'अगरलाए'त्ति सुविभक्ताक्षरतया 'अमम्मणाए'त्ति अन-18 | पखश्यमानतया 'सबक्खरसन्निवाइयाए' सुव्यक्तः अक्षरसन्निपातो-वर्णसंयोगो यस्यां सा तथा तया 'पुण्णरत्ताए'त्ति पूणों [३४] भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [प्रवचनस्य] वर्णनं ~ 158~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [३४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा सू०३४ प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम च स्वरकलाभिः रक्ताच-गेयरागानुरक्ता या सा तथा तया, कचिदिदं विशेषणद्वयं-'फुडविसयमहरगंभीरगाडिया18| तिकम् ॥ स्फुटविशदा-अत्यन्तव्यक्ताक्षरा स्फुटविषया वा-स्फुटाथों मधुरा-कोमला गम्भीरा-महती ग्राहिका-अक्शेनार्थबोधिका, एतेषां कर्मधारयोऽतस्तया, 'सबक्सरसण्णिवाइयाए' सर्वाक्षराणां सन्निपातः-अवतारो यस्यामस्ति सर्वे वाऽक्षरसन्निपाता:॥७८॥ संयोगाः सन्ति यस्यां सा सर्चाक्षरसन्निपातिका तया, 'सरस्सइए' वाण्या 'जोयणणीहारिणा' योजनातिकामिणा स्वरेण 'अद्धमागहाए भासाए'त्ति 'रसोर्लसो मागध्या'मित्यादि यन्मागधभाषालक्षणं तेनापरिपूर्णा प्राकृतभाषालक्षणबहुला अर्द्धमागधीत्युच्यते। तसिं सब्वेसिं आरियमणारियाणं अगिलाए धम्ममाइक्खइ, साऽविय णं अद्धमागहा भासा तेसिं सब्वेर्सि || आरियमणारियाणं अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमइ, तंजहा-अस्थि लोए अस्थि अलोए एवं जीवाद अजीवा बंधे मोक्खे पुषणे पावे आसवे संवरे वेयणा णिज्जरा अरिहंता चकबद्दी बलदेवा वासुदेवा नरका शरइया तिरिक्खजोणिआ तिरिक्खजोणिणीओ माया पिया रिसओ देवा देवलोआ सिही सिद्धा परिणि उधाणं परिणिव्वुया अस्थि पाणाइवाए मुसावाए अदिण्णादाणे मेहुणे परिग्गहे अस्थि कोहे माणे माया हैलोभे जाव मिच्छादसणसल्ले। 'आरियमणारियाण'ति आर्यदेशोत्पन्नतदितरनराणाम् 'अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमइ'त्ति आर्यादीनामात्मन १ श्रीसिद्धहैमशब्दानुशासने तु ९-१-२९९ तमं सूत्रं रसोर्लशौ' इति, तत्र मागध्यामित्यस्वानुवृत्तेर्लाभात् । [३४] ॥७८॥ | भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [प्रवचनस्य] वर्णनं ~159~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम स्तत्सम्बस्घिजीवस्य स्वभाषाया-निजभाषायाः सम्बन्धिना परिणामेन-स्वरूपेण परिणमति-वर्तते । यादर्श धर्म कथयति तदर्शनार्थमाह-'तंजहे'त्यादि, अस्थि लोग इत्यादि कलाणपावए' इत्येतदन्तं,सुगम, नवरं लोकः-पञ्चास्तिकायमयः अलोकःकेवलाकाशरूपः, अनयोश्चास्तित्वाभिधानं शून्यवादनिरासार्थ, तन्निरासोपपत्तिश्च ग्रन्थान्तरावगम्या, एवं प्रायेणोत्तरत्रापि, 'अस्थि जीवा' अस्तीति क्रियावचनप्रतिरूपको निपातो बहुवचनार्थो द्रष्टव्यः, इदं च लोकायतमतनिषेधार्थमुक्तम् , 'अस्थि Ki अजीवत्ति पुरुषाद्वैतादिवादनिषेधार्थम्, 'अस्थि बंधे अस्थि मोक्खे'त्ति बन्धः कर्मणा जीवस्य मोक्ष:-सकलकर्मवियोगः तस्यैव, एतच्च द्वयं “संसरति बध्यते मुच्यते च नानानया प्रकृतिरेव, नात्मे"त्येवंविधसायमतनिषेधार्थमिति, 'अस्थि | पुण्णे अस्थि पावे'त्ति पापमेवापचीयमानमुपचीयमानं च सुखदुःखनिबन्धनं न पुण्यं कर्मास्ति, पुण्यमेव चोपचीयमानम|पचीयमानं च सुखदुःखहेतुर्न पापमस्तीत्येवंविधवादनिरासार्थमुक्तं जगद्वैचित्र्यनिवन्धनकेवलस्वभाववाद निरासार्थ वा, | 'अस्थि आसवे अस्थि संवरे कर्मबन्धहेतुराश्रवः आश्रवनिरोधः संवरः, एतच्च बन्धमोक्षयोनिष्कारणत्वप्रतिषेधार्थ वीय-18 प्राधान्यख्यापनार्थं वा, 'अस्थि वेयणा अधि णिज्जरा' वेदना-कर्मणोऽनुभवनं पीडा वा निर्जरा-देशतः कर्मक्षयः, एतच्च | 'नाभुक्तं क्षीयते कमें त्येतत्प्रतिपादनार्थम् , अहंदादिचतुष्कसत्ताभिधानं तु तद्भवनातिशायित्वमश्रद्दधतां तच्छ्रद्धोत्पादनार्थ, नरकनैरयिकास्तित्वप्रतिपादनं च प्रमाणाग्राह्यत्वात्ते न सन्तीति मतनिषेधार्थ, लियंगाद्यस्तित्वप्रतिपादनं तु प्रत्यः क्षप्रमाणस्य भ्रान्तत्वात् कुवासनाजन्योऽयं तिर्यगादिप्रतिभासो न तत्सत्तानिबन्धन इति ये मन्यन्ते तन्मतनिषेधाथ, मातापितृसत्ताभिधानं तु ये मन्यन्ते-योऽयं मातापितृव्यपदेशः स जनकत्वकृतो जनकत्वाच्च यूका कृमिगण्डोलकादान [३४] | भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [प्रवचनस्य] वर्णनं ~160~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा- तिकम् सू०३४ प्रत सूत्रांक ॥ ७९॥ [३४] KAC56-56445-56-4-% प्याश्रित्य स स्यात्, न चैवं, तस्मान्न वास्तवो मातापितृव्यवहार इति, तन्मतनिरासार्थ, निरासश्च जनकल्ये समानेऽप्यु- श्रीवीरदे० पकारित्वकृतस्तझ्यपदेश इति, तथा ये मन्यन्ते अतीन्द्रियार्थद्रष्टारो न सम्भवन्ति, रागादिमत्त्वात्पुरुषाणाम् , अस्मदादि-15 वदिति तन्मतनिरासार्थमृषिसत्ताभिधानं, तन्निरासश्च चन्द्रोपरागादिज्ञानानामविसंवाददर्शनादिति, देवाद्यस्तिताभिधानं || च ये मन्यन्ते-न सन्ति देवादयोऽप्रत्यक्षत्वात् , तन्मतब्युदासार्धं, तत्र सिद्धिः-ईपत्याग्भारा निष्ठितार्थता वा सिद्धास्तु-15 तद्वन्तः परिनिर्वाण-कर्मकृतसन्तापोपशान्त्या सुस्थत्वं परिनिर्वृतास्तु-तद्वन्तः, तथा ये मन्यन्ते-प्राणातिपातादयो न वन्धमोक्षहेतवो भवन्ति, बन्धनीयस्य मोचनीयस्य च जीवस्याभावात् , तन्मतनिषेधार्थम् 'अस्थि पाणाइवाए' इत्याधुकं, | केवलमत्र सूत्रे बन्धमोक्ष हेतुरिति वाक्यशेषो दृश्यः, इह च यावत्करणादिदं दृश्यं-'पेजले दोसे कलहे अभक्खाणे पेसुन्ने | परपरिवाए अरइरई मायामोसे'त्ति तत्र पेजेत्ति-प्रेमानभिव्यक्तमायालोभव्यक्तिकमभिष्वङ्गमानं 'दोसे'त्ति द्वेषः अनभि-| व्यक्तकोधमानव्यक्तिकमप्रीतिमानं कलहो-रादिः अभ्याख्यानम्-असदोषारोपणं पैशुन्य-प्रच्छन्नं सद्दोपाविष्करणं परपरिवादो-विप्रकीर्ण परेषां गुणदोषवचनम् 'अरइरइत्ति अरति:-अरतिमोहनीयोदयाचित्तोद्वेगस्तत्फला रतिः-विषयेषु मोहनीयाचित्ताभिरतिः अरतिरतिः 'मायामोसित्ति तृतीयकषायद्वितीयाश्रवयोः संयोगः, अनेन च सर्वसंयोगा उपलक्षिताः, अथवा वेषान्तरभाषान्तरकरणेन यत्परवञ्चनं तन्मायामृषावाद इति, 'मिच्छादसणसले सि मिथ्यादर्शनं शल्यमिव विविधव्यधानिबन्धनत्वात् मिथ्यादर्शनशल्यं । अस्थि पाणाइवायवेरमणे मुसावायवेरमणे अदिण्णादाणरमणे मेहुणवेरमणे परिग्गहवेरमणे जाव दीप अनुक्रम [३४] ।॥७९॥ CCCCC % | भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: (प्रवचनस्य] वर्णनं ~161~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (१२) -------- मूलं [...३४] प्रत सूत्रांक [३४] मिच्छादसणसल्लविवेगे सव्वं अत्थिभावं अत्यित्ति वयति, सव्वं णत्थिभावं णस्थित्ति वयति, सुचिपणा कम्मा सुचिण्णफला भवंति, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति, फुसइ पुण्णपावे, पञ्चायति जीवा, सफले कल्लाणपावए । धम्ममाइक्खह-इणमेव णिग्गंधे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलए संमुद्धे पडिपुषणे णेआउए सल्लकतणे सिन्डिमग्गे मुत्तिमग्गे णिव्वाणमग्गे णिजाणमग्गे अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे इहडिआ[] जीवा सिझंति बुझंति मुचंति परिणिब्वायंति सचदुक्खाणमंतं करंति। | 'पाणाइवायवेरमणे' इत्यादौ तु तत्सत्ताभिधानम् अप्रमादस्य सर्वथा कर्तुमशक्यत्वेन तदसम्भव इत्येतन्मतनिषेधार्थ, किंबहुना -'सबमस्थिभावं'ति अस्तीतिक्रियायुक्तो भावोऽस्तिभावस्तं, नास्तीतिविवक्षानिबन्धनभूतो भावो नास्तिभावोऽतस्तं, 'मुचिण्णा कम्मत्ति सुचरितानि तपःप्रभृतीनि कर्माणि-क्रिया: 'मुचिषणफल'त्ति सुचरित-सुचरितहेतुकत्वात् पुण्यकर्मबन्धादि तदेव फलं येषां तानि तथा, शुभफलानीत्यर्थः, न निष्फलानि नाप्यशुभफलानीति हृदयम्, एवं विपयेयवाक्यमपि, ततश्च 'फुसइ पुण्णपावे' बनाति जीवः शुभाशुभं कर्म सुचरितेतरक्रियाभिः, ततः 'पञ्चायति'त्ति जीवाः|8| प्रत्याजायन्ते-उत्पद्यन्ते, न पुनः 'भस्मीभूतस्य शान्तस्य, पुनरागमनं कुतः?' इत्येतदेव नास्तिकवचनं सत्यं, ततश्चोत्पत्ती। Pसत्यां 'सफले कलाणपावए' सौभाग्यादीतरनिवन्धनत्वात् फलवच्छुभाशुभं कर्मेति । प्रकारान्तरेण भगवतो धर्मप्ररूपणां ४ दर्शयन्नाह-'धम्ममाइक्खड़ इत्यादि पडिरूवे इत्येतदन्तम्', इदं च व्यक्तं, नवरम् 'इदमेव' प्रत्यक्षं 'णिग्गंथे पावयणे' 5 निग्रन्थं प्रवचन-जिनशासनं 'सच्चे' सद्भयो हितम् 'अणुत्तरे नेतःप्रधानतरमन्यदस्तीत्यर्थः 'केवले' अद्वितीयं केवलि RECERCASC%* दीप अनुक्रम [३४] wjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [प्रवचनस्य] वर्णनं ~162~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम [३४] औपपातिकम् ॥ ८० ॥ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः प्रतीतं वा अनन्तं वा अनन्तार्थविषयत्वात् 'पडिपुणे' प्रतिपूर्णमल्पग्रन्थत्वादिभिः प्रवचनगुणैः 'संशुद्धे कषादिभिः शुद्धं सुवर्णमिव निर्दोषं गुणपूर्णत्वात् 'णेयाउए' नैयायिक न्यायानुगतं प्रमाणावाधितमित्यर्थः, 'सहकत्तणे' मायादिशल्यकर्तनं, तद्भावितानां हि भावशल्यानि व्यवच्छेदमायान्तीति 'सिद्धिमग्गे' निष्ठितार्थत्वोपायः 'मुत्तिमग्गे' मुक्ते:- सक लकर्मवियोगस्य हेतुः अथवा मुक्ति:- निर्दोभता मार्गो यस्य प्राप्तेः तन्मुक्तिमार्ग 'णिजाणमांगे' निर्याणस्य - अनावृत्तिकगमनस्य मार्गो-हेतु:, 'णिवाणमग्गे' निर्वाणस्य सकलसन्तापरहितत्वस्य पन्थाः 'अवित' सद्भूतार्थं 'अविसंधि' अविरुद्धपूर्वापरघट्टनं 'सवदुक्खष्पहीणमग्गे' सकलदुःखप्रक्षयस्य पन्थाः अथवा सर्वाणि दुःखानि प्रहीणानि यत्र सन्ति स तथा स मार्ग:-शुद्धिर्यत्र तत्तथा, अत एव 'इहडिया जीवा सिज्यंति' विशेषतः सिद्धिगमनयोग्या भवन्ति अणिमादिमहासिद्विप्राप्ता वा भवन्ति 'बुज्नंति' केवलज्ञानप्राप्या 'मुच्चंति' भवोपग्राहिकर्माशापगमात् 'परिणिवायंति' कर्मकृतसकलसन्तापविरहात् किमुक्तं भवतीत्यत आह- 'सचदुक्खाणमंत करेंति' । एगचा पुण एगे भयंतारो पुष्वकम्मावसेसेणं अण्णयरेसु देवलोपसु देवत्ताए उववत्तारो भवति, महड्डी| एसु जाव महासुक्त्रेसु दूरंगइएस चिरट्टिईएस, ते णं तत्थ देवा भवंति महट्टीए जाव चिरट्ठिईआ हारवि|राइयवच्छा जाव पभासमाणा कप्पोवगा गतिकल्लाणा आगमेसिभद्दा जाव पडिरुवा, तमाइक्खड़ एवं खलु | चउहिं ठाणेहिं जीवा पेरइअत्ताए कम्मं पकरंति, णेरइअत्ताए कम्मं पकरेत्ता णेरइसु जववज्जंति, संजहा| महारंभयाए महापरिगह्याए पंचिंदिय वहेणं कुणिमाहारेणं, एवं एएणं अभिलावेणं तिरिक्खजोणिएसु माइल्ल भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [ प्रवचनस्य] वर्णनं For Parts Only ~ 163~ श्रीवीर दे० सू० ३४ ॥ ८० ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) --- मूलं [...३४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] गाथा: याए णिअडिल्लयाए अलिअवयणेणं उकंचणयाए वंधणयाए, मणुस्सेसु पगतिभद्दयाए पगतिविणीतताए साणुॐ कोसयाए अमच्छरियताए, देवेसु सरागसंजमेणं संजमासंजमेणं अकामणिजराए बालतवोकम्मेणं, तमाइलिक्खह-जह णरगा गम्मति जे गरगा जा य वेयणा णरए । सारीरमाणसाई दुक्खाई तिरिक्खजोणीए ॥१॥ माणुस्सं च अणिचं वाहिजरामरणवेयणापउरं । देवे अ देवलोए देविहिं देवसोक्खाई॥२॥णरगं तिरि क्खजोणिं माणुसभावं च देवलोअंच । सिद्धे अ सिद्धवसहिं छज्जीवणियं परिकहेइ ॥३॥जह जीवा लवज्झति मुचंति जह य परिकिलिस्संति । जह दुक्खाणं अंतं करंति केई अपडियद्धा ॥४॥ अदुहहियचित्ता ४ जह जीवा दुक्खसागरमुर्विति । जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुरगं बिहार्डति ॥५॥ 'एगच्या' एकार्चा-एका अर्चा-मनुष्यतनुर्भाविनी येषां ते तथा, ते पुनरेके केचन 'भयंतारो'त्ति भदन्ताः-कल्याणिनः भक्कारो वा-नैर्मन्थप्रवचनस्य सेवयितारः पूर्वकर्मावशेषेण 'अण्णयरेसु देवलोएसुत्ति अन्यतरदेवानां मध्य इत्यर्थः, 'महहिएसु' इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'महज्जुइएसु महाबलेसु महायसेसु महाणुभागेसु'त्ति, व्याख्या च प्राग्वत् , 'दूरंगइएसुत्ति अच्युतान्तदेवलोकगतिकेष्वित्यर्थः 'हारविराइयवच्छा' इह यावत्करणादिदं दृश्य-'कडयतुडियथंभियभुया अंगयकुंडलमगंडयलकण्णपीढधारी विचित्तहत्याभरणा दियेणं संघाएणं दिवेणं संठाणेणं दिवाए इड्डीए दिवाए जुईए दिवाए पभाए दिवाए छायाए दिवाए अच्चीए दिवेणं तेएणं दिखाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा' इति व्याख्या चासुरवर्णकवद् | दृश्या, 'कप्पोवगति कल्पोपगा-देवलोकजाः 'आगमेसिभ'त्ति आगमिष्यदू-अनागतकालभावि भद्र-कल्याणं निर्वाण-| दीप अनुक्रम [३४-३९] SAREauratonintinharional | भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [प्रवचनस्य] वर्णनं ~164~ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३४] + गाथाः दीप अनुक्रम [३४-३९] औपपातिकम् ॥ ८१ ॥ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः लक्षणं येषां ते तथा, इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुव पडिरूव'त्ति व्याख्या प्राग्वदेवेति, निर्यथप्रवचनफलवक्तव्यतां निगमयन्नाह 'तमाइक्खइति तत्प्रवचनफलमिति । अथ प्रकारान्तरेण धर्ममाह-' एवं खल्वि |त्यादि बालतवोकम्मेण मित्येतदन्तं, व्यक्तमेव, नवरं 'एव' मिति वक्ष्यमाणेन प्रकारेण, खलुर्वाक्यालङ्कारे, 'कुणिमा हारेण' ति | कुणिमं-मांसं, 'उक्कंचणयाए वंचणयाएति उत्कञ्चनता मुग्धवञ्चनप्रवृत्तस्य समीपवर्तिविदग्धचित्तरक्षार्थी क्षणमव्यापारतयाऽवस्थानं वञ्चनता-प्रतारणं 'पगइभद्दयाए'त्ति प्रकृतिभद्रकता स्वभावत एवापरोपतापिता 'साणुकोसयाए 'त्ति सानु - | क्रोशता - सदयता 'तमाइक्खइति तं धर्ममाख्यातीति धर्मकथानिगमनम् । अथोक्तधर्मदेशनामेव सविशेषां दर्शयन्नाह - | 'जह णरगा गम्मन्ती' त्यादिगाथापञ्चकं, व्यक्तं, नवरं यथा नरका गम्यन्ते तथा परिकथयतीति सर्वत्र क्रियायोगः, 'नरगं | चेत्यादि गाथा उक्तसमाहिकेति, तथा 'अट्टा अट्टियचित्ता' इति आर्ताः - शरीरतो दुःखिता आर्तितचित्ताः-शोका दिपीडिताः आर्ताद्वा-ध्यानविशेषादातिचित्ता इति, 'अट्टणियद्वियचित्त'त्ति पाठान्तरं तत्र आर्तेन नितरामर्दितम् - अनुगतं चित्तं येषां ते तथा, 'अट्टदुहट्टियचित्ते'त्ति वा आर्तेन दुःखादितं चित्तं येषां ते तथा । जहा रागेण कडाणं कम्माणं पावगो फलविवागो जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुर्विति, तमेव धम्मं दुविहं आइक्वइ, तंजहा- अगारधम्मं अणगारधम्मं च, अणगारधम्मो ताव इह खलु सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्ययह सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावाय० अदिष्णा Eucation Intention भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [ प्रवचनस्य] वर्णनं For Parata Use Only ~ 165~ श्रीवीरदे० ॥ ८१ ॥ wor Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं [...३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] दाण मेहुण. परिग्गहराईभोयणाउ वेरमणं अयमाउसो! अणगारसामइए धम्मे पण्णत्ते, एअस्स धम्मस्स सिक्खाए उचहिए निग्गंथे वा निग्गंधी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवति । | वाचनान्तरे गाथाः क्रमान्तरेणाधीयन्ते, तदन्ते च एवं खलु जीवा निस्सीले' त्याद्यधीयते, तत्र शीलं-महाव्रतरूपं स*माधानमात्र वाणिवय'त्ति व्रतानि-अनुव्रतानि णिग्गुण'त्ति गुणा-गुणवतानि निम्मेर'ति निर्मर्यादा मर्यादा च-गम्यागम्याकादिव्यवस्था 'णिप्पचक्खाणपोसहोववासा' तत्र प्रत्याख्यानं-पौरुष्यादि पौषध:-अष्टम्यादिपर्वदिनं तत्रोपवसनं पोषधोप-15 वासः, 'अकोह'त्ति क्रोधोदयाभावात् 'णिकोहा' उदयप्राप्तक्रोधस्य विफलताकरणात् , अत एव 'छीणकोहा' क्षपितक्रोधाः एवं मानायभिलापका अपि 'अणुपुवेणं' अणमिच्छमीससम्म'मित्यादिना क्रमेण । अथाधिकृतवाचना-'इह खलु' इहैव कामर्त्यलोके 'सबओ सवत्ताए'त्ति सर्वतो द्रव्यतो भावतश्चेत्यर्थः, सर्वात्मना-सर्वान् क्रोधादीनात्मपरिणामानाश्रित्येत्यर्थः, एते च मुण्डो भूत्वेत्यस्य विशेषणे अनगारितां प्रवजितस्येत्येतस्य वा, 'अयमाउसो'त्ति अयमायुष्मन् ! 'अणगारसामइए' त्ति अनगाराणां समये-समाचारे सिद्धान्ते वा भवो अनगारसामयिकः अनगारसामायिक वा 'सिक्खाए' शिक्षायाम्अभ्यासे 'आणाए'त्ति आज्ञया विहरन् आराधको भवति ज्ञानादीनाम् , अथवा आज्ञाया-जिनोपदेशस्याराधको भवतीति । अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ, तंजहा-पंच अणुब्बयाई तिणि गुणवयाई चत्तारि सिक्खावयाई, |पंच अणुव्वयाई, तंजहा-थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं थूलाओ मुसावायाओ विरमणं थूलाओ अदिन्नादाणाओ बेरमण सदारसंतोसे इच्छापरिमाणे, तिपिण गुणवयाई तंजहा-अणत्थदंडवेरमणं दिसिध्वर्य उव CRPORORSC-SCAMSAK गाथा: दीप अनुक्रम [३४-४० भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [प्रवचनस्य] वर्णनं ~166~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३४] + गाथाः दीप अनुक्रम [३४-४०] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः औपपातिकम् श्रीवीरदे० भोगपरिभोगपरिमाणं, चत्तारि सिक्खावयाई, तंजहा - सामाइअं देसावगासियं पोसहोववासे अतिहिसंअस्स विभागे, अपच्छिमा मारणंतिआ संलेहणाजूसणाराहणा अपमाउसो ! अगारसामइए धम्मे पण्णसे, + ४ धम्मra fear उबट्टिए समणोवासए समणोवासिआ वा विहरमाणे आणाइ आराहए भवति ।। ( सू० ३४ ) ॥ सू० ३४ ॥ ८२ ॥ * 'अपच्छिमा मारणन्तिया संलेहणाझूसणाराहणा' अपच्छिमत्ति-अकारस्यामङ्गलपरिहारार्थत्वात्पश्चिमा-पश्चात्कालभा| विनी अत एव मारणान्तिकी मरणरूपे अन्ते-अवसाने भवा मारणान्तिकी संलेखना - कायस्य तपसा कृशीकरणं तस्याः जूषणा-सेवा संलेखनाजूपणा आराधना-ज्ञानादिगुणानां विशेषतः पालना ॥ ३४ ॥ तए णं सा महतिमहालिया मणूस परिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हहतु जावहिया उठाए उट्ठेति, उट्ठाए उता समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं करेइरता चंदति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता अत्थेगहआ मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए, अत्थेगइआ पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खाबइअं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवण्णा, अवसेसा णं परिसा सम | भगवं महावीरं वंदति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता एवं क्यासी- सुअक्खाए ते भंते । णिग्गंथे पावणे | एवं सुपण्णत्ते सुभासिए सुविणीए सुभाविए अणुत्तरे ते भंते! णिग्गंथे पावयणे, धम्मं णं आइक्खमाणा तुम्भे उवसमं आइक्खह, उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्वह, विवेगं आइक्खमाणा वेरमणं आइ Education Intematon भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [ प्रवचनस्य] वर्णनं For Pernal Use On ~ 167~ ॥ ८२ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [३५-३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५-३७] दीप अनुक्रम [४१-४३]] ५ क्खह, रमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह, णस्थि णं अपणे केइ समणे वा माहणे 8 &चा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए, किमंग पुण इत्तो उत्तरतरं, एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूआ तमेव दिसं पडिगया ।। (सू०३५)।तए णं कृणिए राया भंभसारपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिएर धर्म सोचा णिसम्म हतुजावहियए उठाए उद्देइ उठाए उद्वित्सा समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति २त्ता वंदति णमंसति वंदित्ताणमंसित्ता एवं वयासी-सुअक्खाए ते भंते! णिग्गंथे ते पावधणे जाव किमंग पुण एसो उत्तरतरं?, एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए। ४ (सू० ३६)॥तए णं ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म 8 ॥ सोचा णिसम्म हतुबजावहिअयाओ उहाए उठित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयादिणं पयाहिणं ॥ करेन्ति २त्ता चंदंति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-सुअक्खाए ते भंते ! णिग्गंधे पावयणे जाब || किमंग पुण इत्तो उत्तरतरं, एवं वदित्ता जामेव दिसि पाउन्भूआओ तामेव दिसि पडिगयाओ। ★ समोसरणं सम्मत्तं ॥ (सू०३७)। 'महइमहालिया महवपरिस'त्ति महातिमहती-अतिगरीयसी महत्पर्षत्-महत्त्वोपेतसभा महतां समूह इत्यर्थः, 'मणूस४ा परिस'त्ति तु व्यक्तमेव, 'सोचा निसम्मति श्रुत्वा-आकर्ण्य निशम्य-अवधार्येति 'उडाए उद्देइ'त्ति उत्थया-कायस्योध्ये-|| लाभवनेन 'सुयक्खाए'त्ति मुष्ठु आख्यातं सामान्यभणनतः 'सुपण्णत्ते' सुष्टु प्रज्ञप्तं विशेषभणनतः 'सुभासिए' सुभाषितं वचन-1 | भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [प्रवचनस्य वर्णनं ~168~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३५-३७] दीप अनुक्रम [४१-४३] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ३५-३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः औपपातिकम् ८५ ॥ व्यक्तितः 'सुविणीए' सुविनीतं शिष्येषु सुष्ठु विनियोजितं 'सुभाषिए' सुष्ठु भावितं- तत्त्वभणनात् 'उवसमं आइक्खहत्ति क्रोधादिनिरोधमित्यर्थः, 'विवेगं'ति बाह्यग्रन्थत्यागमित्यर्थः, 'वेरमणं'ति मनसो निवृत्तिं 'धर्मम्' उपशमादिरूपं प्रथेति हृदयं, 'नस्थि 'ति न प्रभवति न शक्तो भवति 'आइक्खित्तए'त्ति आख्यातुं, 'किमंग पुर्णत्ति अङ्गेत्यामन्त्रणे, किं पुनरिति विशेषद्योतनार्थः, 'उत्तरतरं' प्रधानतरं 'जामेव दिसं पाउन्भूया' यस्या दिशः सकाशात् प्रकटीभूता-आगतेत्यर्थः -समवसरणवर्णकः ॥ ३५-३६-३७ ॥ ते काले तेणं समर्पणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेडे अंतेवासी इंदमूई नाम अणगारे गोयमसगोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंस संठाणसंठिए बहरोसहनारायसंघपणे कणगलकनिग्य सपम्हगोरे उग्गतवे | दित्ततवे तत्ततवे महातवे घोरतवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरवंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखि उत्तविलते अलेस्से समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उहंजाणू अहोसिरे झाणकोडोबगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । 'ते काले 'मित्यादि व्यक्तं, नवरं 'सत्तुस्सेहे' त्ति सप्तहस्तोच्छ्रयः, विशेषणद्वयं स्वागमसिद्धं, 'कणगलगनिग्धसपम्हगोरे' कनकस्य सुवर्णस्य पुलको -लवस्तस्य यो निकषः- कपपट्टे रेखा लक्षणस्तथा पम्हत्ति-पद्मगर्भस्तद्वगौरो यः स तथा वृद्धव्याख्या तु कनकस्य न लोहादेर्यः पुलकः-सारो वर्णातिशयस्तत्प्रधानो यो निकपो-रेखा तस्य यत्पक्ष्म-बहुलत्वं तद्वद् यो गौरः स तथा, 'उग्गतवे' उग्रम्-अप्रधृष्यं तपोऽस्येत्युग्रतपाः 'दित्ततवे' दीप्तहुताशन इव कर्मबनदाहकत्वेन ज्वलत्तेजः तपो यस्य Education Internation औपपातिक सूत्रे अत्र "समवसरण-पदं" परिसमाप्तं For Pale Only औपपातिक सूत्रे अत्र "औपपातिक पदं" आरभ्यते ~169~ उपपात० सू० ३८ ॥ ८३ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [३८...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम | स तथा, 'तत्ततवे' तप्तं-तापितं तपो येन स तप्ततपाः, एवं तेन तत्तपस्तप्तं येन कर्माणि सन्ताप्य तेन तपसा स्वात्माऽपि तपोरूपः सन्तापितो, यतोऽन्यस्यास्पृश्यमिव जातमिति, 'महातवें' महातपाः प्रशस्ततपाः वृहत्तपा वा 'ओराले'त्ति भीमः कथम् :-अतिकष्टं तपः कुर्वन् पार्श्ववर्तिनामल्पसत्त्वानां भयानको भवति, अपरस्त्वाह-'ओराले'त्ति उदार:-प्रधान घोर'त्ति घोरो-निघृणः परीपहेन्द्रियकपायाख्यानां रिपूणां विनाशे कर्तव्ये, अन्ये खात्मनिरपेक्षं घोरमाहुः, 'घोरगुणों घोरा:-अन्यैर्दुरनुचरा गुणाः-मूलगुणादयो यस्य स तथा, 'घोरतवस्सी' घोरैस्तपोभिस्तपस्वी 'घोरवंभचेरवासी' घोरं-दारुणमल्पसत्वैर्दुरनुचरत्वाद्यद् ब्रह्मचर्य तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तथा, 'उच्छूढसरीरे उच्छूढम्-उम्झितमिवोज्झितं शरीरं येन तत्संस्कारत्यागात् स तथा, 'संखित्तविउलतेयलेस्से' संक्षिप्ता-शरीरान्तलींना विपुला च विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राऽऽश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात् तेजोलेश्वा-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा, 'ऊहुंजाणू' | शुद्धपृथिव्यासनवर्जनात् औपनहिकनिषद्याया अभावाच उत्कुटुकासनः सन्नपदिश्यते, ऊध्र्षे जानुनी यस्य स ऊर्ध्वजानुः, | 'अहोसिरे' अधोमुखो नोर्व तिर्यग्वा निक्षिप्तदृष्टिरिति भावः, 'झाणकोडोवगए' ध्यानमेव कोष्ठो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतो यः &स तथा, यथा हि कोठके धान्य प्रक्षिप्तमविप्रकीर्ण भवत्येवं स भगवान् धर्मध्यानकोष्ठकमनुप्रविश्येन्द्रियमनास्यधिकृत्य संवृतारमा भवतीति भावः । | तए णं से भगवं गोअमे जायसहे जायसंसए जायकोऊहल्ले उप्पणसहे उप्पण्णसंसए उप्पण्णकोउहल्ले संजायसहे संजायसंसए संजायकोहल्ले समुप्पण्णसहे समुप्पण्णसंसए समुप्पण्णकोऊहल्ले उड्वाए उठेइ उठाए [४४] ~ 170~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: उपपात औपयातिकम् प्रत ॥८४॥ सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम उहिता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेत्ता वंदति णमंसति वंदिता म-14 |सित्ता णचासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पजुधासमाणे एवं चपासी। 'जायसहे जाता-प्रवृत्ता श्रद्धा-इच्छाऽस्येति जातश्रद्धः, क ?-वक्ष्यमाणानां पदार्थानां तस्वपरिज्ञाने, 'जायसंसए' | जातः संशयोऽस्येति जातसंशयः, संशयस्त्वनिर्धारितार्थ ज्ञानमुभयवस्त्वंशावलम्बितया प्रवृत्त, स त्वेवं तस्य भगवतो जातः, यथा-श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिना प्रथमाङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धप्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके आत्मन उपपात उक्तः, सी किमसत एवात्मनः उत सतः परिणामान्तरापत्तिरूपः, 'जायकोउहाले' जातं कुतूहलं-कौतुकं यस्य स तथा, कीशमुपपातं | भगवान्वक्ष्यतीत्येवंरूपजातश्रवणीत्सुक्य इत्यर्थः, 'उष्पन्नसडे' प्रागभूता उत्पन्ना श्रद्धा यस्य स उत्पन्नश्रद्धः, अथोत्पन्नश्रद्ध-18 स्वस्य जातश्रद्धत्वस्य च कोऽर्थभेदो, न कश्चिद्, अथ किमर्थं तत्प्रयोगः?, उच्यते, हेतुखप्रदर्शनार्थः, तथाहि-उत्पन्नश्रद्धत्वाजातश्रद्धः प्रवृत्तश्रद्ध इत्यर्थः, 'संजायस?' इत्यादौ च संशब्दः प्रकर्षादिवचनः, अपरस्त्वाह-जाता श्रद्धा प्रष्टुं | यस्य स जातश्रद्धः, कथं जातश्रद्धो ?, यस्माजातसंशयः, कथं संशयः अजनि ?, यस्मात् प्राकुतूहलं-किंविधो नामाय-18 भुपंपातो भविष्यतीत्येवंरूपमित्येष तावदवग्रहा, एवमुत्पन्नसजातसमुत्पन्नश्रद्धादय ईहापायधारणाभेदेन वाच्या इति | उपोद्घातग्रन्धो व्याख्यातः। जीवे णं भंते ! असंजए अविरए अप्पडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुढे एगंतदंडे एगंतवाले [४४] AMCE ॥८४ ॥ Ca ~ 171~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक * [३८] दीप अनुक्रम -55- 24 एगतसुत्ते पावकम्मं अण्हाति ? हंता अण्हाति १ जीये णं भंते ! असंजअअविरअअप्पडिहयपञ्चक्खाय|पावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतवाले एगतमुत्ते मोहणिजं पावकम्मंअण्हाति?, हंता अण्हाति। जीवे णं भंते ! मोहणिज्ज कम्मं वेदेमाणे किं मोहणिजं कर्म बंधही चेअणिजं कम्मं बंधह, गोअमा!, |मोहणिज्जपि कम्मं बंधड वेअणिजंपि कम्मं बंधति, णपणत्य चरिममोहणिजे कम्मं घेदेमाणे वेअणिज्जं कम्म| बंधड़ णो मोहणिज्जं कम्मं बंधई ३जीवे णं भंते! असंजए अधिरए अप्पडिहयपचक्खायपावकम्मे सकिरिए। असंवुडे एगंतदंडे एगंतवाले एगंतसुत्ते ओसण्णतसपाणघाती कालमासे कालं किया णिरइएसु उबवजंति, हंता उववजंति ४ । जीवे णं भंते ! असंजए अविरए अपडियपचक्खायपावकम्मे इओ चुए पेच्चा देवे | | सिआ?, गोअमा! अत्धेगइया देवे सिया अत्थेगइया णो देवे सिया, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अत्थेगहआ देवे सिआ अत्थेगइआ णो देवे सिआ?, गोयमा !, जे इमे जीवा गामागरणयरणिगमरायहाणिखेडकब्बडमडंबदोणमुह पट्टणासमसंवाहसपिणवेसेसु अकामतहाए अकामछुहाए अकामबंभचेरवासेणं अकामअण्हाणकसीयायवदंसमसगसेअजल्लमल्लपंकपरितावेणं अप्पतरो वा भुजतरो वा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति अप्पतरो वा भुजतरो वा कालं अप्पाणं परिकिलेसित्ता कालमासे कालं किचा अण्णतरेसु वाणमंत. रेसु देवलोएमु देवत्साए उववत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गती तहिं तेर्सि ठिती तहिं तेसि उववाए पण्णत्ते। अथाभिधिसितोपपातस्य कर्मबन्धपूर्वकत्यात कर्मवन्धप्ररूपणायाह-'जीवेण मित्यादि, 'असंजयअविरयअप्पडिहयपच्च [४४] ॐR ~172~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [४४] औपपातिकम् ॥ ८५ ॥ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१२] उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः 22 क्खायपावकम्मै' असंयतः - असंयमवान् अविरतः- तपसि न विशेषेण रतः, अथवा कस्मादसंयतो ?, यस्मादविरतो- विरतिव र्जितः, तथा न प्रतिहतानि सम्यक्त्व प्राप्या हस्वीकृतानि प्रत्याख्यातानि च सर्वविरतिप्रतिपत्तितः प्रतिषेधितानि पापकर्माणि - ज्ञानावरणादीनि येन स तथा अथवा प्रतिहतानि अतीतकालकृतानि निन्दाद्वारेण प्रत्याख्यातानि अनागतकालभावीनि निवृत्तितः पापकर्माणि प्राणातिपातादिपापक्रिया येन स तथा तन्निषेधेनाप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा, ततः पूर्वपदाभ्यां सह कर्मधारयः, अत एव 'सकिरिए' सक्रियः- कायिकयादिक्रियायुक्तः 'असंबुडे' असंवृतः अनिरुद्धेन्द्रियः 'एगंतदंडे' एकान्तेनैव सर्वथैव दण्डयत्यात्मानं परं वा पापप्रवृत्तितो यः स एकान्तदण्डः, 'एगंतवाले' सर्वथा मिथ्यादृष्टिः, अत एव 'एगंतसुते' सर्वथा मिथ्यात्वनिद्रया प्रसुप्तः 'पापकर्म' ज्ञानावरणाद्यशुभं कर्म 'अण्डाइ' आस्तौति आश्रवति बनातीत्यर्थः, हन्तेति कोमलामन्त्रणे प्रत्यवधारणार्थो वा, 'अण्हाइ'ति आस्त्रौत्येव यन्नात्येवेत्युत्तरं, न ह्यसंयतादिविशेपण जीवः कस्याश्चिदवस्थायां कर्म न वभातीति । तृतीयसूत्रे 'णण्णत्थ चरिममोहणिज्जं कम्मं वेदेमाणे वेअणिज्जं कम्मं बंध णो मोहणिज्जं ति नन्नत्यत्ति - नवरं केवलमित्यर्थः, चरममोहनीयं सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानके लोभमोहनीयसूक्ष्मकि|ट्टिकारूपं वेदयन् वेदनीयं बनाति, अयोगिन एव वेदनीयस्यावन्धकत्वात्, न पुनर्मोहनीयं वनाति, सूक्ष्मसम्परायस्य मोहनीयायुष्कवर्जानां षण्णामेव प्रकृतीनां बन्धकत्वात् यदाह - "सत्तविहबंधगा होति पाणिणो आउवज्जियाणं तु । तह १ सप्तविधयन्धका भवन्ति प्राणिन आयुर्वज्र्ज्यानामेव । तथा सूक्ष्मसम्परायाः पधिवन्धका विनिर्दिष्टाः ॥ १ ॥ मोहा युर्वनां प्रकृतीनां ते तु बन्धका भणिताः । Education International For Parts Only ~ 173 ~ उपपात ० सू० ३८ ॥ ८५ ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम घर सुहुमसंपराया छबिहवंधा विणिद्दिडा ॥ १॥ मोहाउयवजाणं पयडीणं ते उ बंधगा भणिया" ३ । अथाभिधिसितोपपात-18 & निरूपणायाह-'जीवे ण' मित्यादि, व्यक्तं, नवरं 'उस्सर्ण'ति बाहुल्यतः 'कालमासे कालं किच्च'त्ति मरणावसरे मरणं विधा येत्यर्थः ४।'इओ चुए पेचत्ति इतः स्थानान्मर्त्यलोकलक्षणाच्युतो-भ्रष्टः 'प्रेत्य' जन्मान्तरे देवः स्यात् , 'से केणडेण ति 18| अथ केन कारणेनेत्यर्थः, 'जे इमे जीय'त्ति य इमे-प्रत्यक्षासन्नाः जीवाम्-पश्चेन्द्रियतिर्यअनुष्यलक्षणाः, प्रामागरादयः प्राग्वत्, 'अकामतण्हाए'त्ति अकामानां-निर्जराधनभिलापिणां सतां तृष्णा-तृटू अकामतृष्णा तया, एवमन्यत्पदद्वयम् , 'अका-1 मअण्हाणगसीयायवर्दसमसगसेयजल्लमल्लपंकपरितावेणं' इह स्वेदः-प्रस्वेदो याति च लगति चेति जल्लो-रजोमात्र मल:का कठिनीभूतः पङ्को-मल एव स्वेदेनाद्रीभूतः अस्मानादयस्तु प्रतीताः अस्नानादिभिर्यः परितापः स तथा तेन, 'अप्पतरो वा ४ भुजतरो वा कालं'ति प्राकृतत्वेन विभक्तिपरिणामादल्पतरं वा भूयस्तरं वा कालं यावत् 'अण्णतरेसु'त्ति बहूनां मध्ये एकतरेषु 'वाणमंतरेसु'त्ति व्यन्तरेषु देवलोकेषु-देवजनेषु मध्ये 'तहिं तेसिं गइत्ति तस्मिन्'-बानमन्तरदेवलोके 'तेषाम्'-18 असंयतादिविशेषणजीवानां 'गतिः' गमनं 'ठिइत्ति अवस्थानम् 'उववाओ'त्ति देवतया भवनम् । ॥ तेसि णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?, गोअमा! दसवाससहस्साई ठिई पण्णत्ता, अस्थि णं भंते! तेसिं देवाणं इही वा जुई वा जसे ति वा चले ति वा वीरिए इवा पुरिसकारपरिकमे इवा,हंता अस्थि, ते णं भंते ! देवा परलोगस्साराहगा?, णोतिणढे समढे ५ से जे इमे गामागरणयरणिगमरायहा [४४] CSC और ~ 174~ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: तिकम् । प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम औपपा-णिखेडकब्बडमर्डवदोणमुहपणासमसंवाहसण्णिवेसेसु मणुआ भवंति, संजहा-अंडुबद्धका णिअलबद्धका सहडिबद्धका चारगवड का हत्धच्छिन्नका पायच्छिन्नका कण्णच्छिण्णका णकच्छिण्णका उच्छिन्नका जिम्भ॥८६॥ लामिछन्नका सीसच्छिन्नका मुखच्छिन्नका मज्झछिन्नका चेकच्छच्छिन्नका हियउप्पाडियगा जयणुप्पादियगाट दसणुप्पाडियगा वसणुप्पाडियगा गेवच्छिण्णका तंडुलच्छिण्णका कागणिमंसक्खाइयया ओलंबिया लंबि अया घंसिया घोलिअया फाडिअया पीलिअया मूलाइअया सूलभिण्णका खारवत्तिया वज्झवत्तिया मसीह पुच्छियया दवग्गिदहिगा पंकोसण्णका पंके खुत्तका वलयमयका वसट्टमयका णियाणमयका अंतोला सलमयका गिरिपडिअका तरूपडियका मरुपडियका गिरिपक्खंदोलिया तरूपक्खंदोलिया मरूपक्खंदोलिया। जलपवेसिका जलणपवेसिका विसभक्खितका सस्थोवाडितका वेहाणसिआ गिडपिट्टका कतारमतका |दुभिक्खमतका असंकिलिङपरिणामा ते कालमासे कालं किच्चा अपणतरेसु वाणमंतरेसु देवलोएम देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गती तर्हि तेसिं ठिती तहिं तेर्सि उववाए पण्णत्ते, तेसि णं भंते ! देवाणं केवइअं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोअमा !, वारसवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता । अस्थि णं भंते ! तेर्सि मादेवाणं इड्डी वा जुई वा जसे तिचा चले ति वा वीरिए इ वा पुरिसकारपरिकमे इथा,हंता अस्थि, ते णं|| ठाभंते देवा परलोगस्साराहगा, णो तिण समडे ६। [४४] ~ 175~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] 'इड्डी इवत्ति ऋद्धिः-परिवारादिसम्पत् 'जुई इ वत्तिद्युतिः-शरीराभरणादिदीप्तिः, इशब्दो निपातो वाक्पालङ्कारार्थः, इति शब्दो वाऽयं कृतसन्धिप्रयोग उपप्रदर्शनार्थः, 'जसे इवत्ति यशः-ख्यातिः, वाशब्दो विकल्यार्थः, कचित्पठ्यते-'उहाणे भाइ वा कम्मे इवत्ति तत्रोत्थानम्-ऊवीभवनं कर्म च-उत्क्षेपणादिका क्रिया 'बले इबत्ति बलं शारीरः प्राणः 'वीरिए इवा' | वीर्य-जीवप्रभवः प्राण एव 'पुरिसकारपरिकमे इ वत्ति पुरुषकार:-पुरुषाभिमानः स एव निष्पादितफलः पराक्रमः, || 'हते'त्ति एवमेवेत्यर्थः, 'तेणं देवा परलोगस्स आराहगत्ति ते अकामनिर्जरालब्धदेवभवा व्यन्तराः 'परलोकस्य जन्मान्तरस्य निर्वाणसाधनानुकूलस्य 'आराधका निष्पादका इति प्रश्नः?, 'नो इणडे'त्ति नायमर्थः 'समडे'त्ति समर्थः-सङ्गत इत्युत्तरम् , & अयमभिप्रायो-ये हि सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वकानुष्ठानतो देवाः स्युस्त एवावश्यतया आनन्तर्येण पारम्पर्येण वा निर्वाणानुकूल भवान्तरमावजेयन्ति, तदन्ये तु भाज्या: ५। 'से जे' इत्यादिसूत्र व्यक्तं, नवरं से शब्दोऽथशब्दार्थः, अथशब्दश्चेह वाक्योपक्षे-13 पार्थो, ग्रामादयःप्राग्वत् , अंडुबद्धगत्ति अण्डूनि-अन्दुकानि काष्ठमयानि लोहमयानि वा हस्तयोः पादयोर्वा बन्धनविशेषाः 'नियलबद्धगत्ति निगडानि-लोहमयानि पादयोर्बन्धनानि 'हडिबद्धगत्ति हडिः-खोटकः 'चारगवद्धग'त्ति चारको-गुप्तिः 'मुरवच्छिन्नग'त्ति मुरजी-गलघण्टिका 'मज्झच्छिन्नग'त्ति मध्य-उदरदेशः 'वइकच्छच्छिन्नग'त्ति उत्तरासङ्गन्यायेन विदारिताः, 'हियउपाडियगत्ति उत्पाटितहृदया आकृष्टकालेयकमांसा इत्यर्थः, 'वसणुप्पाडियग'त्ति उत्पाटितवृषणा आकृष्टाण्डा । इत्यर्थः, 'तण्डुलरिछन्नग'त्ति तण्डुलप्रमाणखण्डैः खण्डिताः 'कागणिर्मसखाइय'त्ति काकणीमांसानि तदेहोवृतश्लक्ष्णमासखण्डानि तानि खादिताः 'उल्लंबियग'त्ति अवलम्बितकाः रज्ज्वा बद्धा गर्तादाववतारिताः, उल्लम्बितपर्यायास्तु नैते भवन्ति, 4%494-%25%25% 82+ॐ4% दीप अनुक्रम [४४] ~176~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: तिकम प्रत सूत्रांक [३८] औपपा- उल्लम्बितानां वैहायसिकशब्देन वक्ष्यमाणत्वादिति, 'लंबियगत्ति लम्बितका:-तरुशाखायां वाही बद्धाः 'पंसियगत्ति उपपात. धर्षितकाश्चन्दनमिव दृषदि 'पोलियय'त्ति घोलितका दधिघट इव पट इव वा 'फालियय'त्ति स्फालितकाः कुठारेण दारुवच्छाटकबद्वा, पुस्तकान्तरे 'पीलियग'त्ति पीडितका यन्त्ररिक्षुवदिति 'मूलाइयगति शूलाचितकाः शूलिकाप्रोताः 'सूलभिन्नग'त्ति मस्तकोपरि निर्गतशूलिकाः 'खारवत्तिय'त्ति क्षारेण क्षारे वा तोक्षकतरुभस्मादिनिर्मितमहाक्षारे वर्तिता-वृत्ति कारिताः तत्र क्षिप्ता इत्यर्थः, क्षारपात्र या कृता:-क्षारपात्रिताः तं भोजितास्तस्य वाऽऽधारतां नीता इत्यर्थः, 'वझवत्ति। यत्ति वर्धेण सह वृत्तिं कारिताः बर्द्धपात्रिता वा-तेन बद्धा इत्यर्थः, उत्पाटितबद्धा था, 'सीहपुच्छियय'त्ति इह पुग्छश ब्देन मेहनं विवक्षितम् उपचारात् ततः सीहपुच्छकृतं सञ्जातं वा येषां ते सिंहपुग्छितास्त एव सिंहपच्छितकाः, सिंहस्य हि || |मैथुनानिवृत्तस्यात्याकर्षणात् कदाचिन्मेहनं त्रुट्यति एवं ये क्वचिदपराधे राजपुरुषैत्रोटितमेहनाः क्रियन्ते ते सिंहपुच्छि|तका व्यपदिश्यन्त इति, अथवा कृकाटिकातः पुतप्रदेश यावद्येषां वर्ध उत्कर्त्य सिंहपुच्छाकारः क्रियते ते तथोच्यन्ते इति, ॥ दयग्गिदहग'त्ति दवाग्निः-दावानलस्तेन ये दग्धास्ते तथोक्ताः 'पंकोसन्नग'त्ति पङ्के ये अवसन्नाः-सर्वथा निमग्नास्ते पङ्का-18 वसन्नाः 'पंके खुत्तगत्ति पके मनाङ्ग मनाः केवलं तत उत्तरीतुमशक्ताः 'वलयमयग'त्ति वलन्तः-संयमाद् भ्रश्यन्तः अथवा ॥८ ॥ बुभुक्षादिना बेल्लन्तो ये मृतास्ते वलन्मृतकाः 'वसट्टमयग'त्ति वशेन-विषयपारतन्त्र्येण ऋता:-पीडिता वशार्ताः, वशं वा दीप अनुक्रम [४४] 4919815+ १मोक्षक प्र० ~ 177~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [४४] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः | विषयपरतन्त्रतां ऋता-गता वशार्तास्ते सन्तो ये मृतास्ते वशार्तमृता वशर्तमृता वा शब्दादिरक्त हरिणादिवदिति 'णियाणमयगत्ति निदानं कृत्वा बालतपश्चरणादिमन्तो ये मृतास्ते तथा 'अंतोसमयगत्ति अनुद्धृतभावशल्या मध्यवर्तिभलया| दिशल्या वा सन्तो ये मृताः 'गिरिपडियग'त्ति गिरे:-पर्वतात्पतिताः गिरिर्वा-महापाषाणः पतितो येषामुपरि ते तथा, एवं तरुपतितकाः, 'मरुपडियग' त्ति मरौ-निर्जलदेशे पतिता ये ते तथा, मरोर्वा - निर्जलदेशावयवविशेषात् स्थलादित्यर्थः पतिता ये ते तथा, 'भरपडियग' त्ति कचित्तत्र भरात् - तृणकर्पासादिभरात्पतिता भरो वा पतितो येषामुपरि ते तथा, 'गिरिपक्खंदोलया' गिरिपक्षे पर्वतपार्श्वे छिन्नटङ्कगिरी वाऽऽत्मानमन्दोलयन्ति ये ते तथा तेषां च तदन्दोलनमन्दोलका स्पातेनात्मनो मरणार्थम् एवं तरुपक्षान्दोलकादयोऽपीति, 'सत्थोवाडियगत्ति शस्त्रेणात्मानमवपाटयन्ति-विदारयन्ति मरणार्थ ये ते तथा, 'बेहाणसिग'ति विहायसि आकाशे तरुशाखादावात्मन उल्लम्बनेन यन्मरणं भवति तद्वैहायसं तदस्ति येषां ते प्राकृतशैलीवशात् वेहाणसिया, 'गिद्धपगति ये मरणार्थ पुरुषकरिकरभ रासभादिकलेवरमध्ये निपतिताः सन्तो गृधैः स्पृष्टास्तुण्डैर्विदारिता वियन्ते ते गृध्रस्पृष्टकाः 'असंकिलिङपरिणाम'त्ति संक्लिष्टपरिणामा हि महार्तरौद्रध्याना वेशेन देवत्वं न लभन्त इति भावः ६ । से जे इमे गामागरणवरणिगमरायहाणिखेडकच्चडमडंबदोणमुह पट्टणासमसंवाहसंनिवेसेसु मणुआ भवंति, | तंजहा - पगइभदगा पगउवसंता पाइपतशुकोह माणमायालोहा मिउमद्दव संपण्णा अल्लीणा विणीआ अम्मा| पिउनुस्मृसका अम्मापिईणं अणतिकमणिज्जवयणा अपिच्छा अप्पारंभा अप्यपरिग्गहा अप्पेणं आरंभेणं Education Interation For Parts Only ~ 178~ www.landbrary.or Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [४४] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः औपपातिकम् 11 22 11 अप्पेणं समारंभेणं अप्पेणं आरंभ समारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणा बहई वासाई आउअं पा ंति पालित्ता कालमासे कालं किया अण्णतरेसु वाणमंतरेसु देवलोएम देवत्ताए उबवत्तारो भवति, तर्हि तेसिं गती तहिं तो ठिती तर्हि तेसिं उवाए पण्णत्ते, तेसि णं भंते ! देवाणं केवइअं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोयमा ! चउदसवास सहस्सा ७ । ४ - 'पगइभद्दग'त्ति प्रकृत्या स्वभावत एव न परानुवृत्त्यादिना भद्रकाः- परोपकारकरणशीलाः प्रकृतिभद्रकाः 'पगइवसंता' इत्यत्र उपशान्ताः - क्रोधोदयाभावात् 'पगइतणुको हमाणमायलोह'त्ति सत्यपि कषायोदये प्रतनुक्रोधादिभावाः 'मिउमद्दवसंपन्न त्ति मृदु यन्मार्दवम् अत्यर्थमहङ्कृतिजयं ये सम्पन्नाः प्राप्तास्ते तथा 'आलीणत्ति आठीना-गुरुमाश्रिताः, 'भद्दग' |त्ति क्वचित्तत्र भद्रका:- अनुपतापकाः सेव्यशिक्षागुणात्, तत एव विनीताः, एतदेवाह - 'अम्मापिऊण सुस्सूसगा' अम्बापित्रोः शुश्रूषकाः- सेवकाः, जत एव 'अम्मापिकणं अणइकमणिज्जवयणा' इहैवं सम्बन्धः - अम्बापित्रोः सत्कमनतिक्रमणीयं वचनं येषां ते तथा, तथा 'अप्पिच्छा' अमहेच्छाः 'अप्पारंभा अप्पपरिग्गह'त्ति इहारम्भः- पृथिव्यादिजीवोपमर्दः कृष्यादिरूपः परिग्रहस्तु धनधान्यादिस्वीकारः, एतदेव वाक्यान्तरेणाह - 'अप्पेण आरंभेग'मित्यादि, इहारम्भो-जीवानां विनाशः | समारम्भ:- तेषामेव परितापकरणं, आरम्भसमारम्भस्त्वेतद्वयं, 'वित्तिं' ति वृत्तिं जीविकां 'कप्पेमाण'त्ति कल्पयन्तः कुर्वाणाः ७॥ १ सय इति प्र० । Education International For Park Use On ~ 179~ उपपात० सू० ३८ ॥ ८८ ॥ war Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम से जाओ इमाओगामागरणयरणिगमरायहाणिखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसंनिवेसेसु इत्थियाओ भवंति, तंजहा-अंतो अंतेउरियाओ गयपइआओ मयपइआओ बालविहवाओ छडितल्लिताओ माइरक्खिाओ पिअरक्खिआओ भायरक्खिआओ कुलघररक्खिआओ ससुरकुलरक्खिाओ परूढणहमंसकेसकक्खरोमाओ ववगयपुष्फगंधमलालंकाराओ अण्हाणगसेअजल्लमलपंकपरिताविआओ ववगय| खीरदहिणवणीअसप्पितेल्लगुललोणमहुमजमंसपरिचत्तकयाहाराओ अप्पिच्छाओ अप्पारंभाओ अप्पपरिग्गहाओ अप्पेणं आरंभेणं अप्पेणं समारंभेणं अप्पेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणीओ अकामवंभचेरवासेणं तमेव पइसेज णाइकमइ, ताओ णं इस्थिआओ एयारूबेणं विहारेणं विहरमाणीओ बहई चासाई || |सेसं तं चेव जाव चउसद्धिं वाप्ससहस्साई ठिई पपणत्ता ८। _ 'से जाओ इमाओ'त्ति अथ या एता 'अंतो अंतेउरियाओं'त्ति अन्तः-मध्ये अन्तःपुरस्येति गम्यं, 'कुलघररक्खियाओं त्ति कुलगृह-पितृगृहं 'मित्तनाइनिययसंबंधिरक्खियाओ'त्ति कचित् , तत्र मित्राणि पितृपत्यादीनां तासामेव वा सुहृदः एवं ज्ञातयो-मातुलादिस्वजना निजका-गोत्रीयाः सम्बन्धिनो-देवरादिरूपाः 'परूढणहकेसकक्खरोमाओ'ति प्ररूढावृद्धिमुपगताः विशिष्टसंस्काराभावानखादयो यासां तास्तथा, पाठान्तरे 'परूढनहकेसमंसुरोमाओ'त्ति इह श्मश्रुणि-कूर्चरोमाणि, तानि च यद्यपि स्त्रीणां न भवन्ति तथापि कासाश्चिदल्पानि भवन्त्यपीति तब्रहणम् , 'अण्हाणगसेयजलमलपंकपरितावाओं' अस्नानकेन हेतुना वेदादिभिः परितापो यासां तास्तथा, तत्र स्वेदा-प्रस्वेदः जल्लो-रजोमानं मल:-कठि [४४] Helunurary.org ~ 180~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [४४] औपपातिकम् ॥ ८९ ॥ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः नीभूतं तदेव पङ्कः-स्वेदेनार्द्रीभूतं तदेव, 'ववगयखीरद हिणवणीय सप्पितेलगुल लोणम हुमज्जमं सपरिचत्तकयाहाराओ' ति व्यपगतानि क्षीरादीनि यतस्तथा परित्यक्तानि मध्वादीनि ३ येन स एवंविधः कृतः - अभ्यवहृत आहारो यकाभिस्तास्तथा, 'तमेव पइसे नाइकमंति' या निधुवनार्थमाश्रीयते तामेव प्रतिशय्यां भर्तृशयनं नातिक्रामन्ति-उपपतिना सह नाऽऽश्रयन्तीति ८ । से जे इमे गामागरणयरणिगमरा यहा णिखेड कन्चडम डंब दोणमुह पट्टणासमसंवाहसन्निवेसेसु मणुआ भव ति, तंजहा- दगबिइया दगतइया दगसत्तमा दगएकारसमा गोअमा गोव्वइआ गिरिधम्मा धम्मचिंतका अविरुद्ध विरुद्धबुहसाब कप्पभिअओ तेसिं मणुआणं णो कप्पइ इमाओ नव रसविगईओ आहारित्तए, तंजहा| खीरं दहिं णवणीयं सपि तेल्लं फाणियं महुं मजं मंसं, पणण्णत्थ एकाए सरसवबिगइए, ते णं मणुआ अपिच्छा तं चैव सव्वं णवरं चउरासीह वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता ९ । 'दगवीय'त्ति ओदनद्रव्यापेक्षया दकम् उदकं द्वितीयं भोजने येषां ते दकद्वितीयाः 'दगतइय'त्ति ओदनादिद्रव्यद्वयापेक्षया दकम् उदकं तृतीयं येषां ते दकतृतीयाः 'दगसत्तम'त्ति ओदनादीनि पर द्रव्याणि दकं च सप्तमं भोजने येषां ते दकसप्तमाः, एवं दगएकारसमा एतदपीति, 'गोतमगोवइय गिहिधम्मधम्मचिंतक अविरुद्धबिरुद्ध बुडु सावगप्पभियओ'त्ति गौतमो-इस्वो बलीवर्दस्तेन गृहीतपादपतनादिविचित्रशिक्षण जनचित्ताक्षेपदक्षेण भिक्षामन्ति ये ते गौतमाः, गोबरयत्ति - गोत्रतं येषामस्ति ते गोत्रतिकाः, ते हि गोषु ग्रामान्निर्गच्छन्तीषु निर्गच्छन्ति चरन्तीषु चरन्ति पिवन्तीषु पिवन्ति Education International For Parts Only ~ 181 ~ उपपात० सू० ३८ ॥ ८९ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत -%A6%95 सूत्रांक [३८] | आयान्तीष्वायान्ति शयानासु च शेरते इति, उक्तं च-"गावीहि समं निग्गमषवेससयणासणाइ पकरेंति । भुंजति जहा गायी तिरिक्खवासं विहाविता ॥१॥" 'गृहिधर्माणों' गृहस्थधर्म एव श्रेयानित्यभिसन्धेर्देवातिथिदानादिरूपगृहस्थधर्मा| नुगताः 'धर्मचिन्तका' धर्मशाखपाठकाः सभासदा इत्यर्थः, 'अविरुद्धाः' वैनयिकाः उक्तं च-"अविरुद्धो विणयकरो देवा इणं पराएँ भत्तीए । जह वेसियायणसुओ एवं अन्नेऽवि नायबा ॥१॥" विरुद्धा-अक्रियावादिनः केचिदात्माद्यनभ्युपग-18 &| मेन बाह्यान्तरविरुद्धत्वात्, वृद्धाः-तापसा वृद्धकाल एव दीक्षाभ्युपगमात्, आदिदेवकालोत्पन्नत्वेन च सकललिङ्गिा नामाद्यत्वात्, श्रावका-धर्मशास्त्रश्रवणाद् ब्राह्मणाः अथवा वृद्धश्रावका ब्राह्मणाः, एते प्रभृतिः-आदिर्येषां ते तैथा, 'णवणीय'ति म्रक्षणं 'सप्पिति घृतं 'फाणिय'ति गुडं 'णण्णत्थ एकाए सरिसबविगईए'त्ति न इति आहारनिषेधः अन्यत्र तां| वर्जयित्वेत्यर्थः, एकस्याः सर्षपविकृतेः सर्षपतैलविकृतरित्यर्थः ९॥ FI से जे इमे गंगाकूलगा पाणपत्था तावसा भवंति, तंजहा-होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जपणई सहुई घालय | साहपउहा दंतुक्खलिया उम्मजका सम्मजका निमज्जका संपक्खाला दक्षिणकूलका उत्तरकुलका संखधमका Mकूलधमका मिगलुद्धका हत्थितावसा उदंडका दिसापोक्विणो वाकवासिणो अंवुवासिणो चिलवासिणो BRE दीप अनुक्रम [४४] गोभिः समं निर्गमप्रवेशशयनाशनादि प्रकुर्वन्ति । भुलते यथा गावस्तियन्यासं विभावयन्तः ॥ १॥ २ अविरुद्धो बिनयकरो 5 &| देवादीनां परया भक्त्या । यथा वैश्यायनसुतः एवमन्येऽपि ज्ञातव्याः ॥ १॥३ मूले अविरुद्धेत्यादितः समासः । ~ 182~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [४४] औपपा-जलवासिणो बेलवासिणो रुक्खमू लिआ अंबुभक्विणो वाउभक्खिणो सेवालभविखणो मूलाहारा कंदातिकम् हारा तयाहारा पत्ताहारा पुष्फाहारा बीयाहारा परिसडियकंदमूलतयपत्तपुप्फफलाहारा जलाभिसेअकढि॥९ ॥ णगायभूया आयावणाहिं पंचम्गितावेहिं इंगालसोल्लियं कंडुसोल्लियं कंठसोल्लियंपिक अप्पाणं करेमाणा बहुई। बासाई परियाय पाउणति बहई वासाई परियायं पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उकोमेणं जोइसिएसु देवेसु | देवत्ताए उववत्तारो भयंति, पलिओवर्म वाससयसहस्समभहि अंठिई, आराहगा?, णो इणढे समढे १०।। . 'गंगाकूलग'त्ति गङ्गाकूलाश्रिताः 'वानप्पत्थ'त्ति वने-अटच्या प्रस्था-प्रस्थान गमनमवस्थानं वा वनप्रस्था सा अस्ति | |येषां तस्यां वा भवा वानप्रस्था:-'ब्रह्मचारी गृहस्थश्च, वानप्रस्थो यतिस्तथे येवभूततृतीयाश्रमवर्तिनः 'होत्तिय'त्ति अग्नि-10 होत्रिकाः 'पोत्तिय'त्ति वस्त्रधारिणः 'कोत्तियत्ति भूमिशायिनः 'जन्नईत्ति यज्ञयाजिनः 'सहइति श्राद्धाः 'थालईत्ति | गृहीतभाण्डाः 'हुंवउत्ति कुण्डिकाश्रमणाः 'दंतुक्खलिय'त्ति फलभोजिनः 'उम्मजकत्ति उन्मजनमात्रेण ये सान्ति संमज्जगत्ति उन्मजनस्यैवासकृत्करणेन ये सान्ति 'निमजकत्ति स्नानार्थ निमन्ना एव ये क्षणं तिष्ठन्ति 'संपक्खाल'त्ति: मृत्तिकादिघर्षणपूर्वकं येऽहं क्षालयन्ति 'दक्षिणकूलगत्ति यैर्गङ्गाया दक्षिणकूल एव वस्तब्यम् 'उत्तरकूलग'त्ति उक्तविपरीताः 'संखधमग'त्ति शङ्खध्मात्वा ये जेमन्ति यद्यन्यः कोऽपि नागच्छतीति 'कूलधमग'त्ति ये कूले स्थित्वा शब्द कृत्वा भुञ्जते 'मियलुद्धय'ति प्रतीता एव, 'हत्थितावसत्ति ये हस्तिनं मारयित्वा तेनैव बहुकालं भोजनतो यापयन्ति 'उडुंडग'ति ऊद्धीकृतदण्डा ये सञ्चरन्ति 'दिसापेक्खिणोत्ति. उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि समुच्चिन्वन्ति ॥९ ॥ L-30-35 ~ 183~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----- मूलं [...३८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [३८] गाथा: वाकवासिणो' त्ति वल्कलवाससः 'चेलवासिणों त्ति व्यक्तं पाठान्तरे 'वेलवासिणो' त्ति समुद्रवेलासन्निधिवासिनः 'जलवासिणो' त्ति ये जलनिमग्ना एवासते, शेषाः प्रतीताः, नवरं 'जलाभिसेयकढिणगाया' इति ये अस्नात्वा न भुञ्जते है स्नानाद्वा पाण्डुरीभूतगात्रा इति वृद्धाः, पाठान्तरे जलाभिषेककठिनं गात्रं भूताः-प्राप्ता ये ते तथा, 'इंगालसोल्लिय' त्ति | अङ्गारैरिव पक्कं 'कंडुसोल्लियं' ति कन्दुपक्वमिवेति पलिओवमं वाससयसहस्समभहिय' ति मकारस्य प्राकृतप्रभवत्वाद्धपार्षशतसहस्राभ्यधिकमित्यर्थः, अथवा पल्योपमं वर्षशतसहस्रमभ्यधिकं च पल्योपमादित्येवं गमनिका ॥१०॥ | से जे इमे जाव सन्निवेसेसु पव्वया समणा भवंति, तंजहा-कंप्पिया कुकुइया मोहरिया गीयरइप्पिया नचणसीला ते णे एएणं बिहारेणं विहरमाणा बहई वासाई सामण्णपरियाय पाउणति पदई वासाई साम-18 |पणपरियायं पाणिशा तस्स ठाणस्स अणालोइअअप्पडिकंता कालमासे कालं किया उफोसेणं सोहम्मे कप्पे | कैदप्पिएम देवेसु देवत्ताए उचवत्तारो भवति, तहिं तेसिंगती तहिं तेसिं ठिती, सेसं तं चेष, णवरं पलिओवर्म बाससहस्समभहियं ठिती ११ । से जे इमे जाव सन्निवेसेसु परिव्यायगा भवति, तंजहा-संखा जोई कविला k|भिउच्चा हंसा परमहंसा पहुउदया कुडिव्वया कण्हपरिवायगा, तत्थ खलु इमे अह माहणपरिग्वाघगा भवति, तंजहा-कण्हे अ करकंडे य, अंबडे य परासरे। कण्हे दीवायणे चेव, देवगुत्ते अणारए ॥१॥ तस्थ खलु इमे अट्ठ खत्तियपरिब्वायया भवति, तंजहा-सीलई ससिहारे(य), णग्गई भग्गई तिअ । विदेहे राया रापी रोपारामे बलेति अ॥१॥ते गं परिब्वायगा रिउब्वेदजमुब्वेदसामवेयअहव्वणवेय इतिहासपंचमाणं दीप अनुक्रम [४४-४८] 64 ~ 184~ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [३८] सू०३८ औपपा Iणिग्घंटण्डाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चजण्हं चेयाणं सारगा पारगा धारगा वारगा सडंगवी सद्वितंतवि-12 जीवोप० तिकम् ||४|| सारया संखाणे सिक्खाकप्पे घागरणे छंदे णिरुत्ते जोतिसामयणे अण्णेसु य भण्णएसु अ सस्थेसु सुप-1४| रिणिहिया यावि हुत्था । तेणं परिव्वायगा दाणधम्मं च सोअधम्मं च तिस्थाभिसेअंच आघवेमाणा पण्ण |वेमाणा परूषमाणा विहरंति, जपणं अम्हे किंचि असुई भवति तपणं उदएण य महिआए अपक्वालि ४ मुई भवति, एवं खलु अम्हे चोक्खा चोक्खायारा सुई सुइसमायारा भवेत्ता अभिसेअजलपूअप्पाणो अवि ग्घेण सग्गं गमिस्सामो, तेसि णं परिवायगाणं णो कप्पइ अगई वा तलायं वा गई वा वाविं वा पुक्ख-13 |रिणी वा दीहियं वा गुंजालिअंचा सरं वा सागरं वा ओगाहित्तए, णण्णस्थ अद्वाणगमणे, णो कप्पह सगड वा जाव संदमाणिों वा दुरुहिता णं गच्छित्तए,तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पड आसं वा हस्थि वा उ वा गोणिं वा महिसं चा खरं वा दुरुहिता णं गमित्तए, तेसि णं परिवायगाणं णो कप्पड़ नडपेच्छा इ वा| |जाव मागहपेच्छा इ वा पिच्छित्तए, तेर्सि परिवायगाणं णो कप्परहरिआणं लेसणया वा घणया या धंभ-IN णया वा लूसणया वा उप्पाडणया वा करित्तए, तेसिं परिवायगाणं णो कप्पड इथिकहा इ वा भत्सकहा इवा ॥९ ॥ | देसकहा वारायकहा इ वा चोरकहा इ वा अणस्थदंड करित्सए, तेसि परिब्वायगाणं णो कप्पह अयपायाई वा तउअपायाणि वा तंवपायाणि वा जसदपायाणि वा सीसगपायाणि वा रुप्पपायाणि वा सुवण्णपायाणि वा अण्णयराणि वा बहुमुल्लाणि वा धारित्तए, णण्णत्व लाउपाएण वा दारुपाएण वा महिआपाएण वा, तेसि 68554ॐ गाथा: दीप अनुक्रम [४४-४८] 1-500 -600-5 ~ 185~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: + प्रत + सूत्राक + [३८] + +- गाथा: णं परिवायगाणं णो कप्पइ अयबंधणाणि वा तउअबंधणाणि वा तंबबंधणाणि जाव बहुमुल्लाणि धारित्तए, तेसि णं परिवायगाणं णो कप्पड़ णाणाविहवण्णरागरत्ताई वस्थाई धारिसए, णपणत्थ एकाए धाउरत्साए, तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पड हारं वा अद्भहारं वा एकावलिं वा मुत्तावलिं वा कणगावलि वा रयणाबलि वा मुरविं वा कंठमुरविं वा पालंबं घा तिसरयं वा कडिसुत्तं वा दसमुद्दिआणतकं वा कडयाणि वा तुडियाणि वा अंगयाणि वा केजराणि वा कुंडलाणि वा मउडं वा चूलामणिं वा पिणद्वित्तए, णण्णस्य एकेणं तंबिएणं पवित्तएणं, तेसि णं परिवायगाणंणो कप्पइ गंथिमवेढिमपूरिमसंघातिमे चउव्यिहे मल्ले धारित्तए, णपणत्थ एगेणं कण्णपूरेणं, तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ अगलुएण वा चंदणेण वा कुंकुमेण वा गायं अणुलिंपित्तए, णपणत्थ एकाए गंगामहिआए, तेसि णं कप्पद मागहए पत्थए जलस्स पडिगाहित्तए, सेऽधिय वहमाणे णो चेव णं अवहमाणे, सेविय थिमिओदए णो चेव णं कद्दमोदए, सेऽविय बहुपसण्णे णो| चेव णं अबहुपसण्णे, सेविय परिपूए णो चेव णं अपरिपूए, सेविय णं दिण्णे नो चेव णं अदिपणे, सेऽविय पिवित्तए णो चेव णं हस्थपायचरुचमसपक्खालणाए सिणाइत्तए वा, तेसि णं परिवायगाणं कप्पड मागहए अदाढए जलस्स पडिग्गाहित्तए, सेऽविय वहमाणे णो चेव णं अवहमाणे जाव णो चेव णं अदिपणे, सेऽधिय हत्थपायचरुचमसपक्खालणट्टयाए णो चेव णं पिवित्तए सिणाइत्तए चा, ते णं परिवायगा एयारूपेणं विहारेणं | विहरमाणा बहू वासाई परियाय पाउणति बहूई वासाई परियाय पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्को-II दीप अनुक्रम [४४-४८] CARSA ~ 186~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] गाथा: औपपा- सेणं बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववत्सारो भवति, तहिं तेसिं गई तहि तसिं ठिई दस सागरोवमाई ठिई। परिवाजा तिकम् पिण्णत्ता, सेसं तं चेच १२॥ (सू० ३८-)॥ ॥ ९२॥ पछड़या समण' ति निर्गन्धा इत्यर्थः, 'कंदप्पिय' त्ति कान्दर्पिकाः-नानाविधहासकारिणः 'कुकइय' त्ति कुकुचेनकुत्सितावस्पन्देन चरन्तीति कीकुचिकाः, ये हि धूनयनवदनकरचरणादिभिभाण्डा इव तथा चेष्टन्ते यथा स्वयमहसन्त एवं परान् हासयन्तीति 'मोहरिय' त्ति मुखरा-नानाविधासम्बद्धाभिधायिनस्त एव मौखरिकाः 'गीयरइपिय' त्ति गीतेन | या रती-रमणं क्रीडा सा प्रिया येषां गीतरतयो वा लोकाः प्रिया येषां ते तथा 'सामण्णपरियागं' ति श्रामण्यपर्याय। साधुत्वमित्यर्थः 'पाउणति' त्ति प्रापयन्ति पूरयन्तीत्यर्थः ११॥ 'परिवायग'त्ति मस्करिणः 'संख' त्ति साझयाः बुद्ध्यहङ्कारादिकार्यग्रामवादिनः प्रकृतीश्वरयोः जगत्कारणत्वमभ्युपगताः 'जोई' त्ति योगिनः अध्यात्मशास्त्रानुष्ठायिनः 'कविल' ति8 कपिलो देवता येषां ते कापिलाः, साझ्या एव निरीश्वरा इत्यर्थः, 'भिउच्च' त्ति भृगुः-लोकप्रसिद्ध ऋषिविशेषस्तस्यैते शिष्या 11 इति भार्गवाः, 'हंसा परमहंसा बहुउदगा कुलिबया' इत्येते चत्वारोऽपि परिव्राजकमते यतिविशेषाः, तत्र हंसा ये पर्वत-12 | कुहरपधाश्रमदेवकुलारामवासिनो भिक्षार्थं च ग्राम प्रविशन्ति, परमहंसास्तु ये नदीपुलिनसमागमप्रदेशेषु वसन्ति चीरको पीनकुशांश्च त्यक्त्वा प्राणान् परित्यजन्ति, बहूदकास्तु ग्रामे एकरात्रिका नगरे पञ्चरात्रिकाः प्राप्तभोगांश्च ये भुञ्जन्त इति, l कुटीव्रता:-कुटीचरा, ते च गृहे वर्तमाना व्यपगतक्रोधलोभमोहाः अहङ्कारं वर्जयन्तीति, 'कण्हपरिवायग' त्ति कृष्णपरित्रा जकाः परिव्राजकविशेषा एव, नारायणभक्तिका इति केचित् , कण्ड्वादयः षोडश परिव्राजका लोकतोऽवसेयाः, 'रिउवेदज SCSCRACASSES दीप अनुक्रम [४४-४८] ~ 187~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३८] + गाथाः दीप अनुक्रम [४४-४८] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [...३८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः जुवेदसामवेयअहह्मणवेद' ति इह षष्ठीबहुवचनलोपदर्शनात् ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदाथर्ववेदानामिति दृश्यं, 'इतिहासपंचमाणं' ति इतिहासः पुराणमुच्यते 'निग्धंडुछद्वाणं' ति निर्घण्डुः- नामकोशः 'संगोवंगाणं' ति अङ्गानि - शिक्षादीनि उपाङ्गानि-तदुकप्रपञ्चनपराः प्रबन्धाः 'सरहस्साणं' ति ऐदम्पर्ययुक्तानामित्यर्थः 'चउण्डं वेयाणं' ति व्यक्तं 'सारय' त्ति अध्यापनद्वारेण प्रवर्तकाः स्मारका वा अन्येषां विस्मृतस्य स्मारणात् 'पारय' ति पर्यन्तगामिनः 'धारय' त्ति धारयितुं क्षमाः 'सडंगवी 'ति षडङ्गविदः- शिक्षादिविचारकाः 'सद्वितंतविसारय' त्ति कापिलीयतन्त्रपण्डिताः 'संखाणे' ति सङ्ख्याने- गणितस्कन्धे सुप रिनिष्ठिता इति योगः, अथ षडङ्गानि दर्शयन्नाह 'सिक्खाकप्पे' त्ति शिक्षा च- अक्षरस्वरूपनिरूपकं शास्त्रं कल्पश्च तथाविधसमाचारनिरूपकं शास्त्रमेवेति शिक्षाकल्पस्तत्र, 'वागरणे' त्ति शब्दलक्षणशास्त्रे 'छंद' त्ति पद्यवचनलक्षणशास्त्रे 'निरुत्ते' ति शब्दनिरुक्तिप्रतिपादके 'जोइसामयणे' त्ति ज्योतिषामयने ज्योतिःशास्त्रे अन्येषु च बहुषु 'बंभण्णएसु यत्ति ब्राह्मणकेषु च वेदव्याख्यानरूपेषु ब्राह्मणसंबन्धि शास्त्रेष्वागमेषु वा, वाचनान्तरे 'परिवायएस व नएसु' त्ति परिब्राजकसम्बन्धिषु च नयेषु-न्यायेषु 'सुपरिनिडिया यावि होत्थ' त्ति सुनिष्णाताश्चाप्यभूवन्निति, 'आघवेमाण' त्ति आख्यायन्तः कथयन्तः 'पण्णवेमाण' त्ति बोधयन्तः 'परूयेमाण' त्ति उपपत्तिभिः स्थापयन्तः 'चोक्खा चोक्खायार'त्ति चोक्षा-विमल देहनेपथ्याः चोक्षाचारा- निरवद्यव्यवहाराः किमुक्तं भवतीत्याह- 'सुई सुईसमायर'त्ति, 'अभिसेयजलपूयप्पाणोति अभिषेकतो जलेन पूयत्ति पवित्रित आत्मा यैस्ते तथा 'अविग्घेणं' विनाभावेन, 'अगडं व 'ति अवटं कूपं 'वाविंव'त्ति वापी चतुरस्रजलाश यविशेष: 'पुक्खरिणीं वत्ति पुष्करिणी वर्तुलः स एव पुष्करयुक्तो वा 'दीहियं वत्ति दीर्घिका-सारणी 'गुंजालियं वत्ति Education International For Pass Use Only ~ 188~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक तिकम् [३८] ॥१३॥ गाथा: औपपा-13 गुजालिका-घसारणी 'सरसिं वत्ति क्वचिदृश्यते तत्र महत्सरः सरसीत्युच्यते, 'नण्णस्थ अद्धाणगमणेणं'ति न इति यो || परिव्राज. निषेधः सोऽम्यवाध्वगमनादित्यर्थः, 'सगडं वे'त्यत्र यावत्करणादिदं दृश्य-रहं वा जाणं वा जुग्ग वा गिलि वा थिलिं वा पवणं वा सीयं वेति एतानि च प्रागिव व्याख्येयानीति, 'हरियाणं लेसणया वत्ति संश्लेषणता 'घट्टणया वत्ति साटन | I 'थंभणया वत्ति स्तम्भनम्-उर्वीकरणं 'लूसणया वत्ति क्वचित्तत्र लूपण-हस्तादिना पनकादेः सम्मार्जनं 'उष्पाडणया वा' उन्मूलनं, 'अयपायाणि वेत्यादिसूत्रे यावत्करणात् पुकसीसकरजतजातरूपकाचवेडन्तियवृत्तलोहकसलोहहारपुटकरीतिकामणिशाकदन्तचर्मचेलशैलशब्दविशेषितानि पात्राणि दृश्यानि, 'अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि महद्धणमोल्लाई' इति च दृश्यं 3 तत्रायो-लोहं रजत-रूप्यं जातरूपं-सुवर्ण काचः-पाषाणविकारः बेडंतियत्ति-रूढिगम्यं वृत्तलोह-त्रिकुटीति यदुग्ग्यते | कांस्थलोह-कांस्यमेव हारपुटक-मुक्ताशुक्तिपुटं रीतिका-पीतला अन्यतराणि वा एषां मध्ये एकतराणि एतव्यतिरिक्तानि वा तथाप्रकाराणि भोजनादिकार्यकरणसमर्थानि महत्-प्रभूतं धनं-द्रव्यं मूल्य-प्रतीतं येषां तानि तथा अलावुपाएणं'ति अलाबुपात्रात् तुम्बकभाजनादित्यर्थः,तथा अयबन्धणाणि वे'त्यत्र यावरकरणात् त्रपुकवन्धनादीनि शैलबन्धनान्तानि पात्राणि | दृश्यानि, 'अण्णयराई तहप्पगाराई महणमुताई' इत्येतच्च दृश्यमिति, पुस्तकान्तरे समग्रमिदं सूत्रद्वयमस्त्येवेति, 'णण्णत्थ |एगाए धाउरत्ताएत्ति इह युगलिकयेति शेषो दृश्यः, हारादीनि प्राग्वत् , नवरं 'दसमुद्दियार्णतय'ति रूढशब्दत्वादस्य हस्ताङ्गुलीमुद्रिकादशकमित्यर्थः, 'पवित्तएण'त्ति पवित्रकम्-अङ्गुलीयकं 'गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमेत्ति प्रन्थिम-मन्थनेन निर्वृत्त मालारूपं वेष्टिम-मालावेष्टननिर्वृत्तं पुष्पलम्बूसकादि पूरिम-पूरणनिर्वृत्तं वंशशलाकाजालकपूरणमयमिति सङ्का दीप अनुक्रम [४४-४८] % 84545455-45-45-45-45 ~189~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [३८] गाथा: तिम-सङ्घातेननिवृत्तम् इतरेतरस्य नालप्रवेशनेन मल्लेत्ति-माल्यानि मालायां साधूनि तस्यै हितानि वेति पुष्पाणीत्यर्थः 'कण्णपूरएणति कर्णपूरकः-पुष्पमयः कर्णाभरणविशेषः 'मागहए पत्थए'त्ति दो असईओ पसई दोहिं पसईहिं सेइया होइ । चउसेइओ उ कुलओ चउकुलओ पत्थओ होइ॥१॥ चउपत्थमाढयं तह चत्तारि य आढया भवे दोणो' इत्यादिमानलक्षणलक्षितो मागधप्रस्था, 'सेऽवि य वहमाणए'त्ति तदपि च जलं वहमान नद्यादिश्रोतोवत्ति व्याप्रियमाणं बा, 'थिमिओदए'त्ति स्तिमितोदकं यस्याधः कर्दमो नास्ति 'बहुपसन्नेत्ति बहुप्रसन्नम्-अतिस्वच्छं 'परिपूए'त्ति परिपूतं वस्त्रेण गालितं 'पिवि त्तए'त्ति पातुं 'चरुचमस'त्ति चरु:-स्थालीविशेषश्चमसो-दर्विकेति १२ ॥ ३८॥ *| तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिवायगस्स सत्त अंतेवासिसयाई गिम्हकालसमयंसि जेट्टामूलकामासंसि गंगाए महानईए उभओकूलेणं कंपिल्लपुराओ णयराओ पुरिमतालं जयरं संपडिया विहाराए, तए । [णं तेसिं परिब्वायगाणं तीसे अगामियाए छिपणोवायाए दीहमद्धाए अडवीए कंचि देसंतरमणुपत्ताणं से पुब्बग्गहिए उदए अणुपुब्वेणं परिझुंजमाणे झीणे, तए णं ते परिवाया झीणोदगा समाणा तहाए पारब्भमाणापार २उदगदातारमपस्समाणा अण्णमण्णं सदावतिसद्दाबित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्ह इमीसे अगामिआए जाव अडवीए कंचि देसंतरमणुपत्ताणं से उदय जाव झीणे तं सेयं खलु देवाणु १ द्वे असती प्रसूतिः द्वाभ्यां प्रमृतिभ्यां सेतिका भवति । चतुःसेतिकस्तु कुलवश्चतुष्कुलयः प्रस्थो भवति ॥ १ ॥ चतुष्पस्थमाढकं तथा चत्वारि आदकानि भवेद द्रोणः ॥ दीप अनुक्रम [४४-४८] अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~190~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१२) -------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अम्बड. प्रत सू०३९ सूत्रांक [३९] दीप औपपा- प्पिया! अम्ह इमीसे अगामियाए जाव अडवीए उदगदाताररस सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करित्तए तिकम् त्तिकट्ठ अण्णमण्णस्स अंतिए एअम पडिसुणंति रत्ता तीसे अगामियाए जाव अडवीए उद्गदातारस्स सब्बओ समता मग्गणगवेसणं करेइ करित्ता उदगदातारमलभमाणा दोचंपि अण्णमण्णं सहावेन्ति सदावेत्ता एवं चयासी-इह णं देवाणुप्पिया! उद्गदातारो णत्थि तं णो खलु कप्पइ अम्ह अदिण्णं गिण्हित्तए अदिण्णंद सातिजित्तए, तं मा णं अम्हे इयाणिं आवइकालंपि अदिपणं गिण्हामो अदिण्णं सादिजामो मा || अम्हं तवलोवे भविस्सइ, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! तिदंडयं कुंडियाओ य कंचणियाओ। |य करोडियाओ य भिसियाओ य छपणालए य अंकुसए य केसरीयाओ य पवित्तए य गणेत्तियाओ य छत्तए य वाहणाओ य पाउयाओ य धाउरत्ताओ य एगते एडित्ता गंगं महाणई ओगाहित्ता वालुअ-2 |संधारए संथरित्ता संलेहणाझोसियाणं भत्तपाणपडियाइक्खियाणं पाओवगयाणं कालं अणवखमा-15 णाणं विहरित्तएत्तिकट्ठ अण्णमण्णस्स अंतिए एअमठं पडिसुणंति, अण्णमण्णस्स अंतिए० पडिसुणित्ता तिर्दडए य जाव एगते एडेइ २ गंगं महाणई ओगाहेतिरत्ता वेलुआसंधारए संथरंति वालुयासंथारयं दुरुहिंति, वारत्ता पुरत्याभिमुहा संपलियंकनिसन्ना करयलजावकटु एवं वयासी-मोऽत्थु णं अरहंताणं जाव संपदत्ताणं, नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स, नमोऽत्थुणं अम्मडस्स परिव्वाय गस्स अम्हं धम्मायरियस्स धम्मोबदेसगस्स, पुर्वि णं अम्हे अम्मडस्स परिव्वायगस्स अंतिए थूलगपाणाइ अनुक्रम [४९] ॥९४॥ अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~191~ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [४९] वाए पच्चक्खाए जावजीवाए मुसावाए अदिण्णादाणे पञ्चक्खाए जावजीवाए सब्वे मेहुणे पचक्खाए जाव-18 * जीवाए थूलए परिग्गहे पचक्खाए जावज्जीवाए इयाणिं अम्हे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सब्बं । पाणाइवायं पचक्खामो जावजीवाए एवं जाब सव्वं परिग्गहं पचक्खामो जावज्जीवाए सव्वं कोहं माणं मायं लोहं पेजं दोसं कलहं अभक्खाणं पेसुण्णं परपरिवायं अरहरई मायामोसं मिच्छादसणसलं अकर|णिज्न जोगं पचक्खामो जावजीवाए सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चउव्विहंपि आहारं पञ्चक्खामो जावजीवाए जंपि य इमं सरीरं इहं कत पियं मणुषणं मणामं थेज़ वेसासियं संमतं बहुमतं अणुमतं भंडकरंडग समाणं मा णं सीयं मा णं उपहं मा णं खुहा मा णं पिवासा मा णं वाला मा णं चोरा मा णं दंसा मा णं *मसगा मा गं वातियपित्तियसंनिवाइयविविहा रोगातका परीसहोवसग्गा फुसंतुसिकटु एयंपिणं चरमेहि ऊसासणीसासेहिं वोसिरामित्तिकट्ठ संलेहणाझसणाझूसिया भत्तपाणापडियाइक्खिया पाओवगया कालं अणवखमाणा विहरंति, तए णं ते परिवाया बहुई भत्ताई अणसणाए छेदेन्ति छेदिसा आलोइअपडिकता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववण्णा, तहिं तेसिं गई दससागरोवमाई ठिई है | पपणत्ता, परलोगस्स आराहगा, सेसं तं चेव १३ (सू०३९)॥ ___ अथ ये चरकपरिव्राजका ब्रह्मलोकं गतास्तदुपदर्शनेनाधिकृतार्थ समर्थयन्नाह-'तेण' मित्यादि व्यक्तं, नवरं 'जेहामूलमासंसित्ति ज्येष्ठा मूलं वा नक्षत्रं पौर्णमास्यां यत्र स्यात् स ज्येष्ठामूलो मासः, ज्येष्ठ इत्यर्थः, 'अगामियाए'त्ति अविद्यमा %.54%-50-560564545%25%25% अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~ 192~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [४९] मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः औपपातिकम् ॥ ९५ ॥ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) नग्रामायाः 'छिन्नावाएत्ति छिन्ना-व्यवच्छिन्नाः आपाताः - सार्थगोकुलादिसम्पाता यस्यां सा तथा तस्याः 'दीहमद्धाए'ति दीर्घाध्वन दीर्घमार्गाया इत्यर्थः 'सद्दाविति त्ति शब्दयन्ति-सम्भाषन्ते 'मग्गणगवेसणं'ति मार्गणं च - अन्वय धर्मैरन्वेषणं गयेपणं च व्यतिरेकधर्मैरन्वेषणमेवेति मार्गणगवेषणं 'साइज्जित्तए' सि स्वादयितुं भोक्तुमित्यर्थः, कचित्तु 'अदिन्नं साइजित्तपत्ति पाठः, तत्र 'भुंजित्तए'त्ति भोकुं 'साइजित्तए'त्ति भोजयितुं भुञ्जानं वाऽनुमोदयितुमिति व्याख्येयं, 'तिदंडए'त्ति त्रयाणां दण्डकानां समाहारस्त्रिदण्डकानि 'कुंडियाओ य'त्ति कमण्डलय: 'कंषणियाओ यत्ति काञ्चनिकाः- रुद्राक्षमयमालिकाः 'करोडियाओ यति करोटिका :- मृण्मयभाजनविशेषाः 'भिसियाओ यत्ति वृषिका उपवेशनपट्टडिकाः छण्णालए यत्ति पण्नालकानि त्रिकाष्ठिकाः 'अंकुसाए यत्ति अङ्कुशकाः- देवार्थनार्थं वृक्षपलवाकर्षणार्थं अङ्कुशकाः 'केसरियाओ य' त्ति केशरिका:-प्रमार्जनार्थानि चीवरखण्डानि 'पवित्तए यत्ति पवित्रकाणि-ताम्रमयान्यङ्गुलीयकानि 'गणेत्तियाओ यत्ति गणेत्रिका:- हस्ताभरणविशेषः छत्रकाण्युपानश्च प्रतीताः, 'घाउरत्ताओ यत्ति धातुरका गैरिकोपरञ्जिताः शाटिका इति गम्यं, 'पडिसुणेन्ति'त्ति प्रतिशृण्वन्ति-अभ्युपगच्छन्ति, 'संपलियंक निसन्न'त्ति सम्पर्यङ्कः- पद्मासनं प्राणातिपातादिव्याख्या पूर्ववत् शरीरविशेषणव्याख्या त्वेवम्--' इति वलभं 'कंस'ति कान्तं काम्यत्वात् 'पिय'त्ति प्रियं सदा प्रेमविषयत्वात् 'मणुष्णं' ति मनोज्ञं- सुन्दरमित्यर्थः, 'मणोमं'ति मनसा अम्यते प्राप्यते पुनः पुनः संस्मरणतो यत्तन्मनोऽमं 'पेज्जं 'ति सर्व| पदार्थानां मध्ये अतिशयेन प्रियत्वात् प्रेयः, प्रकर्षेण या इज्या पूजाऽस्येति प्रेज्यं, प्रेर्य वा कालान्तरनयनात्, 'थेज'ति | क्वचित्तत्र स्थैर्यम्, अस्थिरेऽपि मूढैः स्थैर्यसमारोपणात्, 'वेसा सियं'ति विश्वासः प्रयोजनमस्येति वैश्वासिकं, परशरीरमेव हि Eucation International अंबड-परिव्राजकस्य कथा For Parts Only ~ 193~ अम्बड ० सू० ३९ ॥ ९५ ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] दीप प्रायेणाविश्वासहेतुर्भवतीति,'समय'ति सम्मतं तत्कृत कार्याणां सम्मतत्वात् 'बहुमयंति बहुशो बहूनां वा मध्ये मतम्-इष्टं यत्त बहुमतम् 'अणुमय'ति वैगुण्यदर्शनस्यापि पश्चान्मतमनुमतं 'धुंडकरंडगसमाण'ति आभरणकरण्डकतुल्यमुपादेयमित्यर्थः, तथा | Fil'मा णं सीय' मित्यादि व्यक्तं, नवरं माशब्दो निषेधार्थः, णकारो वाक्यालङ्कारार्थः, इह च स्पृशत्विति यथायोग योजनीयम् , अथवा'मा 'तिमा एतच्छरीरमिति व्याख्येयं, माणं वालत्ति व्यालाः-श्वापदभुजगारोगायकत्ति रोगा:-कालमहाव्याधयः आतङ्काः-त एव सद्योघातिनः 'परीसहोवसग्ग'त्ति परीपहा:-क्षुदादयो द्वाविंशतिः उपसर्गा-दिव्यादयः 'फुसंतु' स्पृशन्तु इतिकट्ठत्ति इतिकृत्वा इत्येवमभिसन्धाय यत्पालितमिति शेषः, 'एयपि णति एतदपि शरीरं 'वोसिरामित्ति कटु' इत्यत्र त्तिकट्ठत्ति-इतिकृत्वा इति विसर्जनं विधाय विहरन्तीति योगः, 'सलेहनाथूसियत्ति संलेखना-शरीरस्य तपसा कृशीकरणं तां । तया वा 'झूसिअ'त्ति जुष्टा वा सेविता येते तथा 'संलेहणझूसणाझूसिय'त्ति कचित् तत्र संलेखनायां-कषायशरी-15 * रकृशीकरणे या जोषणा-प्रीतिः सेवा वा 'जुषी प्रीतिसेवनयो' रिति वचनात् सा तथा तया तां या ये जुष्टाः-सेवितास्ते & तथा संलेखनाजोषणाया वा झूसियत्ति-दूषिताः क्षीणा येते तथा, 'भत्तपाणपडियाइक्खिय'त्ति प्रत्याख्यातभक्तपानाः BI'पाओवगया' पादपोपगता वृक्षवनिष्पन्दतयाऽवस्थिता इत्यर्थः, 'कालं अणवर्कखमाण'त्ति मरणमनवका इन्क्षन्तः, आका-12 क्षन्ति हि मरणमतिकष्टं गताः केचनेति तनिषेध उक्तः 'अणसणाए छेइंति'त्ति अनशनेन व्यवच्छिन्दन्ति-परिहरन्तीत्यर्थः, &ाएते च यद्यपि देशविरतिमन्तस्तथापि परिव्राजकक्रियया ब्रह्मलोकं गता इत्यवसेयम्, अन्यथैतगणनं वृथैव स्याद्, देश अनुक्रम [४९] अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~194~ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: बडा औपपातिकम् प्रत सूत्रांक [३९] HAKAKKAR विरतिफलं त्वेषां परलोकाराधकत्वमेवेति, न च ब्रह्मलोकगमनं परिव्राजकक्रियाफलमेषामेवोच्यते, अन्येषामपि मिथ्या-51 ४ दृशां कपिलप्रभृतीनां तस्योक्तत्वादिति १३ ॥ ३९॥ ..बहुजणे गं भंते ! अण्णमपणस्स एवमाइक्खइ एवं भासह एवं परूवेइ एवं खलु अंबडे परिव्वायए कंपिलपुरे णयरे घरसते आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उबेइ, से कहमेयं भंते ! एवं?, गोयमा!, जपणं से बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ-एवं खलु अम्मडे परिब्वायए कंपिल्लपुरे जाव घरसए वसहि ट्र उवेद, सचे णं एसमडे, अहंपिणं गोयमा! एवमाइक्खामि जाव एवं परूवेमि-एवं खल अम्मडे परिब्वायए|| जाव वसहिं उबेइ । से केणढे णं भंते ! एवं चुचइ-अम्मडे परिब्वायए जाव वसहिं उचेह, गोयमा!, अम्मडस्स णं परिब्वायगस्स पगइभद्दयाए जाव विणीयाए छटुंछठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उडे वाहाओ गिज्झिय २ सूराभिमुहस्स आतावणभूमीए आतावेमाणस्स सुभेणं परिणामेणं पसत्थाहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं अन्नया कयाइ तदावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहाबूहामग्गणगवेसणं करेमाणस्स वीरि-15 यलद्धीए वेठब्वियलद्धीए ओहिणाणलद्धी समुप्पण्णा, तए णं से अम्मडे परिव्वायए ताए वीरियलडीए ॥९६॥ उब्वियलद्धीए ओहिणाणलडीए समुप्पण्णाए जणविम्हावणहेर्ड कंपिल्लपुरे घरसए जाव धसहि उवेइ, से तेणट्टेणं गोयमा! एवं वुचई-अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए जाव वसहिं उवेइ । पह णं भंते? दीप अनुक्रम [४९] ***** अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~1954 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम अम्मडे परिष्वायए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्बइत्तए?, णो इणड्डे समहे, | गोयमा! अम्मडे गं परिब्वायए समणोवासए अभिगयजीवाजीचे जाव अप्पाणं भावमाणे विहरह, णवरं जसियफलिहे अवंगुदुवारे चियत्तंतेउरघरदारपवेसी ण वुच्चइ अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स थूलए पाणाइवाए पञ्चक्खाए जावज्जीवाए जाव परिग्महे णवरं सव्वे मेहुणे पचक्खाए जावज्जीवाए, अम्मडस्स णं णो कप्पड़ अक्खसोतप्पमाणमेतंपि जलं सयराहं उत्तरित्तए णण्णस्थ अद्धाणगमणेणं, अम्मडस्स ण णो कप्पइ सगई एवं चेव भाणियन्वं जाव णण्णत्व एगाए गंगामट्टियाए, अम्मडस्स णं परिब्वायगस्स णो कप्पइ आहाक|म्मिए वा उद्देसिए वा मीसजाए इवा अज्झोअरए इ वा पूइकम्मे इ वा कीयगडे इ वा पामिचे इ वा अणिसिहे इ वा अभिहडे इ वा ठहत्तए वा रइत्तए वा कंतारभत्ते इ वा दुबिभक्खभत्ते इ वा पाहुणगभत्ते इ वा | गिलाणभत्ते इ वा वद्दलियाभत्ते इ वा भोत्तए वा पाइत्तए वा, अम्मडस्स णं परिब्वायगस्स णो कप्पद मूल भोयणे वा जाव बीयभोयणे वा भोत्तए वा पाइत्तए वा, अम्मडस्स णं परिब्वायगस्स चउब्धिहे अणत्थदंडे पञ्चक्खाए जावज्जीवाए, तंजहा-अवज्झाणायरिए पमायायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोवएसे, अम्मडस्स कप्पड़ मागहए अहाढए जलस्स पडिग्गाहित्तए सेऽविय वहमाणए नो चेव णं अवहमाणए जाव सेऽविय पूए नो चेव णं अपरिपूए सेविय सावजेत्तिकाऊंणो चेव णं अणवजे सेविय जीवा इतिकट्ट णो चेव १ नेदं प्रत्यन्तरे णबरमित्यावितः. [१०] अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~196~ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [५० ] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः औपपातिकम् ॥ ९७ ॥ णं अजीवा सेऽविय दिण्णे णो चेव णं अदिष्णे सेऽविय दंतहत्थपायचरुचमसपकखालणट्टयाए पिवित्तए वा णो चेव णं सिणाइसए, अम्मडस्स कप्पड़ मागहुए य आढए जलस्स पडिग्गाहित्तए, सेऽविय वहमाणे जाव दिने नो चेव णं अदिष्णे सेऽविय सिणाइत्तए णो चेव णं हृत्थपायचरुचमसपक्खालणट्टयाए पिबित्तए वा, | अम्मडस्स णो कप्पड़ अन्नउत्थिया वा अण्णउत्थियदेवयाणि वा अण्णउत्थियपरिग्गहियाणि वा चेहयाई वंदित्तए वा णमंसित्तए वा जाव पज्जुवासित्तए वा णण्णत्थ अरिहंते वा अरिहंतचेहयाई वा । अम्मडे णं भंते ! परिव्वायए कालमासे कालं किया कहिं गच्छहिति ? कहिंडववज्जिहिति ?, गोयमा ! अम्मडे णं परिब्वायए उद्यावहिं सीलब्वयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोब वासेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई सम गोवासयपरियायं पाणिहिति २त्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं सित्ता सहि भत्ताई अणसणाए - | दित्ता आलोइयपडिते समाहिपत्ते कालमासे कालं किया बंभलोए कप्पे देवत्ताए उबवज्जिहिति, तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं अम्मडस्सवि देवस्स दस सागरोवमाई ठिई । से णं भंते ! अम्मडे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिक्खएणं अनंतरं चयं चत्ता कहिं गच्छहिति कहिं उबवज्जिहिति ?, गोयमा। महाविदेहे वासे जाई कुलाई भवंति अढाई दित्ताई वित्ताई | विच्छिण्णविउदभवणसयणासणजाणवाहणाई बहुधणजायरूवरपयाई आओगपभोगसंपउत्तारं विच्छडिपपरभत्तपाणाई बहुदासीदास गोमहि सगवेल गप्पभूपाई बहुजणस्स अपरिपाई तहप्पगारेसु कुलेसु Education Internationa अंबड-परिव्राजकस्य कथा For Parts Only ~ 197 ~ अम्मडा० सू० ४० ॥ ९७ ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४०] पुमत्ताए पञ्चायाहिति । तए णं तस्स दारगस्स गन्भत्थस्स चेव समाणस्स अम्मापिईणं धम्मे दवा पतिण्णा भविस्सइ, से णं तस्थ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणराइंदियाणं वीइकंताणं सुकुमालपाणिपाए जाव ससिसोमाकारे कंते पियदसणे सुरूवे दारए पयाहिति, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे ४ दिवसे ठिइवडियं काहिंति, विइयदिवसे चंदसरदंसणियं काहिंति, छढे दिवसे जागरियं काहिति, एक्कार-18 समे दिवसे वीतिकते णिब्वित्ते असुहजायकम्मकरण संपत्ते चारसाहे दिवसे अम्मापियरो इमं एपारूवं गोणं गुणणिफण्णं णामधेनं काहिति-जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गम्भत्थंसि चेव समाणंसि धम्मे दढपइण्णा तं होउ णं अहं दारए ढपइपणे णामेणं, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेनं करेहिंति| दढपइण्णेत्ति । तं दृढपदण्णं दारगं अम्मापियरो साइरेगऽवासजातगं जाणित्ता सोभणसि तिहिकरण| णक्खत्तमुहुतंसि कलायरियस्स उवणेहिंति । तए णं से कलायरिए तं दढपइपणं दारगं लेहाइयाओ गणि-12 ४ यप्पहाणाओसउणरूयपज्जवसाणाओबावत्तरि कलाओमुत्ततो यअस्थतो य करणतोय सेहाविहिति सिखा-18 &| विहिति, तंजहा-लेहं गणितं रूवं णदं गीयं वाइयं सरगयं पुक्खरगयं समतालं जूयं जणवायं पासकं अट्ठावयं पोरेकर्च दगमट्टियं अण्णविहिं पाणविहिं वत्थविहिं विलेचणविहिं सयणविहिं अजं पहेलियं मागहियं गाह गीइयं सिलोयं हिरण्णजुत्ती सुवण्णजुत्ती गंधजुत्ती चुण्णजुत्ती आभरणविहिं तरुणीपडिकम्मं इत्थि १ दुक्खवज्ञातंति प्र० CRORECANSASARASTRA दीप अनुक्रम [५०] अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~ 198~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा प्रत तिकम् सूत्रांक ॥९८॥ [४०] दीप अनुक्रम लक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्षणं कुकुडलक्खणं चकलक्खणं उत्सलक्खणं चम्म-3 अम्म |लक्खणं दंडलक्षणं असिलक्षणं मणिलक्खणं काकणिलक्षणं वत्थुविज खंधारमाणं नगरमाण वधुनिवेसणं | वह पडिरचार पडिचारं चक्कवूह गहलवूहं सगडवूहं जुई निजुडं जुद्धातिजुद्धं मुढिजुद्धं बाहुजुर लयाजुद्ध इसत्य छरुप्पवाहंधणुम्वेयं हिरण्णपागं सुवण्णपागं चट्टखेडं खुत्ताखेडेणालियाखेडं पत्तच्छेज कडवफछेज सज्जीवं|| निजीचं सउणरुतमिति बावत्तरिकला सेहाविति सिक्खावेत्ता अम्मापिईर्ण उवणेहिति । तए णं तस्स दढपइपणस्स दारगस्स अम्मापियरो तं कलायरियं विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेण य सकारहिंति सम्माणेहिंति सकारेत्ता सम्माणेत्ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलहस्सइ, विपुलं २त्ता पडिविसजेहिंति । तए णं से दढपइपणे दारए वावत्तरिकलापंडिए नवंगसुत्तपडिबोहिए अट्ठारसदेसीभासाविसारए। गीयरती गंधब्वणकुसले हयजोही गयजोहीरहजोही बाहुजोही बाहुप्पमही वियालचारी साहसिए अलं भोगसमत्थे आवि भविस्सइ । तए णं ढपइण्णं दारगं अम्मापियरो बावत्तरिकलापंडियं जाव अलं भोगसमत्थं | वियाणित्ता विउलेहि अण्णभोगेहिं पाणभोगेहिं लेणभोगेहिं वत्यभोगेहिं सयणभोगेहिं कामभोगेहि उवणिमं. तेहिंति, तए णं से दढपइण्णे दारए तेहिं विउलेहि अण्णभोगेहिं जाव सयणभोगेहिं णो सजिहितिणो रजिहिति पणो गिज्झिहिति णो अज्झोववजिहिति, से जहाणामए उप्पले इ वा पउमे इ वा कुसुमे इ वा नलिणे इ वा १पब्मखेड्डे प्र०२ वेज्झखेधु प्र० ३ नेदं प्र० [१०] ॥९८॥ DS अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~199~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४०] सुभगे इ वा सुगंधे इ वा पोंडरीए इ वा महापोंडरीए इ वा सतपत्ते इ वा सहस्सपत्ते इ वा सतसहस्सपत्ते इ वा पंके जाए जले संवुहे णोवलिप्पद पंकरएणं णोवलिब्पह जलरएणं, एवमेव दढपइण्णेवि दारए कामेहिं जाए भोगेहिं संवुढे णोवलिप्पिहिति कामरएणं णोवलिप्पिहिति भोगरएणं णोवलिप्पिहिति मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणेणं, से गं तहारूवाणं घेराणं अंतिए केवलं बोहिं बुझिहिति केवलबोहिं बुज्झित्ता अगाराओ अणगारियं पञ्चदहिति । से णं भविस्सइ अणगारे भगवंते ईरियासमिए जाव गुत्तभयारी। है तस्स थे भगवंतस्स एतेणं विहारेणं विहरमाणस्स अणंते अणुत्तरे णिवाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुषणे केवलवरणाणदंसणे समुप्पजिहिति । तए णं से दृढपइण्णे केवली बहुई वासाई केवलिपरियागं पाउणिहिति, केवलिपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेएत्ता जस्स-8 हाए कीरह णग्गभावे मुंडभावे अण्हाणए अदंतवणए केसलोए बंभचेरवासे अच्छत्तकं अणोवाहणकंद भूमिसेज्जा फलहसेज्जा कट्ठसेजा परघरपवेसो लद्वावलद्धं परेहिं हीलणाओ खिंसणाओ जिंदणाओ गरहणाओ तालणाओ तज्जणाओ परिभवणाओ पव्वहणाओ उच्चावया गामकंटका बावीसं परीसहोवसग्गा अहियासिज्जति तमट्ठमाराहित्ता चरिमेहिं उस्सासणिस्सासेहिं सिज्झिहिति बुज्झिहिति मुचिहिति परिणिPlव्वाहिति सव्वदुक्खाणमंतं करेहित्ति ॥ १४ ॥ (सू०४०)॥ इहैव ज्ञातान्तरमाह-'बहुजणेण'मित्यादि व्यक्त, नवरं 'पगइभद्दयाए इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यं-'पगइउवसंतयाए । SARALALASS दीप अनुक्रम [१०] अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~200~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा- अम्म प्रत तिकम् सूत्रांक ॥९९॥ [४०] दीप अनुक्रम [५०] पगइतणुकोहमाणमायालोहयाए मिउमद्दवसंपण्णयाए अल्लीणयाए भद्दयाए'त्ति व्याख्या प्राग्वत् , 'अनिक्खित्तेणीति अवि शान्तेन पगिझिय'त्ति प्रगृध विधायेत्यर्थः, 'परिणामण'ति जीवपरिणत्या 'अज्झवसाणेहिति मनोविशेषैः 'लेसाहिति | जा तेजोलेश्यादिकाभिः 'तदावरणिज्जाण'ति वीर्यान्तरवैक्रियलब्धिप्राप्तिनिमित्तावधिज्ञानावरणानामित्यर्थः, 'हापूहमग्गण|गवेसणंति इह ईहा-किमिदमित्थमुतान्यथेत्येवं सदालोचनाभिमुखा मतिः चेष्टा, व्यूह-इदमित्थमेवरूपो निश्चयः, मार्गणम्-अन्वयधर्मालोचनं यथा स्थाणी निश्चेतव्ये इहवल्युत्सर्पणादयः प्रायः स्थाणुधर्मो घटन्त इति, गवेषण-व्यतिरेकी-|| आलोचनं यथा स्थाणावेव निश्चेतन्ये इह शिरस्कण्डूयनादयः प्रायः पुरुषधर्मो न घटन्त इति, तत एपां समाहारद्वन्द्वः, 'वीरियलद्धीए'त्ति वीर्यलब्ध्या सह 'वेउवियलद्वीप'त्ति वैक्रियलब्ध्या सह 'ओहिणाणलद्धि'त्ति अवधिज्ञानलब्धिः समुत्पन्ना, वीर्यलब्ध्यादित्रयमुत्पन्नमित्यर्थः, वाचनान्तरे 'बीरियलद्धी घेउबियलद्धी'त्ति पठ्यते, यत्त्वचित् 'अम्म(म्ब)डे परिवायगे'त्ति दृश्यते तदयुक्तं, अम्मडे इत्येतस्य स्थानाङ्गादिपुस्तकेषु दर्शनात् , 'अहिगयजीवाजी' इत्यत्र यावरकरणादिदं दृश्यम्'उवलद्धपुण्णपावे 'आसवसंबरनिज्जरकिरियाहिगरणबंधमोक्खकुसले' आश्रवाः-प्राणातिपातादयः संवरा:-प्राणातिपातविरमणादयः निर्जरा-कर्मणो देशतः क्षपण, क्रिया:-कायिक्यादिकाः अधिकरणानि-खड्गादिनिर्वर्तनसंयोजनानि बन्धमोक्षौ-कर्मविषयो, एतेन चास्य ज्ञानसम्पन्नतोक्ता, 'असहेज'त्ति अविद्यमानसाहाय्यः कुतीधिकप्रेरितः सन् सम्यक्त्वाविचलनं प्रति न परसाहाय्यमपेक्षत इति भावः, अत एवाह-'देवासुरनागसुवष्णजक्खरक्खसकिण्णरकिंपुरिसगरुलगंधवमहोरगाइपहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइकमणिजे इति देवा-वैमानिकाः असुरनागत्ति-असुरकुमारा नागकुमारा अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~201~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [५० ] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१२] उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः and “औपपातिक” श्चेति भवनपतिविशेषाः सुवण्णत्ति सद्वर्णा ज्योतिष्का इत्यर्थः कचिद्गरुडेत्ति नाधीयते, ततः सुवण्णेत्ति-सुवर्णकुमारा भवनपतिविशेषाः यक्षराक्षसकिन्नरकिम्पुरुषाः व्यन्तरभेदाः, गरुडत्ति - गरुडचिह्नाः सुवर्णकुमाराः, गन्धर्वमहोरगाश्च व्यन्तराः, 'इणमो निम्गन्थे पावयणे' त्ति अस्मिन्निर्मन्थे प्रवचने 'निस्संकिय'त्ति निःसन्देहः 'निकंखिय'त्ति मुक्तदर्शनान्तरपक्षपातः 'निबिगिच्छे'त्ति निर्विचिकित्सकः फलं प्रति निःशङ्कः 'लद्धडे'त्ति लब्धार्थोऽर्थश्रवणतः 'गहिय'त्ति गृहीतार्थोऽवधारणतः 'पुच्छियडे'त्ति पृष्टार्थः संशये सति 'अहिगयद्वेत्ति अधिगतार्थोऽभिगतार्थो वा अर्थावबोधात् 'विणिच्छि| यद्वे'त्ति विनिश्चितार्थः ऐदम्पर्योपलम्भात्, अत एव 'अट्ठिमिंजपेम्माणुरागरत्ते' अस्थीनि च कीकसानि मिना च-तन्मध्यवर्ती धातुविशेषः अस्थिमिञ्जास्ताः प्रेमानुरागेण - सार्वज्ञप्रवचनप्रीतिलक्षणकुसुम्भादिरागेण रक्ता इव रक्ता यस्य स तथा, | केनोले खेनेत्याह-'अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अड्डे अयं परमठ्ठे सेसे अणडे' त्ति, अयमिति प्राकृतत्वादिदम् 'आउसो' त्ति आयुष्मन्निति पुत्रादेरामन्त्रणं, क्वचित् 'इणमो निग्गन्थे' इति दृश्यते, 'सेसे'त्ति शेषं धनधान्यपुत्र कलत्रमित्रराज्यकुप्रवचनादिकमिति, 'ऊसियफलिहे त्ति उच्छ्रितम् उन्नतं स्फटिकमिव स्फटिकं चित्तं यस्य स तथा, मौनीन्द्रप्रवचनावाया परिपुष्टमना इत्यर्थः इति वृद्धव्याख्या, अन्ये खाहुः उच्छ्रितः - अर्गलास्थानादपनीयोर्ध्वकृतो न तिरश्चीनः, कपाटपश्चाजागादपनीत इत्यर्थः, उत्सृतो वा अपगतः परिष:- अर्गला गृहद्वारे यस्यासौ उच्छ्रितपरिष उत्सृतपरिघो वा, औदार्या|तिशयादतिशयदानदायित्वेन भिक्षुकप्रवेशार्थमनर्गलितगृहद्वार इत्यर्थः, इदं च किलाम्मडस्य न सम्भवति, स्वयमेव तस्य अंबड-परिव्राजकस्य कथा - For Pernal Use On ~202~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अम्मला. स.५० प्रत सूत्रांक [४०] ॥१०॥ दीप अनुक्रम [५०] औपपा ट भिक्षुकत्वाद्, अत एव पुस्तके लिखितं यथा 'ऊसियफलिहे'त्यादिविशेषणत्रयं नोच्यते, 'अवंगुयदुवारे'त्ति अपावृत्तद्वार:तिकम् | कपाटादिभिरस्थगितगृहद्वारः, सद्दर्शनलाभेन न कुतोऽपि पापण्डिकाद्विभेति, शोभनमार्गपरिग्रहेणोद्घाटशिरास्तिष्ठतीति || भाव इति वृद्धव्याख्या, केचित्त्वाहुः-भिक्षुकप्रवेशार्थमौदार्यादस्थगितगृहद्वार इत्यर्थः, इदं चाम्मडस्य न घटते,'चियत्तअंतेउरघरदारपवेसी'त्ति चियत्तोत्ति-लोकानां प्रीतिकर एव अन्तःपुरे वा गृहे वा द्वारे वा प्रवेशो यस्य स तथा, इन्प्रत्ययश्चात्र समासान्तः, अतिधार्मिकतया सर्वत्रानाशङ्कनीयोऽसाविति भावः, अन्ये वाहुः-चियत्तोत्ति-नाप्रीतिकरोऽन्तःपुरगृहे द्वारेण नापद्वारेण प्रवेशः-शिष्टजनप्रवेशनं यस्य स तथा, अनीयालुताप्रतिपादनपरं चेत्थमिदं विशेषणं, न चाम्मडस्वेद घटते, अन्तःपुरस्यैवाभावादिति, क्वचिदेवं दृश्यते-'चियत्तघरतेउरपंवेसी ति चियत्तेत्ति-प्रीतिकारिण्येव गृहे वाऽन्तःपुरे वा प्रविशतीत्येवंशीलो यः स तथा, त्यको वा गृहान्त पुरयोरकस्मात् प्रवेशो चेन स तथा, 'चउद्दसअट्ठमुद्दिडपुण्णमासिणीसु' त्ति उद्दिष्टा-अमावास्या 'पडिपुण्णं पोसह अणुपालेमाणे'त्ति आहारपौषधादिभेदाच्चतूरूपमपीति, 'समणे निगथे फासुएसणिणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकम्बलपायपुच्छणेणं' अत्र च पडिग्गहत्ति-प्रतिग्रहः पतनहो |वा-पात्रं पायपुच्छणंति-पादप्रोक्षणं रजोहरणं 'ओसहभेसज्जेण'ति औषधम्-एकद्रव्याश्रयं भैषज्यं-द्रव्यसमुदायरूपमथवा औषधं-त्रिफलादि भैषज्यं-पथ्यं 'पाडिहारिएणं पीडफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाहेमाणे'त्ति प्रतिहारः-प्रत्यर्पणं प्रयोजन १खावासस्थानापेक्षया वा स्यादपि, आगतस्यार्थिनो याचनापूर्णकिरणाद्वा, भक्ता वा तस्येदृशाः स्युर्ये तन्निवासस्थाने सत्रशाला तथा॥ विधां कुर्युः, उल्लिखितस्फटिकवद्वा निर्मलान्तःकरण इति बा, शेषपदद्वये तु न प्रथमव्याख्यानपक्षे दोषलेशावकाशः. 250-19 | ॥१०॥ anditurary.com अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~203~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: R प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [५०] ट्र मस्येति प्रातिहारिकं तेन पीठम्-आसनं फलकम्-अवष्टम्भनार्थः काष्ठविशेषः शय्या-वसतिः शयनं वा यत्र प्रसारितपादैः सुप्यते संस्तारको-लघुतरं शयनमेव 'सीलषयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं । अप्पाणं भावेमाणे'त्ति शीलवतानि-अणुव्रतानि गुणा-गुणव्रतानि विरमणानि-रागादिविरतिप्रकाराः प्रत्याख्यानानि|| नमस्कारसहितादीनि पौषधोपवास:-अष्टम्यादिपर्वदिनेषूपवसनम्, आहारादित्याग इत्यर्थः, 'णो कप्पइ अक्खसोयप्पमा-- णमेत्तपि जलं सयराहं उत्तरित्तए' अक्षश्रोतःप्रमाणा-गन्त्रीचक्रनाभिच्छिद्रप्रमाणा मात्रा यस्य तत्तथा, सयराह-अकस्मात् | हेलयेत्यर्थः, 'आहाकम्मिए' इत्यादि व्यक्त, नवरं 'रइए इ बत्ति रचितम्-औद्देशिकभेदो यन्मोदकचूर्णादि पुनर्मोदक-15 तया कूरदध्यादिकं वा यत्करम्बकादितया विरचितं तद्रचितमित्युच्यते, इह चेतिशब्द उपप्रदर्शने, वाशब्दो विकल्पे, | 'कान्तारभत्ते इ वत्ति कान्तारम्-अरण्यं तत्र भिक्षुकाणां निर्वाहणार्थ यत्संस्क्रियते तत्कान्तारभक्तमिति, 'दुभिक्खभत्ते इ वत्ति दुर्भिक्षभक्तं यद्भिक्षुकार्थ दुर्भिक्षे संस्क्रियते, औदेशिकादिभेदाश्चैते, वद्दलियाभत्ते इ वत्ति वर्दलिका-दुर्दिन 'गिलाण भत्ते इवत्ति ग्लानः सन्नारोग्याय यद्ददाति तद् ग्लानभक्त 'पाहुणगभत्ते इ वत्ति प्राघूर्णकः-कोऽपि क्वचिद्गतो यत्प्रतिसि&डये संस्कृत्य ददाति प्राघूर्णका वा-साध्वादय इहायाता इति यद्दापयति तत्माघूर्णकभक्तं 'मूलभोयणे इ वत्ति मूलानिमा पद्मासिन (पद्मसीना) टिकादीनां यावत्करणादिदं पदत्रयं दृश्यं 'कन्दभोयणे इ वत्ति कन्दा:-सूरणकन्दादयः 'फलभोयणे ४ इव'त्ति फलानि आधादीनां हरियभोयणे इवत्ति हरितानि-मधुरतृणकटुकभाण्डादीनि बीयभोयणे इ वत्ति बीजानि-शा*लितिलादीनि 'भोत्तए वत्ति भोक्तुं वा 'पायए वत्ति पातुं वा आधाकर्मकादिपानकादीनीति । अवज्झाणायरिए'त्ति अपध्या ECHAR अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~ 204~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [५० ] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः औपपा तिकम् ॥१०१॥ “औपपातिक” अंबड-परिव्राजकस्य कथा - * नेन - आर्तादिना आचरित आसेवितो यः अपध्यानस्य वा यदाचरितम् आसेवनं सोऽनर्वदण्ड इति, 'पमादायरिए' ति प्रमादेन घृतगुडादिद्रव्याणां स्थगनादिकरणे आलस्यलक्षणेन आचरितो यस्तस्य वा यदाचरितं सोऽनर्थदण्डः प्रमादाचरितः प्रमादाचरितं वेति 'हिंसप्पयाणे' त्ति हिंस्रस्य - खङ्गादेः प्रदानम् - अन्यस्यार्पणं निष्प्रयोजनमेवेति हिंस्रप्रदानं, 'पावकम्मोवएसे 'ति पापकर्मोपदेशः कृष्याद्युपदेशः प्रयोजनं विनेति, 'सावज्जेत्तिकद्दु'त्ति यदिदं जलस्य परिमाणकरणं तज्जलं सावद्यमिति कृत्वा, सावद्यमपि कथमित्याह- 'जीवत्तिकडु'ति जीवा अप्कायिका एत इतिकृत्वा, अथवा कस्मात्परिपूतं गृह्णातीत्यत आह- सावद्यमिति कृत्वा एतदेव कुत इत्याह-जीवा इतिकृत्या, पूतरकादिजीवा इह सन्तीतिकृत्वेति भावः । 'अण्णउत्थिए वत्ति अन्ययूथिका - अर्हत्सापेक्षया अन्ये शाक्यादयः 'चेइयाई'ति अर्हचैत्यानि - जिनप्रतिमा इत्यर्थः 'णण्णत्थ अरहंतेहि व'सि न कल्पते, इह योऽयं नेति प्रतिषेधः सोऽन्यत्रार्द्धन्यः, अर्हतो वर्जयित्वेत्यर्थः, स हि किल परिव्राजकवेषधारकः अतोऽन्ययूथिक देवतावन्दनादिनिषेधे अर्हतामपि वन्दनादिनिषेधो मा भूदिति कृत्वा णण्णरथेत्याद्यधीतं, | 'उच्चावहिं'ति उच्चावचैः- उत्कृष्टानुत्कृष्टैः । 'आउक्खणं ति आयुःकर्मणो दलिकनिर्जरणेन 'भवक्खएणं'ति देवभवनि| बन्धनभूतकर्मणां गत्यादीनां निर्जरणेनेत्यर्थः, 'ठिइक्खएणं' ति आयुः कर्मणस्तदन्येषां च केषाञ्चित् स्थितेर्विदलनेनेति 'अनंतरं चयं चत्त'त्ति देवभवसम्बन्धिनं चयं शरीरं त्यक्त्वा विमुच्य अथवा 'चयं चइत्त'त्ति च्यवनं चित्वा कृत्वेत्यर्थः, 'अड्डाई 'ति परिपूर्णानि 'दिसाई'ति दृप्तानि - दर्पवन्ति 'वित्ताई'ति वित्तानि - व्याख्यातानि शेषपदानि कूणिकवर्णकवद् | व्याख्येयानि, 'तपगारेसु कुलेसु'ति इह कचित् कुले इत्ययं शेषो दृश्यः, 'पुमत्ताए'त्ति पुंस्त्वतया, पुरुषतयेत्यर्थः, For Penal Use Only ~205~ अम्मडा० सू० ४० ॥ १०१ ॥ www.rary org Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४०] -MS 'पञ्चायाहिति'त्ति प्रत्याजनिष्यति उत्पत्स्यत इत्यर्थः, 'ठिइवडियं काहिति'त्ति स्थितिपतित-कुलकमान्तर्भूतं पुत्रजन्मोचित- 8 मनुष्ठानं करिष्यतः 'चंदसूरदंसणिय'ति चन्द्रसूरदर्शनिकाभिधानं सुतजन्मोत्सवविशेष 'जागरिय'ति रात्रिजागरिकां सुतजन्मोत्सवविशेषमेव 'निवत्ते असुइजायकम्मकरणे त्ति निवृत्ते-अतिक्रान्ते अशुचीनाम्-अशौचवतां जातकर्मणां-प्रसवव्या-1 |पाराणां यत्करणं-विधानं तत्तथा, तत्र 'बारसाहे दिवसे'त्ति द्वादशाख्ये दिवसे इत्यर्थः, अथवा द्वादशानामहां समा|हारो द्वादशाहं तस्य दिवसो येनासी पूर्णो भवतीति द्वादशाहदिवसस्तत्र 'अम्मापियरो'त्ति अम्बापितरौ 'इमति इदं। वक्ष्यमाणम्, अयमिति कचिदृश्यते, तच्च प्राकृतशैलीवशात् , 'एयारूवंति एतदेव रूपं-स्वभावो यस्य नान्यथारूपमित्येतद्रूपं 'गोणं'ति गौणं, किमुक्तं भवतीत्याह-'गुणनिप्फणं'ति गौणशब्दोऽअधानेऽपि वर्तत इत्यत उक्त गुणनिष्पन्नमिति, 'नाम-18 घेजति प्रशस्तं नामैव नामधेयम्, इह स्थाने पुस्तकान्तरे 'पंचधाइपरिग्गहिए' इत्यादि ग्रन्थो दृश्यते, सच प्राग्वद् व्याख्येयः, | किविच्च तस्य व्याख्यायते-हत्था हत्थं संहरिजमाणे त्ति हस्ताद्धस्तान्तरं संहियमाणो-नीयमानः, अकादहू परिभुज्यमानः| उत्सङ्गादुत्सङ्गान्तरं परिभोज्यमानः उत्सझस्पर्शसुखमनुभाब्यमानः,'उवनच्चिजमाणे त्ति उपनय॑मानो नर्तनं कार्यमाण इत्यर्थः, M उपगीयमानः-तथाविधवालोचितगीतविशेषैर्गीयमानो गाप्यमानोवा 'उबलालिज्जमाणे'त्ति उपलाल्यमानः क्रीडादिलालनया 'उवगूहिजमाणे'त्ति उपगूह्यमानः आलिजयमानः 'अवयासिज्जमाणे त्ति अपत्रास्यमानः अपगतत्रासः क्रियमाणः, अपयास्यमानो वा उत्कण्ठातिरेकान्निर्दयालिङ्गानेनापीव्यमानः, अप्रयास्यमानो वा समीहितपूरणेन प्रयासमकार्यमाणः, 'परिवंदि १ 'जनक जनने हादिरयम्' इति न्यायसहोक्ते भवति परस्मैपदेऽपि प्रयोगो जनेः. दीप अनुक्रम [५०] 4 450-9-46* ORGAR अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~ 206~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अम्मडा. प्रत स०४० सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम औपपा- जमाणे'त्ति परिवन्धमानः स्तूयमानः, परिचुम्ब्यमान इति व्यक्त, 'परंगिजमाणे त्ति परयमाणः चङ्गम्यमाणः, एतेषां च || तिकम् संहियमाणादिपदानां द्विवचनमाभीक्ष्ण्यविवक्षयेति 'निवाघाय'ति निर्वातं निन्यांघातं च यद्भिरिकन्दरं तदालीन इति । अथा |धिकृतवाचना 'साइरेगढ़वरिसजायगं'ति सातिरेकाण्यष्टौ वर्षाणि जातस्य यस्य स तथा तं 'अत्यत्ति अर्थतो व्याख्यानतः ॥१०२॥ 'करणओ यत्ति करणतः प्रयोगत इत्यर्थः । 'सेहावेहिति'त्ति सेधयिष्यति निष्पादयिष्यति 'सिक्खावेहिति' शिक्षयिष्यतिअभ्यास कारयिष्यति 'विनयपरिणयमेत्ते'त्ति क्वचित्तत्र विज्ञ एव विज्ञकः स चासौ परिणतमात्रश्च-बुख्यादिपरिणामवानेव विज्ञकपरिणतमात्रः, इह मात्राशब्दो बुझ्यादिपरिणामस्याभिनयत्वख्यापनपरः, 'नवंगसुत्तपडिवोहिए'त्ति नवाङ्गानि द्वे श्रोत्रे द्वे नेत्रे द्वे घ्राणे एका च जिह्वा वगेका मनश्चैकमिति तानि सुप्तानीव सुप्तानि बाल्यादब्यक्तचेतनानि प्रतियोधिलि|| तानि-यौवनेन व्यक्तचेतनावन्ति कृतानि यस्य स तथा, आह च व्यहारभाष्ये-'सोत्ताई नव सुत्ताई' इत्यादि, 'हयजो हीत्ति हयेन-अन्धेन युध्यत इति हययोधी एवं रथयोधी वाहुयोधी च, 'बाहुप्रमदी ति बाहुभ्यां प्रमृहातीति बाहुप्रमदी 'वियालचारी'त्ति साहसिकत्वाद्विकालेऽपि रात्रावपि चरतीति विकालचारी, अत एव साहसिकः-सात्त्विकः 'अलं भोगसमत्थे ति अत्यर्थं भोगानुभवनसमर्थः, 'यो सजिहिति'त्ति न सङ्ग-सम्बन्धं करिष्यति 'णो रजिहिति'त्ति न राग-प्रेम | भोगसम्बन्धहेतुं करिष्यति 'नो गिझिहिति'त्ति नाप्राप्तभोगेप्वाकाङ्क्षां करिष्यतीति णो अग्झोववजिहिति'त्ति नाध्युपपत्स्यते-नात्यन्तं तदेकाग्रमना भविष्यतीति 'से जहाणामए'त्ति से इति अथशब्दार्थे अथशब्दश्च वाक्योपक्षेपार्थः, नामेति| १ श्रोत्रादीनि नव मुप्तानि. [१०] ॥१०॥ अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~207~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [५० ] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Eucation Interivationa “औपपातिक” सम्भावनायाम्, एवंशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, 'उप्पलेति वा' उत्पलमिति वा, उत्पलादिपदानां चार्थभेदो वर्णादिभिर्लोकतोऽवसेयो, नवरं पुण्डरीकं-सितपद्मं 'पंकरणं'ति पङ्क-कर्दमः स एव रजः पद्मस्वरूपोपरञ्जनात् लक्ष्णावयवरूपत्वेन वा रेणुतुल्यत्वादिति, 'कामरएणं ति कामः शब्दो रूपं च स एव रजः कामरजस्तेन 'भोगरणं'ति भोगो-गन्धो रसः स्पर्शश्च 'मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणेणं ति मित्राणि सुहृदः ज्ञातयः सजातीयाः निजका भ्रातृपुत्रादयः स्वजना| मातुलादयः सम्बन्धिनः- श्वशुरादयः परिजनो - दासादिपरिकरः 'केवलं वोहिं बुजिहिइत्ति विशुद्धं सम्यग्दर्शनमनुभवि व्यति तलप्स्यत इत्यर्थः, 'अनंते'त्यादि, 'अनन्तम्'--अनन्तार्थविषयत्वात् 'अनुत्तरं 'सर्वोत्तमत्वात् 'निर्व्याघातं' कटकुव्या| दिभिरप्रतिहतत्वात् 'निरावरणं' क्षायिकत्वात् 'कृत्स्नं 'सकलार्थग्राहकत्वात् 'प्रतिपूर्ण' सकलस्वांशसमन्वितत्वात् 'केवलवरणाणदंसणे'त्ति केवलम् - असहायं अत एव वरं ज्ञानं च दर्शनं चेति ज्ञानदर्शनं ततः प्राक्पदाभ्यां कर्मधारयः, तत्र ज्ञानं विशेषावयोधरूपमिति दर्शनं- सामान्यावबोधरूपमिति, 'हीरणाओ'त्ति जन्मकर्म मर्मोद्घट्टनानि 'निंदणाओ' त्ति मनसा कुत्सनानि 'खिंसणाओ 'ति तान्येव लोकसमक्षं 'गरणाओ'त्ति कुत्सनान्येव च गर्हणीयसमक्षाणि 'तजणाओ'त्ति शिरोऽ| ङ्गुल्यादिस्फोरणतो ज्ञास्यसि रे जाल्मेत्यादिभणनानि 'तालणाओ'ति ताडना:- चपेटादिदानानि परिभवणाओ'त्ति आभाव्यार्थपरिहारेण न्यक्क्रियाः, 'पवहणाओ'त्ति प्रव्यथना भयोत्पादनानि 'उच्चावय'त्ति उत्कृष्टेतराः 'गामकंटय'त्ति इन्द्रियग्रामप्रतिकूला इति 'सिज्झिहिई 'त्ति सेत्स्यति - कृतकृत्यो भविष्यति 'बुज्झिहिइति भोत्त्यते - समस्तार्थान् केवलज्ञानेन 'मुच्चि - | अंबड-परिव्राजकस्य कथा - For Parts Only ~208~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम जीवोप. औपपा-1 हिइत्ति मोक्ष्यते सकलकाँशैः परिणिवाहिइत्ति परिनिर्वास्यति कर्मकृत्तसन्तापाभावेन शीतीभविष्यति, किमुक्तं भव-|| तिकम् | ति..-'सबदुक्खाणमंतं काहिइ'त्ति व्यक्तमेवेति १४ ॥ ४० ॥ सू०४१ ॥१०॥ II से इमे गामागर जाच सण्णिवेसेसु पब्वइया समणा भवंति, तंजहा-आयरियपरिणीया उषज्झायपडिमणीया कुलपडिणीया गणपडिणीया आयरियउवज्झायाणं अयसकारगा अवण्णकारगा अकित्तिकारगा बह हिं असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्साभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणा बुप्पाएमाणा विहरित्सा वह वासाई सामपणपरियागं पाउणंति बहु० तस्स ठाणस्स अणालोइयअपडिकंता कालमासे कालं किया उक्कोसेणं लंतए कप्पे देवकिचिसिएम देवकिञ्चिसियत्साए उबवत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गती तेरससागरोवमाई ठिती अणाराहगा सेसं तं चेव १५ । सेजे इमे सपिणपंचिंदियतिरिक्खजोणिया पज्जत्तया भवंति, तंजहा-जलयरा खयरा थलयरा, तेसि णं अत्थेगइयाणं सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं लेसाहिं विमुज्झमाणाहिं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं इहावूहमग्गणगवेसणं करेमाणाणं सपणीपुब्ब|जाईसरणे समुप्पजइ । तए णं ते समुप्पण्णजाइसरासमाणा सयमेव पंचाणुब्बयाई पडिवजति पडिवजित्ता बहुर्हि सीलब्वयगुणवेरमणपचक्खाणपोसहोववासेहिं अप्पाणं भावमाणा बहई वासाई आउयं पालेंति | पालित्ता भत्तं पच्चक्खंति बहई भत्ताई अणसणाए छेयंति २त्ता आलोइयपडिकता समाहिपत्ता कालमासे | कालं किया उकोसेणं सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तहिं तेर्सि गती अहारस सागरोवमाई| KARANA [५०] १०३॥ ~ 209~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम [११] ठिती पण्णता, परलोगस्स आराहगा, सेसं तं चेव १६।से जे इमे गामागर जाव संनिवेसेसु आजीविका भवंति, तंजहा-दुघरंतरिया तिघरंतरिया सत्तघरंतरिया उप्पलटिया घरसमुदाणिया विजुअंतरिया उट्टियासमणा, तेणं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई परियाय पाउणित्ता कालमासे कालं किचा उक्कोसेणं |अजुए कप्पे देवत्ताए उबवत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गती बावीसं सागरोबमाई ठिती, अणाराहगा, सेसं तं घेव १७ । से जे इमे गामागर जाब सपिणवेसेसु पब्बइया समणा भवंति, तंजहा-अत्तुकोसिया परपरिवाइया भूइकम्मिया भुजोर कोज्यकारका, ते णं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणा बहुई वासाई सामपणपरियागं पाउणंति पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयअपडिता कालमासे कालं किया उकोसेणं अञ्चुए कप्पे आमिओगिएम देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तहिं तेर्सि गई बावीसं सागरोवमाई ठित परलोगस्स अणाराहगा, सेसं तं चेव.१८ । सेजे इमे-गामागर जाव सण्णिवेसेसु णिण्हगा भवंति, तंजहा|बहुरया १ जीवपएसिया २ अन्वत्तिया ३ सामुच्छेइया ४ दोकिरिया ५ तेरासिया ६ अबद्धिया ७ इचेते सत्त पवयणणिपहगा केवल(लं)चरियालिंगसामण्णा मिच्छद्दिही बहुहिं असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिपिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा बिहरिता बहई वासाई सामण्णपरियागं पाउणंति २ कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं उपरिमेसु गेवेज्जेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तहिं तेसिंगती एकत्तीसं सागरोवमाई ठिती, परलोगस्स अणाराहगा, सेसंतं चेष १९ से जे इमे गामागर जाव सपिण ~210~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: जीवोपर प्रत सूत्रांक सू०४१ -1-501- [४१] 25 दीप अनुक्रम औपपा-वेसेसु मणुया भवंति, तंजहा-अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिा धम्मखाई धम्मप्प- तिकम् लोइया धम्मपलज्जणा धम्मसमुदायारा धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा सुसीला सुध्वया सुप्पडियाणंदा साहू॥१०॥ साहिएकचाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए एकचाओ अपडिविरया एवं जाव परिग्गहाओ' एकचाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोहाओ पेजाओ कलहाओ अभक्खाणाओ पेसुपणाओ परपरिवायाओअरतिरतीओमायामोसाओमिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया जावजीवाए एकच्चाओ अपडिविरया,एकच्चाओ आरंभसमारंभाओ पडिविरया जावजीवाए एकच्चाओं अपडिविरया, एकच्चाओ करणकारावणाओ। पडिविरया जायजीवाए एकचाओ अपडिविरया एगच्चाओपयणपयावणाओपडिविरया जावजीवाए एकचाओ पयणपयावणाओ अपडिविरया, एकचाओ कोहणपिट्टणतजणतालणवहबंधपरिकिलेसाओ पडिविरया जावजीवाए एकचाओ अपडिचिरया, एकचाओ पहाणमद्दणवण्णगविलेवणसहफरिसरसरूवगंधमलालंकाराओ पडिविरया जावजीवाए एकचाओ अपडिविरया, जेयावण्णे तहप्पगारा सावजजोगोवहिया कम्मंता परपा णपरियावणकरा कजंति तओ जाव एकचाओ अपडिविरया तंजहा-समणोवासगा भवंति, अभिगयजी वाजीवा उबलद्धपुषणपावा आसवसंवरनिजरकिरियाअहिगरणबंधमोक्खकुसला असहेज्जाओ देवासुरणागजक्खरक्खसकिन्नरकिंपुरिसगरुलगंधब्वमहोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंधाओ पावयणाओ अणइक्कम १ प्रतिविरतापतिविरतत्वसूचनार्थमेष द्विकः, [५१] 25 ॥१०४॥ ~211~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम णिज्जा णिग्गंधे पावणे णिस्संकिया णिक्खंखिया निवितिगिच्छा लद्धड्डा गहियहा पुछियवा अभिग-12 या विणिच्छियहा अडिमिंजपेम्माणुरागरत्ता अयमाउसो! णिग्गंथे पावणे अटे अयं परमटे सेसे अणडे | ऊसियफलिहा अवंगुयदुवारा चियत्तंतेउरपरघरदारप्पवेसा चउद्दसहमुद्दिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेत्ता समणे णिग्गथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलपायपुंछआणणं ओसहभेसोणं पटिहारपण य पीढफलगसेज्जासंधारएणं पडिलाभेमाणा विहरंति विहरित्ता भत्ता | पञ्चक्खंति ते बहूई भत्ताई अणसणाए छेदिति छेदित्ता आलोइयपडिक्कता समाहिपत्ता कालमासे काल |किचा उक्कोसेणं अचुए कप्पे देवत्ताए उबवत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गई बावीसं सागरोवमाई ठिई आराहया सेसं तहेव २० । से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु मणुआ भवंति, तंजहा-अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया जाव कप्पेमाणा सुसीला सुब्बया सुपडियाणंदा साहू सब्वाओ पाणाइवाआओ पडिविरया जाव सब्चाओ परिग्गहाओ पडिविरया सव्वाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ जाव मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया सव्वाओ आरंभसमारंभाओं पडिविरया सव्वाओ करणकारावणाओ पडिविरया सव्याओ पयणपयावणाओ पडिविरया सम्वाओ कुणपिट्टणतजणतालणवहर्षधपरिकिलेसाओ पडिविरया सव्वाओ पहाणमद्दणवण्णगविलेषणसइफरिसरसरूवगंधमल्लालंकाराओ पडिविरया जेयावपणेतहप्पग्गारा 4 सावजजोगोचहिया कम्मंता परपाणपरिपावणकरा कजंति तओवि पडिविरया जावजीवाए से जहाणामए|| 5 [५१] ~ 212~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम [५१] औपपातिकम् ॥१०५॥ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अणगारा भवंति - ईरियासमिया भासासमिया जाव इणमेव णिग्गंधं पावयणं पुरओकाउं बिहरंति तेसि णं भगवंतपुर्ण पणे विहारेणं विहरमाणानं अत्येगइयाणं अनंते जाब केवलवरणाणदंसणे समुप्पज्जइ, ते बहुई | वांसाई के बलिपरियागं पाउणति जाव पाउणित्ता भत्तं पञ्चक्रवति भत्तं बहूई भत्ताई अणसणाइ छेदन्तिरत्ताजसट्टाए कीरह णग्गभावे० अंत करंति, जेसिंपि य णं एगइयाणं णो केबलवरनाणदंसणे समुप्पज्जइ ते बहु वासाई | छउमत्थपरियागं पाउ णन्ति२ आवाहे उप्पण्णे वा अणुप्पण्णे वा भत्तं पचक्वंति, ते बहई भत्ताई अणसणाए छेदन्ति २ ता जस्साए कीरह जग्गभावे जाब तमहमाराहित्ता चरिमेहिं ऊसासणीसासेहिं अनंत अणुत्तरं निव्वाघायं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवलवरणाणदंसणं उप्पार्डिति, तओ पच्छा सिज्झिहिन्ति जाय अंत | करेहिन्ति । एगचा पुण एगे भयंतारो पुत्र्वकम्माबसेसेणं कालमासे कार्य किया उक्कोसेणं सवसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवति, तहिं तेसिं गई तेत्तीसं सागरोवमाई दिई आराहगा, सेसं तं चैव २१ से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु मणुआ भवंति, तंजहा सव्वकामविरया सव्वरागविरया सव्वसंगातीता सव्वसिणेहातिकंता अकोहा णिकोहा स्वीणकोहा एवं माणमायालोहा अणुपुवेणं अट्ठ कम्मपयडीओ ॥ १०५ ॥ खवेत्ता उपिं लोयग्गपट्टाणा हवंति ( सू० ४१ ) ॥ 'अयसकारण 'त्ति पराक्रमकृता सर्वदिग्गामिनी वा प्रख्यातिर्यशः तत्प्रतिषेधादयशः 'अवण्णकारयत्ति अवज्ञा-अनादरः अवर्णो वा वर्णनाया अकरणं 'अकित्तिकारग'त्ति दानकृता एकदिग्गामिनी वा प्रसिद्धिः कीर्तिस्तनिषेधाद कीर्तिः Education International For Pale Onl ~213~ जीवोvo सू० ४१ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम 'असम्भावुब्भावणाहिति असद्भावानाम्-अविद्यमानार्थानामुद्भावना-उत्प्रेक्षणानि असझावोद्भावनास्ताभिः 'मिच्छत्ताभिनिवेसेहि यत्ति मिथ्यात्वे-वस्तुविपर्यासे मिध्यात्वाद्वा-मिथ्यादर्शनाख्यकर्मणः सकाशाद् अभिनिवेशा:-चित्तावष्टम्भा | मिथ्यात्वाभिनिवेशास्तैः 'बुग्गाहेमाण'त्ति व्युहाह्यमाणा:-कुग्रहे योजयन्तः 'वुप्पाएमाण'त्ति व्युत्पादयमानाः-असद्भावो-15 दावनासु समर्थीकुर्वन्त इत्यर्थः, 'अणालोइयअपडिकंत'त्ति गुरूणां समीपे अकृतालोचनास्ततो दोषादनिवृत्ताश्वेत्यर्थः, एतेषां च विशिष्टश्रामण्यजन्यं देवत्वं प्रत्यनीकताजन्यं च किल्विषिकत्वं, ते हि चण्डालपाया एव देवमध्ये भवन्तीति १५ ॥ 'सण्णीपुबजाईसरणे'त्ति संझिनो सतां या पूर्वजातिः-प्राक्तनो भवस्तस्था यत्स्मरणं तत्तथा १५ ।। आजीविकागोशालकमतानुवर्तिनः 'दुपरंतरिय'त्ति एकत्र गृहे भिक्षां गृहीत्वा येऽभिग्रहविशेषाद् गृहद्वयमतिकम्य पुनर्भिक्षा गृहन्ति * न निरन्तरमेकान्तरं वा ते द्विगृहान्तरिकाः, द्वे गृहे अन्तरं भिक्षाग्रहणे येषामस्ति ते द्विगृहान्तरिका इति निर्वचनम्, एवं त्रिगृहान्तरिकाः सप्तगृहान्तरिकाश्च उपलबेंटिय'त्ति उत्पल वृन्तानि नियमविशेषात् ग्राह्यतया भैक्षत्वेन येषां सन्ति ! | ते उत्पलवृन्तिकाः 'घरसमुदाणिय'त्ति गृहसमुदान-प्रतिगृहं भिक्षा येषां ग्राह्यतयाऽस्ति ते गृहसमुदानिकाः 'विजुयंतरि यत्ति विद्युति सत्यां अन्तरं भिक्षाग्रहणस्य येषामस्ति ते विद्युदन्तरिकाः, विद्युत्सम्पाते भिक्षा नाटन्तीति भावार्थः, 'उ-10 ४ डियासमण'त्ति उष्ट्रिका-महामृण्मयो भाजनविशेषस्तत्र प्रविष्टा ये श्राम्यन्ति-तपस्यन्तीत्युएिकाश्रमणाः, एषां च पदामा | मुत्प्रेक्षया व्याख्या कृतेति १७ । 'अत्तुक्कोसिय'त्ति आत्मोत्कर्षोऽस्ति येषां ते आत्मोत्कर्षिकाः, 'परपरिवाइय'त्ति परेषां परि वादो-निन्दाऽस्ति येषां ते परपरिवादिकाः भूइकम्मिय'त्ति भूतिकर्म-ज्वरितानामुपद्रवरक्षार्थ भूतिदानं तदस्ति येषां ते भूतिक [५१] ~ 214~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) (१२) -------- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम औपपा- मिकाः, भुजो भुजो कोउगकारगत्ति भूयो भूयः-पुनः पुनः कौतुकं-सौभाग्यादिनिमित्तं परेषां स्वपनादि तत्कारः कौतुकका- जीवोप० तिकम् सरकाः 'आभिओगिएसुत्ति अभियोगे-आदेशकर्मणि नियुक्ता आभियोगिका आदेशकारिण इत्यर्थः, एतेषां च देवत्वं चारित्रादाभियोगिकत्वं चात्मोत्कर्षादेरिति १८ । वहुषु समयेषु रता-आसक्ताः बहुभिरेव समयैः कार्य निष्पद्यते नैकसम-131 ॥१०६॥ सू०४१ येनेत्येवंविधवादिनो बहुरताः-जमालिमतानुपातिनः, 'जीवपएसि'त्ति जीवः प्रदेश एवैको येषां मतेन ते जीवप्रदेशाः, Pएकेनापि प्रदेशेन न्यूनो जीवो न भवत्यतो येनकेन प्रदेशेन पूर्णः सन् जीवो भवति स एवैकः प्रदेशो जीवो भवतीत्ये वंविधवादिनस्तिष्पगुसाचार्यमताविसंवादिनः 'अबत्तियत्ति अव्यक्त समस्तमिदं जगत् साध्वादिविषये श्रमणोऽयं देवो| वाऽयमित्यादिविविक्तप्रतिभासोदयाभावात्ततश्चाव्यक्तं वस्त्विति मतमस्ति येषां ते अव्यक्तिकाः, अविद्यमाना वा साध्यादिव्यक्तिरेषामित्यव्यक्तिकाः आषाढाचार्यशिष्यमतान्तःपातिनः 'सामुच्छेइय'त्ति नारकादिभावानां प्रतिक्षणं समुच्छे-12 द-क्षयं वदन्तीति सामुच्छेदिकाः अश्वमित्रमतानुसारिणः 'दोकिरियत्ति द्वे क्रिये-शीतवेदनोष्णवेदनादिस्वरूपे एकत्र समये जीवोऽनभवतीत्येवं वदन्ति ये ते द्वैकिया गङ्गाचार्यमतानुवर्तिनः 'तेरासिय'त्ति त्रीन् राशीन् जीवाजीवनोजीव-18 1. रूपान् वदन्ति ये ते त्रैराशिकाः रोहगुसमतानुसारिणः, 'अबद्धियत्ति अवद्धं सत्कर्म कजुकवत्पार्श्वतः स्पृष्टमात्रं जीव । समनुगच्छन्तीत्येवं वदन्तीत्यबद्धिकाः गोष्ठामाहिलमतावलम्बिनः, उपलक्षणं चैतत् सक्रियावर्तिव्यापनदर्शनानामन्ये ॥१०६॥ पामपीति, 'पवयणनिण्हय'त्ति प्रवचन-जिनागमं निवते-अपलपन्त्यन्यथा तदेकदेशस्याभ्युपगमात्ते प्रवचननिवकाः, | केवलं 'चरियालिंगसामण्णा मिच्छादिहीत्ति मिथ्यादृष्टयस्ते विपरीतबोधाः नवरं चर्यया-भिक्षाटनादिक्रियया लिङ्गेन [५१] ~ 215~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] दीप ट्राच-रजोहरणादिना सामान्या:-साधुतुल्या इति १९ । 'धम्मिय'त्ति धर्मण-श्रुतचारित्ररूपेण चरन्ति ये ते धार्मिका. कुत एतदेवमित्यत आह-'धम्माणुअसि धर्म-श्रुतरूपमनुगच्छन्ति ये ते धर्मानुगाः, कुत एतदेवमित्यत आह-'धम्मिान माति धर्मः श्रुतरूप एवेष्टो-बालभः पूजितो वा येषां ते धर्मष्टाः धर्मिणां वेष्टाः धीष्टाः अथवा धर्मोऽस्ति येषां ते धर्मिणः || त एव चान्येभ्योऽतिशयवन्तो धर्मिष्ठाः, अत एव 'धम्मक्खाइति धर्ममाख्यान्ति भव्यानां प्रतिपादयन्तीति धर्माख्यायिनः धर्माद्वा ख्यातिः-प्रसिद्धिर्येषां ते धर्मख्यातयः, 'धम्मपलोइय'त्ति धर्म प्रलोकयन्ति-उपादेयतया प्रेक्षन्ते पापण्डिषु वा गवेषयन्तीति धर्मप्रलोकिनः, धर्मगवेषणानन्तरं वा 'धम्मपलज्जण'त्ति धर्म प्ररज्यन्ते-आसज्यन्ते ये ते धर्मप्ररज्यनाः, ततश्च 'धर्मसमुदाचार'त्ति धर्मरूपचारित्रात्मकः समुदाचार:-सदाचारः सप्रमोदो वाऽऽचारो येषां ते धर्मसमुदाचाराः, अत || एव 'धम्मेण चेव वित्तिं कप्पेमाण'त्ति धर्मेणैव-चारित्राविरोधेन श्रुताविरोधेन वा वृत्ति-जीविका कल्पयन्तः-कुर्वाणा माविहरन्तीति योगः, 'सुषय'त्ति सदताः शोभनचित्तवृत्तिवितरणा वा, 'सुष्पडियाणदा साहहिति सुषु प्रत्यानन्द:-चित्ताहादो || येषां ते सुप्रत्यानन्दाः साधुषु-विषयभूतेषु अथवा साहूहिंति उत्तरवाक्ये सम्बध्यते, ततश्च साधुभ्यः सकाशातू साध्व-18 |न्तिके इत्यर्थः, 'एगचाओ पाणाइवायाओ'त्ति एकस्मात् न सर्वस्मात् पाठान्तरे 'एगइयाओ'त्ति तत्र एकक एव एक|किकः तस्मादेककिकात्, इत इदं सूत्रं प्रायः प्रागुक्तार्थ नवरं 'मिच्छादसणसल्लाओत्ति इह मिथ्यादर्शनं-तजन्यान्ययूथि| कवन्दनादिका क्रिया ततो भावतो विरताः राजाभियोगादिभिस्त्वाकारैरविरता इति, 'कुट्टणपिट्टणतज्जणतालणवहबंधप-18 रिकिलेसाओ'त्ति कुट्टनं-खदिरादेरिव छेदविशेषकरणं पिट्टन-वस्त्रादेरिव मुद्गरादिना हुननं तर्जन-परं प्रति ज्ञास्यसि रे । अनुक्रम [५१] ~ 216~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: तिकम् प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम अपिपा- 15 जाल्मेत्यादिभणनं ताडनं-चपेटादिना हननं तालनं वा गृहद्वारादेस्तालकेन स्थगनं वधो-मारणं बन्धो-रज्ज्वादिना यन्त्रण | जीवोप० परिक्लेशों-बाधोत्पादन 'सावजजोगोवहिय'त्ति सावद्ययोगा औपधिका-मायाप्रयोजनाः कषायप्रत्यया इत्यर्थः उपकरणप्र॥१०७॥ योजना वा ये तेरा 'कम्मंत'त्ति व्यापारांशाः, वाचनान्तरे 'सावज्जा अबोहिया कम्मत'त्ति अत्र अबोधिकाः अविद्य- सू | मानवोधिका वेति, एवं सामान्येनोक्तानां मनुष्याणां विशेषनिर्देशार्थमाह-तंजह'त्ति त एते इत्यर्थः 'से जहानामए'त्ति ||| कचित्तत्राप्ययमेवार्थः २० । 'आवाहेत्ति रोगादिवाधायां 'एगच्चा पुण एगे भयंतारों'त्ति एका-असाधारणगुणत्वाद् अद्वि-र | तीया मनुजभवभाविनी वा अर्चा-योन्दिस्त नुर्येषां ते एकाचर्चाः, पुनःशब्दः पूर्वोक्तार्थापेक्षया उत्तरवाक्यार्थस्य विशेषद्यो| तनार्थः, एके-केवलज्ञानभाजनेभ्योऽपरे 'भयंतारो'त्ति भक्तार:-अनुष्ठानविशेषस्य सेवयितारो भयत्रातारो वा, अनुस्वा४ रस्त्वलाक्षणिका, 'पुबकम्मावसेसेण' क्षीणावशेषकर्मणा देवतयोत्पत्तारो भवन्तीति योगः २१ । 'सबकामविरय'त्ति सर्व कामेभ्यः-समस्तशब्दादिविषयेभ्यो विरता-निवृत्तास्तेषु वा विरया-विगतौत्सुक्या ये ते तथा, यतः 'सवरागविरयत्ति | | सर्वरागात्-समस्ताद्विषयाभिमुख्यहेतुभूतात्मपरिणामविशेषाद्विरता-निवृत्ता ये ते तथा, 'सबसंगातीत'त्ति सर्वस्मात्स झात्-मातापित्रादिसम्बन्धादतीता:-अपक्रान्ताः सर्वसङ्गातीताः यतः 'सबसिणेहाइकंतति सर्वस्नेह-मात्रादिसम्बन्ध* हेतुं अतिक्रान्ताः-त्यक्तवन्तो ये ते सर्वस्नेहातिक्रान्ताः 'अक्कोह'त्ति क्रोधविफलीकरणात् 'निकोह'त्ति उदयाभावात्, का एतदेव कुत इत्याह-खीणकोह'त्ति क्षीणक्रोधमोहनीयकर्माण इत्यर्थः, एकार्था चैते शब्दाः २२ ॥४१॥ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा केवलिसमुग्घाएणं समोहणित्ता केवलकप्पं लोयं फुसित्ता णं चिट्ठह ?, [५१] ॐ ~ 217~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४२] + गाथा दीप अनुक्रम [५२-५४] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [ ४२ ] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः हंता चिह, से णूर्ण भंते! केवलकप्पे लोए तेहिं णिज्जरापोग्गलेहिं फुडे ?, हंता फुडे, छमत्थे णं भंते ! मणुस्से तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं किंचि वण्णेणं वण्णं गंधेणं गंध रसेणं रसं फासेणं फार्स जाणइ पासइ ?, गोमा !, णो इण्डे समट्टे से केणणं भंते । एवं बुच्चइ छडमत्थे णं मणुस्से तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि वपणेणं वण्णं जाव जाणइ पासइ ?, गोयमा, अयं णं जंबुद्दीवे २ सव्वदीवसमुद्दाणं सव्वभंतरण सव्वखुड्डाए वहे तेल्लपूपसंठाणसंठिए बट्टे रहचकवालसंठाणसंठिए बट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए बट्टे | पडिपुण्ण चंदसंठाणसंठिए एक जोगणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिणि जोयणसयसहस्साई सोलससहस्साइं दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिष्णि य कोसे अठ्ठावीसं च धणुस तेरस य अंगुलाई अहंगु लियं च किंचि विसेसाहिए परिकखेवेणं पण्णत्ते, देवे णं महिडीए महजुइए महम्बले महाजसे महासुक्खे महाणुभावे सविलेवणं गंधसमुग्गयं गिण्हड़ स २ तं अबदाले तं २ जाव णामेवतिकडु केवलकप्पं जंबूदीवं तिहिं अच्छराणिवा एहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरिअहिता णं हव्यमागच्छेजा से पूर्ण गोयमा ! से केव लकप्पे जंबूदीवे २ तेहिं घाणपोग्गलेहिं फुडे !, हंता फुडे, छउमत्थे णं गोयमा ! मणुस्से तेसिंघाणपोग्गलाणं किंचि चण्णेणं वण्णं जाव जाणंति पासंति ?, भगवं! णो इणट्ठे समड़े से तेणद्वेणं गोमा ! एवं बुचइछुमत्थे णं मणुस्से तेसिं णिजरापोग्गलाणं नो किंचि वण्णेणं वण्णं जाव जाणइ पासर, एसुहमा णं पोग्गला पण्णत्ता, समणाउसो ! सव्वलोयंपि य णं ते फुसित्ता णं चिति । कम्हा णं भंते ! केवली समो ते Education Internationa For Pasta Use Only ~218~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---- मूलं [४२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२]] गाथा औषपा- हणंति ? कम्हा णं केवली समुग्घायं गच्छंति ?, गोयमा ! केवलीणं चत्तारि कम्म॑सा अपलिक्खीणा भवंति, तिकम् |तंजहा-वेवणिज आउयं णाम गुतं, सवयहुए से वेयणिले कम्मे भवह, सव्वत्थोवे से आउए कम्मे भवहार [विसमं समं करेइ पंधणेहि ठिईहि य, विसमसमकरणयाए बंधणेहिं ठिईहि य एवं खलु फेवली समोहणंति ॥१०८॥ का एवं खलु केवली समुग्घायं गच्छति । सब्वेवि णं भंते ! केवली समुग्घायं गच्छति', णो णडे समझे. 'अ-15 कित्ता समुग्घायं, अणंता केवली जिणा । जरामरणविप्पमुक्का, सिद्धिं वरगइंगया ॥१॥कइसमए भंते ! आउजीकरणे पण्णते?, गोयमा! असंखेजसमइए अंतोमुहुत्तिए पपणते । केवलिसमुग्घाए णं भंते ! कइसमइए पण्णते?, गोयमा ! असमइए पण्णत्ते, तंजहा-पढमे समए दंडं करेद विइए समए कवाई करे। तईए समए मंथं करेइ चउत्थे समए लोयं पूरेइ पंचमे समए लोयं पडिसाहरद छठे समए मंथं पडिसाहर सत्तमे समर कवाडं पडिसाहरइ अहमे समए दंड पडिसाहरइ पडिसाहरिता तओ पच्छा सरीरत्धे भव।। सेणं भंते! तहा समुग्घायं गए किंमणजोगं जुजइ ? वयजोगं जुजइ काययोगं जुजइ, गोयमा! णो मण-14 जोगं जुजद णो वयजोगं जुजइ कायजोगं जुजइ, कायजोगं जुजमाणे किं ओरालियसरीरकायजोगं जुजइ ? ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ ? वेउब्वियसरीरकायजोगं जुजइ ? वेउब्वियमिस्ससरीरकायजोगं| मा जुजइ ? आहारसरीरकायजोगं जुजह? आहारसरीरमिस्सकायजोगं जुजह, कम्मासरीरकायजोगं जुजा, गोयमा ! ओरालियसरीरकायजोगं जुजइ, ओरालियमिस्ससरीरकायजोगंपि जुजइ, णो वेउव्वियसरीरका दीप अनुक्रम [५२-५४] ॥१०८॥ ~ 219~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४२] + गाथा दीप अनुक्रम [५२-५४] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [ ४२ ] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१२] उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः | यजोगं जुंजइ णो वेडब्बियमिस्स सरीरका यजोगं झुंजइ णो आहारगसरीरकायजोगं जुंजइ णो आहारगमिस्ससरीरकायजोगं जुंजइ कम्मसरीरकायजोगंपि जुंजइ, पढममेसु समएस ओरालिय सरीरकायजोगं जुंजई बिइयइछसत्तमेसु समएस ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ तईयचउत्थपंच मेहिं कम्मासरीरकायजोगं जुंजइ । से णं भंते । तहा समुग्धायगए सिज्झिहिइ बुज्झिहि मुबहि परिनिव्वाहिर सञ्चदुक्खाणमंतं करेइ ?, णो इणट्ठे समट्ठे, से णं तओ पडिनिय तह तओ पडिनियत्तित्ता इहमागच्छछ २ ता तओ पच्छा मणजोगंपि जुंजइ वयजोगंपि जुजइ कायजोगंपि जुंजइ मणजोगं जुंजमाणे किं सचमणजोगं जुंजइ मोसमणजोगं जुंजइ सदामोसमणजोगं जुंजइ असच्चामोसमणजोगं जुंजद ?, गोयमा ! सचमणजोगं जुंजइ णो मोस मणजोगं मुंजह णो सच्चामोसमणजोगं जुंजइ असचामोसमणजोगंपि जुंजइ, वयजोगं जुंजाणे किं सचवइजोगं जुंजइ मोसवइजोगं जुंजइ [किं ] सच्चामोसवइजोगं जुंजइ असचामोसबजोगं जुंजइ ?, गोयमा ! सचवइजोगं जुंजइ णो मोसवइजोगं जुजइ णो सच्चामोसवइजोगं जुंजइ असचामोसवह जोगंपि जुंजइ, कायजोगं जुंजमाणे आगच्छेज वा चिज वा णिसीएज वा तुयहेज़ वा उल्लंघेज वा पल्लंघेज वा उक्खेवणं वा अवक्खेवणं वा तिरियक्खेवणं वा करेजा पाडिहारियं वा पीढफल हग सेज्जसंधारगं पञ्चपिज्जा । ( सू० ४२ ) तदेवमुक्तो विवक्षितोपपातः, अधुनाऽनन्तरोक्तसिद्धोपपातसम्बन्धेन तत्कारणभूतसमुद्घातादिवक्तव्यतां दर्शयन्नाह - 'अणगारे णमित्यादि व्यक्तं, नवरं 'केवलिसमुग्धाएणं' ति न कपायादिसमुद्घातेन 'समोहए'त्ति समवहतो - विक्षिप्त Educatuny internationa For Parata Use Only ~220~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---- मूलं [४२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत औपपा- समुद्घा० सूत्रांक तिकम् सू०४२ [४२] ॥१०॥ गाथा प्रदेशः 'केवलकप्प'ति केवलज्ञानकल्पं सम्पूर्णमित्यर्थः, वृद्धव्याख्या तु केवला-सम्पूर्णः कल्पत इति कल्पः-स्वकार्यकरणसमर्थः वस्तुरूप इतियावत् , केवलश्चासौ कल्पश्चेति समासोऽतस्तं 'निजरापोग्गलेहिं ति निर्जराप्रधानाः पुद्गला निर्जरापुद्गलाः, जीधेनाकर्मतामापादिताः कर्मप्रदेशा इत्यर्थः, अतस्तैर्निर्जरापुद्गलैः 'फुडे'त्ति स्पृष्टो व्याप्तः, 'छउमत्थे कति छनस्थो | निरतिशयज्ञानयुक्त इह प्रतिपत्तव्यो यतः छद्मस्थोऽपि विशिष्टावधिज्ञानयुक्तो निर्जरापुद्गलान् जानात्येव 'रूवगयं(ब)लहइ सष'मिति वचनात् 'वण्णेण वणं'ति वर्णेन-वर्णतया याथात्म्येनेत्यर्थः वर्ण-कालवर्णादिक जानाति विशेषतः पश्यति सामान्यतः, 'णो इणडेत्ति नायमर्थः 'समहे'त्ति समर्थ:-सङ्गतः, कर्मपुद्गलानां सातिशयज्ञानगम्यत्वात् , 'सबभतराए'त्ति सर्वाभ्यन्तरकः 'सबखुड्डाएत्ति सर्वक्षुल्लकः, दीर्घत्वं चात्र प्राकृतत्वात् , 'वट्टे'त्ति वृत्तः, वृत्तश्च मोदकवद् घनवृत्तोऽपि स्यादतस्तद्वयवकछेदेन प्रतरवृत्तताभिधानार्थमाह-'तेल्लापूयसंठाणसंठिए'त्ति उपलक्षणत्वादस्य घृतापूपादेरप्यत्र ग्रहः, 'रहचकवाल'त्ति चक्रवालं-मण्डलं मण्डलत्वधर्मयोगाच्च रथचक्रमपि रथचक्रवालं 'पुक्खरकणिय'त्ति पद्मबीजकोशः, 'जाव इणामेवत्तिकट्ठत्ति यावदिति परिमाणार्थस्तावदित्यस्य गम्यमानस्य सव्यपेक्षः, 'इणामेव'त्ति इदं-गमनम् , एवमिति-चप्पुटिकारूपशीघ्रत्वावेदकहस्तव्यापारोपदर्शनपरः, अनुस्वाराश्रवणं च प्राकृतत्वात् , द्विर्वचनं च शीघ्रतातिशयोपदर्शनपरम् , इतिरुपप्रदर्शनार्थः, कृत्वा-विधाय 'तिहिं अच्छरानिवाएहि ति तिसृभिश्चप्पुटिकाभिरित्यर्थः 'तिस्सत्तखुत्तोत्ति त्रिगुणाः सप्त त्रिसप्त त्रिसप्तवारास्त्रिःसप्तकृत्वः एकविंशतिवारा इत्यर्थः, 'हब'ति शीध्र 'घाणपोग्गलेहिं ति गन्धपुद्गलैः, इह स्थाने | यावदित्यस्य सव्यपेक्षस्तावदित्ययंशब्दो दृश्यः, 'एस्सुहुमाणं ति एतत्सूक्ष्माः, कोऽर्थः ? एवं नाम सूक्ष्मास्ते यथा तांश्छद्म दीप अनुक्रम [५२-५४] ॥१०९ nainarana ~ 221~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---- मूलं [४२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२] गाथा स्थो वर्णादिभिर्न जानातीति 'समणाउस्सो'त्ति हे श्रमण ! हे आयुष्मन् , अथवा श्रमणश्चासावायुष्मांश्चेति समासस्त-18 |स्यामन्त्रणं हे श्रमणायुष्मन् !, यथा अतिसूक्ष्मत्वाद्गन्धपुद्गलान जानातीत्येवं निर्जरापुद्गलानपीति दृष्टान्तोपनयः । 'कम्हा णं भंते ! केवली समोहणंतित्ति समवघ्नन्ति-प्रदेशान् दिक्षु प्रक्षिपन्ति, एतदेव सुखप्रतिपत्तये वाक्यान्तरेणाह-'कम्हाणं केवली समुग्धायं गच्छति'त्ति, 'अपलिक्खीणे'त्ति स्थितेरक्षयात् 'अवेइया अनिजिण्ण'त्ति कचिदृश्यते, तत्र अवेदितास्त-13 द्रसस्याननुभूतत्वात् अनिर्जीर्णाः-तत्पदेशानां जीवप्रदेशेभ्योऽपरिशटनात् 'बहुए से वेयणिजे'त्ति से-तस्य केवलिनो यः समुद्रात प्रतिपद्यते न पुनः सर्वस्यैव, केपाशिदकृतसमुद्घातानामपि समभावस्पेष्टत्वात् 'चंधणेहिति प्रदेशबन्धानुभाग-1 बन्धावाश्रित्येत्यर्थः, 'ठिईहि यत्ति स्थितिबन्धविशेषानाश्रित्येत्यर्थः, 'विसमसमकरणयाए बन्धणेहिं ठिईहि य एवं खलु 8 केवली समोहणंति' इहैवमक्षरघटना-एवं खलु विषमसमकरणाय बन्धनादिभिः केवलिनः समुद्घातयन्तीति 'आवजीकरणे'त्ति आवर्जीकरणम्-उदीरणावलिकायां कर्मप्रक्षेपच्यापाररूपं, तच्च केवलिसमुद्घातं प्रतिपद्यमानः प्रथममेव करो ति । 'पढमसमए दंडं करेइ'त्ति प्रथमसमय एवं स्वदेहविष्कम्भमूर्ध्वमधश्चायतमुभयतोऽपि लोकान्तगामिनं जीवप्रदेश-18 A सनातं दण्डस्थानीय केवली ज्ञानाभोगतः करोति, 'बिइए कवार्ड करेइ'त्ति द्वितीयसमये तु तमेव दण्डं पूर्वापरदिग्द्वय-18 प्रसारणात्पार्श्वतो लोकान्तगामिकपाटमिव कपाटं करोति, 'मति तृतीये समये तदेव कपाटं दक्षिणोत्तरदिग्द्वयप्रसार. |णान्मथिसहर्श मन्थानं करोति लोकान्तप्रापिणमेव, 'लोगं पूरेइ'त्ति चतुर्थसमये सह लोकनिष्कुटैर्मन्थान्तराणि पूरयति,18 ततश्च सकलोलोकः पूरितो भवति, 'लोयं पडिसाहरइ'त्ति पञ्चमे समये मन्थान्तरापूरकवेन ये लोकपूरकाः प्रदेशास्ते है। दीप अनुक्रम [५२-५४] ~222~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---- मूलं [४२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२]] गाथा ऑपपा- लोकशब्देन उच्यन्ते, अतो मन्थान्तरालपूरकान् प्रदेशान् संहरति मथिस्थो भवतीतियावत्, 'मंथं पडिसाहरइत्ति मध्या. समुद्घा० तिकम् कारव्यवस्थापितप्रदेशान् संहृत्य कपाटस्थो भवतीतियावत् , 'कवाडं पडिसाहरईत्ति सप्तमसमये कपाटाकारधारकप्रदे सू०४२ | शसंहरणाद्दण्डस्थो भवतीत्यर्थः, 'अहमे समए दंडं पडिसाहरइ, साहरित्ता सरीरस्थे भवइत्ति, इह यद्यपि संहत्येस्यनेन ॥११०॥ संहरणस्य पूर्वकालता शरीरस्थभवनस्य च पश्चात्कालता शब्दवृत्त्या प्रतीयते, तथाऽप्यवृत्त्या न कालभेदोऽस्ति, द्वयोरप्यष्टमसमयभावित्वेनोक्तत्वादिति । 'नो मणजोग नो वयजोगं जुजइ'त्ति प्रयोजनाभावात्, काययोगचिन्तायां सप्तविधः काययोगः, तत्र-ओरालियसरीरकायजोग'ति योगो-व्यापारः स च वागादेरप्यस्तीति कायेन विशेषितत्वात्काययोगः। स चानेकधेति औदारिकशरीरेण विशिष्यते, तत्रोदारैः-शेषपुद्गलापेक्षया स्थूलैः पुगलनिवृत्तमित्यौदारिक, तच्च तच्छरीरं चेति समासस्तस्य काययोगऔदारिकशरीरकाययोगः, 'ओरालियमीससरीरकायजोग'ति औदारिकमिश्रक नाम यच्छरीरं तस्य यः काययोगः स यथा, स च कार्मणीदारिकयोर्युगपद्व्यापाररूप औदारिकशरीरिणामुत्पत्तिकाले केवलिसमु द्घाते वा, औदारिकक्रिययोरीदारिकाहारकयोर्वा युगपद्व्यापाररूपः, औदारिकशरीरिणां वैक्रियकरणकाले आहारक४करणकाले चेति, 'वेउबियसरीरकायजोगति पूर्ववन्नवरं विक्रिया प्रयोजनमस्येति वैक्रिय-सूक्ष्मतरविशिष्टकार्यकरणक्ष&मपुद्गलनिवृत्तमित्यर्थः, अयं च वैक्रियलब्धिमतां वादरवायुकायिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां देवनारकाणां च स्यादिति ॥११॥ 'वेचियमिस्ससरीरकायजोग'ति वैक्रिय सन्मित्रं यत्कार्मणादिना तद्वैक्रियमिकं तच्च तच्छरीरं चेति समासस्तस्य काययोगो वैक्रियमिश्रशरीरकाययोगः, स च वैक्रियकार्मणयोयुगपद्व्यापाररूपः, स च देवनारकाणामुत्पत्तिकाले यावत् वैक्रि-II RSCOCOCOCCASSOME दीप अनुक्रम [५२-५४] KI ~223~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४२] + गाथा दीप अनुक्रम [५२-५४] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [४२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१२] उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः | यमपरिपूर्णमिति, वैक्रियलब्धिमतां वा तिर्यग्मनुष्याणां विहितवैक्रियशरीराणां तत्त्यागेनौदारिकं गृह्णतामिति, 'आहारगसरीरकायजोगं' ति प्राग्वत् नवरम् - आहारका विशिष्टतरपुद्गलास्तन्निष्पन्नमाहारकम्, अयं च चतुर्दशपूर्वधरस्य समुत्पन्नविशिष्टप्र| योजनस्य कृताहारकशरीरस्य भवतीति, 'आहारगमीससरीरकायजोगं ति आहारकं सम्मिश्रं यदौदारिकेण तदाहारकमिश्रं तच्च तच्छरीरं चेति, शेषस्तथैव, अयं चाहारकौदारिकयोर्युगपद्व्यापाररूपः, स च कृताहारकस्य तत्त्यागेनौदारिकं गृह्णतो भवतीति, 'कम्मगसरीरकायजोगं 'ति प्राग्वत्, अयं चापान्तरालगतौ केवलिसमुद्घाते वा स्यादिति, 'पढममेसु समएस' इत्यादेरयमभिप्रायः- जीवप्रदेशानां दण्डतया प्रक्षेपे संहारे च प्रथमाष्टमसमययोरौदारिककाय व्यापारादौ दारिककाययोग एव, द्विती| यपष्ठसप्तमसमयेषु पुनः प्रदेशानां प्रक्षेपसंहारयोरौदारिके तस्माच्च वहिः कार्मणे वीर्यपरिस्पन्दादौदारिक कार्मणमिश्रः, तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु तु बहिरौदारिकात्कार्मण काय व्यापारादसहायः कार्मणयोग एव, तन्मात्रचेष्टनाद्, इह च यद्यपि मन्थकरणे कपाटन्यायेनौदारिकस्यापि व्यापारः सम्भाव्यते तथाऽपीत एव वचनादसौ कथञ्चिन्नास्तीति मन्तव्यमिति । 'सच्चमणजोगं जुंजइ, असच्चामोसामणजोगंपि जुंजइत्ति मनःपर्यायज्ञानिना अनुत्तरमुरेण वा मनसा पृष्टो मनसैव अस्ति जीवएवं कुर्वित्यादिकमुत्तरं यच्छन्, 'सञ्चवइजोगं' ति जीवादिपदार्थान् प्ररूपयन् 'असच्चामोसावयजोगं'ति आमन्त्रणादिष्विति, समुद्घातान्निवृत्तश्चान्तर्मुहूर्तेन योगनिरोधं करोति २२ ॥ ४२ ॥ से णं भंते! तहा सजोगी सिज्झिहिइ जाव अंतं करेहिह ?, णो इणडे समट्टे, से णं पुब्वामेव संणिस्स १ विशिष्टान्तरपुद्गलाः प्र० For Parts On ~ 224~ Mayor Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] दीप अनुक्रम औपपा पंचिंदियस्स पज्जत्तगस्स जहपणजोगस्स हेडा असंखेजगुणपरिहीणं पढम मणजोगं निरंभइ, तयाणंतरं च णं तिकम् | बिंदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णजोगस्स हेट्टा असंखेजगुणपरिहीणं बिइयं वइजोगं निरंभइ, तयाणतरं च णं || सू०४३ ॥११॥ मुहमस्स पणगजीवस्स अपज्जत्तगस्स जहणजोगस्स हेट्ठा असंखेजगुणपरिहीणं तईयं कायजोगं णिरंभह, से|| णं एएणं उवाएणं पढममणजोगं णिरंभइ मणजोगं णिभित्ता वयजोगं णिरंभइ वयजोगं णिभित्ता कायजोगं णिकंभइ कायजोगं निरूभित्ता जोगनिरोहं करेइ, जोगनिरोहं करेता अजोगसं पाउणति, अजोगत्तं । पाउणित्ता इसिंहस्सपंचक्खरउच्चारणद्वाए असंखेजसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसिं पडिवजह, पुवरइयगुणसेढीयं च णं कर्म तीसे सेलेसिमाए असंखेजाहिं गुणसेढीहि अणते कम्मंसे खवेति चेयणिज्जाउघणाम गुत्ते, इचेते चत्तारि कर्मसे जुगवं खवेद वेदणिज्जा २ओरालियतेयाकम्माई सव्वाहिं विप्पयहणाहिं विप्पजसहइ, ओरालियतेयाकम्माई सब्वाहिं विप्पयहणाहिं विप्पयहिता उजसेढीपडिवन्ने अफसमाणगई हूं एक-18 समएणं अविग्गहेणं गता सागारोवउत्ते सिज्झिहिह । ते णं तत्य सिद्धा हवंति सादीया अपजवसिया असरीरा जीवघणा दंसणनाणोचउत्ता निहिया निरयणा नीरया णिम्मला चितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्धं ॥११॥ कालं चिट्ठति । से केणठणं भंते ! एवं बुचइ-ते णं तस्य सिहा भवंति सादीया अपजवसिया जाव चिहति?,13 गोयमा! से जहाणामए बीयाणं अग्गिदड्डाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्ती ण भवह, एवामेव सिहाणं कम्मबीए | दहे पुणरवि जम्मुप्पत्ती न भवइ, से तेणडेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-ते णं तत्थ सिहा भवंति सादीया अप सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~225~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] दीप अनुक्रम [१५] नवसिया जाव चिट्ठति । जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरंमि संघयणे सिझंति !, गोयमा ! वइरोसभ णारायसंघयणे सिझंति, जीवा णं भंते ! सिंज्झमाणा कयरंमि संठाणे सिझंति ?, गोयमा ! छह संठाजाणाणं अण्णतरे संठाणे सिझंति, जीवा भंते ! सिज्झमाणा कयरम्मि उच्चत्ते सिझंति, गोयमा ! जहपणेणं सत्तरयणीओ उक्कोसेणं पंचधणुस्सए सिझंति, जीवाणं भंते ! सिज्झमाणा कयरम्मि आउए सि झंति?, गोयमा! जद्दण्णेणं साइरेगहवासाउए उकोसेणं पुवकोडियाउए सिज्झंति ।अस्थि णं भंते ! इमीसे 5 रयणप्पहाए पुढबीए अहे सिद्धा परिवसंति !, णो इणठे समहे, एवं जाव अहे सत्तमाए, अस्थि णं भंते! सोहम्मस्स कप्पस्स अहे सिद्धा परिवसंति?, णो इणहे समहे, एवं सम्बेसिं पुच्छा, ईसाणस्स सणंकुमारस्स। जाजाव अयस्स गेविजविमाणाणं अणुत्तरविमाणाणं, अस्थि णं भंते ! ईसीपभाराए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसंति ?, णो इणढे समहे, से कहिं खाइ णं भंते ! सिद्धा परिवसंति?, गोयमा ! इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उडे चंदिमसूरियग्गहगणणखत्तताराभवणाओ यहूई जोयणसयाई | बहूई जोयणसहस्साई बहूई जोयणसयसहस्साई बहओ जोयणकोडीओ बहूओजोयणकोडाकोडीओ उहुतरं | उप्पइत्ता सोहम्मीसाणसणंकुमारमाहिदबंभलंतगमहासुक्कसहस्सारआणयपाणयआरणय तिपिण य अहारे गेविजविमाणावाससए वीइवइत्ता विजयवेजयंतजयंतअपराजियसवहसिद्धस्स य महाविमाणस्स सब्व| उपरिल्लाओ थूभियग्गाओ दुवालसजोयणाई अयाहाए एस्थ णं ईसीपन्भारा णाम पुढची पणत्ता पण-110 awrminaurary.org सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~226~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सु० सूत्रांक [४३] औपपा- यालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं एगा जोयणकोडी बायालीसं सयसहस्साई तीसं च सह-टम तिकम् स्साई दोषिण य अउणापण्णे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिरएणं, ईसिपन्भारा य णं पुढवीए बहुमज्झदे॥११२॥ सभाए अट्ठजोयणिए खेले अट्ठजोयणाई बाहुल्लेणं, तयाऽणतरं च णं मायाए २ पडिहायमाणी २ सब्वेसु४॥ चरिमपेरंतेसु मच्छियपत्ताओ तणुयतरा अंगुलस्स असंखेजहभागं वाहुल्लेणं पण्णत्ता । ईसीपम्भाराए ण पुढवीए दुवालस णामधेजा पपणत्ता, तंजहा-ईसी इ वा इसीपब्भारा इ वा तणूइ वा तणूतणू हवा सिद्धी ४ीचा सिद्धालए इ वा मुत्ती इ वा मुत्तालए इ वा लोयग्गे इ वा लोयग्गथूभिया इचा लोपग्गपडिबुज्झणा | &ाइ वा सम्वाणयजीवसत्तमुहावहा इ वा । ईसीपभारा णं पुढवी सेया संखतल विमलसोल्लिपमुणालद गरयतुसारगोक्खीरहारवण्णा उत्ताणयछत्तसंठाणसंठिया सव्वजुणसुवण्णयमई अच्छा सण्हा लण्हा घडा महा णीरया णिम्मला णिप्पंका णिकंकडच्छाया समरीचिया सुप्पभा पासादीया दरिसणिजा अभिरुवा पडिरूवा, ईसीपन्भाराए णं पुढवीए सीयाए जोयणमि लोगते, तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए तस्स णं गाउअस्स जे से उवरिल्ले छभागिए तत्थ णं सिद्धा भगवंतो सादीया अपजवसिया अणेगजाइजरामरणजो-2 णिवेयणसंसारकलंकलीभावपुणब्भवगम्भवासवसहीपवंचसमइकता सासयमणागयमद्धं चिडंति ।। (सू०४३) ॥११२॥ M से पुषामेव सन्निस्से त्यादि, अस्यायमर्थः-स-केवली, णमित्यलङ्कारे, 'पूर्वमेव' आदावेव योगनिरोधावस्थायाः संजि नो-मनोलब्धिमतः पञ्चेन्द्रियस्येति स्वरूपविशेषणं, यतः संज्ञी पञ्चेन्द्रिय एव भवति, 'पज्जत्तस्स'चि मनःपर्याप्या पर्या ECEBCAMANCERRACRICA दीप अनुक्रम [१५] Awastaram.org सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~227~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] दीप अनुक्रम तस्य, तदन्यस्य मनोलब्धिमतोऽपि मनसोऽभाव एवेति पर्याप्तस्येत्युक्त, स च मध्यमादिमनोयोगोऽपि स्यादित्याह|'जहण्णजोगिस्स'त्ति जघन्यमनोयोगवतः 'हेह'त्ति अधो यो मनोयोग इति गम्यते, जघन्यमनोयोगसमानो यो न भवतीत्यर्थः, मनोयोगश्च-मनोद्रव्याणि तझ्यापारश्चेति, जघन्यमनोयोगाधोभागवर्तित्वमेव दर्शयन्नाह-'असंखेजगुणपरिहीणं ति | असङ्ख्यातगुणेन परिहीणो यः स तथा तं जघन्यमनोयोगस्थासङ्ग्येयभागमात्रे मनोयोगं निरुणद्धि, ततः क्रमेणानया मा-14 |त्रया समये समये तं निरुन्धानः सर्वमनोयोग निरुणद्धि, अनुत्तरेणाचिन्त्येन अकरणवीर्येणेति, एतदेवाह-पढम मणो जोगं निरंभईत्ति प्रथम-शेषवागादियोगापेक्षया प्राथम्येन-आदितो मनोयोग निरुणीति उक्तं च-"पजत्तमेत्तसन्निस्स ४ जत्तियाई जहन्नजोगिस्स । होति मणोदवाई तबावारो य जम्मत्तो ॥१॥ तदसंखगुणविहीणं समए समए निरुंभमाणो सो । मणसो सबनिरोहं करेअसंखेजसमएहिं ॥२॥" ति, एचमन्यदपि सूत्रद्वयं नेयम् , 'अजोगय पाउणइत्ति अयोगतां प्रामोतीति, 'ईसिंहस्सपंचक्खरुच्चारणद्धाए'त्ति ईसिंति-ईषत्स्पृष्टानि इस्वानि यानि पञ्चाक्षराणि तेषां यदुच्चारणं तस्य याऽद्धा-कालः सा तथा तस्याम् , इदं चोच्चारणं न विलम्बितं द्रुतं वा, किन्तु मध्यममेव गृह्यते, यत आह-"हस्स-14 |क्खराई मझेण जेण कालेण पंच भण्णंति । अच्छइ सेलेसिगओ तत्तियमेत्तं तओ कालं ॥१॥" शैलेशो-मेरुस्तस्येव १ पर्याप्तमात्रसंशिमो याबन्ति जघन्ययोगिनः । भवन्ति मनोद्रव्याणि तब्यापारश्च यावन्मात्रः॥१॥ तदसङ्ख्यगुणविहीनं समये ४ समये निरुन्धन् सः । मनसः सर्वनिरोधं कुर्यादसायसमयैः ॥ २ ॥२ खाक्षराणि मध्येन येन कालेन पञ्च भण्यन्ते । तिष्ठति शैलेशीलगतस्तावन्मात्रं ततः कालं ॥१॥ SAREaratunintimational सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~ 228~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: औपपा प्रत सूत्रांक ॥११३॥ [४३] दीप अनुक्रम [१५] |स्थिरतासाम्याद्याऽवस्था सा शैलेशी अथवा शीलेश:-सर्वसंवररूपचारित्रप्रभुस्तस्येयमवस्था योगनिरोधरूपेति शैलेशी ता सिद्धाधिक प्रतिपद्यते, ततः 'पुवरश्यगुणसेढीयं च णति पूर्व-शैलेश्यवस्थायाः प्राग् रचिता गुणश्रेणी-क्षपणोपक्रमविशेषरूपा यस्य तत्तथा, गुणश्रेणी चैवं-सामान्यतः किल कर्म बह्वल्पमल्पतरमल्पतमं चेत्येवं निर्जरणाय रचयति, यदा तु परिणामवि सू०४३ शेषात्तत्र तथैव रचिते कालान्तरवेद्यमल्पं बहु बहुतरं बहुतमं चेत्येवं शीघतरक्षपणाय रचयति तदा सा गुणश्रेणीत्युच्यते, स्थापना चैवं/'कम्मति वेदनीयादिकं भवोपमाहि तीसे सेलेसिमद्धाए'त्ति तस्यां शैलेशीअद्धायां-शैलेशीकाले क्षपयन्निति योगः , एतदेव विशेषेणाह-'असंखेजाहिं गुणसेढीहिन्ति असङ्ख्याताभिर्गुणश्रेणीभिः शैलेश्यवस्थाया असङ्ग्यातसमयत्वेन गुणश्रेण्यप्यसङ्ख्यातसमया ततः तस्याः प्रतिसमयभेदकल्पनया असङ्ख्यातागुणश्रेणयो भवन्ति, अतोड़सङ्ख्याताभिः गुणश्रेणीभिरित्युक्तम् , असङ्ख्यातसमयैरिति हृदयम्, 'अणते कम्मंसे खवयंतो'त्ति अनन्तपुद्गलरूपत्वादनन्तास्तान् कर्माशान्-भवोपग्राहिकर्मभेदान क्षपयन्-निर्जरयन् 'वेयणिज्जाउयणामगोए'त्ति वेदनीयं सातादि आयु:-मनुष्यायुष्क नाम-मनुष्यगत्यादि गोत्रम्-उचैर्गोत्रम् 'इचेते'त्ति इत्येतान् 'चत्तारित्ति चतुरः 'कम्मसे'त्ति कर्माशान्मूलप्रकृतीः 'जुगर्व खवेइत्ति योगपद्येन निर्जरयतीति । एतच्चैता भाष्यगाथा अनुश्रित्य व्याख्यातं,यदुत-"तदसंखेजगुणाए सेढीए विरइयं पुरा कम्म। १ तदसोयगुणया श्रेण्या विरचितं पुरा कर्म । समये समये क्षपयन् कर्म शैलेशीकालेन ॥ १॥ सर्व क्षपयति तत्पुनर्निर्लेप किञ्चिदुपरितने समये । किञ्चिच भवति चरमे शैलेश्या तवक्ष्ये ॥२॥ मनुजगतिजातित्रसबादरं च पर्याप्त सुभगमादेयम् । अन्यतरवेदनीय नरा४ युरुचैः यशोनाग ॥ ३ ॥ सम्भवतो जिननाम नरानुपूर्वी च चरमसमये । शेषा जिनसत्का द्विपरमसमये निस्तिष्ठन्ति (निष्ठा यान्ति) 018| 445544SCAM ॥११॥ सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~229~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 456056-56 प्रत सूत्रांक [४३] दीप अनुक्रम | समए समए खवयं कर्म सेलेसिकालेणं ॥ १ ॥ सर्व खवेइ तं पुण निल्लेवं किंचिदुवरिमे समए । किंचिच्च होइ चरमे 8 | सेलेसीए तयं वोच्छ ॥२॥ मणुयगइजाइतसबायरं च पज्जत्तसुभगमाएजं । अन्नयरवेयणि नराउमुचं जसोनामं ॥३॥ |संभवओ जिणनाम नराणुपुची य चरिमसमयंमि । सेसा जिणसंताओ दुचरिमसमयंमि निति'॥४॥त्ति, 'सवाहिं विप्पयहणाहिति सर्वाभिः-अशेषाभिः विशेषेण-विविध प्रकर्षतो हानयः-त्यागा विप्रहाणयो व्यक्त्यपेक्षया बहुवचनं ताभिः, किमुक्तं भवति ?-सर्वथा परिशाटनं न तु यथा पूर्व सङ्घातपरिशाटाभ्यां देशत्यागतः 'विप्पजहित्त'त्ति विशेषेण प्रहाय-परित्यज्य 'उजूसेढिपडिबन्ने त्ति ऋजुः-अवक्रा श्रेणिः-आकाशप्रदेशपङ्गिस्तां ऋजुश्रेणिं प्रतिपन्नः-आश्रितः 'अफुसमाणगई'त्ति अस्पृशन्ती-सिद्ध्यन्तरालप्रदेशान् गतिर्यस्य सोऽस्पृशद्गतिः, अन्तरालप्रदेशस्पर्शने हि नैकेन समयेन सिद्धिः, इष्यते च तत्रैक एव समयः, य एव चायुष्कादिकर्मणां क्षयसमयः स एव निर्वाणसमयः, अतोऽन्तराले समयान्तरस्याभावादन्तरालप्रदेशानामसंस्पर्शनमिति, सूक्ष्मश्चायमर्थः केवलिगम्यो भावत इति, 'एगेणं समएण'ति, कुत इत्याह-अविग्गहेणं'ति अविग्रहेण-वरहितेन, वक्र एव हि समयान्तरं लगति प्रदेशान्तरं च स्पृशतीति, 'उहुं गता' ऊर्ध्वं गत्वा 'सागारोवउत्ते'त्ति ज्ञानोपयोगवान् 'सिध्यति' कृतकृत्यतां लभते इति । गतमानुपनिकमध प्रकृतमाह-किं च प्रकृतं ?, 'से जे इमे गामागर जाव सन्निवेसेसु मणुया हवंति-सबकामविरया जाव अह कम्मपयडीओ खवइत्ता उप्पि लोयग्गपइटाणा हवंतीति, लोकानप्रतिष्ठानाश्च सन्तो यादृशास्ते भवन्ति तद्दर्शयितुमाह-'ते णं तत्थ सिद्धा हवंति'त्ति ते पूर्वोद्दिष्टविशेषणा मनुष्याः तत्र' लोकाग्रे निष्ठितार्थाः स्युरिति, अनेन च यस्केचन मन्यन्ते, यदुत-रागादिवासनामुक्तं, चित्तमेव FERROROSSSSSSS सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~230~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४३] दीप अनुक्रम [ ५५ ] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः औपपातिकम ॥११४॥ | निरामयम् । सदाऽनियतदेशस्थं सिद्ध इत्यभिधीयते ॥ १ ॥ यच्चापरे मन्यन्ते - " गुणसत्त्वान्तरज्ञानान्निवृत्तप्रकृतिक्रियाः । मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमवत्तापवर्जिताः ॥ १ ॥” तदनेन निरस्तं यच्चोच्यते-सशरीरतायामपि सिद्धत्वप्रतिपादनाय, यदुत - " अणिमाद्यष्टविधं प्राप्यैश्वर्य कृतिनः सदा । मोदन्ते निर्वृतात्मानस्तीर्णाः परमदुस्तरम् ॥ १ ॥' इति तदपाकरणायाह-'अशरीरा' अविद्यमानपञ्चप्रकारशरीराः, तथा 'जीवघण'त्ति योगनिरोधकांले रन्ध्रपूरणेन त्रिभागोना| ऽवगाहनाः सन्तो जीवधना इति, 'दंसणनाणोवउत्त'त्ति ज्ञानं साकारं दर्शनम् - अनाकारं तयोः क्रमेणोपयुक्ता ये ते तथा, 'निट्टिय'त्ति निष्ठितार्थाः समाप्तसमस्तप्रयोजनाः 'निरेयण'त्ति निरेजनाः- निश्चलाः 'नीरय'त्ति नीरजसो - त्रध्य| मानकर्मरहिता नीरया वा निर्गतौत्सुक्या: 'निम्मल'त्ति निर्मलाः पूर्वबद्धकर्मविनिर्मुक्ताः द्रव्यमलवर्जिता वा 'वितिमिर' | ति विग्रताज्ञानाः 'विसुद्ध 'त्ति कर्मविशुद्धिप्रकर्षमुपगताः 'सासयमणागयद्धं कालं चिति शाश्वतीम् - अविनश्वरीं सिद्धत्वस्याविनाशाद्, अनागताद्धा- भविष्यत्कालं तिष्ठन्तीति 'जम्मुप्पत्ती'ति जन्मना - कर्मकृतप्रसूत्या उत्पत्तिर्या सा तथा, जन्मग्रहणेन परिणामान्तररूपात्तदुत्पत्तिर्भवतीत्याह, प्रतिक्षणमुत्पादव्ययधौव्ययुक्तत्वात्सद्भावस्येति, 'जण्णेणं सत्त रयजीएत्ति सप्तहस्ते उच्चत्वे सिध्यन्ति महावीरवत्, 'उक्कोसेणं पंचधणुस्सए 'ति ऋषभस्वामिवद्, एतच्च द्वयमपि तीर्थङ्करा|पेक्षयोक्तम्, अतो द्विहस्तप्रमाणेन कूर्मापुत्रेण न व्यभिचारो न वा मरुदेव्या सातिरेकपञ्चधनुः शतप्रमाणयेति, 'साइरेग| श्वासाउए 'त्ति सातिरेकाण्यष्टौ वर्षाणि यत्र तत्तथा तच्च तदायुश्चेति तत्र सातिरेकाष्टवर्षायुषि तत्र किलाष्टवर्षवयाश्चरणं प्रतिपद्यते, ततो वर्षे अतिगते केवलज्ञानमुत्पाद्य सिध्यतीति, 'उकोसेणं पुत्रकोडाउए'त्ति पूर्वकोव्यायुर्नरः पूर्वकोव्या अन्ते Education Internation सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक : अधिकार: For Parts Only ~ 231~ सिद्धाधि० सू० ४३ ॥११४॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४३] दीप अनुक्रम [ ५५ ] “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१२], उपांग सूत्र [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः सिध्यतीति न परतः । 'ते णं तत्थ सिद्धा भवंती 'ति प्राक्तनवचनाद् यद्यपि लोकार्थ सिद्धानां स्थानमित्यवसीयते तथापि मुग्धविनेयस्य कल्पित विविधलोकाग्रनिरासतो निरुपचरितलोकाग्रस्वरूपविशेषावबोधाय प्रश्नोत्तरसूत्रमाह-'अत्थि णमित्यादि व्यक्तं, नवरं यदिदं रत्नप्रभा (या) अधस्तदेव लोकाग्रमिति तत्र सिद्धाः परिवसन्तीति प्रश्नः, तत्रोत्तरं नायमर्थः समर्थ इति, एवं सर्वत्र, 'से कहिं खाइ णं भंते!"त्ति इत्यत्र सेत्ति ततः कहिंति-क देशे खाइ णंति- देशभाषया वाक्यालङ्कारे 'बहुसमे' त्यादि बहुसमत्वेन रमणीयो यः स तथा तस्मात् 'अवाहाए'त्ति अबाधया - अन्तरेण 'ईसिंप भारति ईषद् - अल्पो न रलप्रभादिपृथिव्या इव महान् प्राग्भारो - महत्त्वं यस्याः सा ईषत्प्राग्भारा । नामधेयानि व्यक्तान्येव, नवरं ईसित्ति वा ईषत् - अल्पा पृथिव्यन्तरापेक्षया इतिशब्द उपप्रदर्शने, वाशब्दो विकल्पे, 'लोयग्गपडिबुज्झणा इ वत्ति लोकाप्रमिति प्रतिबुध्यते-अव सीयते या लोकाग्रं वा प्रतिबुध्यते यया सा तथा, 'सवपाणभूयजीवसत्तसुहावह 'त्ति इह प्राणा-द्वीन्द्रियादयः भूता-वनस्पतयः जीवाः पश्वेन्द्रियाः पृथिव्यादयस्तु सत्त्वाः एतेषां च पृथिव्यादितया तत्रोत्पन्नानां सा सुखावहा शीतादिदुःखहेतूनामभावादिति, 'सेय'त्ति श्वेता, एतदेवाह - 'आयं सतलबिमल सोडियमुणालद गरयनुसार गोक्खीरहारवण्ण'त्ति व्यक्तमेव, नवरम् आदर्शतल दर्पणतलं कचिच्छङ्गतलमिति पाठः, आदर्शतल मिव बिमला या सा तथा, 'सोहिय'त्ति कुसुमविशेषः, 'सवज्जुणसुवण्णमईति अर्जुन सुवर्ण-वेतकाञ्चनं अच्छा आकाशस्फटिकमिव 'सह'त्ति लक्ष्णपरमाणुस्कन्धनिष्पन्ना शुक्ष्णतन्तु निष्पन्नपटवत् 'लण्ड'त्ति मसृणा घुण्टितपटवत्, 'घट्ट'त्ति घृष्ठेव घृष्टा खरशानया पाषाणप्रतिमावत्, 'मह' चि मृष्टेव मृष्टा सुकुमारशानया प्रतिमेव शोधिता वा प्रमार्जनिकयेव, अत एव 'णीरय'त्ति नीरजाः- रजोरहिता सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक : अधिकार: For Parts Only ~ 232~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [४३] + गाथा: ||१-२२|| दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] गाथा: ||१-२२|| औपपा ४ाणिम्मला' कठिनमलरहिता 'णिपंक'त्ति निष्पका-आमलरहिता अकलङ्का वा 'णिकंकडच्छाय'त्ति निष्काटा-निष्क- सिद्धस्व० तिकम् लायचा निरावरणेत्यर्थः छाया-शोभा यस्याः सा तथा अकलकशोभा वा, 'समरीचिय'त्ति समरीचिका-किरणयुक्ता, अत एव ||3|| 'सुप्पभत्ति सुपु प्रकर्षेण च भाति-शोभते या सा सुप्रभेति 'पासादीय'त्ति प्रासादो-मनःप्रमोदः प्रयोजनं यस्याः सा प्रासा-| ॥११५॥ दीया 'दरसणिज्ज'त्ति दर्शनाय-चक्षुष्योंपाराय हिता दर्शनीया, तां पश्यच्चक्षुने श्राम्यतीत्यर्थः, अभिरूवत्ति अभिमतं रूपं यस्याः सा अभिरूपा, कमनीयेत्यर्थः, 'पडिरूवत्ति द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा, 'जोयणमि लोगते'त्ति | इह योजनमुत्सेधालयोजनमवसेयं, तदीयस्यैव हि क्रोशपड्भागस्य सत्रिभागखयस्त्रिंशदधिकधनु शतत्रयीप्रमाणत्वादिति, 'अणेगजाइजरामरणजोणिवेयण' अनेकजातिजरामरणप्रधानयोनिषु वेदना यत्र स तथा तं 'संसारकलंकलीभाव-12 पुणब्भवगम्भवासवसहीपवंचमहर्कता' संसारे कलङ्क (ग्रन्था० ३०००) लीभावेन-असमञ्जसत्वेन ये पुनर्भवाः-पौनःपुन्येनोत्पादा गर्भवासवसतयश्च-गर्भाश्रयनिवासास्तासां यः प्रपञ्चो-विस्तरः स तथा तमतिक्रान्ता-निस्तीर्णाः, पाठान्तरमिदम् 'अणेगजाइजरामरणजोणिसंसारकलंकलीभावपुणब्भवगम्भवासवसहिपवंचसमइकंतत्ति अनेकजातिजरामरणप्रधा-1| |ना योनषो यत्र स तथा स चासौ संसारश्चेति समासः, तत्र कलङ्कलीभावेन यः पुनर्भवेन-पुनःपुनरुत्पत्या गर्भवासवस-1 ॥११॥ तीनां प्रपञ्चस्तं समतिक्रान्ता ये ते तथा ॥ ४३ ॥ || गाथा:-काहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पडिठिया? । कहिं वोदिं चहत्ता णं, कत्थ गंतण सिजाई ||2 8/॥१॥ अलोगे पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पडिठिया । इहं वोदि चहत्ता णं, तत्थ गंतूण सिसई ॥२॥ दीप अनुक्रम [५५) सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~233~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .................... ...... ------ मलं [४३] + गाथा: ||१-२२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] गाथा: ||१-२२|| | जं संठाणं तु इहं भवं चयं तस्स चरिमसमयंमि । आसी य पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स ॥३॥दीहंदी || वा हस्सं या जं चरिमभवे हवेज संठाणं । तत्तो तिभागहीणं, सिद्धाणोगाहणा भणिया ॥४॥ तिपिण सया तेत्तीसा धणूत्तिभागो य होइ योद्धव्वा । एसा खलु सिद्धार्ण, उकोसोगाहणा भणिया ॥५॥चत्तारि ४य रयणीओ रयणित्तिभागणिया य बोद्धव्वा । एसा खलु सिद्धार्थ मज्झिमओगाहणा भणिया ॥६॥ एक्का तय होइ रयणी साहीया अंगुलाई अट्ट भवे । एसा खलु सिहाणं जहण्णओगाहणा भणिया ॥ ७॥ ओगाह॥णाएँ सिहा भवत्तिभागेण होद परिहीणा । संठाणमणित्थंथं जरामरणविष्पमुकाणं ।। ८॥ जत्थ य एगी। सिद्धो तत्थ अर्णता भवक्खयविमुक्का । अण्णोण्णसमवगाढा पुट्ठा सब्वे य लोगते ॥९॥ फुसइ अणंते| & सिद्धे सब्बपएसेहिं णियमसो सिद्धा । तेवि असंखेजगुणा देसपएसेहिं जे पुट्ठा ॥ १०॥ असरीरा जीवघणा उवउत्ता दसणे य गाणे य । सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥ ११॥ केवलणाणुवउत्ता जाणंति || ४ सव्वभावगुणभावे । पासंति सचओ खलु केवलदिही अणंताहिं ॥१२॥ णवि अस्थि माणुसाणं तं सोक्खं ४ &ाणविय सव्वदेवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं अव्वाबाहं उवगयाणं ॥ १३ ॥ ज देवाणं सोक्खं सव्वद्वापिंडियं |अणंतगुणं । ण य पावइ मुत्तिसुहं ताहिं वग्गवग्रहिं ॥ १४॥ सिद्धस्स सुहो रासी सब्बद्वापिंडिओ जह हवेजा । सोऽणंतवग्गभइओ सब्बागासे ण माएजा ॥१५॥ जह णाम कोइ मिच्छो नगरगुणे बहुविहे लिवियाणंतो। न चएइ परिकहेर्ड उवमाएँ तहिं असंतीए ॥१६॥ इय सिद्धाणं सोक्खं अणोवम णत्थि तस्स। दीप अनुक्रम [५५-७७]] सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~234~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ..................... .... -.------ मलं [४३] + गाथा: ||१-२२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक औपपातिकम् [४३] ॥११६॥ गाथा: ||१-२२|| ओवम्म । किंचि विसेसेणेत्तो ओवम्ममिणं सुणह वोच्छं ॥ १७ ॥जह सब्वकामगुणियं पुरिसो भोसूण सिद्धस्वक भोयण कोइ।तण्हालुहाविमुक्को अच्छेज जहा अमियतित्तो ॥१८॥ इय सव्वकालतित्ता अतुलं निब्याणमुवगया सिद्धा । सासयमच्चाबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥ १९॥ सिद्धत्तिय बुद्धत्ति य पारगपत्ति य परंपर-1 गयत्ति । उम्मुककम्मकवया अजरा अमरा असंगा य ॥२०॥ णिच्छिपणसव्वदुक्खा जाइजरामरणपंधण-II विमुक्का । अव्वाचाहं सुक्खं अणुहोति सासयं सिद्धा ॥ २१॥ अतुलसुहसागरगया अब्बाचाहं अणोवम पत्ता । सब्वमणागपमद्धं चिटुंती सुही सुई पत्ता ॥ २२ ॥ उपवाई उर्वगं समतं ॥ शुभं भवतु ॥ अन्धा १६०० ॥ सूत्राणि त्रिचत्वारिंशत्, गाथाः २५॥ श्री ।। | अथ प्रश्नोत्तरद्वारेण सिद्धानामेव वक्तव्यतामाह- कहि' इत्यादिश्लोकद्वयं, व प्रतिहताः-क प्रस्खलिताः सिद्धा:मुक्काः, तथाः क सिद्धाः प्रतिष्ठिता-व्यवस्थिता इत्यर्थः, तथा क बोन्दि-शरीरं त्यक्त्वा', तथा व गत्वा सिग्झइत्ति-आकृ. तत्वात् 'से हु चाइत्ति वुचई त्यादिवत् सिध्यन्तीति ब्याख्येयमिति ॥१॥ अलोके- अलोकाकाशास्ति काये प्रतिहताःस्खलिताः सिद्धा-मुक्ताः, प्रतिस्खलन चेहानन्तर्यवृत्तिमात्र, तथा लोकाने च-पशास्तिकायात्मकलोकमूर्धनि च प्रतिष्ठिता ॥११६॥ अपुनरागत्या व्यवस्थिता इत्यर्थः, तथा इह-मनुष्यक्षेत्रे बोन्दि-तर्नु परित्यज्य तत्रेति-लोकाने गत्वा सिझईत्ति-सिध्य १बहुवचनप्रक्रमेऽप्युपसंहार एकवचनेन यथा तत्र 'जे य कन्ते' इत्यादिनोपक्रम्य 'युचर' इति क्रिययोपसंहार एकवचनेन, व्याख्या४ायां तु बहुवचनं कृतं तथाऽत्रापीतिभावः. * केवलाकाशास्तिकाये प्र० दीप अनुक्रम [५५-७७]] सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~235~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [४३] + गाथा: ||१-२२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] गाथा: ||१-२२|| MSRDSTORSCOPERCENGLk न्ति निष्ठितार्था भवन्ति ॥ २ ॥ किञ्च-ज संठाणं' गाहा व्यक्ता, नवरं प्रदेशघनमिति त्रिभागेन रन्ध्रपूरणादिति, 'तहि' ति सिद्धिक्षेत्रे 'तस्स'त्ति सिद्धस्येति ॥ ३॥ तथा चाह-'दीहं वागाहा, दीर्घ वा-पञ्चधनुःशतमानं इस्खं वा-हस्तद्वयमानं, वाशब्दान्मध्यमवा, यच्चरमभवे भवेत्संस्थानं 'ततः तस्मात् संस्थानात् त्रिभागहीना त्रिभागेन शुषिरपूरणात् सिद्धानामवगाहना-अवगाहन्ते-अस्यामवस्थायामिति अवगाहना स्वावस्थैवेति भावः, भणिता-उक्ता जिनैरिति ॥ ४॥ अथावगाहनामेवोत्कृष्टादिभेदत आह-तिणि सये'त्यादि, इयं च पञ्चधनु शतमानानां 'चत्तारि येत्यादि तु सप्तहस्तानाम् 'एगा ये' त्यादि द्विहस्तमानानामिति । इयं च त्रिविधाऽप्यूर्वमानमाश्रित्यान्यथा सप्तहस्तमानानां च उपविष्टानां सिद्ध्यतामन्यथाऽपि स्यादिति । आक्षेपपरिहारी पुनरेवमत्र ननु नाभिकुलकरः पञ्चविंशत्यधिकपञ्चधनुःशतमानः प्रतीत एव, तदायोऽपि मरु। देवी तत्प्रमाणैव, उच्चत्तं चेव कुलगरेहि सममिति वचनात्, अतस्तदवगाहना उत्कृष्टावगहनातोऽधिकतरा प्राप्नोतीति कथं न विरोधः, अत्रोच्यते, यद्यप्युच्चत्वं कुलकरतुल्यं तद्योषितामित्युक्तं, तथापि प्रायिकत्वादस्य स्त्रीणां च प्रायेण पुम्भ्यो। लघुतरत्वात् पञ्चैव धनुःशतान्यसावभवत् , वृद्धकाले बा सङ्कोचात् पञ्चधनु शतमाना सा अभवद्, उपविष्टा वाऽसौ सिद्धेति न विरोधः, अथवा बाहुल्यापेक्षमिदमुत्कृष्टावगाहनामानं, मरुदेवी त्वाश्चर्यकल्पेत्येवमपि न विरोधः, ननु जघन्यतः सप्तहस्तोच्छ्रितानामेव सिद्धिः प्रागुक्ता, तत्कथं जघन्यावगाहना अष्टाङ्गलाधिकहस्तप्रमाणा भवतीति ?, अत्रोच्यते, | सप्तहस्तोच्छितेषु सिद्धिरिति तीर्थकरापेक्षं, तदन्ये तु द्विहस्ता अपि कूर्मपुत्रादयः सिद्धाः अतस्तेषां जघन्याऽवसेया, अन्ये १ उच्चत्वमेव कुलकरैः समं. दीप अनुक्रम [५५-७७]] कल SARERaunintenarana सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~ 236~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------------------------- मूलं [४३] + गाथाः ||१-२२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक औपपा तिकम् [४३] ॥११७॥ गाथा: ||१-२२|| त्याहुः-सप्तहस्तमानस्य संवर्तिताङ्गोपाङ्गस्य सियतो जघन्यावगाहना स्यादिति ॥७॥ 'ओगाहणाए' गाहा व्यक्ता, नव- सिद्धस्व० रम् 'अणित्यति अमुं प्रकारमापन्नमित्थं इत्थं तिष्ठतीति इत्थंस्थं न इत्थंस्थं अनित्थंस्थं-न केनचिलौकिकप्रकारेण स्थिसतिमिति ॥८॥ अर्थते कि देशभेदेन स्थिता उतान्यथेत्यस्यामाशङ्कायामाह-'जस्थ यगाहा, यत्र च-यत्रैव देशे एकः || सिद्धो-निर्वृत्तस्तत्र देशे अनन्ता किम् ?-'भवक्षयविमुक्ता' इति भवक्षयेण विमुक्ता भवक्षयविमुक्काः, अनेन स्वेच्छया भवाबतरणशक्तिमसिद्धव्यवच्छेदमाह । अन्योऽन्यसमवगाढाः तथाविधाचिन्त्यपरिणामत्वाद्धर्मास्तिकायादिवदिति, स्पृष्टाःलग्नाः सर्वे च लोकान्ते, अलोकेन प्रतिस्खलितवाद , अत एव 'लोयग्गे य पइडिया'इत्युक्तमिति ॥९॥ तथा 'फुसइ ४॥ गाहा, स्पृशत्यनन्तान्सिद्धान् सर्वपदेशैरात्मसम्बन्धिभिः 'णियमसो'त्ति नियमेन सिद्धः, तथा तेऽप्यसोयगुणा वर्तन्ते | देशैः प्रदेशश्च ये स्पृष्टाः, केभ्यः-सर्वप्रदेशस्पृष्टेभ्यः, कथम् -सर्वात्मप्रदेशैस्तावदनन्ताः स्पृष्टाः, एकसिद्धावगाहनायामनन्तानामवगाढत्वात् , तथैकैकदेशेनाप्यनन्ता एवमेकैकप्रदेशेनाप्यनन्ता एव, नवरं देशो-व्यादिप्रदेशसमुदायः, प्रदेशस्तु-नि-18 विभागोश इति, सिद्धश्वासयदेशप्रदेशात्मकः, ततश्च मूलानन्तकमसमवेयैर्देशानन्तकैरसपैरेव च प्रदेशानन्तकैगुणितं | यथोक्तमेव भवतीति । स्थापना चेयं ॥१०॥ अथ सिद्धानेव लक्षणत आह-'असरीरा' गाहा, उतार्था, सङ्घहरूपत्याच्चास्या न नरुक्तत्वमिति ॥ ११ ॥ 'उवउत्ता दंसणे य णाणे यत्ति यदुक्तं, तत्र ज्ञानदर्शनयोः सर्वविषयतामुपदर्श- का॥११७॥ यन्नाह-केवल गाहा, केवलज्ञानोपयुक्ताः सन्तः न त्वन्तःकरणोपयुक्ताः, भावतस्तदभावात् , जानन्ति 'सर्वभावगुणभावान्' समस्तवस्तुगुणपर्यायान् , तत्र गुणाः-सहवर्तिनः पर्यायास्तु-क्रमवर्तिन इति, तथा पश्यन्ति 'सर्वतः खलु' सर्वत दीप अनुक्रम [५५-७७]] सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~237~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [४३] + गाथा: ||१-२२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] गाथा: ||१-२२|| शाएवेत्यर्थः केवलदृष्टिभिरनन्ताभिः केवलदर्शनैरनन्तैरित्यर्थः, अनन्तत्वात् सिद्धानामनन्तविषयत्वाद्वा दर्शनस्य केवलदृष्टिभिरनन्ताभिरित्युक्तम् , इह चादौ ज्ञानग्रहणं प्रथमतया तदुपयोगस्थाः सिध्यन्तीति ज्ञापनार्थमिति ॥ १२ ॥ अथ सिद्धानां निरुपमसुखता दर्शयितुमाह-'णवि अस्थि'गाहा व्यक्ता, नवरम् 'अबाधाहति विविधा आवाधा व्यावाधा तन्निषेधादब्या-6 बाधा तामुपगतानां प्राप्तानामिति ॥१३॥ कस्मादेवमित्याह-'जं देवाण'गाहा, 'यतो'यस्माद्देवानाम्-अनुत्तरसुरान्तानां | 'सौख्य'त्रिकालिकसुखं सर्वाद्धया-अतीतानागतवर्तमानकालेन पिण्डितं-गुणितं सर्वाद्धापिण्डितं, तथाऽनन्तगुणमिति, तदे| वंप्रमाणं किलासनावकल्पनयकैकाकाशप्रदेशे स्थाप्यत इत्येवं सकललोकालोकाकाशानन्तप्रदेशपूरणेनानन्तं भवति, न च प्राप्नोति मुक्तिसुखं-नैव मुक्तिसुखसमानतां लभते, अनन्तानन्तत्वात्सिद्धसुखस्य, किंविधं देवसुखमित्याह-अनन्ताभिरपि | |'वर्गवर्गाभिः' वर्गवगैवर्गितमपि, तत्र तद्गुणो वर्गो यथाद्वयोर्वर्गश्चत्वारः तस्यापि वर्गो वर्गवर्गो यथा षोडश एवमनन्तशो वर्गि* तमपि। चूर्णिकारस्वाह-अनन्तैरपि वर्गवर्ग:-खण्डखण्डैः खण्डितं सिद्धसुखं तदीयानन्तानन्ततमखण्डसमतामपि न लभत इत्यर्थः, ततो नास्ति तन्मानुपादीनां सुखं यत्सिद्धानामिति प्रकृतम् ॥१४॥ सिद्धसुखस्यैवोत्कर्षणाय भजयन्तरेणाह-'सिद्ध|स्स'गाहा, "सिद्धस्य मुक्तस्य सम्बन्धी 'सुखः' सुखानां सत्को राशिः' समूहः सुखसङ्घातः इत्यर्थः, 'सर्वाद्धापिण्डितः सर्व ॥४|| कालसमयगुणितो यदि भवे, अनेन चास्य कल्पनामात्रतामाह, सोऽनन्तवभक्तो-अनन्तवर्गापवर्तितः सन्समीभूत एवेति भावार्थः, 'सर्वाकाशे'लोकालोकरूपे न मायात्, अयमत्र भावार्थः-इह किल विशिष्टाहादरूपं सुखं गृह्यते, ततश्च | यत आरभ्य शिष्टानां सुखशब्दप्रवृत्तिस्तमावादमवधीकृत्य एकैकगुणवृद्धितारतम्येन तावदसावाहादो विशिष्यते यावद ROCCASEASCkACANCER दीप अनुक्रम [५५-७७]] सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~ 238~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४३] + गाथा: ||१-२२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक औपपा [४३] ॥११॥ गाथा: ||१-२२|| नन्तगुणवृद्धया निरतिशयनिष्ठां गतः, ततश्चासावत्यन्तोपमातीतैकान्तिकोत्सुक्यविनिवृत्तिरूपः स्तिमिततममहोदधिकल्प-दीसिद्धस्व. श्वरमाहाद एव सदा सिद्धानां भवति, तस्माच्चारात्प्रथमाञ्चोर्ध्वमपान्तरालवर्तिनो ये तारतम्येनाहादविशेषास्ते सर्वाकाशप्रदेशराशेरपि भूयांसो भवन्तीत्यतः किलोक्त-सपागासे ण माएजत्ति, अन्यथा प्रतिनियतदेशावस्थितिः कथं तेषामिति || सूरयोऽभिदधतीति ॥ १५ ॥ अस्य च वृद्धोक्तस्याधिकृतगाथाविवरणस्यायं भावार्थः-य एते सुखभेदास्ते सिद्धसुखपर्यायतया ग्यपदिष्टाः, तदपेक्षया तस्य क्रमेणोत्कृष्यमाणस्यानन्ततमस्थानवर्तित्वेनोपचारात्, तद्राशिश्च किलासद्भावस्थाप-14 नया सहस्रं समयराशिस्तु शतं, सहस्रं च शतेन गुणितं जातं लक्ष, गुणनं च कृतं सर्वसमयसम्बन्धिनां सुखपर्यायाणां मीलनार्थं, तथाऽनन्तराशिः किल दश, तद्वर्गश्च शतं, तेनापवर्तितं लक्षं जातं सहस्रमेव, अतः पूज्यैरुक्तं 'समीभूत एवेति भावार्थ इति, यच्चेह सुखराशेर्गुणनमपवर्तनं च तदेवं सम्भावयामः-यत्र किलानन्तराशिना गुणितेऽपि सति अनन्तवर्गेणानन्तानन्तकरूपेणातीव महास्वरूपेणापवर्तिते किञ्चिदवशिष्यते, स राशिरतिमहान् , ततश्च सिद्धसुखराशिमहानिति बुद्धिजननार्थ शिष्यस्य तस्यैव वा गणितमार्गे व्युत्पत्तिकरणार्थमिति । अन्ये पुनरिमां गाथामेवं व्याख्यान्ति-सिद्धसुख& पोयराशिः नभःप्रदेशाग्रगुणितनभःप्रदेशाग्रप्रमाणः, तत्परिमाणत्वात्सिद्धसुखपर्यायाणां, सर्वाद्धापिण्डितः-सर्वसमयस ॥११८॥ सम्बन्धी सङ्कलितः सन् , स चानन्तैः अनन्तशो इत्यर्थः, वगैः-वर्गमूलभक्का-अपवर्तितः अत्यन्तं लघूकृत इत्यर्थः, यथा ४ किल सर्वसमयसम्बन्धी सिद्धसुखराशिः पञ्चषष्टिः सहस्राणि पश्च शतानि पत्रिंशच्चेति ( ६५५३६), स च वर्गेणापवर्तितः सन् जाते द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके (२५६) सोऽपि स्ववर्गापवर्तितो जाताः षोडश ततश्चत्वारः ततो द्वावित्येव दीप अनुक्रम [५५-७७]] सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~ 239~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [४३] + गाथा: ||१-२२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] गाथा: ||१-२२|| मितिलघूकृतोऽपि सर्वाकाशे न मायाद्, एतदेवाह-'सबागासे न माएजत्ति । अथ सिद्धसुखस्थानुपमतां दृष्टान्तेनाह'जह' गाहा, पूर्वार्धं व्यक्तं,'न चएईत्ति न शक्नोति परिकथयितुं नगरगुणानरण्यमागतोऽरण्यवासिम्लेच्छेभ्यः, कुत इत्याह| उपमायां त्वत्र नगरगुणेष्वरण्ये वाऽसत्यामिति, कथानकं पुनरेवम्-म्लेच्छः कोऽपि महारण्ये, वसति स्म निराकुलः । ४ अन्यदा तत्र भूपालो, दुष्टाश्वेन प्रवेशितः ॥१॥ म्लेच्छेनासौ नृपो दृष्टः, सत्कृतश्च यथोचितम् । प्रापितश्च निज देश, ॥४॥ | सोऽपि राज्ञा निजं पुरम् ॥२॥ ममायमुपकारीति, कृतो राज्ञाऽतिगौरवात् । विशिष्टभोगभूतीनां, भाजनं जनपूजितः P ॥ ततः प्रासादशृङ्गेषु, रम्येषु काननेषु च । वृतो विलासिनीसाथै ते भोगसुखान्यसौ ॥४॥ अन्यदा प्रावृषः प्राप्ती, मेघाडम्बरमण्डितम् । व्योम दृष्ट्वा धनि श्रुत्वा, मेघानां स मनोहरम् ॥ ५ ॥ जातोरकण्ठो दृढं जातोऽरण्यवासगर्म प्रति । विसर्जितश्च राज्ञाऽपि, प्राप्तोऽरण्यमसौ ततः॥६॥ पृच्छन्त्यरण्यवासास्त, नगरं तात ! कीदृशम् ।। स स्वभावान् पुरः सर्वान, जानात्येव हि केवलम् ॥७॥ न शशाक तका (तरां) तेषां, गदितुं स कृतोद्यमः । वने वनेचराणां हि, नास्ति सिद्धोपमा यतः(तथा)॥८॥१६॥ अथ दान्तिकमाह-'इय' गाहा,'इति' एवम्-अरण्ये नगरगुणा |इवेत्यर्थः, सिद्धानां सौख्यमनुपम वर्तते, किमित्याह-यतो नास्ति तस्यौपम्यं, तथापि बालजनप्रतिपत्तये किञ्चिद्विशेषेणाह एत्तोति आपत्वादस्य-सिद्धिसुखस्य इतो वाऽनन्तरम् औपम्यम्-उपमानम् 'इदं वक्ष्यमाणं शृणुत वक्ष्ये इति ॥ १७॥ 'जहगाहा, 'यथे'त्युदाहरणोपन्यासार्थः 'सर्वकामगुणित' सञ्जातसमस्तकमनीयगुणं, शेष व्यक्तम्, इह च रसनेन्द्रियमे| वाधिकृत्येष्टविषयप्राप्त्या औरसुक्यनिवृत्त्या सुखप्रदर्शनं सकलेन्द्रियार्थावाप्स्याऽशेषीत्सुक्यनिवृत्युपलक्षणार्थम्, अन्यथा दीप अनुक्रम [५५-७७]] सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~240~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [४३] + गाथा: ||१-२२|| दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१२], उपांग सूत्र - [१] "औपपातिक मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: S प्रत सूत्रांक औपपा- सिद्धस्व. तिकम् [४३] ॥११९॥ %4- % गाथा: ||१-२२|| बाधान्तरसम्भवात् सुखार्थाभाव इति ॥१८॥ 'इय' गाहा,'इय' एवं सर्वकालतृप्ताः शश्वदावत्वात् अतुल निर्वाणमुपगताः सिद्धाः, सर्वदा सकलौत्सुक्यनिवृत्तः, यतश्चैवमतः 'शाश्वतं सर्वकालभावि 'अव्यावाघ व्यावाधावर्जितं सुख प्राप्ताः सुखिनस्तिष्ठन्तीति योगः, सुखं प्राप्ता इत्युक्ते मुखिन इत्यनर्थकमिति चेत्, नैवं, दुःखाभावमात्रमुक्तिसुखनिरासेन वास्तव्यसुखप्रति|पादनार्थत्वादस्य, तथाहि-अशेषदोपक्षयतः शाश्वतमव्यावाधसुखं प्राप्ताः सुखिनः सन्तः तिष्ठन्ति, न तु दुःखाभावमात्रा-1 | स्विता एवेति ॥ १९ ॥ साम्प्रतं वस्तुतः सिद्धपर्यायशब्दान् प्रतिपादयन्नाह-'सिद्धत्ति य' गाहा, सिद्धा इति च तेषां नाम कृतकृत्यत्वाद्, एवं बुद्धा इति केवलज्ञानेन विश्वावबोधात् , पारगता इति च भवार्णवपारगमनात , परंपरगयत्ति-पुण्यबीजसम्यक्त्वज्ञानचरणक्रमप्राप्युपाययुक्तत्वात् परम्परया गता परम्परगता उच्यन्ते,उन्मुक्तकमैकवचाः सकलकर्मवियुक्तत्वात्, तथा अजरा वयसोऽभावाद् अमरा आयुषोऽभावात् असङ्गाश्च सकलक्लेशाभावादिति ।। २०॥ 'निच्छिण्ण'गाहा 'अतुल गाहा व्यक्ता) एवेति ॥२शा२२॥ इति श्रीऔषपातिकवृत्तिः समाप्तेति ॥ चन्द्रकुलविपुलभूतलयुगप्रवरवर्धमानकल्पतरोः। कुसुमोषमस्य सूरेः गुणसौरभभरितभवनस्य ॥१॥ निस्सम्बन्धविहारस्य सर्वदा श्रीजिनेश्वराहस्य । शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणेयं कृता वृत्तिः ॥२॥ अणहिलपाटकनगरे श्रीमद्रोणाख्यसूरिमुख्येन । पण्डितगुणेन गुणवत्प्रियेण संशोधिता चेयम् ॥ ३॥ ग्रन्थानम् ॥ ३१२५ ॥ ॥ इति श्रीमदभयदेवसूरिसूत्रितश्रीमद्रोणाचार्यशोधितवृत्तियुतमौपपातिकमाद्यमुपाङ्गं समाप्तम् ॥ % दीप अनुक्रम % [५५-७७]] *% आगमसूत्र १२, [उपांगसूत्र ०१] 'औपपातिक' मूलसूत्र + अभयदेवसूरि सूत्रित वृत्ति: परिसमाप्त: । मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र १२) “औपपातिक” परिसमाप्त: । ~241~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) ॥ इति श्रीमदभयदेवसूरिसूत्रितश्रीमद्रोणाचार्यशोधित दृत्तियुतमौपपातिकमाद्यमुपाङ्गं समाप्तम् ॥ ISRUSumauncudae मुल सम्पादकेन संपादित: "औपपातिक" -प्रथम उपांगस्य अंतिम पष्ठ: १२) मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र “औपपातिक” परिसमाप्त: ~242~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः 12 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। __“औपपातिक(उपांग)सत्र" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ] / (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “औपपातिक” मूलं एवं वृत्ति:” नामेण परिसमाप्त: - Remember it'sa Net Publications of jain_e_library's' ~243~