________________
नये युगकी झलक
१३
(१५) 'वीतरागकी पूजा क्यो ?” (३१) व 'वीतरागसे प्रार्थना क्यो ?' (३२) जैसे लेखो द्वारा मुख्तारजीने तत्सम्बन्धी जैन दृष्टिकोणका शास्त्रीय एव निर्विकार रीति से प्रतिपादन किया व प्रचलित धारराम्रो और विधियोमे परिष्कार करानेका प्रयत्न किया ।
जैन धर्म अपने मौलिक स्वरूप व रीति-नीतिमे प्रजातत्रात्मक है । वह मनुष्य वर्गमे जन्मत नीच उंचका भेद स्वीकार नही करता और सभीको धर्म पालनका समान अधिकार प्रदान करता है। किन्तु दुर्भाग्यत जैन समाजमे भी नीच ऊँचकी भावनाए और जाति-पांतिके नाना भेद-भाव उत्पन्न हो गये । मुख्तारजीने अपने 'जैनियोमे दयाका प्रभाव' (७) व 'जैनियोका अत्याचार' (६) जैसे लेखों-द्वारा इस विकारकी ओर सबका ध्यान आकर्षित किया। उन्होने 'जिन'पूजाधिकार मीमामा' (८) 'जातिभेद पर श्रमितगति' (१८) तथा 'जैनी कौन हो सकता है ? ' (२४) आदि लेखो मे शास्त्रीय प्रमाणोसे भले प्रकार सिद्ध कर दिखाया कि वर्ण व जाति एव दस्सा - बीसा - जैसे प्रर्थहीन भेद-भाव के प्राधारसे किसीको जैनधर्मका पालन करने व मन्दिरोमे दर्शन-पूजन के अधिकार से वचित रखना सर्वथा अनुचित है। 'चारुदत्त सेठका शिक्षाप्रद उदाहरण' (१२) 'वसुदेवका शिक्षाप्रद उदाहरण' (१३) 'गोत्र- स्थिति व सगोत्र विवाह' (१६) 'प्रसवर व श्रन्तर्जातीय विवाह' (२०) आदि लेखोमे उन्होने पौराणिक उदाहररण दे देकर सिद्ध किया कि नीच ऊँच व गोत्र - मूर आदि भेदभाव सारहीन है व उनका जैन परम्परात्मक विवाह संबधी नियमो मे कोई स्थान व महत्व नही हे ।
समाजके स्थिति - पालक कहे जानेवाले दलको मुख्तारजीके सुधारक विचारोंसे बडी ठेस पहुँची; किन्तु आज तक भी कोई उन के शास्त्रीय प्रमाणों एवं तदाश्रित युक्तियों और तर्कोको काट नही सका। और अब तो प्राय ये सभी सुधार बहुजनसमाजमे मौन