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युगवीर - निबन्धावली
नही देती । जो स्वयं अपनी छाया से प्राप डरते हैं ।" इत्यादि, इत्यादि ।
यह जो हमारे नवयुवकोकी निर्बलताका चित्ररण आजसे अर्थशताब्दी पूर्व किया गया था, क्या वह आज भी सत्य नही है ? इस स्थितिको सुधारनेके जो उपाय लेखमे बतलाये गये हैं वे प्राज भी ध्यान देने योग्य हैं ।
इस प्रकार पाठक देखेंगे कि इन पुराने लेखोमे ऐतिहासिक महत्व के अतिरिक्त वर्तमान परिस्थितियों के मबन्धमे भी मार्ग-दर्शन की प्रचुर सामग्री उपलब्ध है ।
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प्रस्तुत ग्रह के जैन इतिहास, धर्म और समाज-विषयक लेख तो उस-उस क्षेत्रमे रुचि रखनेवाले पाठको व लेग्वकोको अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगे, क्योकि उनमे एक कुशल, अनुभवी विद्वान और निष्पक्ष समालोचकके विचार निहित है। महावीरकी तीर्थ-प्रवर्तन तिथि (२६) श्रीधवलम तो एक हजार वर्षोंसे निर्दिष्ट थी, किन्तु मुख्तारजी ने उस ओर समाजका ध्यान मन १९३६ मे विशेष रूपसे आकर्षित किया। इतना ही नहीं, किन्तु उन्होने उस दिन राजगृहके विपुलाचल पर्वत पर जहाँ भगवान महावीरका उपदेश हुआ था, एक महोत्सव मनानेकी प्रथा प्रचलित करनेका भी प्रयास किया । 'महावीरका सर्वोदय - तीथ' (४०) लिखकर उन्होने जैनधर्मके अनेकान्त सिद्धान्तके प्रचारकी एक प्रशस्त भूमिका निर्मारण की । 'सर्वोदय के मूलसूत्र' (८१) मे उन्होंने १२० वाक्योंमे अनेकान्त मिद्धान्तका निचोड भी रख दिया । "जैनी नीति" (२३) मे अमृतचन्द्राचार्यकी ग्वालिनकी उपमा-द्वारा अनेकान्तकी सारग्राहिणी शक्तिका उन्होने अच्छा परिचय कराया और वर्षो तक अनेकान्तमें उसके चित्रण व लेखो द्वारा उसका खूब प्रचार किया। "जिनपूजाधिकार - मीमासा' (८), 'उपासना-तत्त्व' (१४), 'उपासनाका ढग'