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नये युगकी झलक
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वार्तालापो और व्यवहारोके द्वारा हिन्दीका महत्त्व प्रकट करते हुए सर्व-साधारणमे हिन्दीका प्रेम उत्पन्न कीजिये । साथ ही, हिन्दी ग्रन्थो तथा हिन्दी पत्रोकी प्राप्तिका मार्ग इतना सुगम कर दीजिये कि उनके लिये किसीको भी कष्ट न उठाना पडे । यह सब कुछ हो जाने पर आप देखेगे कि हिन्दी राष्ट्रभाषा बन गई । "
इस लेख के लिखे जानेसे प्राज ४५-४६ वर्ष हो जाने पर भी हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने-बनानेकी समस्या जैसीकी तैसी बनी हुई हैं, और लेखककी वह ललकार ग्राज भी उतनी ही सार्थक है । उसमे उन लोगोके लिये एक चुनौती भी है जो स्वयं अपना कर्तव्य पूरा न करते हुए उक्त विषय पर सरकारकी उपेक्षाकी शिकायत किया करते हैं ।
'हमारी यह दुर्दशा क्यो ?" शीर्षक छठे लेखमे भारतके समुज्वल और समृद्ध भूतकालका चित्रण करके आजके शक्ति ह्रासके सम्बन्ध मे कहे गये शब्द ध्यान देने योग्य है
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' और आज उसी भारतवषमे हमारे चारो तरफ प्राय ऐसे ही मनुष्योकी सृष्टि नज़र आती है जिनके चहरे पीले पड गये हैं । १२१३ वर्षकी अवस्थामे ही जिनके केश रूपा होने प्रारम्भ हो गये है । जिनकी आँखे और गाल बैठ गये है। मुंह पर जिनके हवाई उडती है । होठो पर हरदम जिनके खुश्की रहती है । थोडासा बोलने पर मुख और कठ जिनका सूख जाता है । हाथ और पैरोके तलुनोसे जिनके अग्नि निकलती है। जिनके पैरोमे जान नही और घुटनोमे दम नही । जो लाठी के सहारे चलते है और ऐनक के सहारे देखते है । जिनके कभी पेट दर्द है, तो कभी सिरमे चक्कर | कभी जिनका कान भारी है, तो कभी नाक । श्रालस्य जिनको दबाये रहता है । साहस जिनके पास नही फटकता । वीरता जिनको स्वप्नमे भी दर्शन