________________
१७
ऐसा उन का मत है । किन्तु नित्य आत्मा का अस्तित्व प्रत्यभिज्ञान प्रमाण से तथा प्रतिदिन के व्यवहार से भी प्रतीत होता है । आत्मा न हो तो मुक्ति का प्रयास व्यर्थ होगा तथा पुनर्जन्म को कोई अर्थ नही रहेगा । बौद्धों ने निर्वाण मार्ग के रूप में चार आर्यसत्य और सम्यक् दृष्टि आदि आठ अंग बतलाये हैं । किन्तु यदि मुक्ति जिसे प्राप्त होती है उस आत्मा को ही वे नही मानते तो मुक्ति के मार्ग का कोई अर्थ नही रहता । क्षणिकवाद के ही कारण बौद्ध प्रत्यक्ष ज्ञान को निर्विकल्पक मानते हैं । किन्तु नाम, जाति, संख्या आदि कल्पनाओं से सहित सविकल्पक प्रत्यक्ष का अस्तित्व तथा प्रामाण्य भी अवश्य मानना चाहिए (पृ. २८७-३०५)। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में वैदिक तथा अवैदिक दोनों प्रकार के प्रमुख दर्शनों से जैन दर्शन के मतभेद तथा समानताओं का संक्षिप्त किन्तु स्पष्ट चित्रण प्रस्तुत किया गया है ।
प्रस्तावना
९. लेखक द्वारा उपयुक्त सामग्री
जैसा कि स्वाभाविक ही है- भावसेन ने विभिन्न दर्शनों के पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्ष लिखते समय पूर्ववर्ती आचार्यों की कृतियों का पर्याप्त उपयोग किया है । हम यहां समयक्रम से उन प्रमुख कृतियों का निर्देश करेंगे जो स्पष्टतः लेखक के सन्मुख रही हैं
I
जैन कृतियां लेखक ने पुद्गल का लक्षण बतलाते समय उमास्वाति के तत्त्रार्थसूत्र का एक सूत्र उद्धृत किया है ( पृ. २२२ ) । सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध करनेवाला अनुमान तथा बाह्य पदार्थों के अस्तित्व का विधान समन्तभद्र की आप्तमीमांसा से उद्धृत किये हैं (पृ. ३६ व ११३ ) । वेद पुरुषकृत हैं क्यों कि उन में ऋषियों आदि के नामोल्लेख हैं यह तर्क पात्रकेसरिस्तोत्र से प्रभावित है ( पृ. ८९ ) । पूज्यपाद के समाधितन्त्र से दो श्लोक उद्धृत किये हैं ( पृ. ६५ व २३८ ), पहले में शरीर में परमाणुओं के आवागमन का वर्णन है तथा दूसरे में शरीर के कार्यों में इच्छा और द्वेष की अवश्यम्भाविता बतलाई है । अकलंक के
१ इन के समयादि के बारे में विवरण प्रस्तावना के अगले भाग 'जैन तार्किक साहित्य' में दिया है ।
वि. त.प्र. २
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org