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विश्वतत्त्वप्रकाशः
अनुमान को तो प्रमाण पदार्थ में सम्मिलित करते हैं किन्तु अनुमान के अवयव, दृष्टान्त, दोष आदि को पृथक पदार्थ मानतें हैं। उन्हों ने ज्ञानयोग, भक्तियोग तथा क्रियायोग का प्रतिपादन किया है किन्तु इन का अधारभूत तत्त्व ईश्वर है और ईश्वर का अस्तित्व मानना उचित नही यह पहले बतलाया है (पृ.२३९-२५१) ।
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मीमांसादर्शन विचार - भाट्ट मीमांसक अन्धकार को द्रव्य मानते हैं, नैयायिक आदि उसे प्रकाश का अभाव मात्र कहते हैं । यहां मीमांसकों का मत जैन दृष्टि के अनुकूल है । इसी तरह प्राभाकर मीमांसक किसी द्रव्य की शक्ति को अनुमेय मानते हैं, नैयायिक शक्ति को भी प्रत्यक्ष का ही विषय मानते हैं । यहां भी मीमांसकों का मत जैन दृष्टि के अनुकूल है । वैसे मीमांसकों का मुख्य मत वैदिक यज्ञों आदि के महत्त्व पर जोर देता है - उस का पहले खण्डन हो चुका है (पृ. २५२-२६० ) । सांख्यदर्शनविचार -- सांख्यों के मत से जगत का मूल कारण प्रकृति नामक जड तत्त्व है तथा वह सत्त्व, रजस् और तमस् इन तीन गुणों से बना है । बुद्धि, अहंकार, इन्द्रिय तथा पंच महाभूत इन्हीं से बने हैं । किन्तु जैन दृष्टि से बुद्धि, अहंकार ये चैतन्यमय जीव के कार्य हैं - जड प्रकृति के नही । सांख्यों का दूसरा प्रमुख मत है सत्कार्यवादकार्य नया उत्पन्न नही होता, कारण में विद्यमान ही होता है यह उन का कथन है । किन्तु यह प्रत्यक्ष व्यवहार से विरुद्ध है । सांख्य पुरुष को अकर्ता मानते हैं - बन्ध और मोक्ष पुरुष के नही होते, प्रकृति के ही होते हैं यह उन का कथन है । जैन दृष्टि से यह उचित नही क्यों कि जो भोक्ता है वह कर्ता अवश्य होता है । यदि नही होते तो मोक्ष के लिए प्रयास व्यर्थं ही सिद्ध केवल ज्ञान से मुक्ति मिलती है यह सांख्य मत भी अयोग्य है, ज्ञान और चरित्र के संयुक्त होने पर ही मुक्ति प्राप्त होती है ऐसा मानना चाहिए (पृ. २६१-२८६) ।
बन्ध - मोक्ष पुरुष के होगा । इसी तरह
बौद्ध दर्शन - विचार - इस दर्शन के विचार में प्रमुख विषय क्षणिकवाद है । बौद्ध आत्मा जैसा कोई शाश्वत तत्व नही मानते । रूप, संज्ञा, वेदना, विज्ञान, संस्कार इन पांच स्कन्धों से ही सब कार्य होते हैं
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