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पडिवज्जिऊण दोसे, निअए सम्मं च पायपडिआए । तो किर मिगावईए, उप्पन्नं केवलं नाणं ॥३४॥
शब्दार्थ : अपने दोष स्वीकारकर सम्यक् प्रकार से गुरु के चरणों में पड़ी; इसी कारण मृगावती को केवलज्ञान प्राप्त हुआ ||३४||
किं सक्का वोत्तुं जे, सरागधम्मंमि कोइ अकसाओ । जो पुण धरिज्ज धणियं, दुव्वयणुज्जालिए स मुणी ॥ ३५ ॥
शब्दार्थ : क्या यह कहा जा सकता है कि सरागधर्म में अकषायी कोई होता है ? नहीं, मगर इस धर्म से युक्त जो साधक दुर्वचन रूपी आग से प्रज्वलित न होकर अकषाय को धारण करता है, वह धन्य है, वही वास्तव में मुनि है ॥ ३५ ॥ कडुअं कसायतरुणं, पुप्फं च फलं च दोवि विरसाई । पुप्फेण झाइ कुविओ, फलेण पावं समायरइ ॥ ३६ ॥
शब्दार्थ : कषाय रूपी वृक्ष के फूल और फल दोनों कड़वे और बेस्वाद होते हैं । फूल के कारण व्यक्ति कुपित होता है और फल के कारण पाप का आचरण करता है ||३६|| ॥३६॥ संतेऽवि कोऽवि उज्झइ, कोवि असंतेऽवि अहिलसइ भोए । चयइ परपच्चएण वि, पभवो दट्ठण जह जंबू ॥३७॥
शब्दार्थ : विषयभोग के साधन होने पर भी कोई उन्हें छोड़ देता है और कोई विषयभोग के साधन अपने पास न होने पर उनको पाने की (मन ही मन ) अभिलाषा करता है । कोई दूसरे
उपदेशमाला
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