Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 11
________________ कह तं भन्नइ सोक्खं, सुचिरेणवि जस्स दुक्खमल्लियइ । जं च मरणावसाणे, भव संसाराणुबंधि च ॥३०॥ __शब्दार्थ : चिरकाल के बाद भी जिसके परिणाम में दुःख निहित है, उसे सुख कैसे कहें? और मृत्यु के बाद जिसके साथ भव (जन्म-मरणरूप संसार) का अनुबंध होता है ॥३०॥ उवएससहस्सेहिं वि, बोहिज्जंतो न बुज्झई कोई । जह बंभदत्तराया, उदाइनिवमारओ चेव ॥३१॥ ___ शब्दार्थ : किसी मनुष्य को हजारों प्रकार से उपदेश देने पर भी प्रतिबोध नहीं होता। जैसे ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती और उदायी राजा को मारने वाले को बोध नहीं हुआ ॥३१॥ गयकन्नचंचलाए, अपरिचत्ताए, रायलच्छीए । जीवा सकम्मकलिमलभरियभरा तो पडंति अहे ॥३२॥ शब्दार्थ : जो जीव, हाथी के कान की तरह चंचल राजलक्ष्मी को नहीं छोड़ते, वे अपने दुष्कर्म के कलिमल के भार से अधोगति में गिरते हैं ॥३२॥ वोत्तूणवि जीवाणं, सुदुक्कराइं ति पावचरियाई । भयवं जा सा सा सा, पच्चाएसो हु इणमो ते ॥३३॥ शब्दार्थ : कितने ही जीवों के पापचरित्रों को मुख से कहना भी अति दुष्कर होता है । इस बारे में दृष्टांत हैभगवान् से पूछा-यह वही है ? भगवान् ने कहा-हाँ, यह वही है ॥३३॥ उपदेशमाला

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