Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 9
________________ में प्रवृत्त होने में खुद शंकित होगा । जैसे राजा जनपद (देश) की रक्षा करता है, वैसे ही उन्मार्ग में गिरते हुए व्यक्ति की वेष भी रक्षा करता है ॥२२॥ अप्पा जाणइ अप्पा, जहट्ठिओ अप्पसक्खिओ धम्मो । अप्पा करेइ तं तह, जह अप्पसुहावओ होइ ॥२३॥ शब्दार्थ : आत्मा ही अपने आप (आत्मा) को यथार्थ (यथास्थित) रूप से जानता है । इसीलिए आत्म-साक्षी का धर्म ही प्रमाण है । इससे आत्मा को वही क्रियानुष्ठान करना चाहिए, जो अपने (आत्मा के लिए सुखकारी हो ॥२३॥ जं जं समयं जीवो, आविसइ जेण जेण भावेण । सो तम्मि तम्मि समए, सुहासुहं बंधए कम्मं ॥२४॥ शब्दार्थ : जीव जिस जिस समय जैसे-जैसे भाव करता है, उस-उस समय वह शुभ या अशुभ कर्म बाँधता है ॥२४॥ धम्मो मएण हुँतो, तो नवि सीउण्हवायविज्झडिओ। संवच्छरमणसिओ, बाहुबली तह किलिस्संतो ॥२५॥ __शब्दार्थ : यदि धर्म अभिमान से होता तो बाहुबलि को; जो शीत, उष्ण, वायु आदि कठोर परिषह सहते हुए एक वर्ष तक निराहार रहे, वहाँ केवल ज्ञान हो जाता (पर हुआ नहीं) ॥२५॥ निअगमइविगप्पिय-चिंतिएण, सच्छंदबुद्धिरइएण । कत्तो पारत्तहियं, कीरइ गुरु-अणुवएसेणं ॥२६॥ उपदेशमाला

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