Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 7
________________ ग्रहण करने की इच्छा नहीं की । ऐसा विनय सभी साध्वियों के लिए कहा है ॥१४॥ वरिससयदिक्खियाए, अज्जाए अज्जदिक्खिओ साहू | अभिगमण वंदण-नमंसणेण, विणएण सो पुज्जो ॥१५॥ शब्दार्थ : आज का दीक्षित साधु हो तो भी वह सौ वर्ष की दीक्षित साध्वी के द्वारा अभिगमन (सामने जाना) वंदन और नमस्कार से तथा विनय से पूजनीय है ॥१५॥ धम्मो पुरिसप्पभवो, पुरिसवरदेसिओ, पुरिसजि । लोएवि पहू पुरिसो, किं पुण लोगुत्तमे धम्मे ॥ १६ ॥ शब्दार्थ : धर्म पुरुष के द्वारा उत्पन्न हुआ है यानी प्रचलित किया हुआ है । और श्रेष्ठ पुरुष ने ही धर्म का प्रथम उपदेश दिया है । अत: पुरुष ही ज्येष्ठ (बड़ा ) है । लोक व्यवहार में भी पुरुष ही स्वामी माना जाता है, तो लोकोत्तम धर्म में पुरुष की ज्येष्ठता मानी जाय, इसमें कहना ही क्या ? संवाहणस्स रन्नो, तइया वाणारसीए नयरीए । कणासहस्समहियं, आसी किर रुववंतीणं ॥१७॥ तहवि य सा रायसिरि, उल्लहंती न ताइया ताहिं । उयरठ्ठिएण इक्केण, ताइया अंगवीरेण ॥ १८ ॥ ॥ १६ ॥ शब्दार्थ : उस समय वाणारसी नगरी में संबाधन नामक राजा के अति रूपवती हजार कन्याएँ थीं । तथापि उसकी राजलक्ष्मी को लूटते समय वे रक्षा नहीं कर सकी । परंतु उपदेशमाला ७

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