Book Title: Updeshmala Author(s): Dharmdas Gani Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 8
________________ गर्भ में रहे हुए अंगवीर्य नाम के पुत्र ॥१७-१८॥ ने उसकी रक्षा की महिलाण सुबहुयाणवि, मज्झाओ इह समत्थघरसारो रायपुरिसेहिं निज्जइ, जणेवि पुरिसो जहिं नत्थि ॥ १९ ॥ शब्दार्थ : इस जगत् में जिसके घर में पुत्र नहीं होता, वहाँ बहुत सी महिलाओं के रहते हुए भी समस्त घर का सार (धन) राजपुरुष ले जाते हैं ॥१९॥ किं परजण-बहुजाणावणाहिं, वरमप्पसक्खियं सुकयं । इह भरहचक्कवट्टी, पसन्नचंदो य दिठ्ठता ॥२०॥ शब्दार्थ : दूसरे लोगों को बहुत (धर्मक्रिया) बताने से क्या मतलब? सुकृत आत्मसाक्षिक करना ही श्रेष्ठ है । इस विषय में भरतचक्रवर्ती और प्रसन्नचन्द्र का दृष्टांत जानें ||२०|| वेसोवि अप्पमाणो, असंजमपएसु वट्टमाणस्स । किं परियत्तियवेसं, विसं न मारेइ खज्जंतं ॥२१॥ शब्दार्थ : असंयम-मार्ग में चलने वाले मुनि का वेष भी अप्रमाण है । क्या वेष बदल लेने वाले मनुष्य को जहर खाने पर वह मारता नहीं? अवश्य मारता है ॥ २१ ॥ धम्मं रक्खइ वेसो, संकइ वेसेण दिक्खिओम अहं । उम्मग्गेण पडतं, रक्खइ राया जणवउव्व ॥२२॥ शब्दार्थ : वेष धर्म की रक्षा करता है । वेष होने से (समणोऽहं ) 'मैं दीक्षित हूँ,' ऐसा जानकर किसी बुरे कार्य उपदेशमाला ८Page Navigation
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