Book Title: Updeshmala Author(s): Dharmdas Gani Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 5
________________ शब्दार्थ : राजा जो आज्ञा देता है, उस आज्ञा को सेवक और प्रजाजन शिरोधार्य करते हैं; उसी तरह गुरुजन अपने मुख से जो कहते हैं, उसे शिष्यों को हाथ जोड़कर सुनना चाहिए ॥७॥ जह सुरगणाण इंदो, गहगणतारागणाण जह चंदो । जह य पयाण नरिंदो, गणस्सवि गुरु तहा णंदो ॥८॥ शब्दार्थ : जैसे देवताओं के समूह में इन्द्र, ग्रह गणों में एवं तारा गणों में चन्द्रमा और प्रजाओं में राजा श्रेष्ठ है; वैसे ही साधुसमूह में आनन्दप्रदायक गुरु श्रेष्ठ हैं ॥८॥ बालुत्ति महीपालो, न पया परिभवइ एस गुरु-उवमा । जं वा पुरओ काउं, विहरंति मुणी तहा सोऽवि ॥९॥ शब्दार्थ : जैसे राजा बालक होने पर भी, प्रजा उसका अपमान नहीं करती; यही उपमा गुरु को दी गयी है । जैसे गीतार्थ मुनि चाहे बालक हो; उस बाल गुरु को भी प्रमुख मानकर विचरण करना चाहिए ॥९॥ पडिरुवो तेयस्सी, जुगप्पहाणागमो महुरवक्को । गंभीरो धिइमंतो, उवएसपरो अ आयरिओ ॥१०॥ शब्दार्थ : तीर्थंकर आदि के समान रूप वाले, तेजस्वी, युगप्रधान, मधुरवक्ता, गंभीर, धृतिमान और उपदेश देने वाले आचार्य होते हैं ॥१०॥ उपदेशमालाPage Navigation
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