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समझे बिना किसी संगीतका स्वर रुच जाय वैसे | मात्र ऐसी कर्णप्रिय क्रीड़ामेंसे मोक्षका अनुसरण करनेवाले आचरण तक आनेमें तो बहुत समय निकल जाय। अंतरंग वैराग्यके विना मोक्षकी लगन नहीं होती । वैराग्यका तीव्र भाव कविमें था ।
.....व्यवहारकुशलता और धर्मपरायणताका जितना उत्तम मेल मैंने कवि में देखा उतना किसी अन्यमें नहीं देखा । "
गृहस्थाश्रम
सं० १९४४ माघ सुदी १२ को १९ वर्षकी आयुमें उनका पाणिग्रहणसंस्कार, गांधीजीके परममित्र स्व० रेवाशंकर जगजीवनदास महेताके बड़े भाई पोपटलालकी पुत्री झबकबाईके साथ हुआ था । इसमें दूसरोंकी 'इच्छा' और 'अत्यन्त आग्रह' ही कारणरूप प्रतीत होते हैं । पूर्वोपार्जित कर्मोंका भोग समझकर ही उन्होंने गृहस्थाश्रममें प्रवेश किया, परन्तु इससे भी दिन-पर-दिन उनकी उदासीनता और वैराग्यका बल बढ़ता ही गया । आत्मकल्याणके इच्छुक तत्त्वज्ञानी पुरुषके लिए विषम परिस्थितियाँ भी अनुकूल बन जाती हैं, अर्थात् विषमतामें उनका पुरुषार्थ और भी अधिक निखर उठता है । ऐसे ही महात्मा पुरुष दूसरोंके लिये भी मार्गप्रकाशक - दीपकका कार्य करते हैं ।
श्रीमद्जी गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी अत्यन्त उदासीन थे। उनकी दशा, छहढालाकार पं० दौलतरामजी के शब्दोंमें 'गेही पै, गृहमें न रचे ज्यों जलतें भिन्न कमल है'-- जैसी निर्लेप थी । उनकी इस अवस्था में भी यही मान्यता रही कि "कुटुम्वरूपी काजलकी कोठड़ीमें निवास करनेसे संसार बढ़ता है । उसका कितना भी सुधार करो तो भी एकान्तवाससे जितना संसारका क्षय हो सकता है उसका शतांश भी उस काजलकी कोठड़ी में रहनेसे नहीं हो सकता, क्योंकि वह कषायका निमित्त है और अनादिकालसे मोहके रहनेका पर्वत है" । " फिर भी इस प्रतिकूलतामें वे अपने परिणामोंकी पूरी सँभाल रखकर चले । यहाँ उनके अन्तरके भाव एक मुमुक्षुको लिखे गये पत्र में इसप्रकार व्यक्त हुए हैं-- 'संसार स्पष्ट प्रीतिसे करनेकी इच्छा होती हो तो उस पुरुषने ज्ञानीके वचन सुने नहीं अथवा ज्ञानीके दर्शन भी उसने किये नहीं ऐसा तीर्थंकर कहते हैं ।' 'ज्ञानी पुरुषके वचन सुननेके बाद स्त्रीका सजीवन शरीर अजीवनरूप भास्यमान हुए बिना रहे नहीं' ।' इससे स्पष्ट प्रगट होता है कि वे अत्यन्त वैरागी महापुरुष थे ।
सफल व्यापारी
व्यापारिक झंझट और धर्मसाधनाका मेल प्रायः कम बैठता है, परन्तु आपका धर्म-आत्मचिन्तन तो साथमें ही चलता था । वे कहते थे कि धर्मका पालन कुछ एकादशीके दिन ही पर्यूषणमें ही अथवा मंदिरोंमें ही हो और दुकान या दरबारमें न हो ऐसा कोई नियम नहीं, बल्कि ऐसा कहना धर्मतत्त्वको न पहचानने के तुल्य है । श्रीमद्जीके पास दुकान पर कोई न कोई धार्मिक पुस्तक और दैनंदिनी ( डायरी ) अवश्य होती थी । व्यापारकी बात पूरी होते ही फौरन धार्मिक पुस्तक खुलती या फिर उनकी वह डायरी कि जिसमें कुछ न कुछ मनके विचार वे लिखते ही रहते थे । उनके लेखोंका जो संग्रह प्रकाशित हुआ है उसका अधिकांश भाग उनकी नोंघपोथीमेंसे लिया गया है ।
श्रीमद्जी सर्वाधिक विश्वासपात्र व्यापारीके रूपमें प्रसिद्ध थे । वे अपने प्रत्येक व्यवहारमें सम्पूर्ण प्रामाणिक थे । इतना बड़ा व्यापारिक काम करते हुये भी उसमें उनकी आसक्ति नहीं थी । वे बहुत ही
१. देखिये --'श्रीमद्राजचन्द्र' ( गुजराती ) पत्र क्र० ३० २. 'श्रीमद्राजचन्द्र' (गुजराती) पत्र क्र० १०३, ३. 'श्रीमद्राजचन्द्र' (गुजराती) पत्र क्र० ४५४