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स्याद्वाद क्या है ?
जैन दर्शन के मूलभूत सिद्धांतों में स्याद्वाद का स्थान महत्व का है। यह स्याद्वाद क्या है ? इसमें दो शब्द हैं । स्यात् और वाद । स्यात् का अर्थ होता है, कथञ्चित, सापेक्ष और वाद का प्रथ होता है कथन करना। अपेक्षा पूर्वक किसी भी चीज का कथन करना। अर्थात भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से अवलोकन करना, वह है स्याद्-वाद । ___ हरेक वस्तु को देखने के लिए एक से अधिक दृष्टिकोण होते हैं। साथ ही उन दृष्टिकोणों से वस्तु सत्य हो, बैसा जो वाद है उसे कहते हैं स्याद्वाद।
हरेक वस्तु अनन्त-धर्मात्मक होती है, अतः किसी भी एक दृष्टिकोण से निश्चित किया हुआ विधान एकांत (Absolute) सत्य कैसे माना जा सकता है ? अतः प्रत्येक पदार्थ में अलग अलग अपेक्षा से, भिन्न भिन्न धर्मो का स्वीकार करना - एक ही वस्तु में देखे जाने वाले विरुद्ध धर्मो का सापेक्षरित्या स्वीकार करना, उसका नाम है, स्याद्वाद । उदाहरण स्वरूप एक व्यक्ति पिता की अपेक्षा से पुत्र है और पुत्र की अपेक्षा से पिता । चाचा की अपेक्षा से भतीजा और भतीजा की अपेक्षा से चाचा। यह सम्पूर्ण सत्य है । पिता-पुत्र, चाचा-भतीजा यह विरोधी धर्म होते हुयेभी भिन्नभिन्न अपेक्षा से सत्य हैं । यह विरोधी देखी जाने वाली बातों को भी अपेक्षा पूर्वक स्वीकार करना, यह बात हमको स्याद्वाद सिखलाता है।