Book Title: Syadvad
Author(s): Shankarlal Dahyabhai Kapadia, Chandanmal Lasod
Publisher: Shankarlal Dahyabhai Kapadia

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Page 56
________________ (- ३७ ). विशेष को जो लोग पदार्थों को भिन्न मानते हैं और निरपेक्ष. मानते हैं, वह उचित नहीं है । सामान्य, यह विशेष में ओत-प्रोत है। तथा विशेष, यह अभिन्न सामान्य की भूमिका के ऊपर ही रहा है। अतः वस्तु मात्र अविभाज्य, ऐसे सामान्य विशेष उभय रूप सिद्ध होता है। उदाहरण देखिये। यदि हम बिना विशेष का. केवल सामान्य माने तो विशेष छोड़ना ही पड़ेगा । परिणाम यह आयेगा, कि सुवर्ण के कुण्डल, चूड़ी, अंगूठी आदि श्राकारों को विचार तथा वाणी में से दूर कर केवल स्वर्ण ही है, इतना ही व्यवहार करना पड़ेगा। अर्थात् किसी भी चीज की प्राकृतियों का हमें विचार . छोड़ देना पड़ेगा। इसी प्रकार विना सामान्य केवल विशेष को मानेंगे, तो स्वर्ग के विचार को दूर कर केवल, कुण्डले, चुडियां, अंगूठी आदि का ही विचार हमें लाना पड़ेगा। किन्तु अनुभव से यह बात सिद्ध नहीं होती। क्योंकि कोई भी विचार या वाणी सामान्य या केवल विशेष का अवलम्बन लेकर उत्पन्न नहीं होता। इस पर यह सिद्ध होता है कि ये दोनों भिन्न हैं। फिर भी परस्पर अभिन्न भी हैं। सामान्य विशेष की तरह वाचक और वाच्य का सम्बन्ध भी भिन्नाभिन्न है । जैसे घटादि पदार्थ सामान्य विशेष रूप हैं, वैसे "वाचक और वाच्य' शब्द भी सामान्य विशेष रूप हैं। क्यों कि शब्द : (वाचक ) और अर्थ ( वाच्य) का कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्ध माना है । महान विद्वान श्रुत ज्ञानी श्रीमद् भद्रबाहु स्वामी जी ने भी कहा है कि “वाचक-त्राच्य से भिन्न भी हैं, और अभिन्न भी हैं ।” जैसे छुरी शब्द के कहने के समय बोलने वाले का . मुख और सुनने वाले के कान कटते नहीं हैं। अग्नि शब्द के

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