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होता है । जो सम्यक दृष्टि जीव है उसका हृदय इस तरह उदार बनता है कि वह सभो विश्व को समान समझता है । उसको न तो किसी पर राग है, न किसी पर द्वेष । उसके लिये मान और अपमान, निन्दा और स्तुति सभी समान हैं । पत्थर और स्वर्ण भी समान हैं । ऐसे सम्यक दृष्टि जीव ही इस संसार सागर से पार उतर जाते हैं । वे हमेशा धर्म में तल्लीन रहते हैं । इसलिये ही स्याद्वाद दृष्टि ग्रहण करने की प्रभु ने आज्ञा दी है ।
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इसका विशेष निश्चय करने के लिये अहिंसा और स्याद्वाद के सिद्धांत का कितने निकट का सम्बन्ध है इसे जरा देखिये ।
श्री चिमनलाल जयचन्द शाह एम० ए० ने 'उत्तर हिन्दुस्तान में जैन धर्म' नामक पुस्तक के पृष्ठ ५४ में जो उल्लेख किया है, उसको देखने का मैं अनुरोध करता हूँ ।
इस प्रकार यदि अहिंसा, यह जैन धर्म का मुख्य नैतिक गुणविशेष माना जाय तो 'स्याद्वाद' जैन अध्यात्मवाद का अद्वितीय लक्षण गिना जा सकता है । तथा शाश्वत जगत का कर्त्ता ऐसे सम्पूर्ण ईश्वर को स्पष्ट निषेध करके जैन धर्म कहता है कि हे मनुष्य ! तूं अपना हो मित्र है । इसी सदेश को ध्यान में रखकर ही जैन विधि विधानों की रचना हुई है ।
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नोट - " द्रव्यार्थिक- नय" की अपेक्षा से वह वस्तु नित्य, सामान्य, अवाच्य और सत् है । तथा ' पर्यायार्थिक नय' की अपेक्षा से 'अनित्य, विशेष वाच्य और असत्य है । इससे नित्यानित्य वाद, सामान्य विशेषवाद, अभिलाप्य अनभिलाप्य तथा सूत् असत् बाद इन चारों वादों का स्याद्वाद में समावेश हो जाता है ।
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" स्याद्वाद" यह कार्य साधक है ।
जैसा कि हम पहले दिखला चुके है, प्रत्येक वस्तु सत्-असत्