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स्याद्वाद या अपेक्षावाद से ही यथार्थता और पूर्णता की प्राप्ति सम्भव है
यदि सर विलियम हेमिल्टन के शब्दों में कहा जाय तो • पदार्थ मात्र परस्पर सापेक्ष हैं; बिना अपेक्षा के पदार्थ में पदार्थ ही सम्भव नहीं । अश्व कहने पर अनश्व की और
भाव कहने पर भाव की अपेक्षा होती है" उसकी यह मान्यता अनेकान्त सिद्धान्त से सर्वथा मिलती जुलती है। इससे स्याद्वाद सिद्धान्त के अमूल्य सूत्र "अर्पितानर्पित सिद्ध" की भी पुष्टि होती है । 'तत्वार्थ सूत्र' में इस सूत्र के दो अर्थ दिये गये है । पहले हम उसके प्रथम अर्थ पर विचार करते हैं:
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प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, क्योंकि अर्पित याने अर्पणा अर्थात अपेक्षा से और अर्पित याने अर्पणा अन्य अपेक्षा से वस्तु के विरुद्ध स्वरूप की सिद्धि होती है। इसलिये पदार्थ मात्र स्वरूप से 'सत्' और पर रूप से 'असत्' अर्थात 'सदसत' रूप है, यह प्रमाणित होता है । 'सत्' तथा 'असत्' की एकत्र स्थिति हुए बिना पदार्थ कभी भी अनन्त धर्मात्मक नहीं हो सकता । इसी से ही पदार्थ एक और अनेक रूप होता है । पदार्थ का पदार्थत्र और व्यक्ति विशिष्टत्व भी इसके बिना नहीं बन सकता । इसीलिये मानना पड़ता है कि वस्तु के यथार्थ एवं पूर्ण स्वरूप की प्राप्ति यदि किसी से होती है तो वह केवल अपेक्षावाद अर्थात् स्याद्वाद ही से होती है । सर विलियम हेमिल्टन का भी यही कहना है । केवल 'सत्' या केवल 'असत् '
निःसन्देह एकता में विविधता और विविधता में एकता का दशन करके ही जैनाचार्यों ने इस स्याद्वाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। इस सिद्धान्त ने विश्व की महान सेवा की है।