Book Title: Syadvad
Author(s): Shankarlal Dahyabhai Kapadia, Chandanmal Lasod
Publisher: Shankarlal Dahyabhai Kapadia

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Page 104
________________ [A ] नहीं होते; प्रयोजनानुसार कभी एक की तो कभी दूसरे धर्म की विवक्षा होती है । जब जिस धर्म की विवक्षा होती है, जब वह प्रधान और दूसरे अप्रधान माने जाते हैं। जो कर्म का कर्ता है, वही उसके फल का,भोक्ता हो सकता है। कर्म का और तजन्यफल का समानाधिकरण बताने के लिये प्रात्मा में द्रव्य दृष्टि से सिद्ध नित्यत्व की अपेक्षा की जाती है । इस समय इसका पर्याय दृष्टि से सिद्ध अनित्यत्व विवक्षित नहीं है; अतः वह गौण है। परन्तु कर्तव्य काल की अपेक्षा से भोक्तत्व काल में प्रात्मा की अवस्था परिवर्तित हो जाती है। कर्म और फल के समय का अवस्था भेद बताने के लिये जब पर्याय दृष्टि से सिद्ध अनित्यत्व का प्रतिपादन किया जाता है. तब द्रव्य दृष्टि से निस्तत्व की प्रधानता नहीं होती। इस प्रकार विवक्षा और अविवक्षा के कारण आत्मा कभी नित्य और कभी अनित्य कही जाती है। जब उभय धर्मों की विवक्षा सम काल में होती है, तब दोनों-धर्मो का युगपत प्रतिपादन कर सकने वाले किसी वाचक शब्द के अभाव में प्रात्मा को प्रवक्तव्य कहा जाता है। विवक्षा, अविवक्षा और सह विक्क्षा की बजह से अपर की तीन वाक्य रचनाओं के पारस्परिक विविध मिश्रण से अन्य चार रचनाएँ और भी बनती हैं। यथा-नित्यानित्य, नित्य प्रवक्तव्य, अनित्य प्रवक्तव्य और नित्यानित्य प्रवक्तव्यो इस प्रकार की सात रचनाओं को सप्तभंगी कहा जाता है। इनमें से पहिले तीन वाक्य और उस में भी दो वाक्य मूल हैं। इसी प्रकार भिन्न भिन्न दृष्टि से सिद्ध नित्यत्व और अनित्य का विवक्षा को लेकर किसी एक वस्तु में सप्तभङ्गी प्रयुक्त की जा सकती है। इसी सरह अन्य भी भिन्नभिन्न दृष्टि से सिद्ध किन्तु परस्पर विरुद्ध दिखाई देने वाले सत्व असत्व, एकत्या अनेकत्व वाच्यत्व-प्रवाच्यत्व : भादि धर्म युग्मों को लेकर सप्तभङ्गी योजित की जानी चाहिये। इससे एक वही

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