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मान कर पदार्थ की पूर्णता की आशा करना बालू से तेल निकाल के समान है | स्याद्वाद में 'स्यात्' शब्द का मूल्याङ्कन है । इसी तरह यह शब्द शब्द-शास्त्र में शब्द मात्र पर विजय पाने की भी कुंजी है । 'श्यात्' का अर्थ है - 'कथंचित्' । जो इसका 'कदाचित्""
करते है वे मूर्खता और स्याद्वाद सिद्धान्त से अपनी अज्ञा सूचित करते हैं। किसी भी शब्द के साथ 'स्यात्' लगाने से वह अनन्त धर्मात्मक हो जाता है । यह अनेकान्त मार्ग का द्योतक है । इस सिद्धान्त को अपनाने से वैज्ञानिकों का क्षेत्र विशिष्ट होता है । स्याद्वाद पदार्थ मात्र को असंख्य दृष्टि बिन्दुओं से देखना सिखाता है । इसी में ही उसकी गौरवता, विशालता और विशिष्टता है । कसौटी पर कसे जाने के बाद ही सौ रंच का सोना प्राप्त होता है और बिलोये जाने के बाद छाछ में से मक्खन निकलता है ।
इस प्रकार ढोल के दोनों बाजुओं की तरह किसी भी वस्तु को जब विविध दृष्टि बिन्दुओं से देखा जाता है तभी उसमें से सार भूत वस्तु प्राप्त हो सकती है । विभिन्न अन्वेषण और खोजें भी इसी सिद्धान्त के आधार पर होती हैं। इस तरह यदि देखा जाय ता विज्ञान भी 'स्याद्वाद' सिद्धान्त का ही आभारी है ।
जगत में जड़ और चेतन — ये दो प्रधान पदार्थ हैं। जड़ में जड़त्व और चेतन में चेतनत्व लाने वाला यदि कोई है तो वह केवल अपेक्षावाद या स्याद्वाद है । अपेक्षा के बिना पदार्थ में पदार्थत्व ही नहीं बन सकता, यह ऊपर बताया जा चुका है।
दुनियां में अनेक मनुष्य हैं, परन्तु उनमें जब मनुष्यत्व आता है, तभी उनकी कीमत होती है । अन्यथा 'मनुष्य रूपेा मृगाश्चरन्ति' के अनुसार वे पशु की कोटि में गिने जाते हैं । "आत्मत्वं" " आने पर ही आत्मा महान् बनता है। पुरुष भी मर्द