Book Title: Syadvad
Author(s): Shankarlal Dahyabhai Kapadia, Chandanmal Lasod
Publisher: Shankarlal Dahyabhai Kapadia

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Page 81
________________ होती; क्योंकि किसी न किसी काल में तो वह पुत्रवती होती। ही है। अश्व कहने पर अनश्व की अपेक्षा होती है, यह बात ऊपर सर विलियम हेमिल्टन के शब्दों में कही जा चुकी है। पदार्थ उत्पन्न होता है, व्यय होता है और ध्र व रूप में पदार्थत्व हमेशा कायम रहता है, इस प्रकार की त्रिपदी के सिद्धान्त को यह सूत्र सिद्ध करता है । सुवर्ण का लोटा तुड़वा कर जब हार बनवाया जाता है, तब लोटा प्रधान और हार अप्रधान होती है। हार के तैयार हो जाने पर हार प्रधान और लोटा अप्रधान माना जाता है; परन्तु सोना-द्रव्य ध्रुव रूप में सदा बर्तमान रहता है। गाय खल खाती है, उससे दूध होता है-इसमें खर प्रधान है और दूध गौण । दूध से दही बनता है-यहां दूध प्रधान और दही गौण । दही से मक्खन निकलता है, इसमें दही प्रधान तथा मक्खन अप्रधान । मक्खन से घी बनता है-इसमें मक्खन प्रधान और घी गौण रूप में है । इस प्रकार वस्तु मात्र अनेक रूप से व्यवहार्य है। अस्तिता नास्तिता भी अमें अनन्त बार होती रहती है और पदार्थत्व हमेशा कायम रहता है, यह बात ऊपर के दृष्टान्त से स्पष्ट हो जाती है। बिना 'असत्' के न 'सत' सम्भव है और न बिना 'सत' के असत् ही। इसी लिये पदार्थ मात्र 'सदसत' रूप है, यह सिद्ध होता है। अनेकान्त मार्ग की अपेक्षा एकान्त मार्ग बहुत ही अनर्थकारी है, यह नीचे के दृष्टान्त से समझा जा सकेगा। किसी समय तीन शास्त्री देशाटन के लिये निकले । रास्ते में किसी वृक्ष के नीचे अलग अलग स्थान पर विश्राम करने लगे। वृक्ष पर एक बन्दर बैठा था, परन्तु भिन्न भिन्न जगहों पर स्थित होने के कारण कोई उसको समूचे रूप में न देख सका। पहला उसका केवल मुह ही देख सका, दूसरे को उसका केवल पेट ही दिखाई दिया और तीसरा केवल उसकी पूछ ही देख पाया।

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