Book Title: Syadvad
Author(s): Shankarlal Dahyabhai Kapadia, Chandanmal Lasod
Publisher: Shankarlal Dahyabhai Kapadia

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Page 96
________________ [ ७७ ] पर्याय के धर्मों का दूसरे में कोई अस्तित्व नहीं हैं। इसी प्रकार अन्य पर्याय के धर्म प्रथम पर्याय में नहीं हैं । इसलिये सर्व द्रव्य अपने धर्म की अपेक्षा से अस्ति रूप हैं । इति स्वभाब स्वरूप रूप प्रथम भङ्ग द्वितीय भंग ‘स्यान्नास्त्येव घटः' (स्यात्+न+अस्ति - एव + घट: ) अर्थात् किसी अपेक्षा से घट नहीं हैं । एक द्रव्यादिक के जो द्रव्य, क्षेत्र काल भाव हैं, वे सदा उसी में अवष्टम्भ रूप से रहते हैं । विवक्षित द्रव्यादिक से भिन्न द्रव्यादि के धर्मो का व्यावृत्ति पर-धर्म है, वह विवक्षित घट में नहीं अर्थात् इसमें उनकी नास्तिव है; इसलिये वह नास्ति स्वभाव वाला हुआ । लेकिन यह नास्तिव अजीव द्रव्य में अस्ति रूप से वर्तमान हैं। घट में घट के धर्मो का सद्भाव और पटादि धर्मों का अभाव है इसीलिये घट में घटत्व का अस्तित्व और पत्त्र का नास्तित्व है तथा जीब में ज्ञानादि गुणों का अस्तित्व और पुद्गलादि का नास्तित्व है । 'भगवती सूत्र' में भी कहा है- "हे गौतम! अध्यन्तं अत्ति परिणमइ, न वित्तं न थित्ते परणमइ" इसी तरह 'ठाणांग सूत्र' में भी – ११ सिय अथि २ सिय नथि ३ सिय - अयि नथि ४ सिय अवक्तव्यं" इस प्रकार की चतुर्भगी का उल्लेख है । श्री विशेषावश्यक सूत्र में कहा हैं कि- जो बस्तु के अस्तित्व नास्तित्व धर्म को जानता है, वह सम्यक ज्ञानी है और जो इनके स्वरूप को नहीं जनता वह मिध्यात्वी हैं। इसी तरह जो पथार्थ रूप में जानता हैं वह भी उसी कोटि में है । कहा भी हैं : --

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