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सप्त भंगी स्वरूप (योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागर सूररिकृत 'आत्मप्रकाश
से उद्धृत )
प्रथम भंग 'स्यादस्त्येव घट.' (स्यात्+अस्ति+एवं+घट:) अमुक दृष्टि से घट है। __ जिसमें स्वतः के द्रव्यादिक चार धर्मों की व्यापकता है, उसको अस्ति स्वभाव कहते हैं। उनमें से द्रव्य-गुण पर्याय समूह का आधार है । क्षेत्र-प्रदेश रूप है । अर्थात् सर्वगुण पर्यायावस्था का अवस्थिति रूप-जो जिसको रखता है, वह उसका क्षेत्र है। उत्पाद व्यय ध्रुव रूप से वर्तना का नाम काल है। भाव- यह सर्व गुण पर्याय का कार्य धर्म है । तत्र-जीव द्रव्य का स्व, द्रव्य प्रदेश गुण का समुदाय द्रव्य है। जीव के असंख्यात प्रदेश ही क्षेत्र हैं तथा जीव के पर्यायों में कार्य कारणादि का जो उत्पाद व्यय है, वही स्वकाल है । आत्मा के गुण पर्याय का कार्य धर्म ही उसका स्वभाव है। इस प्रकार स्वद्रव्यादिक चतुष्टय रूप से जो परिणत होता है, उसको ही द्रव्य का अस्तिव समझना। द्रव्य का अस्ति स्वभाव अन्य धर्म के रूप में परिणत नहीं होता। सर्व द्रव्य स्व द्रव्यादिक चतुष्टय की अपेक्षा से अस्ति स्वभाव वाला है; अतः अजीव रूप में परिणत नहीं होता। कोई जीव अन्य जीव के रूप में परिणत नहीं होता इसी तरह धर्म द्रव्य अधर्म के रूप में, अधर्म धर्म के रूप में तथा जीव का एक गुण अन्य गुण के रूप में परिणत नहीं होता। ज्ञान गुण में ज्ञान का अस्तिव और दर्शनादिक अन्य गुणों का नास्तिव हैं। चक्षुदर्शन में अचक्षुदर्शन का नास्तिव और चक्षुदर्शन की अस्तिव है। एक गुण के अनन्त पर्याय हैं तथा सब पर्याय धर्म समान हैं; किन्तु एक