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तभी कहलाता है जब उसमें पुरुषत्व आता है इसी तरह पदार्थ मात्र में पदार्थत्व लाने का श्रेय एकमात्र अपेक्षावाद या स्याद्वाद को ही है ।
इतना ही नहीं स्याद्वाद तुलनात्मक वचन विन्यास का भी 'प्रेरक है । उदाहरण के लिये - यह बड़ा है, यह छोटा है या यह धनी है, यह निर्धन है । इत्यादि जो तुलनात्मक प्रयोग होते हैं, वे सब इसी सिद्धान्त को लक्ष्य कर होते हैं ।
अब हम ' अर्पितानर्पित सिद्ध:' इस सूत्र के दूसरे अर्थ पर विचार करें.
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प्रत्येक वस्तु अनेक प्रकार से व्यवहार्य है; 'और अर्पणा अर्थात् विवक्षा के कारण प्रधान व्यवहार होता है ।
क्योंकि अर्पणा प्रधान रूप से
पदार्थ मात्र 'सदसत्' है, यह ऊपर कहा जा चुका है । इस -सूत्र में यह बताया गया है कि जब 'सत्' की प्रधानता होती है -तब 'असत्' गौण हो जाता है और जब 'असत्' की प्रधानता 'होती है तब 'सत' को गौणता । इस प्रकार पदार्थ में अनन्त अस्तित्व और नास्तित्व होता है। उदाहरणतः - किये कर्म - मनुष्य को भोगना ही पड़ते हैं - इसमें कतृत्वकाल प्रधान है और भोक्तृत्व काल गौण । कालान्तर में भोक्तृत्व काल प्रधान हो जाता है और कर्तृत्व काल अप्रधान परन्तु आत्मा दोनों कालों में एक सा ही रहता है । वन्ध्या स्त्री सर्वकाल वन्ध्या नहीं
जैन शास्त्रकारों ने मध्यस्थ भाव के ऊपर बहुत जोर दिया है, वे शास्त्रों का गूढ़ रहस्य तथा धर्मबाद भी उसे ही मानते हैं । इतना ही नहीं वे तो यहां तक कहते हैं कि उसके द्वारा प्राप्त - शास्त्र के एक पदमात्र का ज्ञान भी सफल है और उसके बिना अनेक शास्त्रों का ज्ञान भी निरर्थक है ।