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कान्तवाद की उत्पत्ति नहीं । वस्तुतः यह जैन दर्शन का अपना एक स्वतन्त्र और विशिष्ट सिद्धान्त है । इतना ही नहीं जगत् की तत्व विचारधारा में अनेकान्तवाद एक मौलिक और अमूल्य हिस्सा है।
अनेकान्तवाद पृ० १३८
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'सत् ' वस्तु कदापि निरपेक्ष, स्त्रय केन्द्रित या अमूर्त नहीं हो सकती | वस्तुतः अन्य सत् पदार्थों के साथ अनेकविध सम्बन्ध से जुड़ी हुई होने से वह अनन्तधर्मात्मक है । 'सत् ' ही एक तथा अनेक बनता है । साथ ही वह भी है और अनित्य भी सामान्य रूप भी है और विशेष रूप भी. कूटस्थ भी है और परिणामी भी. वह द्रव्य रूप भी है और पर्याय रूप भी । इस प्रकार ऊपर से देखने पर वह परस्पर विरोधी धर्मों का धाम दिखाई देता है । कारण यह कि इन सभी धर्मों का 'सत् ' में समन्वय हो जाता है । यही स्याद्वाद का सार है । और यही स्याद्वाद जैन दर्शन का आत्मा है ।
अनेकान्तवाद १३६