Book Title: Syadvad
Author(s): Shankarlal Dahyabhai Kapadia, Chandanmal Lasod
Publisher: Shankarlal Dahyabhai Kapadia

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Page 68
________________ [ ४६ । (युनिटी) “ऐक्य" का पाठ भी त्याद्वाद के सिद्धान्त से सीख सकते हैं। ज्ञाति संबंधी ज्ञाति का प्रश्न भी हम सप्त भंगी से हल कर सकते हैं। किसी भी द्रव्य का किसी भी वस्तु का, उसके एक धर्म को लेकर भाव, किंवा अभाव रूप में वास्तविक कथन करना, वह भंग कहलाता है। उसके मुख्य “सत् और असत्" दो भंगों के विषय में ही हमें विचार करने का है। जब उसका एक भाग सद्भाव पर्याय में नियत होता है, अर्थात् उसके अस्थि धर्म की विचारणा होती है तब, समस्त ज्ञाति जनों को ज्ञाति के उत्कर्ष का सवाल हाथ में लेकर एकत्र होना चाहिये, क्यों कि "सत्" हमेशः भिन्न नित्य, अविभक्त और व्यापक होता है। और जब उसका एक भाग 'असत्" के पर्याय में नियत होता है, अर्थात जागृत धर्म की विचारण होती है, तब उसमें ज्ञाति जनों को व्यक्तिगत सवाल हाथ धर कर भिन्न होना चाहिये। क्यों कि असत् हमेशा अनित्य, भिन्न, द्वषव्यापी और विभक्त है। इस प्रकार सप्त भंगी भी ज्ञाति के व्यक्तिगत सवाल के उत्कर्ष के समय में, साथ मिलने का और अपकर्ष के समय में भिन्न होने को सिखाती है। __ "स्याद्वाद" से क्रमशः समन्वय अविरोध साधन, तथा फल भी सूचित होता है। क्योंकि जहां समन्वय दृष्टि है वहां विरोध शान्त हो जाता है । तथा जहां विरोध शान्त होता है वहां साधन मिलते ही फल की प्राप्ति होती है। इस प्रकार अनेकान्त-दृष्टि ग्रहण करते हुये बहुत फायदे होते हैं । अनेकान्त वाद के प्रभाव से ही विश्व में मताभिमान

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