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मिश्रण नहीं है । और न वह अद्ध सत्य को सूचित करता है । प्रो० आनन्द शङ्कर बापू भाई ध्रुव ने भी कहा है कि वह "वाद का अञ्जन" है । दूसरे दृष्टान्त से कह सकते हैं कि वह ताला नहीं किन्तु कुञ्जी है। मुकदमा नहीं किन्तु न्याय तौलने का कांटा है । “स्याद्वाद" के सत्-असत् रूप को जो सत्य और असत्य मानते हैं, उसमें “स्याद्वाद" का जो " स्यात्” अर्थात् अपेक्षित सत्य, भी उसको कैसे लगे 1
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'दही और दूध' का आक्षेप करने वाले के लिये भी इस पुस्तक में लोहिया कालेज के प्रो० श्री धीरू भाई ने “ स्याद्वाद मत समिक्षा" का अभिप्राय देते हुये कहा है कि “स्याद्वाद को दही-दूध कहने वाले भ्रान्ति में हैं । "
वे लोग वेदान्त जगत को अनिर्वचनीय कहते हैं । बुद्धि को निःस्वभाव कहते हैं। ऐसा जो कथन करते हैं वे, उन दर्शनकारों की मान्यता के अनुसार योग्य हैं । परन्तु साथ ही साथ " जैन दर्शन भी जगत् को वक्तव्य ही कहता है ।" ऐसा जो कहते हैं, वह योग्य नहीं । जैन दर्शन तो जगत के पदार्थों को "सत् और असत् उभय मानता है । इससे जगत् को वचनीय तथा अनिव चनीय उभय कहता है ।
जो वक्तव्य कहते हैं, वे तो वचन बोलने के सात प्रकार जिसे सप्त-भंगी कहते हैं, उसीका तीसरा प्रकार है । उस सप्तभंगी का स्वरूप इसी पुस्तक में आगे दिया जा रहा है । उसका तात्पर्य यह है कि पदार्थों में अनन्त धर्म हैं । उनमें से एक साथ क्रमशः बोला जाय तो नित्य-अनित्य यह दो ही धर्म बोले जा सकते हैं । किन्तु 'युग-पत्' अर्थात एक साथ वे दो धर्म भी बिना क्रम से बोलने से बोले नहीं जा सकते । इसलिये तीसरा भंगा