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[४० ] स्याद्वात संशयवाद नहीं है।
“स्याद्वाद यह संशयवाद है परन्तु निःश्चयगाद नहीं है," ऐसा कहने वाले स्याद्वाद के सिद्धान्त को नहीं समझे। मैं कई बार बतला चुका हूँ कि स्याद्वाद प्रत्येक पदार्थ को भिन्न भिन्न अपेक्षा से और विभिन्न दृष्टि से देखने को कहता है । , कोई भी वस्तु यदि निश्चित रूप में समझ में न आये, तो वह संशय है । जैसे कोई मनुष्य अन्धकार में रस्सी को देखकर सांप की कल्पना करे या अन्धकार में किसी ठूठे वृक्ष को देखकर मनुष्य की कल्पना करे तो वह संशय कहा जा सकता है। किन्तु स्याद्वाद तो एक और एक दो, दीपक की ज्योति की तरह स्पष्ट है । क्योंकि कोई भी वस्तु अपेक्षा "अस्ति" है, यह निश्चित है और किसी अपेक्षा से "नास्ति' है, यह भी निश्चित है तथा एक समय एक रूप में नित्य' यह भी निश्चित है। इस प्रकार एक पदार्थ में भिन्न भिन्न धर्मों का सम्बन्ध बैठाना हो, स्याद्वाद है। किन्तु वह संशयवाद नहीं है । पिता की अपेक्षा से एक आदमी पुत्र है, यह कोई इन्कार नहीं कर सकता । वैसे ही पुत्र की अपेक्षा से पिता है इसे भी कोई इन्कार नहीं कर सकता । व्यक्ति एक होते हुए अपेक्षा से पिता भी है और पुत्र भी है। यहां पिता होगा या पुत्र ऐसा संशय कोई नहीं करेगा। स्याद्वाद में सर्वदृष्टि का समाधान है
हे आत्मन् ! स्याद्बाद सिद्धांत जो कि धर्म की बुनियाद पर खड़ा है, उसकी आध्यात्म भावना क्या लिखू?
किसी भी दृष्टि को जब 'स्यात् ' शब्द लगाया जाता है, तब वह सम्यक दृष्टि बनती हैं। और उसका मिथ्यात्व अज्ञान दूर