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खुली मानस चक्षु है । यह ज्ञान, विचार या - आचरण के किसी भी विषय में सकीर्ण दृष्टि का निषेध करती है। जहां तक शक्य होता है. अधिक से अधिक बाजुओं से, दृष्टिकोणों से और अधिक से अधिक मार्मिक रीति से सभी विचार और आचरण करने में पक्षपात करती है । तथा उसका सभी पक्षपात सत्यआश्रित होता है । अनेकान्त और अहिंसा ये दोनों तत्व महान् से महान् हैं । जैन धर्म के वे आधार स्तम्भ हैं वे दोनों प्रतिमा सम्पन्न और प्रभाव वाले सिद्ध हैं । अहिंसा का नाद तो महात्मा गाँधी ने समस्त विश्व में गुञ्जाया । अब उसके प्रतीक स्वरूप स्याद्वाद सिद्धान्त को अपनाने की अत्यन्त आवश्यकता है । देश की संगठन शक्ति को बढ़ाने के लिये तथा सच्चा ज्ञान प्राप्ति के लिये अत्युत्तम मार्ग है । प्रत्येक क्षेत्र में अहिंसा तथा अनेकान्त दृष्टि को प्रेम-पूर्वक लागू करने से समस्त विश्व के साथ उसका सम्बन्ध साधा जा सकता है ।
"स्याद्वाद" का उत्कृष्ट उद्देश्य दर्शनशास्त्रों के झगड़ों को मिटाकर और समन्वय की साधना कर जनता को सत्य ज्ञान की प्राप्ति कराकर मुक्ति-गामी बनाने का है। फिर भी व्यावहारिक दृष्टि से व्यावहारिक कार्यों में भी उसकी उपयोगिता कोई कम नहीं है । व्यवहार में स्याद्वाद हमें किस प्रकार सहायता करता है, इसका संक्षिप्त ख्याल निम्नलिखित वृत्तान्त से आ सकता है ।
कर्मोपासना
कर्मोपासना के लिए ज्ञानियों ने निश्चय और व्यवहार दो मार्ग दिखलाए हैं। उनमें जो निश्चित मार्ग है, वह मार्ग आत्म लक्षी हैं। दिशा सूचन करने वाला मार्ग है । उसको लक्ष में लेकर व्यवहार की समस्त प्रवृत्तियां करनी चाहिये । यही इस लोक