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। १६ ] का यह है कि वस्तु मात्र अपने रूप से ही "सत्” है। तथा उममें उसके अतिरिक्त दुनियां के सभी चीजों का "नास्ति-पना" अर्थात् "असत-पना" है। उदाहरण के तौर पर देवदत्त बड़ा है। अब यदि "अस्ति" नास्ति से यानी “सत्” और “असत्" से उसको देखा न जाय तो उसके जैसे दूसरे बहुत से मनुष्य जो बड़े हैं, उनका उसमें समावेश होता है। और इससे देवदत्त का व्यक्तिविशिष्टपन सिद्ध नहीं होता है। परन्तु जब वस्तु को अपने स्वरूप में ' सत्" और पर रूप में "असत्" माना जाय तभी उसका व्यक्तिविशिष्टपन सिद्ध होता है । पहले प्रात्मा के उदाहरण से भी यह बात समझाई गई है। ..
अब, जब मनुष्य को ऐसा ज्ञात हो कि मैं व्यक्ति विशिष्ट हूँ तो उसको मालूम होता है कि मैं भी कुछ हूँ। मैं बुजदिल, नामर्द या निकम्मा नहीं हूँ। बल्कि मैं भी बड़ा होनेके लिए सृजित हुआ हूँ।" इस भावना से उसके दिल में आगे बढ़ने की इच्छा, हिम्मत और साहस होता है। मानवता भी जागृत होती है तथा वह सदा उद्यमी और जागृत रहता है। अन्य वस्तुओं में भी वैसा ही है। घड़ी के एक छोटे और एक बड़े दोनों चक्रों को लीजिए। छोटी घड़ी के लिये, छोटा चक्र उपयोगी होता है तथा बड़ी घड़ी के लिए बड़ा चक्र । छोटी घड़ी के लिए बड़ा चक्र निकम्मा होता है तथा बड़ी घड़ी के लिए छोटा चक्र । अर्थात् सब अपने अपने स्थान में विशिष्ट हैं । राजा ग्राम का मालिक है और भिखारी अपनी झोपड़ी का। इसी प्रकार मनष्य अपनी किसी भी महत्वाकांक्षा को समझता है, तभी वह पराक्रमो, उद्यमशील और प्रगतिशील होता है। और उससे उसके आदर्श भी दिन प्रतिदिन उर्ध्व दिशा में गमम करते हैं।