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तीसरा प्रकरण "स्याद्वाद” व्यक्ति विशिष्टता प्रकट
करता है। अर्पितानर्पित सिद्धः॥
(तत्वार्थाधिगमसूत्र ) । __प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक है। क्योंकि अर्पित अर्थात् अपेक्षा से तथा अनर्पित अर्थात् दूसरी अपेक्षा से विरुद्ध-स्वरूप सिद्ध होता है।
आत्मा "सत्” है। ऐसी प्रतीति में जो सत् का भान होता है, वह सभी तरह से घटित नहीं होता है। और यदि ऐसा हो तो आत्मा स्वरूप की तरह घटादि रूप से भी सत् सिद्ध हो जाय । अर्थात् उसमें चेतना की तरह घटत्व भी भासमान हो जाय । इससे उसका जो विशिष्ट स्वरूप है, वह सिद्ध नहीं हो सकता। विशिष्ट स्वरूप का अर्थ ही यह है कि वह स्वरूप से "सत्" और पर रूप से "असत" । प्रत्येक पदार्थ को "अस्ति" और "नास्ति' से अवलोकन किया जाय तो हरेक पदार्थ का व्यक्तिविशिष्टपन मालूम हो सकता है। इसके सिवाय कभी भी व्यक्तिविशिष्ट-पन ज्ञात नहीं हो सकता। "अस्ति" का अर्थ यह है कि वस्तु मात्र अपने स्वरूप से सत् है और नास्ति" का अर्थ है कि वस्तु मात्र पर स्वरूप से "असत्" है। इससे समझने