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उसका अमुक हिस्सा कुटस्थनित्य और अमुक भाग परिणामिक अथवा उसका कोई हिस्सा केवल नित्य और कोई हिस्सा केवल अनित्य मानते हैं । परन्तु उनकी ये मान्यतायें योग्य नहीं है ।
" जैन- दर्शन मानता है कि चेतन अथवा जड़, मूर्त अथवा मूत, सूक्ष्म या स्थूल सभी सत् कही जाने वाली वस्तुयें उत्पाद, व्यय और द्रव्य रूप से निरूप हैं । प्रत्येक वस्तु में दो अंश हैं। एक अंश ऐसा है जो तीन काल में शाश्वत है और दूसरा अंश सदा अशाश्वत है । शाश्वत अंश के कारण से प्रत्येक वस्तु ध्रुवात्मक (स्थिर) और अशाश्वत अंश के कारण से उत्पाद व्यय आत्मक (अस्थिर) कही जाती है। इन दो अंश में से किसी एक एक तरफ दृष्टि जाने से और दूसरी तरफ नहीं जाने से वस्तु केवल स्थिर रूप अथवा केवल अस्थिर रूप मालूम होती है । किन्तु दोनों अंशों की तरफ दृष्टि डालने से वस्तु का पूर्ण और यथार्थ स्वरूप मालूम होता है ।"
इस प्रकार यदि सत् का वास्तविक स्वरूप समझा जाय तो फिर किसी प्रकार की चर्चा, टीका या उपेक्षा को स्थान ही नहीं रहता । इतना ही नहीं, किन्तु उससे सबके साथ समन्वय भी हो जाता है और छोटी-छोटी एक-एक कड़ियों के मिलने से एक जंजीर के समान हो जाता है । किसी समय सब दर्शन वाले प्रेम ग्रन्थी में हमेशा के लिए बँध जायेंगे यह निश्चित है । स्याद्वाद सिद्धान्त इस प्रकार एक सज्जन - मित्र की हैसियत को पूर्ण करता है ।
और यह जो जगत देखा जाता है, वह किसी ने बनाया नहीं है । वैसे यह शून्य से भी उत्पन्न नहीं हुआ । वह अनादि काल से चला आया है, चलता है, तथा चलता रहेगा । वह अनादि, अनन्त है । उसके अन्दर रहे हुये सभी पदार्थ, जड़ और चेतन,