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का बना हुआ नहीं। काल से वह वसन्त ऋतु का बना हुआ है । 'शरद ऋतु का नहीं। भाव से वह लाल रङ्ग का है, हरे रङ्ग का नहीं । एक पदार्थ में सत् और असत् है और नहीं है, दोनों धर्मों का सिद्ध होता है। इसी प्रकार वस्तु मात्र स्व रूप से सत्य है और पर रूप से असत्य है । अर्थात् स्व-द्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्व-भाव से सत् है और पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव से असत् है। इसमें ठण्डा और उष्णता की कोई बात नहीं । यह एक दूसरे के गुणधर्म की बात नहीं है। किन्तु यह तो वस्तु का सत अर्थात् अस्तित्व और असत् अर्थात् 'नास्तित्व की बात है। - वस्तु जो सत् और असत् रूप है उसमें सत् का स्वरूप जानने की अति आवश्यकता है। उसके विषय में भिन्न-भिन्न मतों की मान्यतायें भी भिन्न-भिन्न हैं। इस सम्बन्ध में पं० सुखलाल जी ने तत्वार्थ सूत्र के पृष्ठ २२५ में जो उल्लेख किया है उसका अवतरण यहां देते हैं। _ 'कोई दर्शन सम्पूर्ण पदार्थ को (ब्रह्म) को केवल ध्रुव ही (नित्य) मानता है। कोई दर्शन सत् पदार्थ को निरन्वय, क्षणिक (मात्र उत्पाद-विनाश-शील) मानता है । कोई दर्शन चेतन तत्वरूप सत् को केवल ध्र व (कुटस्थ-नित्य) और प्रकृति तत्वरूप सत् को परिणामी (नित्या-नित्य) मानता है । कोई दर्शन अनेक सत् पदार्थों में से परमाणु-काल, आत्मा आदि कुछ सत् तत्वों को कुटस्थ-नित्य और घट, वस्त्र आदि कुछ पदार्थों को मात्र उत्पाद
और व्यय शील (अनित्य ) मानता है । परन्तु जैन दर्शन का मन्तव्य सत् के विषय में उपयुक्त सत् मतों से भिन्न है।" ।
दूसरे दर्शन मानते हैं कि जो सत् वस्तु है, वह केवल पूर्ण रूप में कुटस्थ नित्य अथवा केवल निरन्वय, विनाशी अथवा