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अर्थात् तीर्थकरों के वचनों का सामान्य और विशेष रूप राशियों का मूल प्रतिपादक, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय है। बाकी के सब नय इन दोनों के ही भेद हैं
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द्रव्यार्थिक नय तीनों काल में स्थायी ऐसे एक ध्रुव तथ्य को देखता है। उसकी दृष्टि में त्रैकालिक भेद जैसी कोई वस्तु नहीं है। पर्यायार्थिक्र नय, इन्द्रियगोचर प्रत्यक्षरूप को ही स्वीकार करता है । इसलिये उसकी दृष्टि से सीमों काल में स्थायी ऐसा कोई भी तत्व नहीं है। यह नय सिर्फ वर्तमान काल में देखा जाने वाला स्वरूप को ही मानता है । अतः उसकी दृष्टि में "अतीत और अनागत" संबन्ध से रहित सिर्फ वर्तमान वस्तु ही सत्य है। उसके मत से प्रत्येक क्षण में वस्तु भिन्न भिन्न है ।
"द्रव्यार्थिक" और "पर्यायार्थिक "दोनों नयों की सापेक्ष दृष्टि वस्तु का संपूर्ण स्वरूप समझाती है। अतः पूर्ण और यथार्थ है । तथा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों निरपेक्ष नय की उद्घोषणा अपूर्ण तथा मिथ्या है। इन दोनों नयों की सापेक्ष दृष्टि में से जो विचार फलित होते हैं वे यथार्थ हैं। जैसे कि आत्मा के नित्यत्व के विषय में वह अपेक्षा विशेष में नित्य भी हैं और अनित्य भी । मत के विषय में वह कथंचित् त और कथंचित् अमूर्त भी है। शुद्धत्व के विषय में वह कथंचित् शुद्ध और कथंचित् अशुद्ध भी है। परिमाण के विषय में कथंचित् व्यापक और कथंचित् प्रव्यापक भी है। संख्या के विषय में वह एक तथा कथंचित् अनेक भी हैं।
द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि अभेदगानी है । तथा पर्यायार्थिक नय की दृष्टि भेदगामी है। नित्य, सत् और सामान्य का समावेश
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