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[ २९ ]
ध्यान में लेकर यदि अनित्य कहा जाय, तो वह भी ठीक नहीं है। क्यों कि उसकी सभी अवस्थाओं में आत्मा तो रहा हुआ है, जो नित्य है । इसी प्रकार वस्तु को एकान्त नित्य किंवा एकान्त अनित्य न कहते हुए, उसको नित्यानित्य कहना यही उचित है 1 कोई भी वस्तु सर्वथा ऐसी ही है, इसप्रकार स्याद्वादी नहीं कहता । एकान्ती हमेशा संकुचित विचार वाला होता है और अनेकान्ती सदा विशाल पन का होता है । एकान्ती सदा ही अपूर्ण है, जबकि अनेकान्ती सम्पूर्ण है । अतः अनेकान्त दृष्टि-युक्त बनना ही हितकारक है । किसा भी दृष्टि में " स्यात् " लगाने से अनेकान्त दृष्टि बनजाती है । और जब दृष्टि अनेकान्त बनती है, तब वह विशाल और गम्भोर सागर जैसी बन जाती है। समुद्र के नीचे जैसे रत्न हैं और सरोवर पर जैसे पशु-पक्षी आकर के किल-किलाहट करते हैं और जल का पान करते हैं, वैसे स्याद्वाद दृष्टि भी गुण रत्नों को धारण करती है और गुणी जन उसके आश्रय में आकर के उसके गुणामृत का पान करता है । यही प्रभाव " स्याद्वाद" दृष्टि का है । अतः गुणका मनुष्य को हमेशा स्याद्वाद दृष्टि ग्रहण करनी चाहिये । यही कहने का आशय है ।
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" स्याद्वाद" में सर्व दृष्टियों का समास स्थान है उस पर अध्यात्म भावना
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हे आत्मन् ! संसार सर्वथा असार है, ऐसा नहीं मानते हुए हुए धर्मार्थ- काम और मोक्ष इन पुरुषार्थों से संसार को सारभूत बनाले | क्योंकि वस्तुमात्र अनन्त गुणात्मक है । और हे आत्मन् ! तू, पर दुख:भंजन बन, जिससे तेरे आश्रय में बहुत से दुःखी ata आकर शान्ति प्राप्त करें। तू ज्ञान, दर्शन, चरित्र इस तीन
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