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। २६ । निश्चित तथा विशेष सीमा तक 'सत्' कही जातीहै। परन्तु वह सर्वथा 'सत्य' नहीं कही जाती। ___ कोई भी वस्तु के विषय में एकान्त बोलने से उसके गुण देखने की तरफ दृष्टि नहीं रहती है। इससे उसके अनन्त धर्म देखने का ज्ञान-द्वार बन्द हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी वस्तु ऐसी ही है, ऐसा कहना योग्य नहीं है। ऐसा भी है, यह कहना उचित है। "ही" अन्य धर्मों का निषेध करता है । “भी” दूसरे धर्मों को भी अवकाश देता है । सुवर्ण गिलास के उदाहरण से यह ज्ञात हुआ कि वह, कितने दृष्टियों से अवलोका जा सकता है। कोई कहेगा कि अग्नि दाहक है, “स्याद्वादी” कहेगा अदाहक भी है । लकड़ी आदि को जलाती है किन्तु आकाश, आत्मा आदि अमूर्त पदार्थों को नहीं जलाता है, अत: वह अदाहक भी है। कोई कहेगा कि 'जीव' और 'घट' दोनों भावात्मक है, परन्तु स्याद्वादी कहेगा, अभावात्मक भी हैं। जैसे, जीव चैतन्य रूप है और रूप आदि गुण स्वरूप में नहीं हैं। वैसे 'घट' रूप आदि पौद्गनिक (भौतिक) धर्म स्वरूप हैं किन्तु चैतन्य रूप में नहीं हैं। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्म वाली है। अत: वह सर्वथा ऐसी ही है, ऐसा कहना उचित नहीं है। जहां वस्तु के अनन्त धर्मों में से दो धर्म भी युगपत् ( एक साथ ) बोल नहीं सकते हैं वहां एकान्त बचन ' ऐसा ही है" ऐसा कहना मिथ्या है । इसीलिये तो वस्तु के प्रत्येक धर्म का विधान तथा निषेध से सम्बन्धित सात प्रकार-शब्द प्रयोगों की अर्थात् सप्तभङ्गी की रचना शासनकारों ने की है। जिसका संक्षिप्त स्वरूप "सप्त भङ्गी' के प्रकरण में दिया गया है।
एकान्त बचन को सर्वथा सत्य नहीं माना जा सकता है। जैसे जीव को एकान्त नित्य माना जाय तो बाल, युवा और